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Showing posts from October, 2011

इश्क़ से गहरा कोई न दरिया....सुदर्शन फाकिर और जगजीत का मेल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 777/2011/217 'ज हाँ तुम चले गए' - इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला। कल हमारी बात आकर रुकी थी जगजीत जी के नामकरण पर। आइए आज उनके संगीत की कुछ बातें बताई जाएं। बचपन से ही जगजीत का संगीत से नाता रहा है। श्रीगंगानगर में उन्होंने पण्डित शगनलाल शर्मा से दो साल संगीत सीखा, और उसके बाद छह साल शास्त्रीय संगीत के तीन विधा - ख़याल, ठुमरी और ध्रुपद की शिक्षा ग्रहण की। इसमें उनके गुरु थे उस्ताद जमाल ख़ाँ जो सैनिआ घराने से ताल्लुख़ रखते थे। ख़ाँ साहब महदी हसन के दूर के रिश्तेदार भी थे। पंजाब यूनिवर्सिटी और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर स्व: प्रोफ़ सूरज भान नें जगजीत सिंह को संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। १९६१ में जगजीत बम्बई आए एक संगीतकार और गायक के रूप में क़िस्मत आज़माने। उस समय एक से एक बड़े संगीतकार और गायक फ़िल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे थे। ऐसे में किसी भी नए गायक को अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं था। जगजीत सिंह को भी इन्तज़ार करना पड़ा। वो एक पेयिंग् गेस्ट बन कर रहा करते थे और शुरुआती दिनों में...

ये जो घर आँगन है...जगजीत व्यावसायिक सिनेमा के दांव पेचों में कुछ मधुरता तलाश लेते थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 776/2011/216 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस नए सप्ताह में आप सभी का एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह पर केन्द्रित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इस शृंखला में हमारी कोशिश यही है कि जगजीत जी की आवाज़ के साथ साथ ज़्यादातर उन फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ जिनका संगीत भी उन्होंने ही तैयार किया है। पाँच गीत आपनें सुनें जो लिए गए थे 'अर्थ', 'कानून की आवाज़', 'राही', 'प्रेम गीत' और 'आज' फ़िल्मों से। आज के अंक के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'बिल्लू बादशाह' का। यह १९८९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण सुरेश सिंहा नें किया था और निर्देशक थे शिशिर मिश्र। शीर्षक चरित्र में थे गोविंदा, और साथ में थे शत्रुघ्न सिंहा, अनीता राज, नीलम और कादर ख़ान। जगजीत सिंह फ़िल्म के संगीतकार थे और गीत लिखे निदा फ़ाज़ली और मनोज दर्पण नें। इस फ़िल्म में गोविंदा का ही गाया "जवाँ जवाँ" गीत ख़ूब मशहूर हुआ था जो हसन जहांगीर के ग़ैर फ़िल्मी ग...

नज़रे करम फरमाओ...जगजीत सिंह के बेमिसाल मगर कमचर्चित शास्त्रीय गायन की एक झलक

सुर संगम- 41 – गायक जगजीत सिंह की संगीत-साधना को नमन ‘ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी गीत-संगीत प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र आज ‘सुर संगम’ के नए अंक में स्वागत करता हूँ। पिछले दिनों १० अक्तूबर को विख्यात गीत, ग़ज़ल, भजन और लोक संगीत के गायक और साधक जगजीत सिंह के मखमली स्वर मौन हो गए। सुगम संगीत के इन सभी क्षेत्रों में जगजीत सिंह न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि पूरे विश्व में लोकप्रिय थे। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम भारतीय संगीत में उनके प्रयोगधर्मी कार्यों पर चर्चा करेंगे। जगजीत सिंह का जन्म ८ फरवरी, १९४१ को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज से स्नातक की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। जगजीत सिंह को बचपन मे अपने पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर मे ही पण्डित छगनलाल शर्मा से दो साल ...

जाँनिसार अख्तर की पोयट्री में क्लास्सिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का संतुलन था - विजय अकेला की पुस्तक से

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 65 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-१ ) 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। दोस्तों, आपनें इस दौर के गीतकार विजय अकेला का नाम तो सुना ही होगा। जी हाँ, वो ही विजय अकेला जिन्होंने 'कहो ना प्यार है' फ़िल्म के वो दो सुपर-डुपर हिट गीत लिखे थे, "एक पल का जीना, फिर तो है जाना" और "क्यों चलती है पवन... न तुम जानो न हम"; और फिर फ़िल्म 'क्रिश' का "दिल ना लिया, दिल ना दिया" गीत भी तो उन्होंने ही लिखा था। उन्हीं विजय अकेला नें भले ही फ़िल्मों में ज़्यादा गीत न लिखे हों, पर उन्होंने एक अन्य रूप में भी फ़िल्म-संगीत जगत को अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीतकार आनन्द बक्शी के गीतों का संकलन प्रकाशित करने के बाद हाल ही में उन्होंने गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'निगाहों के साये...

रिश्ता ये कैसा है....जिस रिश्ते से बंधे हैं जगजीत और उनके चाहने वाले

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 775/2011/215 न मस्कार! 'जहाँ तुम चले गए', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गायक और संगीतकार जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला में जिसमें हम उनके गाये और स्वरबद्ध गीत सुन रहे हैं। अब तक हमने इस शृंखला में चार गीत सुनें जगजीत जी द्वारा स्वरबद्ध किए हुए, जिनमें से दो उन्हीं के गाये हुए थे, तथा एक एक गीत लता जी और आशा जी की आवाज़ में थे। आज जो गीत हम लेकर आये हैं, उसे भी जगजीत जी नें ही कम्पोज़ किया है, पर गाया है उनकी पत्नी और गायिका चित्रा सिंह नें। यह गीत है फ़िल्म 'आज' का "रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है"। यह १९९० की फ़िल्म थी महेश भट्ट द्वारा निर्देशित। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज किरण, कुमार गौरव, अनामिका पाल, स्मिता पाटिल और मार्क ज़ुबेर। फ़िल्म के तमाम गीत जगजीत और चित्रा सिंह नें गाये। फ़िल्म का शीर्षक गीत जगजीत जी का गाया हुआ था। फ़िल्म 'राही' के उसी गीत की तरह यह भी एक आशावादी दार्शनिक गीत था "फिर आज मुझे रुमको बस इतना बताना है, हँसना ही जीवन है, हँसते ही जाना है"। आज का प्रस्तुत गी...

तेरे गीतों की मैं दीवानी ओ दिलबरजानी...फिल्म संगीत की शोखियों से भी वाकिफ़ थे जगजीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 774/2011/214 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, चारों तरफ़ दीवाली की धूम है, ख़ुशियों भरा आलम है, पर इस बार दीवाली मनाने को जी नहीं करता। ग़ज़लों के शहदाई ग़मगीन हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह के आकस्मिक निधन से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप उन्हें समर्पित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इसमें हम न केवल उनके गाये फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश यही है कि उनके द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ। आज हमनें जिस गीत को चुना है, उसे जगजीत सिंह नें स्वरबद्ध किया है और गाया है आशा भोसले नें। गीत के बारे में बताने से पहले ये रहा आशा जी का शोक संदेश - "जगजीत जी की ग़ज़लें मन को शान्ति देती है, उनकी ग़ज़लों को सुनना एक सूदिंग् एक्स्पीरियन्स होता है। अगर किसी को दैनन्दिन तनाव से बाहर निकलना चाहता है तो सबसे अच्छा साधन है जगजीत सिंह का कोई रेकॉर्ड बजाना। मुझे चित्रा के लिए बहुत अफ़सोस है। उन्होंने पहले अपने बेटे को ख...

ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो....आशा के स्वर जगजीत के सुरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 773/2011/213 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को, जिनका पिछले १० अक्टूबर को देहावसान हो गया। 'जहाँ तुम चले गए' शृंखला की कल की कड़ी में हमने लता जी का शोक-संदेश आप तक पहुंचाया था, आइए आज कुछ और शोक-संदेश पढ़ें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नें कहा कि जगजीत सिंह अपने गोल्डन वायस के लिए हमेशा याद किए जायेंगे। उनके शब्दों में - " by making ghazals accessible to everyone, he gave joy and pleasure to millions of music lovers in India and abroad....he was blessed with a golden voice. The ghazal maestro’s music legacy will continue to “enchant and entertain” the people. " गीतकार जावेद अख़्तर बताते हैं, " जगजीत सिंह की मृत्यु नें हिन्दी फ़िल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कभी न पूरी होने वाले क्षति पहुँचाई है। मैंने उनको पहली बार स्कूल में रहते हुए सुना था जब मैं IIT Kanpur के एक कार्यक्रम में गया था, वह था 'Music Night by Jagjit Singh and Chitra'। " शास्त्रीय गायिका शुभा...

सिंदूर की होय लम्बी उमरिया...जगजीत और लता जी की पहली भेंट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 772/2011/212 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है मशहूर ग़ज़ल गायक व संगीतकार स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप हमारी ख़ास शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। उनका जाना ग़ज़ल-जगत के लिए एक विराट क्षति है जिसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती। स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर नें अपने शोक संदेश में एक निजी न्यूज़ चैनल को बताया, "इस बात का मुझे बहुत दुख है, बहुत ही ज़्यादा दुख है कि जगजीत जी आज हमारे बीच नहीं रहे। मैंने उनके साथ काम किया है, और एक ही रेकॉर्ड किया था, और वो उस वक़्त बहुत चला था। और मुझे वो सब बातें याद आती हैं कि कैसे उन्होंने वह गाना रेकॉर्ड किया था, कैसे वो मुझे सिखाते थे, क्या क्या बातें होती थीं, सब। पहले तो वो मुझे गानें पढ़ के सुनाये, ग़ज़लें जो थीं, फिर कहा कि जो पसन्द नहीं आती हैं, वो मत गाइए। मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं है, सभी ग़ज़लें अच्छी हैं। और जब उन्होंने रिहर्सल्स शुरु किए तो एक चीज़ वो बताते थे कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए, इस तरह से नहीं इस तरह से गाना चाहिए, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं एक नई सिंगर आई हू...

तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो....जब कैफी के सवालों को स्वरों में साकार किया जगजीत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 न मस्कार! श्रोता-मित्रों, गत १० अक्टूबर को काल के क्रूर हाथों नें हमसे छीन लिया एक बेमिसाल फ़नकार को। ये वो फ़नकार रहे जिनकी मख़मली आवाज़ नें ग़ज़ल गायकी को न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि छोटे, बड़े, बूढ़े, हर पीढ़ी के चहेते ग़ज़ल गायक बन कर उभरे। ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। ब्रेन-हैमरेज की वजह से उन्हें २३ सितम्बर को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। १८ दिनों तक ज़िन्दगी और मौत के बीच लड़ाई चली और आख़िर में मौत हावी हो गया, और १० अक्टूबर सुबह ८:१० बजे जगजीत जी इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए। ऐसा लगा जैसे उन्हीं का गाया वह गीत उन पर लागू हो गया कि "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वह कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए"। पर जीवितावस्था में जगजीत जी जो काम कर गए हैं, वो उन्हें अमर बना दिया है। जब जब ग़ज़ल गायकी की बात चलेगी, जब जब ग़ज़लों का ज़िक्र छिड़ेगा, तब तब जगजीत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाएगा। स्वर्गीय जगजीत सिंह को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से श्रद्धांजली स्वरूप आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल...

‘जिनके दुश्मन सुख मा सोवें उनके जीवन को धिक्कार...’ वीर रस की लोक-काव्य-धारा : आल्हा

सुर संगम- 40 – आल्हा-ऊदल चरित्रों की ऐतिहासिकता ( पहला भाग ) सुर संगम’ के गत सप्ताह के अंक में हमने बुन्देलखण्ड की वीर-भूमि में उपजी और और समूचे उत्तर भारत में लोकप्रिय लोक-गायन शैली ‘आल्हा’ पर चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम इस लोकगाथा के दो वीर चरित्रों- आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता पर चर्चा करेंगे। बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता के विषय में पिछले दिनों हमने बुन्देलखण्ड की लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के शोधकर्त्ता, उरई निवासी श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से चर्चा की थी। बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इस प्रश्न पर श्री कुमुद का कहना है कि इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने ...

ऑडियो: मुंशी प्रेमचन्द की निर्वासन

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में घुघूतीबासूती के व्यंग्य ओह! का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की हृदयविदारक कहानी "निर्वासन" , जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 14 मिनट 20 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट सत्यार्थमित्र ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी "तुम इतने दिनों कहाँ रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहाँ किसके साथ आयीं?"  ( प्रेमचंद की "निर्वासन" से एक अंश ) न...

माँ ही गंगा...जात्रागान शैली का ये गीत नीरज की कलम से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 पू र्वी और पुर्वोत्तर भारत के लोक-धुनों और शैलियों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'पुरवाई' की अन्तिम कड़ी में आप सभी का मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ फिर एक बार स्वागत करता हूँ। दोस्तों, सिनेमा के आने से पहले मनोरंजन का एक मुख्य ज़रिया हुआ करता था नाट्य, जो अलग अलग प्रांतों में अलग अलग रूप में पेश होता था। नाट्य, जिसे ड्रामा या थिएटर आदि भी कहते हैं, की परम्परा कई शताब्दियों से चली आ रही है इस देश में, और इसमें अभिनय, काव्य और साहित्य के साथ साथ संगीत भी एक अहम भूमिका निभाती आई है। प्राचीन भारत नें संस्कृत नाटकों का स्वर्ण-युग देखा। उसके बाद ड्रामा का निरंतर विकास होता गया। जिस तरह से अलग अलग भाषाओं का जन्म हुआ और हर भाषा का अपने पड़ोसी प्रदेश के भाषा के साथ समानताएँ होती हैं, ठीक उसी प्रकार अलग अलग ड्रामा और नाट्य शैलियाँ भी विकसित हुईं एक दूसरे से थोड़ी समानताएँ और थोड़ी विविधताएँ लिए हुए। पूर्वोत्तर के आसाम राज्य में “ओजापाली” का चलन हुआ, तो बंगाल में "जात्रा-पाला" का, पंजाब में "स्वांग" तो...

श्याम रंग रंगा रे...येसुदास के पावन स्वरों से महका एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 769/2011/209 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! लघु शृंखला 'पुरवाई' की नवी कड़ी में आज हम लेकर आये हैं बंगाल के कीर्तन और श्यामा संगीत पर आधारित एक गीत। हर राज्य का अपना भक्ति-संगीत का स्वरूप होता है। जैसे कि असम के भक्ति-संगीत पर आधारित एक गीत इसी शृंखला में हमने सुनवाया था, वैसे ही बंगाल में भी कई तरह के भक्ति गीतों की लोकप्रियता है जिनमें कीर्तन शैली और श्यामा संगीत का काफ़ी नाम है। श्यामा संगीत की बात करें तो ये भक्ति रचनाएँ माँ काली को समर्पित रचनाएँ होती हैं ('श्यामा' शब्द काली माता के लिए प्रयोग होता है), और इन्हें शक्तिगीति भी कहते हैं। और क्योंकि बंगाल में माँ काली को लोग बहुत मानते हैं, इसलिए श्यामा-संगीत भी ख़ूब लोकप्रिय है। श्यामा संगीत इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि इसमें माँ और उसके बच्चे के रिश्ते की बातें होती हैं। साधारण पूजा-पाठ के नियमों से परे होता है श्यामा संगीत। १२-वीं और १३-वीं शताब्दी में जब शक्तिवाद बंगाल में पनपने लगी, तब कई कवि और लेखक प्रेरीत हुए माँ काली पर गीत और कविताएँ लिखने के लिए। १५८९ में मुकुन्दरामा,...

धितंग धितंग बोले, मन तेरे लिए डोले....सलिल दा की ताल पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 768/2011/208 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनो जारी लघु शृंखला 'पुरवाई' की आठवीं कड़ी में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। आज हम आपके लिए लेकर आये हैं बंगाल की एक लोकगाथा, या रूपकथा (fairy-tale) भी कह सकते हैं। इस कहानी का शीर्षक है 'सात भाई चम्पा और एक बहन पारुल'। चम्पा और पारुल बंगाल में पाये जाने वाले पेड़ हैं। बहुत समय पहले सुन्दरपुर में एक राजा अपनी सात रानियों के साथ रहता था। वह राजा बहुत ही नेक और साहसी था और इमानदारी को हर चीज़ से उपर रखता था। इसलिए प्रजा भी उन्हें बहुत प्यार करती थी। पर उनके पहली छह रानियाँ बहुत ही स्वार्थी और क्रूर थीं और छोटी रानी से जलती थीं क्योंकि वह राजा की प्यारी थी। राजा के मन में बस एक दुख था कि उनका कोई सन्तान नहीं था। किसी भी रानी से उन्हें सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। जैसे जैसे दिन गुज़रते गए, राजा एक सन्तान की आस में बेचैन होते गए। जब एक दिन उन्हें पता चला कि छोटी रानी गर्भवती है, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। राजा नें एक दिन छोटी रानी को सोने का एक घण्टा के साथ सोने की एक चेन बांध कर दिया और कहा कि जैसे ही ...

साजन की हो गयी गोरी...सुन्दर बाउल संगीत पर आधारित देवदास की अमर गाथा से ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 767/2011/207 'पु रवाई' शृंखला में इन दिनों आप आनन्द ले रहे हैं पूर्वी और उत्तरपूर्वी भारत के लोक संगीत पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों का अपने दोस्त सुजॉय चटर्जी और साथी सजीव सारथी के साथ। आज हम जिस लोक-शैली की चर्चा करने जा रहे हैं उसे बंगाल में बाउल के नाम से जाना जाता है। बाउल एक धार्मिक गोष्ठी भी है और संगीत की एक शैली भी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बाउल में वैष्णव हिन्दू भी आते हैं और सूफ़ी मुसलमान भी। इस तरह से यह साम्प्रदायिक सदभाव का भी प्रतीक है। हालाँकि बाउल बंगाल की जनसंख्य का एक बहुत छोटा सा अंश है, पर बंगाल की संस्कृति में बाउल का महत्वपूर्ण योगदान है। सन् २००५ में बाउल शैली को UNESCO के 'Masterpieces of the Oral and Intangible Heritage of Humanity' की फ़ेहरिस्त में शामिल किया गया है। बाउल की शुरुआत कहाँ से और कब से हुई इसका सटीक पता नहीं चल पाया है, पर 'बाउल' शब्द बंगाली साहित्य में १५-वीं शताब्दी से ही पाया जाता है। बाउल संगीत एक प्रकार का लोक गीत है जिसमें हिन्दू भक्ति धारा और सूफ़ी संगीत, दोनों का प्रभाव है। बाउल गीतों में ...

सुन री पवन, पवन पुरवैया.. भटयाली संगीत की लहरों में बहाते बर्मन दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 766/2011/206 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का इस नए सप्ताह में हार्दिक स्वागत है। इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'पुरवाई' जिसके अन्तर्गत आप आनन्द ले रहे हैं पूर्व और पुर्वोत्तर भारत के लोक और पारम्परिक धुनों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी रचनाओं की। आज हम आपको लिए चलते हैं पूर्वी बंगाल, यानि कि वो जगह जिसका ज़्यादातर अंश आज बंगलादेश में पड़ता है। आपको बता दें कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल की संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान और गीत-संगीत में बहुत अन्तर है। असम और त्रिपुरा में भी पूर्वी बंगालियों का एक बड़ा समूह वास करता है। आज के इस कड़ी में हम पूर्वी बंगाल के बहुत प्रचलित लोक-गीत शैली पर आधारित गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे भटियाली लोक-गीत कहा जाता है। भटियाली मांझी गीत है जिसे नाविक भाटे के बहाव में गाते हैं। जी हाँ, ज्वार-भाटा वाला भाटा। क्योंकि भाटे में चप्पु चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, इसलिए मांझी लोग गुनगुनाने लग पड़ते हैं। और इस "भाटा-संगीत" को ही भटियाली कहते हैं। मूलत: इस शैली का जन्म मीमेनसिंह ज़िले में हुआ था जहाँ मांझी ब्र...

‘जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धँसी अढ़ाई हाथ.....’ बुन्देलखण्ड की लोकप्रिय लोक-गायकी शैली

सुर संगम- 39 – वीर रस का संचार करती लोक-काव्य की अजस्र धारा- आल्हा पर एक चर्चा शास्त्रीय तथा लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ ‘सुर संगम’ के आज एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हम उत्तर भारत में प्रचलित लोक गीत-संगीत की एक ऐसी विधा पर आपसे चर्चा करेंगे, जो श्रोताओं में वीर रस का संचार करने में सक्षम है। लोक संगीत की यह शैली ‘आल्हा’ के नाम से लोकप्रिय है। आल्हा, वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत और परमाल रासो पर आधारित बुन्देली और अवधी का एक महत्त्वपूर्ण छन्दबद्ध काव्य है। इस काव्य का प्रणयन लगभग सन १२५० में माना जाता है। इसमें महोबा के वीर आल्हा और ऊदल के वीरता की गाथा होती है। यह उत्तर प्रदेश के अवध और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक लोकप्रिय वीर-गाथा है। पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक समूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों प्रदेशों में आल्हा-गायन होता है। आल्हा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें कहीं ५२ तो कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इस लोकमहाकाव्य की गायकी की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जगनिक क...