सुर संगम - 09 - बेगम परवीन सुल्ताना
सुर-संगम की इस लुभावनी सुबह में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। हिंद-युग्म् के इस मंच से जुड़ कर मैं अत्यंत भाग्यशाली बोध कर रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होंगे कि आज 'सुर-संगम' सुजॉय जी प्रस्तुत क्यों नही कर रहे। दर-असल अपने व्यस्त जीवन में समय के अभाव के कारण वे अब से सुर-संगम प्रस्तुत नहीं कर पाएँगे। परन्तु निराश न हों, वे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये इस मंच से जुड़े रहेंगे। ऐसे में उन्होंने और सजीव जी ने 'सुर-संगम' का उत्तरदायित्व मेरे कन्धों पर सौंपा है। आशा है कि मैं उनकी तथा आपकी आशाओं पर खरा उतर पाऊँगा। 'सुर संगम' के आज के इस अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसी शिल्पी को जिनका नाम आज के सर्वश्रेष्ठ भारतीय शास्त्रीय गायिकाओं में लिया जाता है। इन्हें पद्मश्री पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ सुर-साम्राज्ञी बेगम परवीन सुल्ताना की। आइए उनके बारे में और जानने से पहले सुनते हैं राग भैरवी पर आधारित, उन्हीं की आवाज़ व अन्दाज़ में यह भजन जिसके बोल हैं - "भवानी दयानी"।
भजन: भवानी दयानी - राग भैरवी
परवीन सुल्ताना का जन्म असम के नौगाँव शहर में हुआ और उनके माता-पिता का नाम मारूफ़ा तथा इक्रमुल मज़ीद था| उन्होंने सबसे पहले संगीत अपने दादाजी मोहम्मद नजीफ़ ख़ाँ साहब तथा पिता इक्रमुल से सीखना शुरू किया| पिता और दादाजी की छत्रछाया ने उनकी प्रतिभा को विकसित कर उन्हें १२ वर्ष कि अल्पायु में ही अपनी प्रथम प्रस्तुति देने के लिये परिपक्व बना दिया। उसके बाद वे कोलकाता में स्वर्गीय पंडित् चिनमोय लाहिरी के पास संगीत सीखने गयीं तथा १९७३ से वे पटियाला घराने के उस्ताद दिलशाद ख़ाँ साहब की शागिर्द बन गयीं| उसके २ वर्ष पश्चात् वे उन्हीं के साथ परिणय सूत्र में बँध गयीं और उनकी एक पुत्री भी है| उस्ताद दिल्शाद ख़ाँ साहब की तालीम ने उनकी प्रतिभा की नीव को और भी सुदृढ़ किया, उनकी गायकी को नयी दिशा दी, जिससे उन्हें रागों और शास्त्रीय संगीत के अन्य तथ्यों में विशारद प्राप्त हुआ। जीवन में एक गुरू का स्थान क्या है यह वे भलि-भाँति जानती थीं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं। आइये अब सुनते हैं उनकी आवाज़ में एक प्रसिद्ध ठुमरी जो उन्होंने हिन्दी फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' में गाया था। ठुमरी के बोल हैं - "कौन गली गयो श्याम, बता दे सखी रि"|
ठुमरी: कौन गली गयो श्याम (पाकीज़ा)
सन् १९७२ में पद्मश्री पुरस्कार के अलावा कई अन्य गौरवपूर्ण पुरस्कार बेगम सुल्ताना को प्राप्त हुए - जिनमें 'क्लियोपैट्रा औफ़ म्युज़िक' (१९७०), 'गन्धर्व कालनिधी पुरस्कार' (१९८०), 'मिया तानसेन पुरस्कार' (१९८६) तथा 'संगीत सम्राज्ञी' (१९९४) शामिल हैं। केवल इतना ही नही, उन्होंने फ़िल्मों में भी कई प्रसिद्ध गीत गाए। १९८१ में आई फ़िल्म 'क़ुदरत' में उन्होंने '"हमें तुमसे प्यार कितना'" गाया जिसके लिये उन्हें 'फ़िल्म्फ़ेयर' पुरस्कार से नवाज़ा गया। पंचम दा अर्थात् श्री राहुल देव बर्मन ने जब यह गीत कम्पोज़ किया तभी से उनके मन में विचार था कि इसका एक वर्ज़न बेगम सुल्ताना से गवाया जाये क्योंकि वे स्वयं बेगम सुल्ताना के प्रशंसक थे। उन्होंने इसकी फ़र्माइश उस्ताद दिल्शाद खाँ साहब से की जिस पर बेगम सुल्ताना भी 'ना' नहीं कह सकीं। इस गीत को प्रथम आलाप से ले कर अंत तक बेगम सुल्ताना ने ऐसे अपने अन्दाज़ मे ढाला है, कि सुनने वाला मंत्र-मुग्ध हो जाता है। तो आइये पंचम दा के दिए स्वरों तथा परवीन सुल्ताना जी की तेजस्वी आवाज़ से सुसज्जित इस मधुर गीत का आनंद लेकर हम भी कुछ क्षणों के लिये मंत्र-मुग्ध हो जाएँ।
गीत: हमें तुमसे प्यार कितना (क़ुदरत)
और अब बारी सवाल-जवाब की। जी हाँ, आज से 'सुर-संगम' की हर कड़ी में हम आप से पूछने जा रहे हैं एक सवाल, जिसका आपको देना होगा जवाब तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति के टिप्पणी में। 'सुर-संगम' के ५०-वे अंक तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी तरफ़ से। तो ये रहा इस अंक का सवाल:
"यह एक साज़ है जिसका वेदों में शततंत्री वीणा के नाम से उल्लेख है। इसकी उत्पत्ति ईरान में मानी जाती है। इस साज़ को अर्धपद्मासन में बैठ कर बजाया जाता है। तो बताइए हम किस साज़ की बात कर रहे हैं?"
लीजिए, हम आ पहुँचे 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर, आशा है आपको हमारी यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ईमेल आइ.डी पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी के साथ, तब तक के लिए अपने नए मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, नमस्कार!
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती
अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं।
सुर-संगम की इस लुभावनी सुबह में मैं सुमित चक्रवर्ती आप सभी संगीत प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। हिंद-युग्म् के इस मंच से जुड़ कर मैं अत्यंत भाग्यशाली बोध कर रहा हूँ। अब आप सब सोच रहे होंगे कि आज 'सुर-संगम' सुजॉय जी प्रस्तुत क्यों नही कर रहे। दर-असल अपने व्यस्त जीवन में समय के अभाव के कारण वे अब से सुर-संगम प्रस्तुत नहीं कर पाएँगे। परन्तु निराश न हों, वे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिये इस मंच से जुड़े रहेंगे। ऐसे में उन्होंने और सजीव जी ने 'सुर-संगम' का उत्तरदायित्व मेरे कन्धों पर सौंपा है। आशा है कि मैं उनकी तथा आपकी आशाओं पर खरा उतर पाऊँगा। 'सुर संगम' के आज के इस अंक में हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक ऐसी शिल्पी को जिनका नाम आज के सर्वश्रेष्ठ भारतीय शास्त्रीय गायिकाओं में लिया जाता है। इन्हें पद्मश्री पुरस्कार पाने वाली सबसे कम उम्र की शिल्पी होने का गौरव प्राप्त है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ सुर-साम्राज्ञी बेगम परवीन सुल्ताना की। आइए उनके बारे में और जानने से पहले सुनते हैं राग भैरवी पर आधारित, उन्हीं की आवाज़ व अन्दाज़ में यह भजन जिसके बोल हैं - "भवानी दयानी"।
भजन: भवानी दयानी - राग भैरवी
परवीन सुल्ताना का जन्म असम के नौगाँव शहर में हुआ और उनके माता-पिता का नाम मारूफ़ा तथा इक्रमुल मज़ीद था| उन्होंने सबसे पहले संगीत अपने दादाजी मोहम्मद नजीफ़ ख़ाँ साहब तथा पिता इक्रमुल से सीखना शुरू किया| पिता और दादाजी की छत्रछाया ने उनकी प्रतिभा को विकसित कर उन्हें १२ वर्ष कि अल्पायु में ही अपनी प्रथम प्रस्तुति देने के लिये परिपक्व बना दिया। उसके बाद वे कोलकाता में स्वर्गीय पंडित् चिनमोय लाहिरी के पास संगीत सीखने गयीं तथा १९७३ से वे पटियाला घराने के उस्ताद दिलशाद ख़ाँ साहब की शागिर्द बन गयीं| उसके २ वर्ष पश्चात् वे उन्हीं के साथ परिणय सूत्र में बँध गयीं और उनकी एक पुत्री भी है| उस्ताद दिल्शाद ख़ाँ साहब की तालीम ने उनकी प्रतिभा की नीव को और भी सुदृढ़ किया, उनकी गायकी को नयी दिशा दी, जिससे उन्हें रागों और शास्त्रीय संगीत के अन्य तथ्यों में विशारद प्राप्त हुआ। जीवन में एक गुरू का स्थान क्या है यह वे भलि-भाँति जानती थीं। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि जितना महत्वपूर्ण एक अच्छा गुरू मिलना होता है, उतना ही महत्वपूर्ण होता है गुरू के बताए मार्ग पर चलना। संभवतः इसी कारण वे कठिन से कठिन रागों को सहजता से गा लेती हैं, उनका एक धीमे आलाप से तीव्र तानों और बोल तानों पर जाना, उनके असीम आत्मविश्वास को झलकाता है, जिससे उस राग का अर्क, उसका भाव उभर कर आता है। चाहे ख़याल हो, ठुमरी हो या कोई भजन, वे उसे उसके शुद्ध रूप में प्रस्तुत कर सबका मन मोह लेती हैं। आइये अब सुनते हैं उनकी आवाज़ में एक प्रसिद्ध ठुमरी जो उन्होंने हिन्दी फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' में गाया था। ठुमरी के बोल हैं - "कौन गली गयो श्याम, बता दे सखी रि"|
ठुमरी: कौन गली गयो श्याम (पाकीज़ा)
सन् १९७२ में पद्मश्री पुरस्कार के अलावा कई अन्य गौरवपूर्ण पुरस्कार बेगम सुल्ताना को प्राप्त हुए - जिनमें 'क्लियोपैट्रा औफ़ म्युज़िक' (१९७०), 'गन्धर्व कालनिधी पुरस्कार' (१९८०), 'मिया तानसेन पुरस्कार' (१९८६) तथा 'संगीत सम्राज्ञी' (१९९४) शामिल हैं। केवल इतना ही नही, उन्होंने फ़िल्मों में भी कई प्रसिद्ध गीत गाए। १९८१ में आई फ़िल्म 'क़ुदरत' में उन्होंने '"हमें तुमसे प्यार कितना'" गाया जिसके लिये उन्हें 'फ़िल्म्फ़ेयर' पुरस्कार से नवाज़ा गया। पंचम दा अर्थात् श्री राहुल देव बर्मन ने जब यह गीत कम्पोज़ किया तभी से उनके मन में विचार था कि इसका एक वर्ज़न बेगम सुल्ताना से गवाया जाये क्योंकि वे स्वयं बेगम सुल्ताना के प्रशंसक थे। उन्होंने इसकी फ़र्माइश उस्ताद दिल्शाद खाँ साहब से की जिस पर बेगम सुल्ताना भी 'ना' नहीं कह सकीं। इस गीत को प्रथम आलाप से ले कर अंत तक बेगम सुल्ताना ने ऐसे अपने अन्दाज़ मे ढाला है, कि सुनने वाला मंत्र-मुग्ध हो जाता है। तो आइये पंचम दा के दिए स्वरों तथा परवीन सुल्ताना जी की तेजस्वी आवाज़ से सुसज्जित इस मधुर गीत का आनंद लेकर हम भी कुछ क्षणों के लिये मंत्र-मुग्ध हो जाएँ।
गीत: हमें तुमसे प्यार कितना (क़ुदरत)
और अब बारी सवाल-जवाब की। जी हाँ, आज से 'सुर-संगम' की हर कड़ी में हम आप से पूछने जा रहे हैं एक सवाल, जिसका आपको देना होगा जवाब तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति के टिप्पणी में। 'सुर-संगम' के ५०-वे अंक तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी तरफ़ से। तो ये रहा इस अंक का सवाल:
"यह एक साज़ है जिसका वेदों में शततंत्री वीणा के नाम से उल्लेख है। इसकी उत्पत्ति ईरान में मानी जाती है। इस साज़ को अर्धपद्मासन में बैठ कर बजाया जाता है। तो बताइए हम किस साज़ की बात कर रहे हैं?"
लीजिए, हम आ पहुँचे 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर, आशा है आपको हमारी यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ईमेल आइ.डी पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी के साथ, तब तक के लिए अपने नए मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, नमस्कार!
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
Comments
दोस्तों, इस अंक से 'सवाल जवाब' का सिल्सिला शुरु हो रहा है 'सुर संगम' में भी। ज़रूर भाग लीजिएगा।
सुजॊय
इस अंक में वैदिककालीन जिस वाद्ययंत्र- 'शततंत्री वीणा' का उल्लेख करते हुए प्रश्न पूछा गया है उसका उत्तर है- 'संतूर' |
कृष्णमोहन मिश्र, लखनऊ
krishnamohan00@live.com
बेगम परवीन सुल्ताना ने संगीतकार जयदेव के निर्देशन में भी फिल्म 'दो बूँद पानी' में भी अपनी आवाज़ दी थी. 'पीतल की मोरी गागरी दिल्ली से मोल मंगाई रे' जिसमें निर्मला आहूजा जी ने भी अपना स्वर दिया था.
अवध लाल