Skip to main content

जवाँ है मुहब्बत, हसीं है ज़माना....आज भी नौशाद के संगीत का


"आज पुरानी यादों से कोई मुझे आवाज़ न दे...", नौशाद साहब के इस दर्द भरे नग्में को आवाज़ दी थी मोहम्मद रफी साहब ने, पर नौशाद साहब चाहें या न चाहें संगीत प्रेमी तो उन्हें आवाज़ देते रहेंगें, उनके अमर गीतों को जब सुनेंगें उन्हें याद करते रहेंगे. तपन शर्मा सुना रहें हैं दास्ताने नौशाद, और आज की महफ़िल है उन्हीं की मौसिकी से आबाद.


नौशाद का जन्म २५ दिसम्बर १९१९ में एक ऐसे परिवार में हुआ, जिसका संगीत से दूर दूर तक नाता नहीं था और न ही संगीत में कोई रुचि थी। पर नौशाद शायद जानते थे कि उन्हें क्या करना है। दस साल की उम्र में भी जब वे फिल्म देख कर लौटते तो उनकी डंडे से पिटाई हुआ करती थी। ये उस समय की बातें हैं जब फिल्मों में संगीत नहीं हुआ करता था। और थियेटर में पर्दे के पास बैठे संगीतकार ही संगीत बजा कर फिल्म के दृश्य के हिसाब से तालमेल बिठाया करते थे। वे कहते थे कि वे फिल्म के लिये थियेटर नहीं जाते बल्कि उस ओर्केस्ट्रा को सुनने जाते हैं। उन संगीतकारों को सुनने जो हारमोनियम, पियानो, वायलिन आदि बजाते हुए भी दृश्य की गतिविधियों के आधार पर आपस में संतुलन बनाये रखते हैं। और यही वो पल होते थे जिनमें उन्हें सबसे ज्यादा मज़ा आता था। और वो भी चार-आने वाली पहली कतार में बैठ कर।



नौशाद ने एक वाद्ययंत्र बेचने वाली दुकान पर काम किया और हारमोनियम खरीदा। उनका अगला कदम था स्थानीय ओर्केस्ट्रा में शामिल होना। जाहिर तौर पर यह सब उन्होंने अपने पिता से विपरीत जाते हुए किया। उसके बाद नौशाद एक जूनियर थियेटर क्लब से जुड़ गये। फिर उन्होंने एक नाटक कम्पनी में काम किया जो उस समय लखनऊ गई हुई थी। वे लैला मजनू पर आधारित नाटक कर रहे थे। ये पहली मर्तबा था कि उन्होंने घर में किसी की परवाह नहीं की। वे वहाँ से भाग गये और नाटक कम्पनी के साथ कभी जयपुर, जोधपुर, बरेली और गुजरात गये। विरम्गाम में उनकी कम्पनी फ्लॉप हो गई और वे वापस घर नहीं गये।

१९३७ में हताश नौशाद ने बम्बई में कदम रखा। और तब उनका संघर्ष दोबारा शुरू हुआ। जिस अकेले आदमी को वे बम्बई में जानते थे, वे थे अन्जुमन-ए-इस्लाम हाई स्कूल के हैडमास्टर जिनके साथ उन्होंने कुछ समय बिताया। ये किस्मत की बात थी कि वे हैरी डरोविट्स के सम्पर्क में आये जो समन्दर नाम की एक फिल्म बना रहे थे। नौशाद को मुश्ताक हुसैन के ओर्केस्ट्रा में ४० रूपय प्रतिमाह की तन्ख्वाह पर पियानो बजाने की नौकरी मिली। गुलाम मोहम्मद जो बाद में नौशाद अली के सहायक बने, उस समय ६० रूपये कमाया करते थे। मुश्ताक हुसैन न्यू थियेटर, कोलकाता के मशहूर संगीत निर्देशक थे। बाद में नौशाद अपना हुनर रुसी निर्माता हेनरी डारविज की फिल्म "सुनहरी मकड़ी" में दिखाने में सफल हुए।

जब हरीश्चंद्र बाली ने फिल्म "पति-पत्नी" को छोड़ा तब उस समय नौशाद को पहली बार संगीतकार के तौर पर काम मिला। उन्हें मुश्ताक हुसैन का सहायक बनाया गया लेकिन ये ज्यादा दिन नही चला और फिल्म बंद हो गई। भाग्य ने फिर साथ दिया और वे मनोहर कपूर से मिले। मनोहर उस समय पंजाबी फिल्म "मिरज़ा साहिबान" के लिये संगीत दे रहे थे। नौशाद ने कपूर के साथ काम करना शुरु कर दिया और उन्हें ७५ रू महीने के हिसाब से मिलने लगे। ये फिल्म सभी को पसंद आई और बॉक्स ऑफिस पर जबर्दस्त हिट साबित हुई।



खेमचंद प्रकाश, मदहोक, भवनानी और ग्वालानी आदि की सहायता से नौशाद धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे। उन्होंने भवनानी की फिल्म प्रेम नगर में संगीत दिया। उसके बाद उनकी गिनती ऊँचे संगीतकारों में होने लगी और देखते ही देखते वे ६०० रू. से १५०० रू. प्रति फिल्म के कमाने लगे। ए.आर.करदार की फिल्म नई दुनिया (१९४२) ने पहली बार उन्हें संगीत निर्देशक का दर्जा दिलवाया। करदार की फिल्मों में वे लगातार संगीत देने लगे। और फिल्म शारदा में उन्होंने १३ वर्षीय सुरैया के साथ "पंछी जा" गाने के लिये काम किया। रतन(१९४४) वो फिल्म थी जिसने उन्हें ऊँचाई तक पहुँचा दिया और उस समय के हिसाब से उन्हें एक फिल्म के २५००० रू मिलने लगे!!

लखनऊ में उनका परिवार हमेशा संगीत के खिलाफ रहा और नौशाद को उनसे छुपा कर रखना पड़ा कि वे संगीत के क्षेत्र में काम करते हैं। जब नौशाद की शादी हो रही थी तो बैंड उन्हें की सुपारहिट फिल्म रतन('४४) के गाने बजा रहा था। उस समय उनके पिता व ससुर उस संगीतकार को दोष दे रहे थे जिसने वो संगीत दिया... तब नौशाद की सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं हुई कि संगीत उनका ही दिया हुआ है।



१९४६ के वर्ष में उन्होंने नूरजहां के साथ "अनमोल घड़ी" और के.एल.सहगल के साथ "शाहजहां" की और दोनों ही फिल्मों का संगीत सुपरहिट रहा। १९४७ में बंटवारा हुआ और हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए। मुम्बई से काफी मुस्लिम कलाकार पाकिस्तान चले गये। पर बॉलीवुड में नौशाद जैसे स्थापित कलाकार वहीं रहे। १९४२ से लेकर १९६० के दशक तक वे बॉलीवुड के नामी संगीतकारों में शुमार रहे। उन्होंने अपने जीवनकाल में १०० से भी कम फिल्मों में काम किया लेकिन जितनों में भी किया उनमें से २६ फिल्में सिल्वर जुबली (२५ हफ्ते), ८ गोल्डन जुबली (५० हफ्ते) और ४ ने डायमंड जुबली (६० हफ्ते) बनाई।

नौशाद ने अनेक गीतकारों के साथ काम किया जिनमें शकील बदायूनी, मजरूह सुल्तानपुरी, मदहोक, ज़िया सरहदी और कुमार बर्बंकवी शामिल हैं। मदर इंडिया (१९५७) फिल्म जो ऑस्कर में शामिल हुई थी, उसमें उन्हीं का संगीत था। नौशाद ने गुलाम मोहम्मद की मृत्य होने पर उनकी फिल्म पाकीज़ा (१९७२) का संगीत पूरा किया। गौरतलब है कि गुलाम मोहम्मद उनके सहायक भी रह चुके थे।



१९८१ में उन्हें भारतीय सिनेमा में योगदान के लिये दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिला। १९८८ में उन्होंने मलयालम फिल्म "ध्वनि" के लिये काम किया। १९९५ में शाहरुख की फिल्म "गुड्डु" में भी संगीत दिया जिसके कुछ गाने पॉपुलर हुए थे। सन २००४ में जब "मुगल-ए-आज़म" (रंगीन) प्रर्दशित हुई तो नौशाद विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। ८६ वर्ष की आयु में जब उन्होंने फिल्म ताजमहल(२००५) का संगीत निर्देशन दिया तो वे ऐसा करने वाले विश्व के सबसे बुजुर्ग संगीतकार बन गये। उनकी ज़िन्दगी पर आधारित ५ फिल्में भी बनी हैं-नौशाद का संगीत, संगीत का बादशाह, नौशाद पर दूरदर्शन द्वारा प्रसारित एक सीरियल, महल नौशाद और टी.वी सिरियल ज़िन्दा का सफर। उन पर किताबें भी लिखी गईं हैं चाहे मराठी में दास्तान-ए-नौशाद हो या गुजराती में 'आज अवत मन मेरो' हो।

उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा रचित रचना 'उनकी याद करें' को भी संगीतबद्ध किया। इसको गाया था ४० कोरस गायकों के साथ ए. हरिहरन ने और निर्माता थे केशव कम्युनिकेशन्स। ये गीत सीमा पर तैनात जवानों के नाम था।
५ मई, २००६ को नौशाद दुनिया को अलविदा कह गये।

(जारी...)
अगले अंक में जानेंगे संगीत के अलावा क्या था नौशाद साहब का शौक और क्या कहती हैं फिल्मी हस्तियाँ मीठी धुनों के इस रचयिता के बारे में...


प्रस्तुति - तपन शर्मा


Comments

tapan ji bahut badhia sankalan sunder alekh naushad sahab ko salaam
बहुत सुंदर प्रस्तुति. सटीक जानकारी और सुंदर गीत. अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा. बहुत बधाई!
surhall said…
HI ase mhahan sangeetkaar not come again , jo diya woh bhut diya jo geet, sangeet, music allways good and best,
i Request to music lover Naushad ji give 1938 as miusic asstt, in Panjabi mocie can lover have song???

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट