कहकशाँ - 5
मन्ना डे, योगेश, श्याम सागर की एक रंगरेज़ रचना
"रंग वो जिस में रंगी थी राधा, रंगी थी जिसमें मीरा..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है होली के इस ख़ास मौक़े पर मन्ना डे की आवाज़ में योगेश की एक रचना।
अगर आपसे कहूँ कि हमारे आज के फ़नकार "श्री प्रबोध चंद्र जी" हैं तो लगभग १ या २ फीसदी लोग ही होंगे जो इन्हें जानने का दावा करेंगे या फिर उतने लोग भी न होंगे। लेकिन यह सच है। अरे-अरे डरिये मत.. मैं किसी अजनबी की बात नहीं कर रहा; जिनकी भी बात कर रहा हूँ उन्हें आप सब जानते हैं। जैसे श्री हरिहर ज़रिवाला को लोग संजीव कुमार कहते हैं, वैसे ही हमारे प्रबोध चंद्र जी यानि कि प्रबोध चंद्र डे को लोग उनके उपनाम मन्ना डे के नाम से बेहतर जानते हैं। मन्ना दा ने फिल्म-संगीत को कई कालजयी गीत दिए हैं। चाहे "चोरी-चोरी" का लता के साथ "आजा सनम मधुर चाँदनी में हम" हो या फिर "उपकार" का कल्याण जी-आनंद जी की धुनों पर "कसमें-वादे प्यार वफ़ा" हो या फिर सलिल चौधरी के संगीत से सजी "आनंद" फिल्म की "ज़िंदगी कैसी है पहेली" हो, मन्ना दा ने हर एक गाने में ही अपनी गलाकारी का अनूठा नमूना पेश किया है, उनके गाये शास्त्रीय-संगीत आधारित रचनाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए!
चलिये अब आज के गाने की ओर रूख करते हैं। 2005 में रीलिज़ हुई "सावन की रिमझिम में" नाम के एक ऐल्बम में मन्ना दा के लाजवाब पंद्रह गीतों को संजोया गया था। यह गाना भी उसी ऐल्बम से है। वैसे मैंने यह पता करने की बहुत कोशिश की कि यह गाना मूलत: किस ग़ैर-फिल्मी ऐल्बम या ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड से है ,लेकिन मैं इसमें सफल नहीं हो पाया। तो आज हम जिस गाने की बात कर रहे हैं उसे लिखा है योगेश ने और अपने सुरों से सजाया है श्याम सागर ने और वह गाना है: "ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया"। वैसे इस ऐल्बम में इस तिकड़ी के एक और गाने को स्थान दिया गया था- "कुछ ऐसे भी पल होते हैं..." । संयोग देखिए कि जिस तरह हिन्दी फिल्मों में मन्ना दा की प्रतिभा की सही कद्र नहीं हुई उसी तरह कुछ एक संगीतकारों को छोड़ दें तो बाकी संगीतकारों ने योगेश क्या हैं, यह नहीं समझा। भला कौन "जिंदगी कैसी है पहेली" या फिर "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" में छिपी भावनाओं के सम्मोहन से बाहर आ सकता है भला!
लोग माने या ना मानें लेकिन इस गाने और मन्ना दा के एक और गाने "लागा चुनरी में दाग" में गहरा साम्य है। साहिर का वह गाना या फिर योगेश का यह गाना निर्गुण की श्रेणी में आता है, जैसा कबीर लिखा करते थे, जैसे सूफियों के कलाम होते हैं। प्रेमिका जब ख़ुदा या ईश्वर में तब्दील हो जाए या फिर जब ख़ुदा या ईश्वर में आपको अपना पिया/अपनी प्रिया दिखने लगे, तब ही ऐसे नज़्म सीने से निकलते हैं। मेरे मुताबिक इस गाने में भी वैसी ही कुछ बातें कही गई हैं। और सच कहूँ तो कई बार सुनकर भी मैं इस गाने में छुपे गहरे भावों को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ। राधा का नाम लेकर योगेश अगर सांसारिक प्रेम की बातें कर रहे हैं तो फिर मीरा या कबीर का नाम लेकर वो दिव्य/स्वर्गीय प्रेम की ओर इशारा भी कर रहे हैं। वैसे प्रेम सांसारिक हो या फिर दिव्य, प्रेम तो प्रेम है और प्रेम से बड़ा अनुभव कुछ भी नहीं।
हुलस हुलस हरसे हिया, हुलक हुलक हद खोए,
उमड़ घुमड़ बरसे पिया, सुघड़ सुघड़ मन होए।
दर-असल प्रेम वह कोहिनूर है, जिसके सामने सारे नूर फीके हैं। प्रेम के बारे में कुछ कहने से अच्छा है कि हम ख़ुद ही प्रेम के रंग में रंग जाएँ। तो चलिए आप भी हमारे साथ रंगरेज के पास और गुहार लगाइये कि:
ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा....
पग-पग पर लाखों ही ठग थे तन रंगने की धुन में,
सबसे सब दिन बच निकला मन पर बच ना सका फागुन में।
तो... जग में ये तन ये मेरा मन रह ना सका बैरागी,
कोरी-कोरी चुनरी मोरी हो गई हाय रे दागी।
अब जिया धड़के, अब जिया भड़के
इस चुनरी पे सबकी नजरिया गड़े,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....
रंग वो जिस में रंगी थी राधा, रंगी थी जिसमें मीरा,
उसी रंग में सब रंग डूबे कह गए दास कबीरा।
तो... नीले पीले लाल सब्ज रंग तू ना मुझे दीखला रे,
मैं समझा दूँ भेद तुझे ये , तू ना मुझे समझा रे।
प्रेम है रंग वो, प्रेम है रंग वो,
चढ़ जाए तो रंग ना दूजा चढ़े,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....
चलिये अब आज के गाने की ओर रूख करते हैं। 2005 में रीलिज़ हुई "सावन की रिमझिम में" नाम के एक ऐल्बम में मन्ना दा के लाजवाब पंद्रह गीतों को संजोया गया था। यह गाना भी उसी ऐल्बम से है। वैसे मैंने यह पता करने की बहुत कोशिश की कि यह गाना मूलत: किस ग़ैर-फिल्मी ऐल्बम या ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड से है ,लेकिन मैं इसमें सफल नहीं हो पाया। तो आज हम जिस गाने की बात कर रहे हैं उसे लिखा है योगेश ने और अपने सुरों से सजाया है श्याम सागर ने और वह गाना है: "ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया"। वैसे इस ऐल्बम में इस तिकड़ी के एक और गाने को स्थान दिया गया था- "कुछ ऐसे भी पल होते हैं..." । संयोग देखिए कि जिस तरह हिन्दी फिल्मों में मन्ना दा की प्रतिभा की सही कद्र नहीं हुई उसी तरह कुछ एक संगीतकारों को छोड़ दें तो बाकी संगीतकारों ने योगेश क्या हैं, यह नहीं समझा। भला कौन "जिंदगी कैसी है पहेली" या फिर "कहीं दूर जब दिन ढल जाए" में छिपी भावनाओं के सम्मोहन से बाहर आ सकता है भला!
लोग माने या ना मानें लेकिन इस गाने और मन्ना दा के एक और गाने "लागा चुनरी में दाग" में गहरा साम्य है। साहिर का वह गाना या फिर योगेश का यह गाना निर्गुण की श्रेणी में आता है, जैसा कबीर लिखा करते थे, जैसे सूफियों के कलाम होते हैं। प्रेमिका जब ख़ुदा या ईश्वर में तब्दील हो जाए या फिर जब ख़ुदा या ईश्वर में आपको अपना पिया/अपनी प्रिया दिखने लगे, तब ही ऐसे नज़्म सीने से निकलते हैं। मेरे मुताबिक इस गाने में भी वैसी ही कुछ बातें कही गई हैं। और सच कहूँ तो कई बार सुनकर भी मैं इस गाने में छुपे गहरे भावों को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ। राधा का नाम लेकर योगेश अगर सांसारिक प्रेम की बातें कर रहे हैं तो फिर मीरा या कबीर का नाम लेकर वो दिव्य/स्वर्गीय प्रेम की ओर इशारा भी कर रहे हैं। वैसे प्रेम सांसारिक हो या फिर दिव्य, प्रेम तो प्रेम है और प्रेम से बड़ा अनुभव कुछ भी नहीं।
हुलस हुलस हरसे हिया, हुलक हुलक हद खोए,
उमड़ घुमड़ बरसे पिया, सुघड़ सुघड़ मन होए।
दर-असल प्रेम वह कोहिनूर है, जिसके सामने सारे नूर फीके हैं। प्रेम के बारे में कुछ कहने से अच्छा है कि हम ख़ुद ही प्रेम के रंग में रंग जाएँ। तो चलिए आप भी हमारे साथ रंगरेज के पास और गुहार लगाइये कि:
ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा....
पग-पग पर लाखों ही ठग थे तन रंगने की धुन में,
सबसे सब दिन बच निकला मन पर बच ना सका फागुन में।
तो... जग में ये तन ये मेरा मन रह ना सका बैरागी,
कोरी-कोरी चुनरी मोरी हो गई हाय रे दागी।
अब जिया धड़के, अब जिया भड़के
इस चुनरी पे सबकी नजरिया गड़े,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऎसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....
रंग वो जिस में रंगी थी राधा, रंगी थी जिसमें मीरा,
उसी रंग में सब रंग डूबे कह गए दास कबीरा।
तो... नीले पीले लाल सब्ज रंग तू ना मुझे दीखला रे,
मैं समझा दूँ भेद तुझे ये , तू ना मुझे समझा रे।
प्रेम है रंग वो, प्रेम है रंग वो,
चढ़ जाए तो रंग ना दूजा चढ़े,
ओ रंगरेजवा रंग दे ऐसी चुनरिया कि रंग ना फीका पड़े।
ओ रंगरेजवा.....
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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