कहकशाँ - 4
बेगम अख्तर और आशा भोसले की दो ग़ज़लें
"जाँ अपनी, जाँनशीं अपनी, तो फिर फ़िक्र-ए-जहाँ क्यों हो?"
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज इसकी चौथी किश्त में पेश है दो ग़ज़लें, पहली ग़ज़ल बेगम अख्तर की आवाज़ में और दूसरी ग़ज़ल है आशा भोसले की गाई हुई।
ग़मे-हस्ती, ग़मे-बस्ती, ग़मे-रोज़गार हूँ,
ग़म की ज़मीं पर गुमशुदा एक शहरयार हूँ।
बात इतनी-सी है कि दिन जलाने के लिए सूरज को जलना ही पड़ता है। अब फ़र्क इतना ही है कि वह सूरज ता-उम्र, ता-क़यामत ख़ुद को बुलंद रख सकता है, लेकिन एक अदना-सा-इंसान ऐसा कर सके, यह मुमकिन नहीं। जलना किसी की भी फितरत में नहीं होता, लेकिन कुछ की किस्मत ही गर्म सुर्ख लोहे से लिखी जाती है, फिर वह जले नहीं तो और क्या करे! वही कुछ को अपनी आबरू आबाद रखने के लिए अपनी हस्ती को आग के सुपूर्द करना होता है। यारों, इश्क़ एक ऐसी ही किस्मत है, जो नसीब से नसीब होती है, लेकिन जिनको भी नसीब होती है, उनकी हस्ती को मु्ज़्तरिब कर जाती है। जिस तरह सूरज ज़मीं के लिए जलता है, उसी तरह इश्क़ में डूबा शख़्स अपने महबूब या महबूबा के लिए सारे दर्द-औ-ग़म सहता रहता है। और ये दर्द-ओ-ग़म उसे कहीं और से नहीं मिलते, बल्कि ये सारे के सारे इसी जहाँ के जहाँपनाहों के पनाह से ही उसकी झोली में आते हैं। सच ही है कि:
राह-ए-मोहब्बत के अगर मंज़िल नहीं ग़म-ओ-अज़ल,
जान लो हाजी की क़िस्मत में नहीं ज़मज़म का जल।
अपने ज़माने के मशहूर शायर शक़ील बदायूंनी इन इश्क़-वालों का हाले-दिल बयां करते हुए कहते हैं:
"किनारों से मुझे ऐ नाख़ुदा दूर ही रखना,
वहाँ लेकर चलो तूफ़ाँ जहाँ से उठने वाला है।"
यह मेरी हक़-परस्ती भी ना मेरे काम है आई,
जिसे ज़ाहिद कहा मैने, वो निकला रब का सौदाई।
आख़िर ऐसा क्यों होता है कि हम औरों से ईमान की बातें करते हैं और जब ख़ुद पर आती है तो ईमान से आँखें चुराने लगते हैं। हम वफ़ा के कसीदे पढ़ते हैं, तहरीरें लिख डालते हैं लेकिन हक़ीक़त में अपने पास वफ़ा को फटकने भी नहीं देते। हद तो तब हो जाती है जब हम महफ़िलों और मुशायरों में प्यार-मोहब्बत के रहनुमा नज़र आते हैं, लेकिन जब अपने घर का कोई प्यार की राह पर चल निकले तो शमशीर लेकर दरवाज़े पर जम जाते हैं। और यह नहीं है कि यह बस किसी-किसी के साथ होता है, यकीं मानिए यह हर किसी के साथ होता है। हर किसी के अंदर एक बगुला भगत होता है, एक ढोंगी निवास करता है। और यही एकमात्र रोग है, जिसने हर दौर में दुनिया का नाश किया है। सच यह नहीं है कि दुनिया इश्क़-वालों को नहीं समझती या समझना नहीं चाहती, सच यह है कि दुनिय ऐसी ही है और वह अगर इश्क़ का मतलब जान भी ले तो भी अपनी आदत से बाज़ नहीं आएगी। और यह आदत इसलिए भी है क्योंकि दुनिया का हर एक शख़्स ख़ुद को दूसरे से बड़ा और बेहतर साबित करने में लगा है। भाई, अगर दुनिया ऐसी ही है तो फ़िर इश्क़-वाले क्यों दूसरों की परवाह करें। जाँ अपनी, जाँनशीं अपनी, तो फिर फ़िक्र-ए-जहां क्यों हो?
जहाँ वालों की तल्ख़ी का नज़ारा कर लिया मैने,
मुझे ख़ुद पर गुमां है कि गुजारा कर लिया मैने।
यह बस इसी युग या इसी दौर की बात नहीं है। बरसों पहले नक़्श ल्यालपुरी ने दुनिया की इस तल्ख़ी को नज़र करके लिखा था:
दुनिया वालों कुछ तो मुझको मेरी वफ़ा की दाद मिले,
मैंने दिल के फूल खिलाए शोलों में, अंगारों में।
ख़य्याम के संगीत से सजी यह ग़ज़ल आशा भोसले की आवाज़ में चमक-सी उठती है। शब्दों के मोड़ पर गले की झनकार ने इसे एक अलग ही पहचान दे दी है। लीजिए आप ख़ुद ही इसका लुत्फ़ उठाइए।
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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