Skip to main content

सुर संगम में आज - उस्ताद हबीब ख़ान का बजाया विचित्र वीणा वादन

सुर संगम - 06

विचित्र वीणा का रेंज पाँच ऒक्टेव का होता है। सितार की तरह विचित्र वीणा भी उंगलियों में मिज़राब (plectrums) पहनकर बजाया जाता है, तथा मेलडी के लिए शीशे का एक बट्टा मुख्य तारों पर फेरा जाता है। दो नोट्स के बीच दो इंच का फ़ासला हो सकता है।


सुप्रभात! 'सुर-संगम' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, हमारे देश में प्राचीण काल से जितने भी साज़ हुए हैं, उनमें से कुछ साज़ आज विलुप्त प्राय हो गये हैं, यानी कि जिनका आज इस्तमाल ना के बराबर हो गये हैं। रुद्र-वीणा और सुरशृंगार की तरह विचित्र-वीणा एक ऐसा ही साज़ है। प्राचीन काल में एकतंत्री वीणा नाम का एक साज़ हुआ करता था; विचित्र वीणा उसी साज़ का आधुनिक रूप है। इस वीणा में तीन फ़ीट लम्बा और ६ इंच चौड़ा एक डंड होता है, और दोनों तरफ़ दो तुम्बे होते हैं कद्दु के आकार के जिन्हें हम रेज़ोनेटर भी कह सकते हैं। डंड के दोनों छोर पर मोर के सर की आकृति बनी होती है। विचित्र वीणा वादक वीणा को अपने सामने ज़मीन पर रख कर अपनी उंगलियाँ तारों पर फेरता है।

विचित्र वीणा में मौजूद तारों (स्ट्रिंग्स) की बात करें तो इसमें चार मुख्य 'प्लेयिंग् स्ट्रिंग्स' होते हैं और पाँच 'सेकण्डरी स्ट्रिंग्स' होते हैं जिन्हें चिलकारी कहा जाता है, और जिन्हें छोटी उंगली से बजाया जाता है एक ड्रोन-ईफ़ेक्ट के लिए। इन तारों के नीचे १३ 'सीम्पैथेटिक स्ट्रिंग्स' होते हैं जिनका इस्तमाल किसी राग के सुरों को ट्युन करने के लिए किया जाता है। विचित्र वीणा का रेंज पाँच ऒक्टेव का होता है। सितार की तरह विचित्र वीणा भी उंगलियों में मिज़राब (plectrums) पहनकर बजाया जाता है, तथा मेलडी के लिए शीशे का एक बट्टा मुख्य तारों पर फेरा जाता है। दो नोट्स के बीच दो इंच का फ़ासला हो सकता है। बट्टे के फ़्रिक्शन को दूर करने के लिए स्ट्रिंग्स पर नारियल का तेल लगाया जाता है।

विचित्र वीणा का प्रयोग मुख्यत: ध्रुपद शैली के गायन के संगीत में किया जाता है। विचित्र वीणा बहुत ज़्यादा स्पष्ट सुर नहीं जगा पाता, इसलिए इसे एक संगत साज़ के तौर पर ही ज़्यादा इस्तमाल किया जाता है; वैसे एकल रूप में भी विचित्र वीणा बहुत से कलाकारों ने बजाया है। इस साज़ को गुमनामी से बाहर निकाला था डॊ. लालमणि मिश्र ने, जिन्होंने विचित्र वीणा पर मिश्रवाणी कम्पोज़िशन्स का निर्माण किया। उन्हीं के सुपुत्र डॊ. गोपाल शंकर मिश्र ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और दूर दूर तक फैलाया। विचित्र वीणा के प्रचार प्रसार में जो नाम उल्लेखनीय हैं, वो इस प्रकार हैं:

१. जेसिंहभाई, जिन्हे विचित्र वीणा के आधुनिक रूप के जन्मदाता होने का श्रेय दिया जाता है। उस समय इस साज़ को बट्टा-बीन कहा जाता था।

२. पंडित गोस्वामी गोकुलनाथ, जो बट्टा-बीन के प्राचीनतम उपासकों में से एक थे और जो पुश्टि सम्प्रदाय के बम्बई शाखा से ताल्लुख रखते थे।

३. उस्ताद जमालुद्दिन ख़ान, जो उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान के गुरु थे और वे ताल्लुख रखते थे जयपुर घराने से।

४. उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान, जो पहले बम्बई के एक सारंगी वादक थे, और विचित्र वीणा पर ख़याल और ठुमरी बजाने वाले पहले वादक थे। लाहौर के गंधर्व महाविद्यालय के वार्षिक संगीत सम्मेलन में पहली बार वादन प्रस्तुत करने के बाद उन्हें फिर कभी पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। संगत के तौर पर वो पखावज से ज़्यादा तबला पसंद करते थे। पटियाला के महाराजा के दरबार के वो संगीतज्ञ थे।

५. उस्ताद हबीब ख़ान, जो उस्ताद अब्दुल अज़ीज़ ख़ान के भाई व छात्र थे। (आज इन्हीं का बजाया हुआ विचित्र वीणा हम सुनेंगे)

कुछ और नाम हैं मोहम्मद शरीफ़ ख़ान पूँचावाले, पंडित गोपाल कृष्ण शर्मा, पंडित श्रीकृष्णन शर्मा, उस्ताद अहमद रज़ा ख़ान, पंडित गोपाल शंकर मिश्र (पंडित लालमणि मिश्र के सुपुत्र), डॊ. मुस्तफ़ा रज़ा, पंडित अजीत सिंह पंडित शिव दयाल बातिश, फ़तेह अली ख़ान, गियानी रिचिज़ी, विजय वेण्कट, पद्मजा विश्वरूप, डॊ. राधिका उम्देकर बुधकर आदि।

आइए आपको आज एक बेहद दुर्लभ रेकॊर्डिंग् सुनाते और दिखाते हैं (यू-ट्युब के सौजन्य से)। यह सन् १९३८ में रेकॊर्ड की हुई एक शॊर्ट फ़िल्म है जिसमें उस्ताद हबीब ख़ान नज़र आ रहे हैं विचित्र वीणा बजाते हुए। तबले पर उनका संगत कर रहे हैं उस्ताद अहमदजान थिरकवा। राग है सोहनी।

विचित्र वीणा वादन - उस्ताद हबीब ख़ान (१९३८)
न सिर्फ सुनिए मगर देखिये भी


आशा है इस दुर्लभ रेकॊर्डिंग को देख कर व सुन कर अच्छा लगा होगा। राग सोहनी की अब बात करते हैं। यह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मारवा ठाट का राग है। इसमेम पाँच स्वर लगते हैं आरोहन में और छह स्वर अवरोहन में। रिशभ (रे) कोमल है और मध्यम (मा) तीव्र है; बाकी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। पंचम (पा) का प्रयोग इस राग में नहीं होता है। वादी स्वर धा होता है तथा समवादी स्वर गा। यह एक उत्तरांग प्रधान राग है, जिसके ऊँचे सुर सप्तक तक पहूँचते हैं। राग सोहनी रात के आख़िरी या आठवें प्रहर में गाया जाता है, यानी कि सुबह ३ से ६ बजे के बीच। सोहनी राग मारवा और पूरिया रागों से मिलता जुलता राग है मारवा ठाट में ही, और पूर्वी ठाट के राग बसंत से भी मेल खाता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इस राग का सब से पुराना रेकॊर्डिंग् अब्दुल करीम ख़ान साहब का है जो १९०५ में रेकॊर्ड हुई थी। लेकिन हम यहाँ पर सुनेंगे राग सोहनी पर आधारित फ़िल्म 'संगीत सम्राट तानसेन' का मुकेश का गाया "झूमती चली हवा याद आ गया कोई"। एस. एन. त्रिपाठी का संगीत है। इस गीत को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजा चुके हैं, लेकिन ऐसे मीठे सुरीले गीतों का आनंद तो हर रोज़ ही लिया जा सकता है, है न? .

गीत: झूमती चली हवा याद आ गया कोई (संगीत सम्राट तान्सेन)


इसी के साथ 'सुर-संगम' से आज हमें इजाज़त दीजिए, शाम ६:३० बजे सुरैया जी के गाये एक बेहद सुरीले नग़मे के साथ पुन: वापस आयेंगे, बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार

प्रस्तुति-सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट