Skip to main content

स्मृतियों के झरोखे से : पहली महिला संगीतकार


भूली-बिसरी यादें

भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हूँ और आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज मास का पहला गुरुवार है और इस दिन हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। तो आइए पलटते हैं, भारतीय फिल्म-इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठों को।


यादें मूक फिल्मों की : बम्बई, नासिक और मद्रास फिल्म निर्माण के शुरुआती केन्द्र बने 


 र्ष 1913 में दादा फालके द्वारा निर्मित और प्रदर्शित मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का नाम भारत के पहले कथा फिल्म के रूप में इतिहास में दर्ज़ हो ही चुका था, इसी वर्ष दादा फालके की दूसरी फिल्म ‘भष्मासुर मोहिनी’ का प्रदर्शन हुआ। अगले वर्ष, अर्थात 1914 में भी दादा फलके का ही वर्चस्व कायम रहा, जब उनकी तीसरी फिल्म ‘सावित्री सत्यवान’ का प्रदर्शन हुआ। इन दो वर्षों में कुल तीन फिल्मों का प्रदर्शन हुआ और ये तीनों फिल्म फालके ऐंड कम्पनी द्वारा निर्मित थी। पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ के निर्माण के समय कम्पनी का स्टूडिओ और कार्यालय मुम्बई में स्थापित था, किन्तु बाद की फिल्मों के निर्माण के समय दादा फालके ने अपना स्टुडियो और कार्यालय नासिक स्थानान्तरित कर दिया था। कम्पनी की स्थापना स्वयं फालके ने की थी, किन्तु नासिक स्थानान्तरित कर देने के बाद कम्पनी से कुछ साझीदार भी जुड़े। इनमें प्रमुख थे, वामन श्रीधर आप्टे, एल.बी. पाठक, गोकुलदास दामोदर, मायाशंकर भट्ट और माधवजी जयसिंह।

आर. नटराजा मुदालियर 
इसी बीच 1915 में एस.एन. पाटनकर नामक एक फ़िल्मकार ने भारत की दूसरी फिल्म कम्पनी, ‘पाटनकर यूनियन’ की स्थापना की। उन्होने इस कम्पनी की पहली और भारत की चौथी मूक फिल्म ‘मर्डर ऑफ नारायणराव पेशवा’ नामक ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण किया। 6000 फीट लम्बाई की इस ऐतिहासिक फिल्म में जी. रानाडे, डी. जोशी और के.जी. गोखले मुख्य भूमिकाओं में थे। पाटनकर ने अपनी इस कम्पनी से दो फिल्मों का निर्माण करने के बाद 1917 में कम्पनी का नाम बदल कर ‘पाटनकर फ्रेंड्स ऐंड कम्पनी’ रख दिया।

मूक फिल्मों के निर्माण की श्रृंखला 1916 में जारी रही। इस वर्ष एक ही फिल्म ‘कीचक वध’ बनी, किन्तु यह बम्बई या नासिक में नहीं, बल्कि तत्कालीन मद्रास में बनी थी। वेल्लोर के रहने वाले आर. नटराजा मुदालियर ने ब्रिटिश कैमरामैन स्टीवर्ट से प्रशिक्षण लेकर मद्रास में ‘इण्डियन फिल्म कम्पनी’ स्थापित की और फिल्म ‘कीचक वध’ का निर्माण किया। 6000 फीट लम्बाई की यह फिल्म महाभारत के अज्ञातवास से सम्बन्धित एक प्रसंग पर आधारित थी। फिल्म का निर्देशन स्वयं आर. नटराजा मुदालियर ने किया था और मुख्य अभिनेता थे, राजा मुदालियर तथा जीवरत्नम। इस फिल्म ने भारतीय फिल्म निर्माण के क्षेत्र का विस्तार दक्षिण भारत में किया।

सवाक युग के धरोहर : पहली महिला संगीतकार कौन?

जद्दनबाई
ह 1934 का साल था जिसने पहली महिला संगीतकार देखा। इशरत सुल्ताना ने ‘अदले जहाँगीर’ में संगीत देकर यह ख़िताब अपने नाम कर लिया। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इस फ़िल्म के गीतों को रेकॉर्ड नहीं किया गया था, और अब इस फ़िल्म की प्रिण्ट मिल पाना भी असम्भव ही है। वैसे प्रथम महिला संगीतकार कौन हैं, इस बात में कुछ संशय है। पहली महिला संगीतकार के रूप में आज हर जगह सरस्वती देवी का नाम सुनाई देता है, जिन्होंने 1935 में फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ में संगीत दिया था, पर साथ ही साथ यह सवाल भी तर्कसंगत है कि क्या सरस्वती देवी को ही भारत की पहली महिला संगीतकार कहा जाना चाहिए? इशरत सुलताना का ज़िक्र हम कर चुके हैं, साथ ही मुनीरबाई और जद्दनबाई ने भी संगीत तो दिया पर फ़िल्मों में नहीं। आगे चलकर जद्दनबाई ने 1935 की एक फ़िल्म 'तलाश-ए-हक़' में संगीत तो दिया पर वो गाने रेकॉर्ड पर नहीं उतर सके। रेकॉर्ड पर न उतर पाने की वजह से ज़्यादा लोगों को इनके गीत सुनने को नहीं मिले, और इनकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। सरस्वती देवी वह प्रथम संगीतकार थीं जिनके गीत न केवल रेकॉर्ड हुए बल्कि एक चर्चित बैनर 'बॉम्बे टाकीज़' के साथ जुड़ने और फ़िल्मों के चलने से वो मशहूर हो गईं और जनता और इतिहास ने उन्हें ही प्रथम महिला संगीतकार होने का गौरव प्रदान कर दिया।

फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ का दृश्य 
1934 में हिमांशु राय व देविका रानी द्वारा गठित ‘बॉम्बे टाकीज़’ 1935 में अपनी पहली फ़िल्म ‘जवानी की हवा’ के साथ उपस्थित हुई। यह एक मर्डर-मिस्ट्री थी। बोराल, मल्लिक, तिमिर बरन न्यू थिएटर्स में थे। उधर प्रभात में गोविन्दराव और केशवराव भोले जैसे संगीतकार थे। इन दिग्गजों से टक्कर लेने के लिए और ‘बॉम्बे टाकीज़’ के गीत-संगीत में अलग पहचान लाने के लिए हिमांशु राय को तलाश थी एक नए संगीतकार की। उनकी यह खोज उन्हें ले आई सरस्वती देवी के पास, जो बनीं भारतीय सिनेमा की पहली महिला संगीतकार। उनका असली नाम था ख़ुर्शीद मिनोचर होमजी, जिनका जन्म एक पारसी परिवार में हुआ था। संगीत के प्रति लगाव को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें संगीत सीखने की अनुमति दी और वो विष्णु नारायण भातखण्डे की शिष्या बन गईं। मैट्रिक पास करने के बाद लखनऊ के प्रसिद्ध मॉरिस कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी म्यूजिक (वर्तमान भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय) से शिक्षा प्राप्त की और वहीं अध्यापन भी किया। 1927 में रेडिओ की शुरुआत के बाद बम्बई में अपनी बहनों के साथ ‘होमजी सिस्टर्स’ के नाम से अपनी ऑरकेस्ट्रा पार्टी बनाई जो काफ़ी लोकप्रिय बन गई।

सरस्वती देवी
1933-34 में वो बम्बई में किसी जलसे में गाने गई थीं जहाँ पर हिमांशु राय से उनकी मुलाक़ात हुई। राय ने उन्हें ‘बॉम्बे टाकीज़’ में संगीतकार बनने और उनकी बहन माणिक को अभिनय और गायन करने का निमंत्रण दिया। कुछ हिचकिचाहट के बाद दोनों बहने राज़ी तो हो गईं, पर पारसी समाज ने इसका विरोध किया क्योंकि पारसी महिलाओं का फ़िल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। इस विरोध के चलते हिमांशु राय ने ही दोनों बहनों का नाम बदल कर एक को सरस्वती देवी तो दूसरी को चन्द्रप्रभा बना दिया। सरस्वती देवी को शुरु में देविका रानी को संगीत सिखाने का काम सौंपा गया, और इसी दौरान वो ‘जवानी की हवा’ के लिए भी धुने बनाने लगीं। फ़िल्म के गीत तैयार होने पर देविका रानी, चन्द्रप्रभा और नजमुल हसन से गवाये गये। केवल नाम बदलने से दोनों बहनों की मुसीबत नहीं टली। पारसी समाज के लोगों ने इनके ख़िलाफ़ मोर्चा निकाल कर इस फ़िल्म के प्रदर्शन में बाधा उत्पन्न करने की कोशिश की। पुलिस फ़ोर्स की निगरानी में इम्पीरियल सिनेमा में फ़िल्म को रिलीज़ किया गया। इस तरह के विरोध के मद्देनज़र ‘बॉम्बे टाकीज़’ के ‘बोर्ड ऑफ़ डिरेक्टर्स’ के चार सदस्य, जो पारसी थे, इन बहनों को कम्पनी से अलग कर देने का सुझाव दिया, पर हिमांशु राय अपने फ़ैसले में अटल थे। बहरहाल ‘जवानी की हवा’ के गाने लिखे थे जमुनास्वरूप कश्यप ‘नातवाँ’, बड़े आग़ा, नजमुल हुसैन और डी. के. मेहता ने। गीतों में आवाज़ें थीं देविका रानी, नजमुल हुसैन, मिस रिख मसीह और कश्यप की।

और अब हम आपको सरस्वती देवी का संगीतबद्ध और उन्हीं का गाया एक गीत सुनवाते हैं। गीत के बोल हैं- “कित गए हो खेवनहार...”। यह गीत फिल्म ‘अछूत कन्या’ में पर्दे पर उनकी बहन चन्द्रप्रभा पर फ़िल्माया जाना था। लेकिन शूटिंग के दिन चन्द्रप्रभा के गले में ख़राश आ गई और वो गाने की स्थिति में नहीं थीं। ऐसे में अपनी छोटी बहन के लिए सरस्वती देवी ने गीत को गाया जिस पर चन्द्रप्रभा ने केवल होंठ ही हिलाये।

फिल्म अछूत कन्या : “कित गए हो खेवनहार...” : सरस्वती देवी 




सरस्वती देवी का गाया और संगीतबद्ध किया एक और गीत सुनिए। इसे हमने 1936 की ही फिल्म ‘जन्मभूमि’ से लिया है।

फिल्म जन्मभूमि : “दुनिया कहती मुझको पागल... : सरस्वती देवी 



 इसी गीत के साथ आज हम ‘भूली-बिसरी यादें’ के इस अंक को यहीं विराम देते हैं। आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आपकी प्रतिक्रिया, सुझाव और समालोचना से हम इस स्तम्भ को और भी सुरुचिपूर्ण रूप प्रदान कर सकते हैं। ‘स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल’ के आगामी अंक में बारी है- ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ की। अगला गुरुवार मास का दूसरा गुरुवार होगा। इस दिन हम प्रस्तुत करेंगे एक बेहद रोचक संस्मरण। यदि आपने ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता के लिए अभी तक अपना संस्मरण नहीं भेजा है तो हमें तत्काल radioplaybackindia@live.com पर मेल करें।

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र


“मैंने देखी पहली फिल्म” : आपके लिए एक रोचक प्रतियोगिता
दोस्तों, भारतीय सिनेमा अपने उदगम के 100 वर्ष पूरा करने जा रहा है। फ़िल्में हमारे जीवन में बेहद खास महत्त्व रखती हैं, शायद ही हम में से कोई अपनी पहली देखी हुई फिल्म को भूल सकता है। वो पहली बार थियेटर जाना, वो संगी-साथी, वो सुरीले लम्हें। आपकी इन्हीं सब यादों को हम समेटेगें एक प्रतियोगिता के माध्यम से। 100 से 500 शब्दों में लिख भेजिए अपनी पहली देखी फिल्म का अनुभव radioplaybackindia@live.com पर। मेल के शीर्षक में लिखियेगा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’। सर्वश्रेष्ठ तीन आलेखों को 500 रूपए मूल्य की पुस्तकें पुरस्कारस्वरुप प्रदान की जायेगीं। तो देर किस बात की, यादों की खिड़कियों को खोलिए, कीबोर्ड पर उँगलियाँ जमाइए और लिख डालिए अपनी देखी हुई पहली फिल्म का दिलचस्प अनुभव। प्रतियोगिता में आलेख भेजने की अन्तिम तिथि 30 नवम्बर, 2012 है।

Comments

अभी तक तो सरस्वती देवी का ही नाम सुनते आये हैं...
अच्‍छी जानकारी ..
बहुत बढ़िया जानकारी।
सरस्वती देवी का संगीतबद्ध एक गीत फिल्म नवजीवन से
http://www.youtube.com/watch?v=AdyOjhyBM1U&feature=relmfu
U.P.Ojha said…
Krishnamohan Mishrajee,
First Lady Sangeetkaar Ki Jaankaree bahut upyogi aur gyanwardhak hai.Srswti devi ka geet
filn me suna hoon.Aaj unke bare me pata chala.Fcebk par hindi me likna nahi seekh paya hoon chhma karengey.
--U.P.Ojha

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...