आनन्द बक्षी यह वह नाम है जिसके बिना आज तक बनी बहुत बड़ी-बड़ी म्यूज़िकल फ़िल्मों को शायद वह सफलता न मिलती जिनको बनाने वाले आज गर्व करते हैं। आनन्द साहब चंद उन नामी चित्रपट(फ़िल्म)गीतकारों में से एक हैं जिन्होंने एक के बाद एक अनेक और लगातार साल दर साल बहुचर्चित और दिल लुभाने वाले यादगार गीत लिखे, जिनको सुनने वाले आज भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं। जो प्रेम गीत उनकी कलम से उतरे उनके बारे में जितना कहा जाये कम है, प्यार ही ऐसा शब्द है जो उनके गीतों को परिभाषित करता है और जब उन्होंने दर्द लिखा तो सुनने वालों की आँखें छलक उठीं दिल भर आया, ऐसे गीतकार थे आनन्द बक्षी। दोस्ती पर शोले फ़िल्म में लिखा वह गीत 'यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेगे' आज तक कौन नहीं गाता-गुनगुनाता। ज़िन्दगी की तल्खियो को जब शब्द में पिरोया तो हर आदमी की ज़िन्दगी किसी न किसी सिरे से उस गीत से जुड़ गयी। गीत जितने सरल हैं उतनी ही सरलता से हर दिल में उतर जाते हैं, जैसे ख़ुशबू हवा में और चंदन पानी में घुल जाता है। मैं तो यह कहूँगा प्रेम शब्द को शहद से भी मीठा अगर महसूस करना हो तो आनन्द बक्षी साहब के गीत सुनिये। मजरूह सुल्तानपुरी के साथ-साथ एक आनन्द बक्षी ही ऐसे गीतकार हैं जिन्होने 43 वर्षों तक लगातार एक के बाद एक सुन्दर और कृतिमता(बनावट)से परे मनमोहक गीत लिखे, जब तक उनके तन में साँस का एक भी टुकड़ा बाक़ी रहा।
सुनिए सबसे पहले रफी साहब की आवाज़ में ये खूबसूरत प्रेम गीत -
21 जुलाई सन् 1930 को रावलपिण्डी में जन्मे आनंद बक्षी से एक यही सपना देखा था कि बम्बई (मुम्बई) जाकर पाश्र्व(प्लेबैक) गायक बनना है। इसी सपने के पीछे दौड़ते-भागते वे बम्बई आ गये और उन्होंने अजीविका के लिए 'जलसेना (नेवी), कँराची' के लिए नौकरी की, लेकिन किसी उच्च पदाधिकारी से कहा सुनी के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसी बीच भारत-पाकिस्तान बँटवारा हुआ और वह लखनऊ में अपने घर आ गये। यहाँ वह टेलीफोन आपरेटर का काम कर तो रहे थे लेकिन गायक बनने का सपना उनकी आँखों से कोहरे की तरह छँटा नहीं और वह एक बार फिर बम्बई को निकल पड़े।
उनका यही दीवानापन था जिसे किशोर ने अपना स्वर दिया -
बम्बई जाकर अन्होंने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला, न जाने यह क्यों हो रहा था? पर कहते हैं न कि जो होता है भले के लिए होता है। फिर वह दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी(1956)' के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनन्द बक्षी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। पर कहते हैं न बुरे समय की काली छाया आसानी से साथ नहीं छोड़ती सो उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेहदी लगी मेरे हाथ(1962)' और 'जब-जब फूल खिले(1965)' पर्दे पर नहीं आयी। अब भाग्य ने उनका साथ देना शुरु कर दिया था या यूँ कहिए उनकी मेहनत रंग ला रही थी और 'परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना' और 'यह समा है प्यार का' जैसे लाजवाब गीतों ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद फ़िल्म 'मिलन(1967)' में उन्होंने जो गीत लिखे, उसके बाद तो वह गीतकारों की श्रेणी में सबसे ऊपर आ गये। अब 'सावन का महीना', 'बोल गोरी बोल', 'राम करे ऐसा हो जाये', 'मैं तो दीवाना' और 'हम-तुम युग-युग' यह गीत देश के घर-घर में गुनगुनाये जा रहे थे। इसके आनन्द बक्षी आगे ही आगे बढ़ते गये, उन्हें फिर कभी पीछे मुड़ के देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
फ़िल्म मिलन का ये दर्द भरा गीत, लता की आवाज़ में भला कौन भूल सकता है -
यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बक्षी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़(1967)', 'दो रास्ते(1969)', 'बॉबी(1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी(1977)', 'इक दूजे के लिए(1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग(1970)', 'अमर प्रेम(1971)', हरे रामा हरे कृष्णा(1971' और 'लव स्टोरी(1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम(1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो राज कपूर के लिए 'बॉबी(1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्(1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़(1980)', 'हीरो(1983)', 'कर्मा(1986)', 'राम-लखन(1989)', 'सौदागर(1991)', 'खलनायक(1993)', 'ताल(1999)' और 'यादें(2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी(1989)', 'लम्हे(1991)', 'डर(1993)', 'दिल तो पागल है(1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे(1995)', 'मोहब्बतें(2000)' फिल्मों में सदाबहार गीत लिखे।
बख्शी साहब पर और बातें करेंगें इस लेख के अगले अंक में तब तक फ़िल्म महबूबा का ये अमर गीत सुनें, और याद करें उस गीतकार को जिसने आम आदमी की सरल जुबान में फिल्मी किरदारों को जज़्बात दिए.
(जारी... continued.....)
प्रस्तुति - विनय प्रजापति "नज़र"
सुनिए सबसे पहले रफी साहब की आवाज़ में ये खूबसूरत प्रेम गीत -
21 जुलाई सन् 1930 को रावलपिण्डी में जन्मे आनंद बक्षी से एक यही सपना देखा था कि बम्बई (मुम्बई) जाकर पाश्र्व(प्लेबैक) गायक बनना है। इसी सपने के पीछे दौड़ते-भागते वे बम्बई आ गये और उन्होंने अजीविका के लिए 'जलसेना (नेवी), कँराची' के लिए नौकरी की, लेकिन किसी उच्च पदाधिकारी से कहा सुनी के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसी बीच भारत-पाकिस्तान बँटवारा हुआ और वह लखनऊ में अपने घर आ गये। यहाँ वह टेलीफोन आपरेटर का काम कर तो रहे थे लेकिन गायक बनने का सपना उनकी आँखों से कोहरे की तरह छँटा नहीं और वह एक बार फिर बम्बई को निकल पड़े।
उनका यही दीवानापन था जिसे किशोर ने अपना स्वर दिया -
बम्बई जाकर अन्होंने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला, न जाने यह क्यों हो रहा था? पर कहते हैं न कि जो होता है भले के लिए होता है। फिर वह दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी(1956)' के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनन्द बक्षी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। पर कहते हैं न बुरे समय की काली छाया आसानी से साथ नहीं छोड़ती सो उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेहदी लगी मेरे हाथ(1962)' और 'जब-जब फूल खिले(1965)' पर्दे पर नहीं आयी। अब भाग्य ने उनका साथ देना शुरु कर दिया था या यूँ कहिए उनकी मेहनत रंग ला रही थी और 'परदेसियों से न अँखियाँ मिलाना' और 'यह समा है प्यार का' जैसे लाजवाब गीतों ने उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद फ़िल्म 'मिलन(1967)' में उन्होंने जो गीत लिखे, उसके बाद तो वह गीतकारों की श्रेणी में सबसे ऊपर आ गये। अब 'सावन का महीना', 'बोल गोरी बोल', 'राम करे ऐसा हो जाये', 'मैं तो दीवाना' और 'हम-तुम युग-युग' यह गीत देश के घर-घर में गुनगुनाये जा रहे थे। इसके आनन्द बक्षी आगे ही आगे बढ़ते गये, उन्हें फिर कभी पीछे मुड़ के देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
फ़िल्म मिलन का ये दर्द भरा गीत, लता की आवाज़ में भला कौन भूल सकता है -
यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बक्षी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़(1967)', 'दो रास्ते(1969)', 'बॉबी(1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी(1977)', 'इक दूजे के लिए(1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग(1970)', 'अमर प्रेम(1971)', हरे रामा हरे कृष्णा(1971' और 'लव स्टोरी(1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म अमर प्रेम(1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो राज कपूर के लिए 'बॉबी(1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्(1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़(1980)', 'हीरो(1983)', 'कर्मा(1986)', 'राम-लखन(1989)', 'सौदागर(1991)', 'खलनायक(1993)', 'ताल(1999)' और 'यादें(2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी(1989)', 'लम्हे(1991)', 'डर(1993)', 'दिल तो पागल है(1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे(1995)', 'मोहब्बतें(2000)' फिल्मों में सदाबहार गीत लिखे।
बख्शी साहब पर और बातें करेंगें इस लेख के अगले अंक में तब तक फ़िल्म महबूबा का ये अमर गीत सुनें, और याद करें उस गीतकार को जिसने आम आदमी की सरल जुबान में फिल्मी किरदारों को जज़्बात दिए.
(जारी... continued.....)
प्रस्तुति - विनय प्रजापति "नज़र"
Comments
मस्त बहारों का मैं आशिक (फ़र्ज)
ये शाम मस्तानी (कटी पतंग)
कई गीतों में तो हद हो गई जैसे -
सोमवार को हम मिले मंगलवार को नैन (अपनापन)
शायद मेरी शादी का ख़्याल दिल में आया है (सौतन)
एक डाल पे तोता बोले एक डाल पे मैना (चोर मचाए शोर)
कभी-कभार अच्छी पंक्तियाँ आ गई -
ना कोई उमंग है ना कोई तरंग है
मेरी ज़िन्दगी है क्या एक कटी पतंग है
आपकी जानकारी काफ़ी खोजपूर्ण है
रोचक जानकारी
आनंद बख्शी हर तरह का गीत लिख सकते थे और वो भी बड़ी आसानी से।
विनय भाई आपने अच्छी जानकारी दी है। मैं चाहूँगा कि आप पाठकों को उन बातों से अवगत कराएँ जो हर जगह नहीं मिलता। कोई खासा किस्सा जो बख्शी साह्ब से जुड़ा हो या फिर कोई भूली-सी दास्तां।
इस लेख की अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा।
-विश्व दीपक
हाँ जायका पर आने के लिए धन्यवाद।
धन्यवाद
आ आ ई ई ... मास्टर जी की आ गयी चिट्ठी...
धन्नो की आंखों में चाँद का सुरमा, रात का चुम्मा...
चप्पा-चप्पा चराखा चले...
दौडा-दौडा भागा भागा सा...
गोली मार भेजे में ...
सूची बहुत लम्बी है, ऑफ़ कोर्स, कुछ अच्छी पंक्तियाँ भी हैं जैसे, "दिल ढूंढता है.." मगर वे तो मिर्जा गालिब की हैं जस्ट किडिंग - मगर यह सच है की आनंद बख्शी के योगदान को भी कम नहीं किया जा सकता है.
मैं बहस में उतरना नहीं चाह रहा था, लेकिन आपने भी वही किया जो "अन्नपूर्णा" जी कर के चली गईं।
किसी एक का पक्ष लेने का मतलब यह नहीं कि दूसर पर कीचड़ उछाली जाए।
मैने पहले हीं लिखा है कि "आनंद बख्शी" जैसा खालिस गीतकार कोई दूसरा नहीं हुआ, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मैं "गुलज़ार" साहब का मज़ाक बनता देखूँ। तुकबंदी जरूरी है, क्योंकि इसके बिना गाना नहीं बनता लेकिन इसका यह कतई अर्थ नहीं कि "कुछ अच्छी पंक्तियाँ भी हैं जैसे, "दिल ढूंढता है.." मगर वे तो मिर्जा गालिब की हैं " को बर्दाश्त कर लूँ।
आपसे भी यह कहा जा सकता है कि "किसी और का जुनून आपको गुलज़ार के ख़िलाफ ले रहा है"।
मेरी बात बुरी लगी हो तो माफ़ कीजिएगा।
-विश्व दीपक
सभी दौर के सभी गीतकारों पर ये आक्षेप लगा है, कि कभी कभी सस्ती लोकप्रियता या आम आदमी के नाम पर हल्के फ़ुल्के मनोरंजन की आड़ में सस्ता गीत और सस्ता संगीत परोसा गया.
मगर , जब हम किसी भी गीतकार को लें तो हमें ये देखना ज़रूरी होगा कि उसके गीतों में कितना प्रतिशत उन गीतों का है, जिन्हे सर्वकालीन साहित्यिक श्रेणी में रखा जा सकता है.इस मान से आनंद बक्षी कितने ही अच्छे गीतकार हों , या गुलज़ार नें कितने सस्ते गीत लिखें है, इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि कौन सा गीतकार मोटे तौर पर किस बात के लिये जाना जाता है.
इसमें कोई शक नहीं कि आनंद बक्शी एक अव्वल दर्जे के गीतकार थे, लेकिन उनका ये फ़न कम गीतों में नज़र आता है. पंजाबी शब्दों का चलन भी आपने ही शुरु किया. सही या गलत कहने वाले हम कौन होते है जनाब. जिन्हे परोसा है, उन्होने खूब खाया हो तो वही अच्छा है.
फिल्म के लिये गीत लिखना एक तकनीकी काम है. गीतकार को सबसे पहले ये देखना पड़ता है कि फिल्म में गीत कौन गा रहा है और उसी के मुताबिक गीत लिखे जाते हैं
यदि कोई बच्चा गा रहा है तो अ-आ-इ-ई ही लिखा जायेगा,
यदि कोई गुंडा गा रहा है तो गोली मार भेजे में ही लिखा जायेगा
यदि कोई हब्शी गुलाम गा रहा है तो तलवार, जंजीर की झनकार (रजिया सुल्तान) शब्दों का प्रयोग तो करना ही पड़ेगा भाई.
अपनापन के सोमवार से हम मिले से आगे "शुक्र शनीचर मुश्किल से कटे आज है इतबार, सात दिनों में होगया जैसे सात जनम का प्यार" एक नये नये प्यार में पड़े जोड़े के लिये एकदम मौजूं गाना है.
फिल्मों के गाने किरदार के मुताबिक लिखे जाते हैं और नीरज साहब को भी "संडे को प्यार हुआ, मंडे इकरार हुआ" लिखना पड़ा था क्योंकि फिल्म के किरदारों पर यही शब्द फिट बैठते थे.
तुकबंदी कहें तो जो भी लय और छंद में सभी तुकबंदी ही तो है :)
और बडों के दोष नही देखें तो ही अच्छा । वैसे मुझे आनंद बक्शी और गुलजार साहाव दोनों के ही गीत पसंद हैं । विनय जी आपने सुंदर जानकारी दी है ।
होता यह है कि हम जिसे पसंद करते हैं उसकी हर बात निराली लगती है!
धन्यवाद!
भाग २ देखने की उत्सुक्ता हो रही है, बस अब भाग २ देखता हूं।
फ़िल्म और सीन..डिमांड वगैरह के हिसाब से....प्रसिद्धि के हिसाब से तो शायद कभी इनका ग्राफ नीचे आय हो या न आया हो..पर ..जिस दौर के वो गीतकार रहे हैं..उस के हिसाब से..उनमे वो बात किसी भी सूरत नहीं है....अगर आज की बात करें तो वो बेस्ट हो सकते हैं.....
जैसे आज की पीढी कहती है..... भप्पी दा .का म्यूजिक ....भप्पी दा का ज्ञान.........आज के लिहाज से शायद उतना बुरा न हो..पर जिस दौर के ओ संगीत कार रह चुके हिन्........उस हिसाब से तो उन्होंने संगीत का नाश ही किया है..
और गुलजार ने गालिब की जिन लाइनों से प्रेरित होकर.." दिल ढूंढता है..." लिखा है...वो एक बहुत ही बड़ा कमाल है.... सोचना भी मुश्किल है..के ग़ालिब की ज़मीन से शुरू होकर ...बगैर उसको टच किए....एक ऐसी नज़्म उतर जायेगी जो के बस.............और बस..लाजवाब है....
यूँ तो जा रहा था पर एक और कमेन्ट देने को रुक गया...................
"अन्यथा ना लें" कहने लायक तो अआपने कुछ छोड़ा भी नहीं....पर कमाल है ..के आनंद बख्शी और गुलज़ार के फैन होकर " मेहनत करने " जैसा शब्द यूज कर रहे हो ..तो फ़िर फैन क्या हुए ...गुलज़ार मुझे बहुत अच्छे लगते हैं ..पर मैं उनका फैन नहीं हूँ....
इसके बावजूद भी ...बख्शी , गुलज़ार, नीरज..साहिर..संतोष आनंद .....
जैसो के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती .... न ही कोई रिसर्च करनी होती ..अस्सी नब्बे परसेंट गाने से ही पता लग जाता है के किसकी कलम का कमल है...हाँ आप चाहे तो इसे बाकी गीतकारों के अलावा बख्शी जी की भी खूबी सकझ सकते हैं..... बेशक मशहूर गीत कार है..
और बहुत से गाने बहुत अच्छे भी है....कोई कोई तो बेहद अच्छा भी...क्वान्टिटी भी बहुत है...पर कुल मिलाकर ...वो बात नही जो ..
ब्लॉग ही उनके नाम पर बन जाए....बाकि अपनी श्रद्दा है....मैं तो इस श्रद्दालु को " सावन के अंधे " जैसा नाम नहीं दे सकता ..हाँ अगर आप यही बात छुप के कहते तो ..तो और ही जवाब आता.......
कैसे गिनें रक़ीब के ताना-ए-अक़रबा
तेरा ही जी न माने तो बातें हज़ार हैं...
filhaal shaayri kaa mood nahi hai.......sona hai...god night.....
ह हा!