मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है
कहकशाँ - 21
राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में पंजाबी नगमा
"मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में एक पंजाबी नगमा।
आवाज़ की दुनिया के एक शख्स ऐसे हैं जिनके लिए सात सुर इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह हैं, इन सात
रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज़्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम ही गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं ही बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन, लेकिन अब बनती ही नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढ़कर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ। जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की ही बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे ही राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले ही बनते हैं।
यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाइयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे; पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से ही राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से ही चलता यह सिलसिला तब ख़त्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने ही नुसरत साहब की जगह ली।
राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंस ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले ही बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के ज़रिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में ही "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले ही "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले ही बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में ही इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे ही पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।
बातें बहुत हो गईं, अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। मुझे भले ही इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढ़ाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढ़ा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना"- यह पंक्ति ही काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना!
रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज़्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम ही गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं ही बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन, लेकिन अब बनती ही नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढ़कर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ। जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की ही बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे ही राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले ही बनते हैं।
यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाइयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे; पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से ही राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से ही चलता यह सिलसिला तब ख़त्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने ही नुसरत साहब की जगह ली।
राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंस ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले ही बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के ज़रिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में ही "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले ही "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले ही बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में ही इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे ही पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।
बातें बहुत हो गईं, अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। मुझे भले ही इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढ़ाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढ़ा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना"- यह पंक्ति ही काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना!
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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