ज़ुल्मतकदे में मेरे.....ग़ालिब को अंतिम विदाई देने के लिए हमने विशेष तौर पर आमंत्रित किया है जनाब जगजीत सिंह जी को
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८०
आज से कुछ दो या ढाई महीने पहले हमने ग़ालिब पर इस श्रृंखला की शुरूआत की थी और हमें यह कहते हुए बहुत हीं खुशी हो रही है कि हमने सफ़लतापूर्वक इस सफ़र को पूरा किया है क्योंकि आज इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है। इस दौरान हमने जहाँ एक ओर ग़ालिब के मस्तमौला अंदाज़ का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर उनके दु:खों और गमों की भी चर्चा की। ग़ालिब एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें महज दस कड़ियों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी हमने पूरी कोशिश की कि उनकी ज़िंदगी का कोई भी लम्हा अनछुआ न रह जाए। बस यही ध्यान रखकर हमने ग़ालिब को जानने के लिए उनका सहारा लिया जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तो नहीं लेकिन दिल और साहित्य के पाठ्यक्रम में ग़ालिब पर पी०एच०डी० जरूर हासिल की है। हमें उम्मीद है कि आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, हम गुलज़ार साहब की हीं बात कर रहे हैं। तो अगर आपने ग़ालिब पर चल रही इस श्रृंखला को ध्यान से पढा है तो आपने इस बात पर गौर ज़रूर किया होगा कि ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी हमने गुलज़ार साहब के शब्दों में हीं तैयार की थी, फिर तीसरी या चौथी कड़ी को भी गुलज़ार साहब ने संभाला था..... अब यदि ऐसी बात है तो क्यों न आज की कड़ी, आज की महफ़िल भी गुलज़ार साहब के शब्दों के सहारे हीं सजाई जाए। आज की महफ़िल में गुलज़ार साहब का ज़िक्र इसलिए भी लाज़िमी हो जाता है क्योंकि चचा ग़ालिब की जो गज़ल हम आज लेकर हाज़िर हुए हैं, उसे उस शख्स ने गाया है, जिसके गुलज़ार साहब के साथ हमेशा हीं अच्छे संबंध रहे हैं। वैसे भी गज़लों की दुनिया में उन्हें बादशाह हीं माना जाता है... समय आने पर हम उनके नाम का खुलासा जरूर करेंगे, उससे पहले क्यों न गुलज़ार साहब की किताब "मिर्ज़ा ग़ालिब- एक स्वानही मंज़रनामा" से चचा ग़ालिब की ज़िंदगी के कुछ और लम्हात परोसे जाएँ:
यह वाक्या बहुत सारी बातें बयाँ करता है। अव्वल तो यह कि ग़ालिब के शेरों के शौकीन ग़ालिब की अहमियत जानते थे, लेकिन जिन्हें शेरों के अलावा दुनिया के और भी काम देखने हों उन्हें ग़ालिब से कटकर रहना हीं अच्छा लगता था। यह इसलिए नहीं कि ग़ालिब का बर्ताव बुरा था, बल्कि इसलिए कि ग़ालिब गरीबी के गर्त्त में अंदर तक धँसे हुए थे। और फिर एक गरीब दूसरे गरीब का क्या भला करेगा। वैसे नज़मुद्दीन ने बहुत हीं बारीक बात कही, जो गुलज़ार साहब ने इस किताब की भूमिका में भी कही थी-
"ज़माना उनका कर्ज़दार न हो गया तो कहना।" इस कर्ज़ की मियाद कितनी भी बढा क्यों न दी जाए, हममें इस कर्ज़ को चुकाने की कुवत नहीं।
एक और घटना जो ग़ालिब के अंतिम दिनों की है, जब अंग्रेज फ़ौज़ें दिल्ली का हुलिया बदलने में लगी थीं:
और फिर इस तरह ग़ालिब हमस जुदा हो गए। वैसे ग़ालिब की रुखसती सिर्फ़ जहां-ए-फ़ानी से हुई है, हमारे दिलों से नहीं। दिलों में ग़ालिब उसी तरह जिंदा हैं, जिस तरह उनकी यह शायरी जिंदा है, उनके ये शेर साँसें ले रहे हैं:
वह नश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यूं न आशना कहिये
सफ़ीना जब कि किनारे पे आ लगा 'ग़ालिब'
ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जोर-ए-नाख़ुदा कहिये
ग़ालिब पर आधारित इस अंतिम कड़ी में अब वक्त आ गया है कि आखिरी मर्तबा हम उनका लिखा कुछ सुन लें। तो आज जो ग़जल लेकर हम आप सबों के बीच उपस्थित हुए हैं, उसे अपनी मखमली आवाज़ से सजाया है जनाब जगजीत सिंह जी ने। इनके बारे में और क्या कहना। महफ़िल-ए-गज़ल में कई कड़ियाँ इनके नाम हो चुकी हैं। इसलिए अच्छा होगा कि हम सीधे-सीधे ग़ज़ल की ओर रुख कर लें। तो यह रही वह गज़ल:
ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी ____ में
"ग़ालिब" सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आतिश" और शेर कुछ यूँ था-
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
"आतिश" शब्द की सबसे पहले पहचान की "शरद जी" ने। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
मुझे आतिश समझ कर पास आने से वो डरते हैं
मिटाऊँ फ़ासला कैसे, यही किस्सा इधर भी है ।
जहां पिछली बार हमने "नदीम" को गायब करके लोगों को पशोपेश में डाल दिया था, वहीं इस बार बड़ा हीं आसान शब्द देकर हमने लोगों को अपनी खुशी जाहिर करने का मौका दिया। कौन-सा शब्द कितना सरल या कितना कठिन है,इस बात का अंदाजा हमें सीमा जी के शेरों को गिनकर लग जाता है, जैसे कि इस बार आपने पाँच शेर पेश किए जबकि पिछली बार आपके शेरों की कुल संख्या दो हीं थी। ये रहे उन पाँच शेरों में से हमारी पसंद के दो शेर:
चमक तेरी अयाँ बिजली में आतिशमें शरारेमें
झलक तेरी हवेदाचाँद में सूरज में तारे में (इक़बाल)
बच निकलते हैं अगर आतिह-ए-सय्याद से हम
शोला-ए-आतिश-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं (क़तील शिफ़ाई)
नीलम जी, चोरी तब तक जायज है जब तक कोई सुराग न मिले। कहते हैं ना कि "रिसर्च" उसी को कहते हैं जिसमें "ओरिजनल सोर्स" का पता न चले। अब चूँकि मुझे इस शेर के असल शायर का नाम पता नहीं, इसलिए आप बाइज़्ज़त बरी किए जाते हैं:
ए खुदा !ये क्या दिन मुक़र्रर किया है ,
क्यूंकर ढेर ए बारूद, आतिश से मिलने चल दिया है .
अवध जी, महफ़िल की सैर करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। यह क्या... आपने जो शेर पेश किया (चचा ग़ालिब का) उसी शेर से "आतिश" शब्द हटाकर तो हमने सवाल पूछा था। आपने सवाल को हीं जवाब बना दिया... गलत बात!!! :)
पूजा जी, आपका शेर तो बड़ा हीं घुमावदार है। इसे समझने में मेरे पसीने छूट गए। खैर.. ३-४ मिनट की मेहनत के बाद मुझे सफ़लता मिल हीं गई। अब देखते हैं बाकी दोस्त इस शेर का कुछ अर्थ निकाल पाते हैं या नहीं:
रकाबत है या आतिश ज़ालिम,
तेरा आना फुरकत का पैगाम हुआ.
मंजु जी, आपकी ये पंक्तियाँ शेर होते-होते रह गईं। वैसे अच्छी बात ये है कि शेर लिखने में आपकी मेहनत साफ़ झलकती है। इस शेर में "सुलगा" और "उजाड़" में काफ़िया-बंदी नहीं हो पा रही। आगे से ध्यान रखिएगा:
जमाने ने नफरत ए आतिश को सुलगा दिया
दो दिलों के मौहब्बत के चमन को उजाड़ दिया .
शन्नो जी, इस बार तो आपने नीलम जी से इंतज़ार करवा लिया। ये आपकी कोई नई अदा है क्या? :) यह रहा आपका शेर:
कोई आतिश बन चला गया
जले दिल को और जला गया.
सुमित जी, इस बार भी कोई शेर नहीं. बहुत ना-इंसाफ़ी है.. इसकी सजा मिलेगी, बराबर मिलेगी..गब्बर साहिबा किधर हैं आप?
अवनींद्र जी, आपको पढना हर बार हीं सुकूनदायक होता है। आज भी वही कहानी है.. ये रही आपकी पंक्तियाँ:
रूह टटोली तो तेरी याद के खंज़र निकले
मय मैं डूबे तो तेरे इश्क के अंदर निकले
हम तो समझे थे होगी तेरी याद की चिंगारी
दिल टटोला तो आतिश के समंदर निकले
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज से कुछ दो या ढाई महीने पहले हमने ग़ालिब पर इस श्रृंखला की शुरूआत की थी और हमें यह कहते हुए बहुत हीं खुशी हो रही है कि हमने सफ़लतापूर्वक इस सफ़र को पूरा किया है क्योंकि आज इस श्रृंखला की अंतिम कड़ी है। इस दौरान हमने जहाँ एक ओर ग़ालिब के मस्तमौला अंदाज़ का लुत्फ़ उठाया वहीं दूसरी ओर उनके दु:खों और गमों की भी चर्चा की। ग़ालिब एक ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें महज दस कड़ियों में नहीं समेटा जा सकता, फिर भी हमने पूरी कोशिश की कि उनकी ज़िंदगी का कोई भी लम्हा अनछुआ न रह जाए। बस यही ध्यान रखकर हमने ग़ालिब को जानने के लिए उनका सहारा लिया जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय में तो नहीं लेकिन दिल और साहित्य के पाठ्यक्रम में ग़ालिब पर पी०एच०डी० जरूर हासिल की है। हमें उम्मीद है कि आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, हम गुलज़ार साहब की हीं बात कर रहे हैं। तो अगर आपने ग़ालिब पर चल रही इस श्रृंखला को ध्यान से पढा है तो आपने इस बात पर गौर ज़रूर किया होगा कि ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी हमने गुलज़ार साहब के शब्दों में हीं तैयार की थी, फिर तीसरी या चौथी कड़ी को भी गुलज़ार साहब ने संभाला था..... अब यदि ऐसी बात है तो क्यों न आज की कड़ी, आज की महफ़िल भी गुलज़ार साहब के शब्दों के सहारे हीं सजाई जाए। आज की महफ़िल में गुलज़ार साहब का ज़िक्र इसलिए भी लाज़िमी हो जाता है क्योंकि चचा ग़ालिब की जो गज़ल हम आज लेकर हाज़िर हुए हैं, उसे उस शख्स ने गाया है, जिसके गुलज़ार साहब के साथ हमेशा हीं अच्छे संबंध रहे हैं। वैसे भी गज़लों की दुनिया में उन्हें बादशाह हीं माना जाता है... समय आने पर हम उनके नाम का खुलासा जरूर करेंगे, उससे पहले क्यों न गुलज़ार साहब की किताब "मिर्ज़ा ग़ालिब- एक स्वानही मंज़रनामा" से चचा ग़ालिब की ज़िंदगी के कुछ और लम्हात परोसे जाएँ:
पुरानी दिल्ली में एक क़ातिब(वे जो क़िताबों को हाथ से लिखते थे) थे नज़मुद्दीन। नज़मुद्दीन ने मिर्ज़ा ग़ालिब के दीवान की क़िताबत सम्भाल ली थी। एक सुबह जब नज़मुद्दीन मिर्ज़ा ग़ालिब के दीवान की क़िताबत कर रहे थे, सामने एक कोने में उनकी बेगम ने क़िताबत की सियाही उबलने के लिए अँगीठी पर चढा रखी थी। नज़मुद्दीन एक ग़ज़ल की क़िताबत कर रहे थे, उन्होंने शेर पढा-
दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं,
ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं।
नज़मुद्दीन ने दूसरा शेर पढा और अपनी बेगम की तरफ़ देखा-
क्यूँ गर्दिश मुदाम से घबरा न जाये दिल,
इंसान हूँ पियाला-ओ-सागर नहीं हूँ मैं।
बेगम ने गर्म-गर्म सियाही दवात में डालते हुए पूछा-
"किसका कलाम है, यूँ झूम-झूमकर पढ रहे हो?"
नज़मुद्दीन ने अगला शेर पढा-
या रब ज़माना मुझको मिटाता है किसलिए?
लौहे जहाँ पे हर्फ़े-मुकर्रर नहीं हूँ मैं।
"आ हा हा, क्या कमाल की बात कही है। इस जहाँ की तख़्ती पर मैं वह हर्फ़ नहीं जो दुबारा लिखा जा सके... या रब जमाना मुझको मिटाता है किसलिए। क्यूँ मिटाते हो यारों?"
बेगम हैरान हुईं। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था।
"पर ये हज़रत हैं कौन? बड़े दीवाने हो रहे हो उनके शेरों पर।"
नज़मुद्दीन अभी तक उसी नशे में सराबोर थे।
"और कौन हो सकता है? सिर्फ़ मिर्ज़ा हीं ये शेर कह सकते हैं।"
"अरे मिर्ज़ा ग़ालिब?"
बेगम ने माथा पीटा।
"उफ़ अल्लाह! किस कंगाल का काम ले लिया। फूटी कौड़ी भी न मिलेगी उनसे। क़िताबत तो दरकिनार, रोशनाई और क़लम के दाम भी नहीं निकलेंगे। जमाने भर के कर्ज़दार हैं, कुछ जानते भी हो।"
"ज़रा ये दीवान छप जाने दो, बेगम। ज़माना उनका कर्ज़दार न हो गया तो कहना। ऐसे शायर आसानी से पैदा न हीं होते।"
बेगम बड़बड़ाती हुई उठीं-
"हाँ, इतनी आसानी से मरते भी नहीं... रसोई के लिए कुछ पैसे हैं खीसे मैं?"
नज़मुद्दीन ने जेब में हाथ ड़ाला-
"अभी उस रोज़ तो दो रूपए दिए थे।"
"दो रूपए क्या महीने भर चलेंगे?"
"हफ़्ता भर तो चलते। ज़रा किफ़ायत से काम लिया करो।" नज़मुद्दीन ने कुछ रेज़गारी निकालकर दी।
यह वाक्या बहुत सारी बातें बयाँ करता है। अव्वल तो यह कि ग़ालिब के शेरों के शौकीन ग़ालिब की अहमियत जानते थे, लेकिन जिन्हें शेरों के अलावा दुनिया के और भी काम देखने हों उन्हें ग़ालिब से कटकर रहना हीं अच्छा लगता था। यह इसलिए नहीं कि ग़ालिब का बर्ताव बुरा था, बल्कि इसलिए कि ग़ालिब गरीबी के गर्त्त में अंदर तक धँसे हुए थे। और फिर एक गरीब दूसरे गरीब का क्या भला करेगा। वैसे नज़मुद्दीन ने बहुत हीं बारीक बात कही, जो गुलज़ार साहब ने इस किताब की भूमिका में भी कही थी-
"ज़माना उनका कर्ज़दार न हो गया तो कहना।" इस कर्ज़ की मियाद कितनी भी बढा क्यों न दी जाए, हममें इस कर्ज़ को चुकाने की कुवत नहीं।
एक और घटना जो ग़ालिब के अंतिम दिनों की है, जब अंग्रेज फ़ौज़ें दिल्ली का हुलिया बदलने में लगी थीं:
महरौली में पेड़ों से लटकी हुई लाशें झूल रही थीं। कुछ जगह चिताएँ जल रही थीं और चारों तरफ़ धुआँ हीं धुआँ था। कुछ लोग जो मरे हुए लोगों में अपने-अपने रिश्तेदारों को ढूँढ रहे थे। उनमें एक हाजी मीर भी थे। ज़ौक़ के चौक के पासवाले एक लड़के की लाश भी उनमें थी। अब उस धुएँ में ग़ालिब भी मौजूद थे। थोड़ी दूर पर हाफ़िज़ दिखाई दिया। उसके कपड़े तार-तार थे। ग़ालिब ने अपना दोशाला उसे ओढा दिया। हाफ़िज़ ने मिर्ज़ा का लिम्स पहचान लिया-
"मिर्ज़ा नौशा, आप यहाँ क्या कर रहे हैं?"
ग़ालिब ने जवाब में शेर कहा-
बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।
"सब खैरियत तो है? आपका हाल क्या है?
"हमारा हाल अब हमसे क्या पूछते हो, हाफ़िज़ मियाँ। कुछ रोज़ बाद हमारे हमसायों से पूछना।"
ग़ालिब अब वहाँ से चल पड़े, बड़बड़ाते हुए-
"अब थक गया ज़िंदगी से- इन दिनों इतने जनाज़े उठाये हैं कि लगता है, जब मैं मरूँगा, मुझे उठानेवाला कोई न होगा।"
ग़ालिब दूर जाने लगे। धुएँ और रौशनी की पेड़ों से छनकर आती शुआएँ उन्हें छू-छूकर ज़मीन पर गिर रही थीं।
इसके ठीक दो साल बाद १५ फ़रवरी, १८६९ के रोज़ मिर्ज़ा ग़ालिब इंतक़ाल फ़र्मा गए। उन्हें चौसठ खम्बा के नज़दीक ख़ानदान लोहारू के कब्रस्तान में दफ़ना दिया गया।
और फिर इस तरह ग़ालिब हमस जुदा हो गए। वैसे ग़ालिब की रुखसती सिर्फ़ जहां-ए-फ़ानी से हुई है, हमारे दिलों से नहीं। दिलों में ग़ालिब उसी तरह जिंदा हैं, जिस तरह उनकी यह शायरी जिंदा है, उनके ये शेर साँसें ले रहे हैं:
वह नश्तर सही, पर दिल में जब उतर जावे
निगाह-ए-नाज़ को फिर क्यूं न आशना कहिये
सफ़ीना जब कि किनारे पे आ लगा 'ग़ालिब'
ख़ुदा से क्या सितम-ओ-जोर-ए-नाख़ुदा कहिये
ग़ालिब पर आधारित इस अंतिम कड़ी में अब वक्त आ गया है कि आखिरी मर्तबा हम उनका लिखा कुछ सुन लें। तो आज जो ग़जल लेकर हम आप सबों के बीच उपस्थित हुए हैं, उसे अपनी मखमली आवाज़ से सजाया है जनाब जगजीत सिंह जी ने। इनके बारे में और क्या कहना। महफ़िल-ए-गज़ल में कई कड़ियाँ इनके नाम हो चुकी हैं। इसलिए अच्छा होगा कि हम सीधे-सीधे ग़ज़ल की ओर रुख कर लें। तो यह रही वह गज़ल:
ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी ____ में
"ग़ालिब" सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "आतिश" और शेर कुछ यूँ था-
इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने
"आतिश" शब्द की सबसे पहले पहचान की "शरद जी" ने। यह रहा आपका स्वरचित शेर:
मुझे आतिश समझ कर पास आने से वो डरते हैं
मिटाऊँ फ़ासला कैसे, यही किस्सा इधर भी है ।
जहां पिछली बार हमने "नदीम" को गायब करके लोगों को पशोपेश में डाल दिया था, वहीं इस बार बड़ा हीं आसान शब्द देकर हमने लोगों को अपनी खुशी जाहिर करने का मौका दिया। कौन-सा शब्द कितना सरल या कितना कठिन है,इस बात का अंदाजा हमें सीमा जी के शेरों को गिनकर लग जाता है, जैसे कि इस बार आपने पाँच शेर पेश किए जबकि पिछली बार आपके शेरों की कुल संख्या दो हीं थी। ये रहे उन पाँच शेरों में से हमारी पसंद के दो शेर:
चमक तेरी अयाँ बिजली में आतिशमें शरारेमें
झलक तेरी हवेदाचाँद में सूरज में तारे में (इक़बाल)
बच निकलते हैं अगर आतिह-ए-सय्याद से हम
शोला-ए-आतिश-ए-गुलफ़ाम से जल जाते हैं (क़तील शिफ़ाई)
नीलम जी, चोरी तब तक जायज है जब तक कोई सुराग न मिले। कहते हैं ना कि "रिसर्च" उसी को कहते हैं जिसमें "ओरिजनल सोर्स" का पता न चले। अब चूँकि मुझे इस शेर के असल शायर का नाम पता नहीं, इसलिए आप बाइज़्ज़त बरी किए जाते हैं:
ए खुदा !ये क्या दिन मुक़र्रर किया है ,
क्यूंकर ढेर ए बारूद, आतिश से मिलने चल दिया है .
अवध जी, महफ़िल की सैर करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। यह क्या... आपने जो शेर पेश किया (चचा ग़ालिब का) उसी शेर से "आतिश" शब्द हटाकर तो हमने सवाल पूछा था। आपने सवाल को हीं जवाब बना दिया... गलत बात!!! :)
पूजा जी, आपका शेर तो बड़ा हीं घुमावदार है। इसे समझने में मेरे पसीने छूट गए। खैर.. ३-४ मिनट की मेहनत के बाद मुझे सफ़लता मिल हीं गई। अब देखते हैं बाकी दोस्त इस शेर का कुछ अर्थ निकाल पाते हैं या नहीं:
रकाबत है या आतिश ज़ालिम,
तेरा आना फुरकत का पैगाम हुआ.
मंजु जी, आपकी ये पंक्तियाँ शेर होते-होते रह गईं। वैसे अच्छी बात ये है कि शेर लिखने में आपकी मेहनत साफ़ झलकती है। इस शेर में "सुलगा" और "उजाड़" में काफ़िया-बंदी नहीं हो पा रही। आगे से ध्यान रखिएगा:
जमाने ने नफरत ए आतिश को सुलगा दिया
दो दिलों के मौहब्बत के चमन को उजाड़ दिया .
शन्नो जी, इस बार तो आपने नीलम जी से इंतज़ार करवा लिया। ये आपकी कोई नई अदा है क्या? :) यह रहा आपका शेर:
कोई आतिश बन चला गया
जले दिल को और जला गया.
सुमित जी, इस बार भी कोई शेर नहीं. बहुत ना-इंसाफ़ी है.. इसकी सजा मिलेगी, बराबर मिलेगी..गब्बर साहिबा किधर हैं आप?
अवनींद्र जी, आपको पढना हर बार हीं सुकूनदायक होता है। आज भी वही कहानी है.. ये रही आपकी पंक्तियाँ:
रूह टटोली तो तेरी याद के खंज़र निकले
मय मैं डूबे तो तेरे इश्क के अंदर निकले
हम तो समझे थे होगी तेरी याद की चिंगारी
दिल टटोला तो आतिश के समंदर निकले
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
शे’र पेश है :
रोज़ अखबारों में पढ़ कर ये ख़याल आया हमें,
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार ।
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके है इतने इश्तहार ।
(दुश्यंत कुमार )
ख्वाब में आके मुझे फिर से वो तड्पाएंगे ।
(स्वरचित)
कई ख्वाब देख डाले यहाँ मेरी बे-खुदी ने ।
तुमको देखा तो ये ख़याल आया
ज़िन्दगी धूप तुम घना साया ।
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि जैसे तुमको बनाया गया है मेरे लिए ।
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया.
अवध लाल
लगता है की आज हमने जल्दी कर दी अपनी हाजिरी लगाने में यहाँ...अपने बारे में तो शिकायत सुन ली हमने..लेकिन यहाँ हमारी शिकायत करने के लिये लोग मुंह खोलते हैं फिर खुद एक कार्नर में जाकर बैठ जाते हैं :) एक तो गब्बर साहिबा हमको डांटती-फटकारती रहती हैं..फिर हम पर और भी कुछ लोग धौंस रखते हैं..आज यहाँ न ठाकुर का पता अब तक.. न गब्बर साहिबा की कोई गर्जन की आवाज़..न सुमित जी ही गब्बर साहिबा की चमचागिरी करने अब आते..और ये तन्हा जी क्या सजा दे पायेंगे सुमित को..सब झूठ...कहीं उल्टा लटक गये तो..???? :) अंग्रेजों के ज़माने का जेलर अब वकालत जो पढ़ रहा है...हा हा हा हा...रामगढ़ की पहाड़ियों पर सन्नाटा छाया है आज...ओ! ठाकुर और गब्बर जी.. कहाँ हो आप दोनों..?..लगता है गिरोह के लोगों को धीरे-धीरे ही आने की आदत है...चलो कोई बात नहीं हम भी अपनी बकवास बंद करके और अपने दो शेर पेश करके टरकते हैं यहाँ से :
किसी की कलम करती है ख्यालों में सफ़र
लिखती है इफ़रात की बातें पर सवालों में ही.
-शन्नो
अदा का ख्याल क्या आयेगा उसको
जिसे खाकसारी से ही फुर्सत न हो.
-शन्नो
अब चलते हैं...खुदा हाफिज..
ख़याल की महफिल में तुम जब -जब आए ,
अमावस्या भी पूर्णिमा -सी नजर है आए .
bade uncle ke liye...
jagjeet singh ....shaayad theeek hi honge..jo aapne uncle ki antim vidaayi ke liye unhe bulaayaa hai to..
!!
ham ko maaloom hai .......
.............ghaalib, ye khayaal achchhaa hai..
!!!
!!
!
ख़याल लफ्ज़ मुझे बहुत पसंद है... और इसी वजह से इस पर कुछ कह पाना मुश्किल हो जाता है क्यूंकि जब कोई आपके करीब हो तो उसको उसके हिस्से कि इज्ज़त देने की पशोपेश उतनी ही बढ़ जाती है..
फिर भी कुछ कोशिश की क्यूंकि अगर बिना कुछ कहे जाती तो मुझे बुरा लगता...
कुछ लफ्ज़ मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम.....
" गुफ्तगू में रहे या ख़यालों में हो,
बात ये है कि वो यूँ ही दिल में रहे"
शब-ए-फ़िराक़ है या तेरी जल्वाआराई
तू किस ख़याल में है ऐ मंज़िलों के शादाई
उन्हें भी देख जिन्हें रास्ते में नींद आई
(नासिर काज़मी )
regards
दुनिया हमारी ग़म की बसा कर चले गये
(फ़ानी बदायूनी )
जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही
(बशीर बद्र )
किस का ख़याल आईना-ए-इन्तिज़ार था
हर बरग-ए-गुल के परदे में दिल बे-क़रार था
(ग़ालिब )
तेरा ख़याल दिल से मिटाया नहीं अभी
बेदर्द मैं ने तुझ को भुलाया नहीं अभी
(साहिर लुधियानवी )
regards
आप kahannnnnnnnnnnnnnnnnnn
gaayabbbbbbbbbbbbb
hooooooooooooo
फ़ौरन tashreefffffffffffffffffffffffff
लाओ
हमें आपने यहाँ akelaaaaaaaa
क्यों छोड़ दिया....????????
गलत बात है.....
Gaalib saheb ab vida le rahe hain..
ग़ालिब पर शानदार सिरीज़ लिखने के लिये आपको बधाई. पिछले दस episodes में हम चाचा ग़ालिब के साथ कभी रोये और कभी हँसे, पर एक बार भी बोर नहीं हुये :). आपकी रिसर्च ने हमें भी ग़ालिब के ज़माने की सैर करा दी. धन्यवाद.
पिछली बार के शेर के शब्दार्थ देखेंगे तो समझने में आसानी होगी.
रकाबत है या आतिश ज़ालिम,
तेरा आना फुरकत का पैगाम हुआ.
रकाबत - इर्ष्या - jealousy
फुरकत- जुदाई - separation
उम्मीद है कि अब शेर इतना घुमावदार ना रहा होगा :) .
is baar gabaar viashno mata ke darshan ke liye chala gaya tha .........muaaf kijiye ,