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"चार दिनों की जवानी दीवाने पी ले पी ले...”, आज बेगम अख़्तर की गायकी का एक अलग ही रंग सुनिए



 एक गीत सौ कहानियाँ - 97
 

'चार दिनों की जवानी दीवाने पी ले पी ले...' 



रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'| इसकी 97-वीं कड़ी में आज जानिए 1942 की फ़िल्म ’रोटी’ के गीत "चार दिनों की जवानी, दीवाने पी ले पीले...” के बारे में जिसे बेगम अख़्तर ने गाया था। बोल डॉक्टर सफ़दार ’आह’ सीतापुरी की और संगीत अनिल बिस्वास का।  

अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी (बेगम अख़्तर)
बे
गम अख़्तर उपशास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में एक चमकता सितारा हैं। लेकिन उपशास्त्रीय संगीत और गज़लों में

अपनी पहचान से पहले उन्हें उर्दू और हिन्दी थिएटर में बतौर अभिनेत्री एक लगाव सा रहा जो फ़िल्म निर्माण के शुरू होने पर फ़िल्मों की तरफ़ भी बढ़ा। उनका थिएटर और फ़िल्मों में पदार्पण उतना ही अचानक था जितनी उनकी पहली पब्लिक प्रस्तुति बतौर शास्त्रीय गायिका जो 1925 में कलकत्ता में आयोजित बिहार फ़्लड रिलीफ़ कॉनसर्ट में थी। इसमें उन्हें तब अचानक मौक़ा मिल गया जब अन्य सभी बड़े कलाकारों ने ऐन मौक़े पर इनकार कर दिया था। दर्शकों और श्रोताओं को शान्त करने के लिए आयोजकों ने अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी को स्टेज पर भेजा। जब उन्होंने “तूने बुत-ए-हरजाई कुछ ऐसी अदा पायी...” ग़ज़ल पेसशक तो वहाँ मौजूद दर्शकों ने उनसे और ग़ज़लों, दादरा और ठुमरियों की माँग की। दो घंटों तक अख़्तरीबाई प्रोग्राम पेश करती रहीं, और लोगों को समझ आ गया कि एक नए सितारे का अभी अभी जन्म हुआ है। उस ऑडिएन्स में मेगाफ़ोन रेकॉर्डिंग् कंपनी के चीफ़ एग्ज़िक्युटिव और कोरिन्थिअन थिएटर के मालिक भी शामिल थे। अच्छी गायकी के साथ-साथ अख़्तरीबाई देखने में भी सुन्दर थीं। बस, कोरिन्थिअन थिएटर में उन्हें सिंगिंग्‍ स्टार का रोल मिल गया। दर्जनों में नाटकों में उन्होंने वहाँ अभिनय किया और गीत गाए। रोचक तथ्य है कि ’लैला मजनूं’ नाटक में उन्होंने मजनूं का रोल निभाया क्योंकि उस किरदार के लिए 16 गीत थे।

फ़िल्मों का दौर शुरू होते ही अख़्तरीबाई फ़िल्मों में आ गईं। ’ईस्ट इण्डिया फ़िल्म कंपनी’ में बतौर
अनिल बिस्वास
सिंगिंग्‍ स्टार दाख़िल हो गईं। वहाँ उनके अभिनय व गायक से सजी पहली फ़िल्म निकली ’एक दिन का बादशाह’ जो बनी
1933 में। फिर उसके बाद ’नल दमयन्ती’ (1933), ’मुमताज़ बेगम’ (1934), रूप कुमारी’ (1934), ’अमीना’ (1934), ’जवानी का नशा’ (1935), ’नसीब का चक्कर’ (1936) जैसी फ़िल्में आईं। फ़िल्मों में अत्यधिक व्यस्त होने की वजह से संगीत के प्रति एक तरह से वो अन्याय कर रही थीं। इसलिए 1937-38 में उन्होंने फ़िल्मों से सन्यास लेकर लखनऊ चली गईं और गायन में पूरा ध्यान लगा दिया। एक छोटे अरसे के लिए वो रामपुर के नवाब के दरबार में गायिका भी रहीं। उनके फ़िल्मों का सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ था। 1941 में अख़्तरीबाई पूना गईं एक स्टेज शो के लिए। उस शो में निर्माता-निर्देशक महबूब ख़ान और संगीतकार अनिल बिस्वास भी ऑडिएन्स में बैठे उनका गायन सुन रहे थे। दरसल वो वहाँ अख़्तरीबाई को अपनी अगली फ़िल्म ’रोटी’ में गवाने के लिए राज़ी करवाने के उद्येश्य से ही आए थे। बात कुछ यूं हुई कि जब महबूब साहब ने अनिल दा को आकर कहा कि ’रोटी’ के गीत सरदार अख़्तर गायेंगी, तब अनिल दा ने साफ़-साफ़ कह दिया कि फिर गाने वैसे ही बनेंगे। महबूब साहब चिढ़ कर बोले कि क्या तुझे अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी चाहिए? अनिल दा ने साफ़ जवाब दिया कि मँगवा दे! इस तरह से दोनों पहुँच गए पूना। उन दिनों रामपुर के नवाब उनसे निकाह करना चाहते थे, पर अख़्तरीबाई को शादी के बन्धनों में नहीं बंधना था। इसलिए महबूब के ’रोटी’ के प्रस्ताव को पाकर बम्बई स्थानान्तरित होने का फ़ैसला लिया। 1942 में प्रदर्शित ’रोटी’ अख़्तरीबाई की बतौर अभिनेत्री अन्तिम हिन्दी फ़िल्म साबित हुई।


’रोटी’ में बेगम अख़्तर यानी अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के गाए छह गीत थे। इस फ़िल्म में अख़्तरीबाई के साथ चन्द्रमोहन, शेख मुख़्तार अशरफ़ ख़ान और सितारा देवी ने मुख्य किरदारों में अभिनय किया। अफ़सोस की बात यह था कि जब यह फ़िल्म रिलीज़ होने ही वाली थी तब मेगाफ़ोन रेकॉर्डिंग् कंपनी ने उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर दिया क्योंकि उनके साथ उनका कॉनट्रैक्ट था। अदालत ने फ़िल्म पर रोक लगा दी, और फ़िल्म तभी जारी हो सकी जब उनके गाए सभी गीतों को फ़िल्म से हटा दिया गया। बाद में मेगाफ़ोन ने ही इन छह गीतों का 78 RPM रेकॉर्ड जारी किया। “चार दिन की जवानी...” गीत एक पार्टी गीत है जिसे अख़्तरीबाई फ़िल्म के किरदार के अनुरूप गाती हैं। इस फ़िल्म में उनके गाए छह गीतों में चार ग़ज़लें हैं जिनमें अनिल बिसवास से ज़्यादा उनकी ख़ुद की पहचान दिखती है। पर बाक़ी के दो गीत फ़िल्मी शैली के गीत हैं, और आज का प्रस्तुत गीत इन्हीं में से एक है। आप भी सुनिए और आनन्द लीजिए अख्तरीबाई फ़ैज़ाबादी उर्फ़ बेगम अख़्तर के गाए इस बिल्कुल ही अलग अन्दाज़ के गीत का। 




अब आप भी 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तंभ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें soojoi_india@yahoo.co.in के पते पर। 



आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र 






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