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नौशाद की तीन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों के संगीत पर एक चर्चा

(पिछले अंक से आगे ...)


नौशाद अली का संगीत सभी के दिलों पर राज़ करता है। यदि अब तक सभी संगीतकारों का जिक्र होगा तो नौशाद का नाम आर.डी.बर्मन,रहमान आदि के साथ लिया जायेगा। उनका संगीत हमेशा अमर रहेग और ऐसे ही चमकता रहेगा। आज की तारीख का कोई भी संगीतकार मुगल-ए-आज़म जैसी एल्बम तैयार नहीं कर सकता और शायद ऐसा अमर गीत भी कभी नही-



नौशाद ने तमाम फिल्मों में काम किया लेकिन यदि उनकी किन्हीं तीन फिल्मों का जिक्र करना चाहें तो वो शायद ये होंगी:
१. मुगल-ए-आज़म : शायद ही किसी को इस बारे में शक हो कि फिल्मी इतिहास में इस फिल्म का संगीत नौशाद का सर्वोत्तम संगीत रहा है। इस फिल्म के ज्यादातर गाने लता मंगेशकर द्वारा गाये गये हैं। हालाँकि ओर्केस्ट्रा आज के समय की तरह तकनीकी और आधुनिकता से लैस नहीं है लेकिन फिर भी उन गानों की मेलोडी की किसी भी अन्य गीत से तुलना नहीं की जा सकती। लता का गाया हुआ राग गारा में 'मोहे पनघट पे नंद लाल' एक तरह से कव्वाली भी है और उस गाने में हर बात सर्वोत्तम है... उसका ट्रैक..जबर्दस्त उर्दू शब्द...से लेकर लता मंगेशकर के साथ साथ कोरस भी कोई कमी नहीं छोड़ रहा था। नौशाद का संगीत उसमें चार-चाँद लगाता है। उसी फिल्म में रागदरबारी में 'प्यार किया तो डरना क्या..' एक और कव्वाली है जो ये सोचने पर मजबूर कर देती है कि 'मोहे..' और 'प्यार किया..' में से बेहतर कौन है। अगला गाना राग यमन में 'खुदा निगेबान..' में एक बार फिर उर्दू के खूबसुरत बोल हैं, लता की मिठास है और उस पर नौशाद का संगीत...कुल मिलाकर इस एल्बम में नौशाद ने फिल्म की जरुरत के हिसाब से वो जबर्दस्त संगीत दिया है जो उसके बाद से अब तक ५० वर्षॊं से न केवल टिका हुआ बल्कि आधुनिकता और सुविधा-सम्पन्न आज के संगीत को कड़ी टक्कर दे रहा है। आने वाले ५० बरसों में भी यही होगा।



२. दूसरी फिल्म है बैजू बावरा: ये वो फिल्म है जिसके बाद नौशाद की पहचान बनी, वे सब की नजरॊ में आये और उसके बाद ही उन्होंने मुगल-ए-आज़म, मेरे महबूब व बाकि फिल्मों में काम किया। ये फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास अपना अलग महत्त्व रखती है। इसका मशहूर भजन 'मन तरपत हरि दर्शन..' को आज भी सबसे बढ़िया भक्ति गीतों में शुमार किया जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि इस गीत के बोल लिखें हैं मोहम्मद शकील ने, इसको गाया है मोहम्मद रफी ने और धुन बनाई है नौशाद ने..ये तीनों ही मुस्लिम रहे हैं। नौशाद के संगीत और इस गीत ने ये साबित कर दिया है कि संगीत किसी एक धर्म का नहीं है। बाकि मशहूर गानों में 'ओ दुनिया के रखवाले..' जिसे गाया था नौशाद के पसंदीदा गायक रफी ने। "झूले में पवन के", जिसे लता और रफी दोनों ने अपनी आवाज़ दी। इनके गीतों को सुनना अपने आप में एक अलग अनुभव होता है। राग भैरवी में 'तू गंगा की मौज..' को कौन भूल सकता है... जिसके सुंदर बोल,कोरस एफैक्ट और ओर्केस्ट्रा सब मिलकर इस गीत को एक अमर रचना में तब्दील कर देते हैं.



३. कोहिनूर: नौशाद द्वारा संगीतबद्ध एक और फिल्म। यह फिल्म मेलोडी के अलावा भी और कईं कारणॊं से मील का पत्थर रही। 'मधुबन में राधिका नाचे रे..' गाना आज भी पसंद किया जाता है। इस पूर्णतया राग प्रधान गीत के लिये रफी साहब की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है। नौशाद जोखिम उठाने में कभी भी नहीं हिचकिचाते थे। नये नये प्रयोग करना उन्हें अच्छा लगता था। इस फिल्म के निर्देशक थोड़े घबराये हुए थे, क्योंकि यह गाना किसी भी लिहाज से पारंपरिक कव्वाली नहीं था और न ही ये सामान्य गानों की तरह अथवा पाश्चात्य समाये हुए था। फिर भी इस गाने की धुन अपने आप में आधुनिकता समेटे हुए थी जिसको अपनी आवाज़ से रफी साब ने और सुरीला बना दिया था। नौशाद इस गाने को लेकर इतने विश्वास से भरे हुए थे कि वे कोहिनूर के लिये जो भी पैसे उन्हें मिल रहे थे वे भी वापस करने को तैयार थे अगर बॉक्स ऑफिस पर ये गीत पिट जाता। लेकिन जो हुआ वो सब ने देखा और सुना। यह गाना पूरे भारत में अपने शास्त्रीय संगीत और रिद्म की वजह से कामयाब हुआ। इसी फिल्म के अन्य गीत थे 'ढल चुकी शाम-ए-गम...', 'जादूगर कातिल..' 'तन रंग लो जी..'। सभी गानों की खास बात उसका संगीत तो था ही साथ ही बहुत खूबसूरत बोल भी थे।



नौशाद के काम को और भारतीय संगीत में योगदान को इन तीन फिल्मों में कतई नहीं समेटा जा सकता। उनका योगदान निस्संदेह सराहनीय व अतुलनीय है। उनकी आखिरी फिल्म रही अकबर खान की 'ताजमहल'। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई। नौशाद का खूबसूरत संगीत खराब स्टार कास्ट के कारण लोगों की नजरों में नहीं आ पाया। फिल्म के प्रोमोशन के लिये निर्माता नौशाद के गानों का भी सही इस्तेमाल नहीं कर सके। जबकि ये वो समय था कि इस फिल्म का संगीत उस समय की अन्य फिल्मों के मुकाबले कहीं बेहतर था। ताजमहल के संगीत को नौशाद का बेस्ट तो नहीं कह सकते किन्तु आज के समय के अन्य संगीतकारों हिमेश, प्रीतम व अनु मलिक तथा अन्यों से हजार गुणा अच्छा था। यदि इस फिल्म के गानों को सुनें तो सबसे अच्छा गीत 'अपनी ज़ुल्फें मेरे...' रहा जिसे हरिहरण ने गाया। हरिहरण उन गायकों में से हैं जिन्हें हमेशा ही कम आंका गया है। प्रीति उत्तम और हरिहरण का ही गाया हुआ एक और जबर्दस्त रोमांटिक गीत 'मुमताज़ तुझे देखा...' रहा। संगीत सुनेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि ८६ वर्ष का कोई बुजुर्ग ये धुन बना रहा होगा। नौशाद के संगीत में हमेशा ताज़गी समाई हुई रहती है।



प्रस्तुति - तपन शर्मा


Comments

भाई यह चर्चा सच मै बहुत सुंदर लगी, नॊशाद जी की तारीफ़ जितनी भी की जाये कम है, यह नयी ताज महल देखी भी नही, क्योकि पता है आजकल की फ़िल्मो के बारे इस लिये नही देखी.
धन्यवाद
तपन जी आपने नौशाद जी के बरे में जो जानकारी दी उसके लिए धन्यवाद । मै भी नौशाद जी की रचनाओं का मुरीद हूँ । उनकी चिंतन की पराकाष्टा ही थी कि वे हमेशा नए -नए प्रयोग कर श्रोतावों को विस्मृत किया करते थे । मेरी एक वक्तिगत सोंच है कि नौशाद साहब ने कई बार फ़िल्मों से अच्छी गीतों को रचा है।
sumit said…
बहुत ही अच्छा लेख
वैसे मैने तीनो फिल्मो के गाने सुने रखे है(शायद सारे ही) पर मुझे पता नही था, संगीत किसने दिया था
sumit said…
सुमित भारद्वाज

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