इस बार हिन्द-युग्म आवाज़ की गूँज दक्षिण में सुनाई पड़ी है। ११ फरवरी २००९ को बंगलुरू से प्रकाशित हिन्दी दैनिक 'दक्षित भारत' में आवाज़ की पोस्ट 'रहमान के बाद अब बाज़ी मारी उस्ताद जाकिर हुसैन ने भी...' के कुछ अंश प्रकाशित हुये हैं। सीमा सचदेव ने स्कैन्ड कॉपी भेजी है। वैसे इससे पहले अमर उजाला के ब्लॉग पृष्ठ पर आवाज़ के ३ आलेखों की चर्चा हुई है, पर दक्षिण भारत के किसी अखबार में शायद ये पहली बार है. आप भी देखें (गलत-सही ही सही कुछ छापा तो उन्होंने)।

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३ सू फ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं| माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥ माटी का शरीर, माटी का बर्तन, नेकी कर भला कर, भर बरतन मे पाप पुण्य और सर पे ले| आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे"..: भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे । मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ॥ बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय । जो दिल खोजा आपणा, तो मुझसा बुरा ना कोय ॥ ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नांहि । सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठे घर मांहि ॥ हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को हुशारी क्या । रहे आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ॥ कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा ना जाये । एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाये ॥ लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल । लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥ हँस हँस कु...
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जय हिंद ,जय
हिन्दी -हमारी मात्र -भाषा
सुमित भारद्वाज