कहकशाँ - 6
आज की ग़ज़ल में ग़ुलाम अली
निगाहों से हमें समझा रहे हैं...
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है ग़ुलाम अली की गाई हुई एक ग़ज़ल।
साल 1983 में पैशन्स (Passions) नाम की ग़ज़लों की एकग ऐल्बम आई थी। उस एलबम में एक से बढ़कर एक कुल नौ गज़लें थी। मज़े की बात है कि इन नौ ग़ज़लों के लिए आठ अलग-अलग गज़लगो थे: प्रेम वरबरतनी, एस एम सादिक़, अहमौम फ़राज़, हसन रिज़वी, मोहसिन नक़्वी, चौधरी बशीर, जावेद कुरैशी और मुस्तफा ज़ैदी। और इन सारे गज़लगो की गज़लों को जिस फ़नकार या कहिए गुलूकार ने अपनी आवाज़ और साज़ से सजाया था आज की यह महफिल उन्हीं को नज़र है। उम्मीद है कि आप समझ ही गए होंगे। जी हाँ, हम आज पटियाला घराना के मशहूर पाक़िस्तानी फ़नकार "ग़ुलाम अली" साहब की बात कर रहे हैं।
ग़ुलाम अली साहब, जो कि बड़े ग़ुलाम अली साहब के शागिर्द हैं और जिनके नाम पर इनका नामकरण हुआ है, गज़लों में रागों का बड़ा ही बढ़िया प्रयोग करते हैं। बेशक़ ही ये घराना-गायकी से संबंध रखते हैं, लेकिन घरानाओं (विशेषकर पटियाला घराना) की गायकी को किस तरह गज़लों में पिरोया जाए, इन्हें बख़ूबी आता है। ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ में वो मीठापन और वो पुरकशिश ताज़गी है, जो किसी को भी अपना दीवाना बना दे। अपनी इसी बात की मिसाल रखने के लिए हम आपको ’पैशन्स’ ऐल्बम से एक गज़ल सुनाते हैं, जिसे लिखा है जावेद कुरैशी ने। हाँ, सुनते-सुनते आप मचल न पड़े तो कहिएगा।
अच्छा रूकिये, सुनने से पहले थोड़ा माहौल बनाना भी तो ज़रूरी है। अरे भाई, गज़ल ऐसी चीज़ है जो इश्क़ के बिना अधूरी है और इ्श्क़ एक ऐसा शय है जो अगर आँखों से न झलके तो कितने भी लफ़्ज क्यों न कुर्बान किए जाएँ, सामने वाले पर कोई असर नहीं होता। इसलिए आशिक़ी में लफ़्ज़ परोसने से पहले ज़रूरी है कि बाकी सारी कवायदें पूरी कर ली जाएँ। और अगर आशिक़ आँखों की भाषा न समझे तो सारी आशिक़ी फिज़ूल है। मज़ा तो तब आता है जब आपका हबीब लबों से तबस्सुम छिरके और आँखों से सारा वाक्या कह दे। इसी बात पर मुझे अपना एक पुराना शेर याद आ रहा है:
दबे लब से मोहब्बत की गुज़ारिश हो जो महफिल में,
न होंगे कमगुमां हम ही, न होंगे वो ही मुश्किल में।
यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम उस ग़ज़ल की ओर बढ़ते हैं जिसके लिए आज की कहकशाँ जगमगाई है। वह ग़ज़ल और उसके बोल आप सबके सामने पेशे-खिदमत है:
निगाहों से हमें समझा रहे हैं
नवाज़िश है करम फ़रमा रहे हैं
मैं जितना पास आना चाहता हूँ
वो उतना दूर होते जा रहे हैं
मैं क्या कहता किसी से बीती बातें
वो ख़ुद ही दास्ताँ दोहरा रहे हैं
फ़साना शौक़ का ऐसे सुना है
तबस्सुम ज़ेर-ए-लब फ़रमा रहे हैं
ग़ुलाम अली साहब, जो कि बड़े ग़ुलाम अली साहब के शागिर्द हैं और जिनके नाम पर इनका नामकरण हुआ है, गज़लों में रागों का बड़ा ही बढ़िया प्रयोग करते हैं। बेशक़ ही ये घराना-गायकी से संबंध रखते हैं, लेकिन घरानाओं (विशेषकर पटियाला घराना) की गायकी को किस तरह गज़लों में पिरोया जाए, इन्हें बख़ूबी आता है। ग़ुलाम अली साहब की आवाज़ में वो मीठापन और वो पुरकशिश ताज़गी है, जो किसी को भी अपना दीवाना बना दे। अपनी इसी बात की मिसाल रखने के लिए हम आपको ’पैशन्स’ ऐल्बम से एक गज़ल सुनाते हैं, जिसे लिखा है जावेद कुरैशी ने। हाँ, सुनते-सुनते आप मचल न पड़े तो कहिएगा।
अच्छा रूकिये, सुनने से पहले थोड़ा माहौल बनाना भी तो ज़रूरी है। अरे भाई, गज़ल ऐसी चीज़ है जो इश्क़ के बिना अधूरी है और इ्श्क़ एक ऐसा शय है जो अगर आँखों से न झलके तो कितने भी लफ़्ज क्यों न कुर्बान किए जाएँ, सामने वाले पर कोई असर नहीं होता। इसलिए आशिक़ी में लफ़्ज़ परोसने से पहले ज़रूरी है कि बाकी सारी कवायदें पूरी कर ली जाएँ। और अगर आशिक़ आँखों की भाषा न समझे तो सारी आशिक़ी फिज़ूल है। मज़ा तो तब आता है जब आपका हबीब लबों से तबस्सुम छिरके और आँखों से सारा वाक्या कह दे। इसी बात पर मुझे अपना एक पुराना शेर याद आ रहा है:
दबे लब से मोहब्बत की गुज़ारिश हो जो महफिल में,
न होंगे कमगुमां हम ही, न होंगे वो ही मुश्किल में।
यह तो हुआ मेरा शेर, अब हम उस ग़ज़ल की ओर बढ़ते हैं जिसके लिए आज की कहकशाँ जगमगाई है। वह ग़ज़ल और उसके बोल आप सबके सामने पेशे-खिदमत है:
निगाहों से हमें समझा रहे हैं
नवाज़िश है करम फ़रमा रहे हैं
मैं जितना पास आना चाहता हूँ
वो उतना दूर होते जा रहे हैं
मैं क्या कहता किसी से बीती बातें
वो ख़ुद ही दास्ताँ दोहरा रहे हैं
फ़साना शौक़ का ऐसे सुना है
तबस्सुम ज़ेर-ए-लब फ़रमा रहे हैं
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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