स्वरगोष्ठी – 289 में आज
नौशाद के गीतों में राग-दर्शन – 2 : नूरजहाँ का गाया मोहक गीत
“जवाँ है मोहब्बत, हसीं है जमाना...”
‘रेडियो
प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी हमारी
नई श्रृंखला – “नौशाद के गीतों में राग-दर्शन” की दूसरी कड़ी में मैं
कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला
में हम भारतीय फिल्म संगीत के शिखर पर विराजमान नौशाद अली के व्यक्तित्व और
उनके कृतित्व पर चर्चा करेंगे। श्रृंखला की विभिन्न कड़ियों में हम आपको
फिल्म संगीत के माध्यम से रागों की सुगन्ध बिखेरने वाले अप्रतिम संगीतकार
नौशाद अली के कुछ राग-आधारित गीत प्रस्तुत करेंगे। इस श्रृंखला का समापन हम
आगामी 25 दिसम्बर को नौशाद अली के 98वीं जयन्ती के अवसर पर करेंगे। 25
दिसम्बर, 1919 को सांगीतिक परम्परा से समृद्ध शहर लखनऊ के कन्धारी बाज़ार
में एक साधारण परिवार में नौशाद का जन्म हुआ था। नौशाद जब कुछ बड़े हुए तो
उनके पिता वाहिद अली घसियारी मण्डी स्थित अपने नए घर में आ गए। यहीं निकट
ही मुख्य मार्ग लाटूश रोड (वर्तमान गौतम बुद्ध मार्ग) पर संगीत के
वाद्ययंत्र बनाने और बेचने वाली दूकाने थीं। उधर से गुजरते हुए बालक नौशाद
घण्टों दूकान में रखे साज़ों को निहारा करता था। एक बार तो दूकान के मालिक
गुरबत अली ने नौशाद को फटकारा भी, लेकिन नौशाद ने उनसे आग्रह किया की वे
बिना वेतन के दूकान पर रख लें। नौशाद उस दूकान पर रोज बैठते, साज़ों की
झाड़-पोछ करते और दूकान के मालिक का हुक्का तैयार करते। साज़ों की झाड़-पोछ के
दौरान उन्हें कभी-कभी बजाने का मौका भी मिल जाता था। उन दिनों मूक फिल्मों
का युग था। फिल्म प्रदर्शन के दौरान दृश्य के अनुकूल सजीव संगीत प्रसारित
हुआ करता था। लखनऊ के रॉयल सिनेमाघर में फिल्मों के प्रदर्शन के दौरान एक
लद्दन खाँ थे जो हारमोनियम बजाया करते थे। यही लद्दन खाँ साहब नौशाद के
पहले गुरु बने। नौशाद के पिता संगीत के सख्त विरोधी थे, अतः घर में बिना
किसी को बताए सितार नवाज़ युसुफ अली और गायक बब्बन खाँ की शागिर्दी की। कुछ
बड़े हुए तो उस दौर के नाटकों की संगीत मण्डली में भी काम किया। घर वालों की
फटकार बदस्तूर जारी रहा। अन्ततः 1937 में एक दिन घर में बिना किसी को बताए
माया नगरी बम्बई की ओर रुख किया।
नूरजहाँ |
सबसे
पहले नौशाद को ‘न्यू पिक्चर कम्पनी’ में उस्ताद झण्डे खाँ के संगीत
निर्देशन में पियानो वादक की नौकरी मिली थी। यहाँ उन्हें चालीस रुपये
प्रतिमाह वेतन मिलता था। नौशाद की अभिरुचि संगीत के साथ-साथ साहित्य में भी
थी। उन्हीं दिनों नौशाद की मित्रता गीतकार पी.एल. सन्तोषी से हुई। सन्तोषी
गीत लिखते समय प्रायः नौशाद से सलाह-मशविरा भी करते थे। उन दिनों नौशाद
परेल की एक चाल में दस रुपये माहवार पर रहने लगे थे। उस दौर में ‘न्यू
पिक्चर कम्पनी’ की फिल्म ‘सुनहरी मकड़ी’ का निर्माण हो रहा था। उस्ताद झण्डे
खाँ की एक धुन से कम्पनी के मालिक हेनरी डोरग्वोच सन्तुष्ट नहीं हो रहे
थे। नौशाद ने उस्ताद झण्डे खाँ से इजाज़त लेकर पियानो पर तुरन्त उस गीत को
एक नई धुन में ढाल दिया। इस नई धुन को सुन कर हेनरी बहुत खुश हुए और नौशाद
की तरक्की सहायक के रूप में हो गई। परन्तु वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई।
फिल्म का संगीत पूरा होने बाद नौशाद का हिसाब चुकता कर कम्पनी से हटा दिया
गया। फिर काम की तलाश शुरू हुई और इसी सिलसिले में नौशाद का दूसरा ठिकाना
‘फिल्म सिटी’ कम्पनी बनी। इस कम्पनी में नौशाद संगीतकार मुश्ताक हुसेन के
सहायक बने। यहाँ उन्होने तीन फिल्मों में सहायक संगीतकार के रूप में काम
किया। ‘फिल्म सिटी’ कम्पनी के बाद नौशाद ‘रणजीत फिल्म कम्पनी’ की पंजाबी
फिल्म ‘मिर्ज़ा साहिबाँ’ के नायक और संगीतकार मनोहर कपूर के सहायक बन गए।
यहीं उनकी मित्रता गीतकार डी.एन. मधोक से हो गई, जो आगे चल कर नौशाद के
बहुत काम आई। 1939 में मधोक की सिफ़ारिश पर नौशाद को रणजीत कम्पनी की फिल्म
‘कंगन’ के संगीत निर्देशक के रूप में चुना गया। फिल्म का पहला गीत- “बता दो मोहे कौन गली गए श्याम...”
उन्होने रिकार्ड तो करा दिया, किन्तु साजिन्दों के असहयोगात्मक रवैये के
कारण मात्र एक गीत रिकार्ड करने के बाद नौशाद ने कम्पनी से त्यागपत्र दे
दिया। मधोक की सिफ़ारिश पर नौशाद को ‘भवनानी प्रोडक्शन’ की 1940 में
प्रदर्शित फिल्म ‘प्रेम नगर’ में संगीतकार के रूप में नियुक्त किया गया।
स्वतंत्र संगीतकार के रूप में नौशाद को अवसर तो 1939-40 में ही मिल चुका
था। अपने शुरुआती दौर में उन्होने उत्तर प्रदेश की लोकधुनों का प्रयोग करते
हुए अनेक लोकप्रिय गीत रचे। ऐसे गीतों में प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की
छटा थी। दरअसल नौशाद के ऐसे प्रयोगों से उन दिनों प्रचलित फिल्म संगीत को
एक नया मुहावरा मिला। आगे चल कर अन्य संगीतकारों ने भी प्रादेशिक और
क्षेत्रीय लोक संगीत से जुड़ कर ऐसे ही प्रयोग किए।
आज
के अंक में हम आपको नौशाद के संगीत निर्देशन में 1946 में प्रदर्शित फिल्म
‘अनमोल घड़ी’ से एक बेहद लोकप्रिय गीत सुनवाते हैं। ‘महबूब प्रोडक्शन’ की
यह फिल्म व्यावसायिक दृष्टि से अत्यन्त सफल थी। नौशाद और गायिका-अभिनेत्री
नूरजहाँ का अविस्मरणीय साथ इस फिल्म की यादगार उपलब्धि थी। इस फिल्म का एक
गीत- “जवाँ है मोहब्बत, हसीं है जमाना...” राग पहाड़ी की छाया लिये
हुए है। गीत को नूरजहाँ ने स्वर दिया है। गीत में कहरवा ताल में ढोलक का
अत्यन्त आकर्षक प्रयोग किया गया है। राग पहाड़ी का अत्यन्त सरलीकृत और
आकर्षक रूप आपको इस गीत में परिलक्षित होगा।
राग पहाड़ी : “जवाँ है मोहब्बत, हसीं है जमाना...” : नूरजहाँ : फिल्म – अनमोल घड़ी
पं. निखिल बनर्जी |
यह
मान्यता है की प्रकृतिजनित, नैसर्गिक रूप से लोक कलाएँ पहले उपजीं,
परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणवत्ता के कारण
ये शास्त्रीय रूप में ढल गईं। प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि प्रवर्तित
ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' को पंचमवेद माना जाता है। नाट्यशास्त्र के प्रथम
भाग, पंचम अध्याय के श्लोक संख्या 57 में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि
लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित
होता है। श्लोक का अर्थ है कि इस चर-अचर में उपस्थित जो भी दृश्य-अदृश्य विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र रचना के मूल तत्त्व हैं।
भारतीय संगीत के कई रागों का उद्गम लोक संगीत से हुआ है। इन्हीं में से एक
है, राग पहाड़ी, जिसकी उत्पत्ति भारत के पर्वतीय अंचल में प्रचलित लोक
संगीत से हुई है। राग पहाड़ी बिलावल थाट के अन्तर्गत माना जाता है। इस राग
में मध्यम और निषाद स्वर बहुत अल्प प्रयोग किया जाता है। इसीलिए राग की
जाति का निर्धारण करने में इन स्वरों की गणना नहीं की जाती और इसीलिए इस
राग को औड़व-औड़व जाति का मान लिया जाता है। राग का वादी स्वर षडज और संवादी
स्वर पंचम होता है। इसका चलन चंचल है और इसे क्षुद्र प्रकृति का राग माना
जाता है। इस राग में ठुमरी, दादरा, गीत, ग़ज़ल आदि रचनाएँ खूब मिलती हैं। आम
तौर पर गायक या वादक इस राग को निभाते समय रचना का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए
विवादी स्वरों का उपयोग भी कर लेते हैं। मध्यम और निषाद स्वर रहित राग
भूपाली से बचाने के लिए राग पहाड़ी के अवरोह में शुद्ध मध्यम स्वर का प्रयोग
किया जाता है। मन्द्र धैवत पर न्यास करने से राग पहाड़ी स्पष्ट होता है। इस
राग के गाने-बजाने का सर्वाधिक उपयुक्त समय रात्रि का पहला प्रहर माना
जाता है। राग पहाड़ी के स्वरूप को स्पष्ट रूप से अनुभव करने के लिए अब आप
इसी राग की एक रचना सितार पर सुनिए। वादक हैं, सुविख्यात सितार वादक पण्डित
निखिल बनर्जी। इस प्रस्तुति में पण्डित जी पहले आलाप और फिर मध्यलय में एक
गत का सम्मोहक वादन किया है। आप राग पहाड़ी की यह रचना सुनिए और मुझे आज के
इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग पहाड़ी : सितार पर राग पहाड़ी का आलाप और गत : पण्डित निखिल बनर्जी
संगीत पहेली
1 – गीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि आपको किस राग की झलक मिल रही है?
2 – प्रस्तुत रचना किस ताल में निबद्ध है? ताल का नाम बताइए।
3 – क्या आप गायिका की आवाज़ को पहचान सकते हैं? यदि हाँ, तो उनका नाम बताइए।
आप इन तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार, 29 अक्तूबर, 2016 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते है, किन्तु उसका प्रकाशन अन्तिम तिथि के
बाद किया जाएगा। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 291वें अंक में प्रकाशित
करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत किये गए गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे
में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते
हैं तो हम आपका इस मंच पर स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए
COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
के 287वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको लगभग सात दशक पुराने,
लोकप्रिय फिल्म ‘शाहजहाँ’ से राग आधारित गीत का एक अंश सुनवाया था और आपसे
तीन में से किसी दो प्रश्न का उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है-
राग – भैरवी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल – कहरवा और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है- गायक – कुन्दनलाल सहगल।
इस बार की पहेली के प्रश्नों के सही उत्तर देने वाले प्रतिभागी हैं, चेरीहिल, न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, वोरहीज़, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया, जबलपुर से क्षिति तिवारी और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी। सभी पाँच प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
मित्रो,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ में अपने
सैकड़ों पाठकों के अनुरोध पर पिछले अंक से एक नई लघु श्रृंखला “नौशाद के
गीतों में राग-दर्शन” आरम्भ किया है। इस श्रृंखला के लिए हमने संगीतकार
नौशाद के आरम्भिक दो दशकों की फिल्मों के गीत चुने हैं। श्रृंखला का आलेख
को तैयार करने में हमने फिल्म संगीत के जाने-माने इतिहासकार और हमारे
सहयोगी स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी और लेखक पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की
यात्रा’ का सहयोग लिया है। गीतों के चयन के लिए हमने अपने पाठकों की फरमाइश
का ध्यान रखा है। यदि आप भी किसी राग, गीत अथवा कलाकार को सुनना चाहते हों
तो अपना आलेख या गीत हमें शीघ्र भेज दें। हम आपकी फरमाइश पूर्ण करने का हर
सम्भव प्रयास करते हैं। आपको हमारी यह श्रृंखला कैसी लगी? हमें ई-मेल swargoshthi@gmail.com
पर अवश्य लिखिए। अगले रविवार को एक नए अंक के साथ प्रातः 8 बजे
‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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