उत्तर प्रदेश के 12 लोकप्रिय लोक-गीतों पर आधारित 12 फ़िल्मी गाने
"नदी नारे ना जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ..."
विश्व के हर में लोक-संगीत का अलग ही मुकाम है। संगीत की यह वह धारा है जिसे गाने के लिए किसी कौशल और शिक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह तो लोक संगीत है जिसे हर कोई गा सकता है अपने तरीके से। भारत में लोक-संगीत की जो विविधता है, ऐसी विविधता विश्व के किसी और देश में नहीं है। हमारे एक राज्य के भीतर भी अलग अलग प्रांतों में अलग अलग तरह के लोक गीत गाए जाते हैं। और हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने भी लोक-संगीत के इस अनमोल धरोहर को अपनी फ़िल्मी रचनाओं में ग्रहण किया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न लोक गीतों की छाया हमें फ़िल्मी गीतों में सुनाई देती आई है। आइए आज ’चित्रकथा’ में उत्तर-प्रदेश के 12 प्रसिद्ध लोक गीतों और उनसे प्रेरित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की बात करें। इस अंक को तैयार करने के लिए ’विविध भारती’ के ’संगीत सरिता’ में अन्तर्गत प्रसारित श्रॄंखला ’एक धुन दो रूप’ से जानकारियाँ ली गई हैं।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों की जब बात चलती है, तब सबसे पहले ख़याल आता है दादरा का। दादरा एक ताल को कहा जाता है, छह मात्रा का एक ताल और इस ताल पर जो गीत निबद्ध होता है, उसे भी दादरा कहते हैं। दादरा हर प्रकार में बजता है जो धीमे लय में बजता है, दूसरे में गति थोड़ी तेज़ हो जाती है, तीसरे प्रकार में थोड़ी से लगी, लगिया प्रकार की होती है। इस तरह के दादरा के कई प्रकार होते हैं। प्रकृति चाहे चंचल हो या गंभीर, ताल वही रहता है छह मात्रा वाला। जिस भाव का गीत हो, उसे उसी प्रकार में तालबद्ध किया जाता है। दादरा गीत प्रधानत: श्रॄंगार रस पर आधारित होता है, लेकिन इसमें विरह का भी आभास हो सकता है। ज़्यादातर पारम्परिक दादरा वर्षा ॠतु में गाया जाता है। उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर, वाराणसी और आसपास के इलाकों में दादरा शैली के गीत बहुत लोकप्रिय रहे हैं। एक लोकप्रिय दादरा है "बदरवा बरसे श्याम नहीं आए..."। इस दादरे में भी श्रॄंगार के साथ-साथ विरह का बोध है। राधा-कृष्ण के श्रॄंगार की जो रचनाएँ हैं, उनमें दादरा का प्रयोग अधिक होता है। राधा, जो अपने श्याम का रास्ता देख रही है, कब से देख रही है यह उसे ख़ुद ही नहीं मालूम। बस इतना मालूम है कि बादल बरस रहे हैं लेकिन श्याम नहीं आए। इस तरह से दादरे का रस थोड़ा विरह का भी है। विरह की वजह से इस दादरे की गति में ठहराव है। राग मिश्र काफ़ी पर आधारित इस दादरे का प्रयोग जिस फ़िल्मी गीत में हुआ, वह है फ़िल्म ’पाक़ीज़ा’ की रचना "नजरिया की मारी" जिसे राजकुमारी ने गाया था। मौसीकार ग़ुलाम मोहम्मद के इन्तकाल के बाद नौशाद साहब ने ’पाक़ीज़ा’ की कमान संभाली और उन्होंने ही राजकुमारी को, जो उन दिनों आर्थिक दुरवस्था से गुज़र रही थीं, इस गीत को गाने का अवसर दिया।
एक और प्रसिद्ध दादरा है "कर ना बरजोरी अरज करी सैंया..."। इसमें भी श्रृंगार का ही वर्णन है और यह भी अवधी रचना है और थोड़ा सा भोजपुरी अंग भी है। नायिका इसमें नायक से कह रही हैं कि मेरा हाथ मत पकड़ो, मैं आप से विनती कर रही हूँ। जियरा काँपे, मुझे डर लग रहा है क्योंकि मेरी उम्र भी कम है, इसलिए आप ज़बरदस्ती मत करो। इस दादरा की प्रकृति चंचल है, थोड़ी लग्गी लड़ी। विनती का सुर होते हुए भी इसमें चंचल प्रकृति है।कुछ एक लोक गीतों को छोड़ कर लगभग सभी लोक गीत किसी राग से शुरु हो कर एक दो पंक्ति के बाद वह बदल जाता है। इस वजह से किसी लोक गीत को किसी एक राग पर आधारित कहना उचित नहीं है। बस राग की एक झलक सी मिलती है उनमें। पीढ़ी-दर-पीढ़ी आम जनता के मुख से गूंजती चली आने की वजह से इनमें परिवर्तन होते रहते हैं। "कर ना बरजोरी..." में राग देस की छाया मिलती है लेकिन पूरी तरह से नहीं; मिश्र देस कह सकना बेहतर होगा। यह गीत जौनपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और मिर्ज़ापुर के इलाकों में प्रधानत: गाया जाता है। साथ भोजपुरी बोले जाने वाली जगहों में भी यह दादरा ख़ूब लोकप्रिय है। इस लोक गीत की धुन को आधार बना कर नौशाद साहब ने एक गीत की रचना की थी फ़िल्म ’मदर इंडिया’ के लिए। लता मंगेशकर की आवाज़ में शकील बदायूंनी का लिखा यह गीत है "घुंघट नहीं खोलूंगी सैंया तोरे आगे"।
लोक गीतों में हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी झलकती है, ज़िन्दगी से जुड़ी बातें होती हैं। अब हम जिस लोकगीत का ज़िक्र करने जा रहे हैं उसमें कुँए में पानी भरने जाने में कितना कष्ट होता है, उसकी उलाहना नायिका नायक को दे रही है। उसमें कुँए का जो जगत है (कुँए के चारों तरफ़ जो घेरा होता है, उसे जगत कहते हैं) उस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है, पानी भरके लाना पड़ता है, ऐसा ही कुछ चित्रण है इस लोकगीत में। "मोसे पानी भरावे बेदर्दी सैंया..."। यह पनघट का गीत है और यह अवधी भाषा है। ताल दादरे का ही है, पर गाना दादरा शैली का नहीं है। इसका एक अलग ठेका है जो बहुत धीमा है, ठहरा हुआ सा। लेकिन ठेके और ताल से ज़्यादा इस गीत में नायिका के कथन का महत्व है। ऐसा नहीं है कि नायिका को पानी भरने में ख़राब लग रहा है, लेकिन जब कुँए से मटका लेके, जगत से चढ़ती-उतरती है, तो उसे एक तकलीफ़ होती है। इसलिए शिकायती सुर में वो कहती है कि मुझसे पानी भरा रहा है कितना बेदर्दी सैंया है। गाने में सुर के हिसाब से भले विरह रस का आभास हो, लेकिन असल में उसमें ख़ुशी है, थोड़ा कष्ट है बस! इस लोकगीत की धुन पर फिर एक बार नौशाद साहब ने महत्वाकांक्षी फ़िल्म ’मुग़ल-ए-आज़म’ के लिए एक गीत की रचना की "मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड गयो रे..."। यह रचना रसकवि रघुनाथ ब्रह्मभट्ट का लिखा हुआ है, पर ग़लती से नामावली पर शकील बदायूंनी का नाम छप गया। 2004 में जब इस फ़िल्म का रंगीकरण हुआ, तब रघुनाथ जी का नाम शामिल किया गया। फ़िल्म में इस गीत के फ़िल्मांकन में जोधाबाई द्वारा कृष्णजन्माष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है। राग पीलु की छाया मिलती है इस रचना में।
अब जिस लोकगीत का उल्लेख करने जा रहे हैं, उसमें नौटंकी की धुन और रंग है। किसी मेले या उत्सव में जब नौटंकी होती है, तब उसमें इस तरह के गीत शामिल किए जाते हैं। नौटंकी शैली का यह लोकगीत है "काहे को जिया ललचाये गई रे मदमाती चिड़ैया..."। इसमें "मदमाती चिड़ैया" से किसी चिड़िया की व्याख्या नहीं हो रही है, बल्कि एक लड़की की व्याख्या हो रही है कि कोई बगल से लड़की गुज़र रही है और कह रही है कि "काहे को जिया ललचायी गई रे मदमाती चिड़ैया"। इतनी ख़ूबसूरत लड़की चली गई, कौन थी चली गई, जिया ललचा गई। लोक-संगीत में यह ज़रूरी नहीं होता कि स्त्री का गीत कोई स्त्री ही गाए या पुरुष का गीत पुरुष ही गाए। कोई भी लोकगीत गा सकता/सकती है, बस शब्दों की प्रधानता और कहने का अंदाज़ होना चाहिए। यह गीत भले पुरुष गा रहा है, पर है किसी लड़की की पुकार। और नौटंकी में आदमी गा भी रहा है और साथ में लड़की का भेस लेकर अभिनय भी कर रहा है। नौटंकी का स्वरूप ऐसा होता है कि उसमें 90% अंश गायकी का होता है और 10% अंश संवाद का होता है। सीन दस मिनट का होता है तो उसमें संवाद एक ही मिनट का होता है और बाकी के नौ मिनटों में गीत-संगीत होता है। इसके पीछे कारण यह है कि नौटंकी को रात भर जारी रखना है। आधी रात को नाटक ख़त्म होने पर लोग कैसे अपने अपने घरों तक जाएँगे, इसलिए नाटक को खींचा जाता है सुबह होने तक। और इस वजह से गीत-संगीत भरा जाता रहा है नौटंकियों में। इस गीत में ताल है कहरवा, लेकिन किसी भी शास्त्रीय राग की छाया नहीं है। यह पूर्णत: लोकगीत है। इस लोकगीत पर आधारित फ़िल्मी गीत है ’तीसरी क़सम’ फ़िल्म का "चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया"। फ़िल्म में भी इसे एक नौटंकी गीत के रूप में ही फ़िल्माया गया है। मन्ना डे और साथियों का गाया यह गीत शैलेन्द्र का लिखा और शंकर-जयकिशन का स्वरबद्ध किया हुआ है। अभी हाल ही में ’बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ फ़िल्म में भी इसी लोकगीत पर आधारित एक होली गीत रचा गया है।
उत्तर प्रदेश के लोकगीतों में एक ख़ास तरह का गीत है जिसे "लाचारी" कहते हैं। लोकगीतों में एक भाव लाचारी का है; लाचारी में प्रेम होता है पर थोड़ी बेबसी भी दिखती है शब्दों में। एक लोकप्रिय लोकगीत है "तोरी गोरी कलैया लुभाये जियरा..." जिसमें आगे चलकर आता है कि ऐसा होता तो वैसा होता, वैसा होता तो वैसा होता। इसमें बातें होती हैं नायिका की ख़ूबसूरती की, श्रॄंगार की, कपड़ों की, हाथों की, लेकिन लाचारी होगी इस बात की कि नायिका नायक के पास नहीं है। तुम्हारा रूप अच्छा लगता है, तुम्हारी कलाई अच्छी लगती है, लेकिन अच्छा बस यह नहीं लगता कि तुम मेरे पास नहीं होती हो। वैसे तो इस तरह की बातें एक पुरुष एक महिला को कह सकता है, लेकिन जैसा कि पहले बताया गया है कि लोकगीत कोई भी गा सकता है, इसलिए यह गीत महिला कंठ में है लेकिन ये पुरुष के विचार हैं। इस तरह के लाचारी गीतों की गति मध्यम होती है क्योंकि इसमें शब्दों की प्रधानता होती है, इसलिए भाव महत्वपूर्ण है और गायकी के साथ-साथ शब्दों के साथ भाव दिखाना भी बेहद आवश्यक है ताकि ख़ूबसूरती के साथ-साथ बेबसी भी दिखनी चाहिए। इस गीत में दादरा ताल है। फ़िल्म ’मुझे जीने दो’ में इस तरह की लाचारी पर आधारित एक लोकगीत है "नदी नारे ना जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। इस एक पंक्ति में ही नायिका की बेबसी और लाचारी का पूरा वर्णन है। लेकिन जैसे जैसे बात आगे बढ़ती है, उसका जो कहना है, वो आख़िर में पता चलता है। वो कहती है "नदी नारे ना जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ", लेकिन वो देखती है कि वो जा रहे हैं, तो जब जा ही रहे हैं तो "बीच धारे न जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। लेकिन उसने फिर देखा कि बीच धारे से आगे भी ये निकलते जा रहे हैं, तो बीच धारे जा रही तो "जैबे करो", उस पार मत जाओ। फिर देखती है कि उस पार जाने ही वाले हैं, तो कहती है कि "उस पार जाओ तो जैबे करो, पर सौतन ना लाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। उनका उद्देश्य पहले से ही तय है कि जाने वाले हैं और मेरी सौतन लाने वाले हैं, लेकिन कैसे कैसे धीरे धीरे मना रही है कि यह करिए तो यह मत करिए, जब यह कर ही चुके हैं तो वह मत करिए। सीधे सीधे नहीं कह पा रही है कि सौतन ना लाओ, लेकिन अन्त में कहना पड़ रहा है। गीत की ख़ूबसूरती इसी में है कि कैसे धीरे धीरे बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात कह ही देती है। 1963 में बनी इस फ़िल्म के संगीतकार थे जयदेव और गीतकार थे साहिर लुधियानवी। आशा भोसले की खनक भरी आवाज़ में यह लोकगीत आधारित रचना एक सदाबहार फ़िल्मी गीत बन कर अमर हो चुका है।
अब बातें एक बारामासा की। बारामासा उन लोकगीतों को कहते हैं जिनमें ॠतुओं का वर्णन होता है। इस शैली की एक चर्चित रचना है "नई झुलनी के छैया बलम दोपहरिया बिताइला हो..."। यह कजरी का ही एक रूप है जो ख़ास कर पूर्वी उत्तर प्रदेश, जौनपुर, मिर्ज़ापुर और वाराणसी अंचलों में गाया जाता है। इस गीत को बारामासा इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें चार-चार ॠतुओं का उल्लेख आया है। पहला मौसम है गर्मी का। इस गीत में नायिका कहती है कि झुलनी जो नक में पहना जाता है, उसकी कल्पना है कि झुलनी की छाँव में तुम बैठ जाओ और यहीं पे तपती दोपहरी बिता लो। "टप टप पसीना चूयाले, बेनिया झुलाइला हो" - टप टप पसीना आ रही है, बेनिया (हाथ का पंखा) से हवा कर दो। फिर आता है मौसम बारिश का। "रिमझिम बरसइले पनिया बलम, बंगला छवाई दा हो"। बंगले का मतलब यह नहीं कि चार दीवार खड़ी कर दो, छत भी चाहिए, बंगला छवाई दो। फिर सर्दी के मौसाम का ज़िक्र होता है। पंखा हिला दिया गर्मी में, बंगला बना दिया बारिश में, अब जाड़े के लिए क्या करें? "थर थर काँपे जियरा, तनिक गरबा लगइला हो"। ठंड से मेरा शरीर थर-थर काँप रहा है, बलम जी मुझे गले लगा लो। इस गीत में राग आसावरी की झलक मिलती है और दादरा ताल में यह निबद्ध है। यह कजरी बारामासा गाया जाता है, शादी-ब्याह में महिलाएँ गाती हैं। इसी लोकगीत की धुन पर आधारित है फ़िल्म ’अगर तुम न होते’ का गीत "हम तो हैं छुइ-मुइ इब क्या करे..."। राहुल देव बर्मन की धुन पर गुल्शन बावरा ने इसे लिखा था और गाया लता मंगेशकर ने।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की यह चर्चा आज यहीं तक। हमने छह लोक गीतों और उनसे प्रेरित फ़िल्मी गीतों की बातें की। अगले अंक में इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए हम बाक़ी के छह गीतों की चर्चा करेंगे। आपको बता दें कि यह आलेख ’विविध भारती’ के ’संगीत सरिता’ कार्यक्रम में प्रसारित इसी विषय पर बातचीत पर आधारित है।
एक और प्रसिद्ध दादरा है "कर ना बरजोरी अरज करी सैंया..."। इसमें भी श्रृंगार का ही वर्णन है और यह भी अवधी रचना है और थोड़ा सा भोजपुरी अंग भी है। नायिका इसमें नायक से कह रही हैं कि मेरा हाथ मत पकड़ो, मैं आप से विनती कर रही हूँ। जियरा काँपे, मुझे डर लग रहा है क्योंकि मेरी उम्र भी कम है, इसलिए आप ज़बरदस्ती मत करो। इस दादरा की प्रकृति चंचल है, थोड़ी लग्गी लड़ी। विनती का सुर होते हुए भी इसमें चंचल प्रकृति है।कुछ एक लोक गीतों को छोड़ कर लगभग सभी लोक गीत किसी राग से शुरु हो कर एक दो पंक्ति के बाद वह बदल जाता है। इस वजह से किसी लोक गीत को किसी एक राग पर आधारित कहना उचित नहीं है। बस राग की एक झलक सी मिलती है उनमें। पीढ़ी-दर-पीढ़ी आम जनता के मुख से गूंजती चली आने की वजह से इनमें परिवर्तन होते रहते हैं। "कर ना बरजोरी..." में राग देस की छाया मिलती है लेकिन पूरी तरह से नहीं; मिश्र देस कह सकना बेहतर होगा। यह गीत जौनपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और मिर्ज़ापुर के इलाकों में प्रधानत: गाया जाता है। साथ भोजपुरी बोले जाने वाली जगहों में भी यह दादरा ख़ूब लोकप्रिय है। इस लोक गीत की धुन को आधार बना कर नौशाद साहब ने एक गीत की रचना की थी फ़िल्म ’मदर इंडिया’ के लिए। लता मंगेशकर की आवाज़ में शकील बदायूंनी का लिखा यह गीत है "घुंघट नहीं खोलूंगी सैंया तोरे आगे"।
लोक गीतों में हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी झलकती है, ज़िन्दगी से जुड़ी बातें होती हैं। अब हम जिस लोकगीत का ज़िक्र करने जा रहे हैं उसमें कुँए में पानी भरने जाने में कितना कष्ट होता है, उसकी उलाहना नायिका नायक को दे रही है। उसमें कुँए का जो जगत है (कुँए के चारों तरफ़ जो घेरा होता है, उसे जगत कहते हैं) उस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है, पानी भरके लाना पड़ता है, ऐसा ही कुछ चित्रण है इस लोकगीत में। "मोसे पानी भरावे बेदर्दी सैंया..."। यह पनघट का गीत है और यह अवधी भाषा है। ताल दादरे का ही है, पर गाना दादरा शैली का नहीं है। इसका एक अलग ठेका है जो बहुत धीमा है, ठहरा हुआ सा। लेकिन ठेके और ताल से ज़्यादा इस गीत में नायिका के कथन का महत्व है। ऐसा नहीं है कि नायिका को पानी भरने में ख़राब लग रहा है, लेकिन जब कुँए से मटका लेके, जगत से चढ़ती-उतरती है, तो उसे एक तकलीफ़ होती है। इसलिए शिकायती सुर में वो कहती है कि मुझसे पानी भरा रहा है कितना बेदर्दी सैंया है। गाने में सुर के हिसाब से भले विरह रस का आभास हो, लेकिन असल में उसमें ख़ुशी है, थोड़ा कष्ट है बस! इस लोकगीत की धुन पर फिर एक बार नौशाद साहब ने महत्वाकांक्षी फ़िल्म ’मुग़ल-ए-आज़म’ के लिए एक गीत की रचना की "मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड गयो रे..."। यह रचना रसकवि रघुनाथ ब्रह्मभट्ट का लिखा हुआ है, पर ग़लती से नामावली पर शकील बदायूंनी का नाम छप गया। 2004 में जब इस फ़िल्म का रंगीकरण हुआ, तब रघुनाथ जी का नाम शामिल किया गया। फ़िल्म में इस गीत के फ़िल्मांकन में जोधाबाई द्वारा कृष्णजन्माष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा है। राग पीलु की छाया मिलती है इस रचना में।
अब जिस लोकगीत का उल्लेख करने जा रहे हैं, उसमें नौटंकी की धुन और रंग है। किसी मेले या उत्सव में जब नौटंकी होती है, तब उसमें इस तरह के गीत शामिल किए जाते हैं। नौटंकी शैली का यह लोकगीत है "काहे को जिया ललचाये गई रे मदमाती चिड़ैया..."। इसमें "मदमाती चिड़ैया" से किसी चिड़िया की व्याख्या नहीं हो रही है, बल्कि एक लड़की की व्याख्या हो रही है कि कोई बगल से लड़की गुज़र रही है और कह रही है कि "काहे को जिया ललचायी गई रे मदमाती चिड़ैया"। इतनी ख़ूबसूरत लड़की चली गई, कौन थी चली गई, जिया ललचा गई। लोक-संगीत में यह ज़रूरी नहीं होता कि स्त्री का गीत कोई स्त्री ही गाए या पुरुष का गीत पुरुष ही गाए। कोई भी लोकगीत गा सकता/सकती है, बस शब्दों की प्रधानता और कहने का अंदाज़ होना चाहिए। यह गीत भले पुरुष गा रहा है, पर है किसी लड़की की पुकार। और नौटंकी में आदमी गा भी रहा है और साथ में लड़की का भेस लेकर अभिनय भी कर रहा है। नौटंकी का स्वरूप ऐसा होता है कि उसमें 90% अंश गायकी का होता है और 10% अंश संवाद का होता है। सीन दस मिनट का होता है तो उसमें संवाद एक ही मिनट का होता है और बाकी के नौ मिनटों में गीत-संगीत होता है। इसके पीछे कारण यह है कि नौटंकी को रात भर जारी रखना है। आधी रात को नाटक ख़त्म होने पर लोग कैसे अपने अपने घरों तक जाएँगे, इसलिए नाटक को खींचा जाता है सुबह होने तक। और इस वजह से गीत-संगीत भरा जाता रहा है नौटंकियों में। इस गीत में ताल है कहरवा, लेकिन किसी भी शास्त्रीय राग की छाया नहीं है। यह पूर्णत: लोकगीत है। इस लोकगीत पर आधारित फ़िल्मी गीत है ’तीसरी क़सम’ फ़िल्म का "चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया"। फ़िल्म में भी इसे एक नौटंकी गीत के रूप में ही फ़िल्माया गया है। मन्ना डे और साथियों का गाया यह गीत शैलेन्द्र का लिखा और शंकर-जयकिशन का स्वरबद्ध किया हुआ है। अभी हाल ही में ’बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ फ़िल्म में भी इसी लोकगीत पर आधारित एक होली गीत रचा गया है।
उत्तर प्रदेश के लोकगीतों में एक ख़ास तरह का गीत है जिसे "लाचारी" कहते हैं। लोकगीतों में एक भाव लाचारी का है; लाचारी में प्रेम होता है पर थोड़ी बेबसी भी दिखती है शब्दों में। एक लोकप्रिय लोकगीत है "तोरी गोरी कलैया लुभाये जियरा..." जिसमें आगे चलकर आता है कि ऐसा होता तो वैसा होता, वैसा होता तो वैसा होता। इसमें बातें होती हैं नायिका की ख़ूबसूरती की, श्रॄंगार की, कपड़ों की, हाथों की, लेकिन लाचारी होगी इस बात की कि नायिका नायक के पास नहीं है। तुम्हारा रूप अच्छा लगता है, तुम्हारी कलाई अच्छी लगती है, लेकिन अच्छा बस यह नहीं लगता कि तुम मेरे पास नहीं होती हो। वैसे तो इस तरह की बातें एक पुरुष एक महिला को कह सकता है, लेकिन जैसा कि पहले बताया गया है कि लोकगीत कोई भी गा सकता है, इसलिए यह गीत महिला कंठ में है लेकिन ये पुरुष के विचार हैं। इस तरह के लाचारी गीतों की गति मध्यम होती है क्योंकि इसमें शब्दों की प्रधानता होती है, इसलिए भाव महत्वपूर्ण है और गायकी के साथ-साथ शब्दों के साथ भाव दिखाना भी बेहद आवश्यक है ताकि ख़ूबसूरती के साथ-साथ बेबसी भी दिखनी चाहिए। इस गीत में दादरा ताल है। फ़िल्म ’मुझे जीने दो’ में इस तरह की लाचारी पर आधारित एक लोकगीत है "नदी नारे ना जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। इस एक पंक्ति में ही नायिका की बेबसी और लाचारी का पूरा वर्णन है। लेकिन जैसे जैसे बात आगे बढ़ती है, उसका जो कहना है, वो आख़िर में पता चलता है। वो कहती है "नदी नारे ना जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ", लेकिन वो देखती है कि वो जा रहे हैं, तो जब जा ही रहे हैं तो "बीच धारे न जाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। लेकिन उसने फिर देखा कि बीच धारे से आगे भी ये निकलते जा रहे हैं, तो बीच धारे जा रही तो "जैबे करो", उस पार मत जाओ। फिर देखती है कि उस पार जाने ही वाले हैं, तो कहती है कि "उस पार जाओ तो जैबे करो, पर सौतन ना लाओ श्याम पैयाँ पड़ूँ"। उनका उद्देश्य पहले से ही तय है कि जाने वाले हैं और मेरी सौतन लाने वाले हैं, लेकिन कैसे कैसे धीरे धीरे मना रही है कि यह करिए तो यह मत करिए, जब यह कर ही चुके हैं तो वह मत करिए। सीधे सीधे नहीं कह पा रही है कि सौतन ना लाओ, लेकिन अन्त में कहना पड़ रहा है। गीत की ख़ूबसूरती इसी में है कि कैसे धीरे धीरे बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात कह ही देती है। 1963 में बनी इस फ़िल्म के संगीतकार थे जयदेव और गीतकार थे साहिर लुधियानवी। आशा भोसले की खनक भरी आवाज़ में यह लोकगीत आधारित रचना एक सदाबहार फ़िल्मी गीत बन कर अमर हो चुका है।
अब बातें एक बारामासा की। बारामासा उन लोकगीतों को कहते हैं जिनमें ॠतुओं का वर्णन होता है। इस शैली की एक चर्चित रचना है "नई झुलनी के छैया बलम दोपहरिया बिताइला हो..."। यह कजरी का ही एक रूप है जो ख़ास कर पूर्वी उत्तर प्रदेश, जौनपुर, मिर्ज़ापुर और वाराणसी अंचलों में गाया जाता है। इस गीत को बारामासा इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें चार-चार ॠतुओं का उल्लेख आया है। पहला मौसम है गर्मी का। इस गीत में नायिका कहती है कि झुलनी जो नक में पहना जाता है, उसकी कल्पना है कि झुलनी की छाँव में तुम बैठ जाओ और यहीं पे तपती दोपहरी बिता लो। "टप टप पसीना चूयाले, बेनिया झुलाइला हो" - टप टप पसीना आ रही है, बेनिया (हाथ का पंखा) से हवा कर दो। फिर आता है मौसम बारिश का। "रिमझिम बरसइले पनिया बलम, बंगला छवाई दा हो"। बंगले का मतलब यह नहीं कि चार दीवार खड़ी कर दो, छत भी चाहिए, बंगला छवाई दो। फिर सर्दी के मौसाम का ज़िक्र होता है। पंखा हिला दिया गर्मी में, बंगला बना दिया बारिश में, अब जाड़े के लिए क्या करें? "थर थर काँपे जियरा, तनिक गरबा लगइला हो"। ठंड से मेरा शरीर थर-थर काँप रहा है, बलम जी मुझे गले लगा लो। इस गीत में राग आसावरी की झलक मिलती है और दादरा ताल में यह निबद्ध है। यह कजरी बारामासा गाया जाता है, शादी-ब्याह में महिलाएँ गाती हैं। इसी लोकगीत की धुन पर आधारित है फ़िल्म ’अगर तुम न होते’ का गीत "हम तो हैं छुइ-मुइ इब क्या करे..."। राहुल देव बर्मन की धुन पर गुल्शन बावरा ने इसे लिखा था और गाया लता मंगेशकर ने।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों पर आधारित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की यह चर्चा आज यहीं तक। हमने छह लोक गीतों और उनसे प्रेरित फ़िल्मी गीतों की बातें की। अगले अंक में इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए हम बाक़ी के छह गीतों की चर्चा करेंगे। आपको बता दें कि यह आलेख ’विविध भारती’ के ’संगीत सरिता’ कार्यक्रम में प्रसारित इसी विषय पर बातचीत पर आधारित है।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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