उत्तर प्रदेश के 12 लोकप्रिय लोक-गीतों पर आधारित 12 फ़िल्मी गाने
"चले आओ सैयाँ, रंगीले मैं वारी..."
विश्व के हर में लोक-संगीत का अलग ही मुकाम है। संगीत की यह वह धारा है जिसे गाने के लिए किसी कौशल और शिक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती। यह तो लोक संगीत है जिसे हर कोई गा सकता है अपने तरीके से। भारत में लोक-संगीत की जो विविधता है, ऐसी विविधता विश्व के किसी और देश में नहीं है। हमारे एक राज्य के भीतर भी अलग अलग प्रांतों में अलग अलग तरह के लोक गीत गाए जाते हैं। और हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने भी लोक-संगीत के इस अनमोल धरोहर को अपनी फ़िल्मी रचनाओं में ग्रहण किया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न लोक गीतों की छाया हमें फ़िल्मी गीतों में सुनाई देती आई है। आइए आज ’चित्रकथा’ में उत्तर-प्रदेश के 12 प्रसिद्ध लोक गीतों और उनसे प्रेरित हिन्दी फ़िल्मी गीतों की बात करें। इस अंक को तैयार करने के लिए ’विविध भारती’ के ’संगीत सरिता’ में अन्तर्गत प्रसारित श्रॄंखला ’एक धुन दो रूप’ से जानकारियाँ ली गई हैं। पिछले सप्ताह आपने इस लेख का पहला भाग पढ़ा, आज प्रस्तुत है इसका दूसरा व अन्तिम भाग।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों पर आधारित फ़िल्मी गीतों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है। इन लोक गीतों में एक श्रेणी लोरियों का है। लोरी गीत एक ऐसा गीत है जो बच्चे को सुलाने के लिए गाया जाता है। लोरी गायकी ऐसी सुकूनदायक होती है कि जिसे सुनते हुए नींद आ जाती है। परेशानियों से घिरा इंसान को भी सुकून दे जाती है लोरी। एक प्रचलित लोरी है "गते गते नैन दुआरिया रे, निन्दिया काहे न आवे"। इसका अर्थ यह है कि आँखें दरवाज़े की तरफ़ है, निन्दिया नहीं आ रही है मेरे बाबू को। माँ बच्चे के माथे पे हाथ फिरा रही है, जतन कर रही है, फिर भी नींद काहे नहीं आ रही है! सुलाने के साथ-साथ बच्चे के एक अच्छे भविष्य के लिए माता-पिता कामना करते हुए गाते हैं, गुनगुनाते हैं। उपर्युक्त लोरी में राग मिश्र शिवरंजनी की एक झलक मिलती है। दीपचन्दी और रूपक ताल में निबद्ध है यह गीत। ख़ास तौर से विदाई के गीतों में दीपचन्दी ताल का प्रयोग होता है। रूपक और दीपचन्दी तालों में ठेके का अन्तर होता है। रूपक सात मात्राओं का होता है जबकि दीपचन्दी चौदह मात्राओं का। रूपक और दीपचन्दी तालों पर ढेर सारे फ़िल्मी गीत बजे हैं। और ख़ास तौर से इस लोक गीत की धुन पर जो फ़िल्मी गीत बना है, वह है फ़िल्म ’अलबेला’ का "धीरे से आजा री अखियन में निन्दिया आजा री आजा..."। सी. रामचन्द्र द्वारा स्वरबद्ध यह गीत राजेन्द्र कृष्ण का लिखा हुआ है। इस लोरी के तीन संस्करण हैं। पहला संस्करण ’हैप्पी’ और दूसरा संस्करण ’सैड’, दोनों लता मंगेशकर की आवाज़ में गीता बाली पर फ़िल्माया हुआ, और तीसरा संस्करण है चितलकर की आवाज़ में जो अभिनेता भगवान पर फ़िल्माया गया है। हिन्दी फ़िल्मों में बहुत कम ऐसी लोरियाँ हैं जो पुरुष कंठ में हैं, और फ़िल्म ’अलबेला’ की यह लोरी उन्हीं ख़ास लोरियों में से एक है।
लोरी के बाद अब बातें विदाई गीत की। विदाई गीत आम तौर पर लड़की की शादी के बाद विदाई की रस्म को निभाते वक़्त गायी जाती है और इसमें ससुराल जाती हुई लड़की की जो भी भावनाएँ होती हैं, वो सब प्रकट किए जाते हैं। और साथ ही साथ माँ, पिता, भाई-बहन और सखी-सहेलियों की भावनाओं को भी शामिल किया जाता है। विदाई गीत बड़ा मार्मिक गीत है और उत्तर प्रदेश के लखनऊ अंचल के आसपास सर्वाधिक गाया जाता है। विदाई गीतों में जो गीत सर्वाधिक प्रचलित है, वह है "काहे को ब्याही बिदेस, लखी बाबुल मोरे..."। शब्दों का थोड़ा हेर-फेर भी इस गीत में नज़र आता है, जैसे कि किसी किसी में "ब्याही" की जगह "दीनी" भी गाया जाता है - "काहे को दीनी बिदेस..."। इस गीत में एक बेटी अपने पिता से कह रही है कि "काहे को ब्याही बिदेस अरे लखिया बाबुल, बाबुल लखिया मोरे"। आगे कहती है - भैया को दे दी महला दो महला", अर्थात् भैया को तो दो मंज़िला मकान दे दिया और मुझे भेज रहे हो परदेस! अरे लखिया बाबुल, आपने ऐसा क्यों किया? मैं तो आपकी बेटी हूँ। फिर गाती है "मैं तो हूँ बाबुल तेरी आंगन की गैया", मैं तो बेटी हूँ, आंगन की गाय हूँ, अरे यहान से वहाँ बाँध देते, इतनी दूर क्यों भेज दिया मुझे! बेटी की व्यथा है कि इतनी दूर शादी कर रहे हो मेरी, कभी माँ को देखने का मन हुआ, पिता को देखने का मन हुआ, उस समय आना संभव होगा, नहीं होगा, मैं नहीं जानती हूँ। इस गीत को पारम्परिक लोक रचना कहा जाता है, पर ऐसी भी मान्यता है कि इसे अमीर ख़ुसरो ने लिखा था। इस गीत का कई फ़िल्मों में प्रयोग किया गया है। 1942 की फ़िल्म ’झंकार’ में बशीर दहल्वी के संगीत में राजकुमारी ने इसे गाया था। फिर 1948 में अज़ीज़ ख़ान के संगीत में लता मंगेशकर ने इसे गाया। इसी वर्ष फ़िल्म ’सुहाग रात’ में स्नेहल भाटकर के संगीत में मुकेश ने गाया था "लखी बाबुल मोरे, काहे को दीन्ही बिदेस"। 1954 की फ़िल्म ’सुहागन’ में सी. रामचन्द्र के संगीत में आशा भोसले ने इसे गाया। 1968 में एस. एन. त्रिपाठी के संगीत में फ़िल्म ’नादिर शाह’ में इसे गाया सुमन कल्याणपुर और श्यामा हेमाडी ने। 1977 में आशा भोसले ने फिर एक बार इसे गाया लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत में फ़िल्म ’आधा दिन आधी रात’ के लिए। लक्ष्मी-प्यारे ने 1980 में भी अपनी फ़िल्म ’माँग भरो सजना’ में इस गीत को स्वरबद्ध किया जिसे कविता कृष्णमूर्ति ने गाया। और 1981 में ख़य्याम के संगीत में उनकी अर्धांगिनी व गायिका जगजीत कौर ने कालजयी फ़िल्म ’उमराव जान’ में इसे गाया। जगजीत कौर के गाए संस्करण की शुरुआत में राग तिलक कामोद की झलक मिलती है पर आगे चल कर स्वर बदल जाता है। धीमी लय में दीपचन्दी ताल की वजह से भाव और व्यथा पूरी पूरी निखर के सामने आती है।
"काहे को ब्याही बिदेस" अगर सर्वाधिक प्रचलित विदाई गीत है तो एक और लोकप्रिय विदाई गीत है "मोरे अंगने की सोन चिड़ैया चली"। इस गीत में भी भाव लगभग वही है जो पिछले गीत का था, लेकिन दोनों गीतों में फ़र्क है। "काहे को ब्याही..." में एक बेटी के दिल की पुकार थी, उसकी व्यथा थी, उसकी शिकायत थी अपने पिता से कि लखी बाबुल, आपने क्यों मुझे परदेस में भेज दिया। लेकिन "मोरे अंगने की..." गीत में भाव पिता का है। "सोन चिड़ैया" यानी कि सोने की चिड़िया। पिता कहता है कि मेरी सोने की चिड़िया, मेरे आंगन में जो रहती है, आज जा रही है। इस गीत में सारे भाव पिता का है कि उन्होंने अपनी बेटी को कैसे पाला, कैसे लाड किया, कैसे बड़ा किया उसे। अन्य विदाई गीतों की तरह यह गीत भी दीपचन्दी ताल पर आधारित है। विदाई गीतों की ख़ासियत यह है कि चाहे जब भी हम इन्हें सुनें, आँखें नम हो जाती हैं। गीत के बोल और धुन व ताल, सब एक साथ मिल जुल कर ऐसा समा बाँध देता है कि करुण रस का संचार होने लगता है सुनने वाले के दिल-ओ-दिमाग़ में। दीपचन्दी में जो विदाई गीत होते हैं, उनमें कम बोलों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि गाने का जो भाव है, उसमें ज़्यादा बोलों के प्रयोग से भाव कम हो जाने की स्थिति बन सकती है। शब्दों की प्रधानता होने की वजह से बोल कम रखा जाता है, आधुनिक भाषा में यह कह सकते हैं कि शब्दों का "बिज़ी पैटर्ण" नहीं रखते। यह गीत राग गारा पर आधारित है। संगीतकार नौशाद के संगीत में महबूब ख़ान की कालजयी फ़िल्म ’मदर इंडिया’ में शमशाद बेगम ने गाया था "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली" जो इस पारम्परिक लोक गीत "मोरे अंगने की सोन चिड़ैया चली" पर आधारित है। शमशाद बेगम की खनकती पर उदासी भरी आवाज़ में यह गीत रोंगटे खड़े कर देता है जब कभी भी हम इसे सुनते हैं।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में ख़ास जगह रखती है चैती। चैती गीत सावन के आसपास के समय में गाया जाता है। समूह गीत के रूप में चैती गाया जाता है जिसमें एक मुख्य गायक होता या होती है, और बाकी लोग आख़िरी लाइन साथ में गाते हैं। एक प्रचलित चैती रचना है "एही थैया मोतिया हेराय गइल रामा", यहीं कहीं मोतिया हेराय गइल रामा, कहाँ कहाँ ढूंढ़ू, यानी कि मेरे पास एक मोती था, खो गया है, अब उसे कहाँ ढूंढ़ू? और मैं ढूंढ़ रही हूँ, पति से पूछ रही हूँ, देवर से पूछ रही हूँ, मैं ढूंढ़ रही हूँ, और किस किस से पूछूँ! इसी समस्या को लेकर पूरा गीत बन जाता है। और इसमें भी फिर से दीपचन्दी ताल का प्रयोग हुआ है। लेकिन अन्त में ताल दीपचन्दी से कहरवा बन जाता है और यही इसकी ख़ूबसूरती है कि बीच में लय दुगुना हो जाता है लेकिन बाद में इसी दीपचन्दी पर वापस आ जाता है। इस गीत में मिश्र तिलक कामोद राग की झलक मिलती है। फ़िल्मों में भी चैती गीतों का प्रयोग समय समय पर होता आया है, एक लोकप्रिय गीत है फ़िल्म ’बन्दिनी’ का "अब के बरस भेजो भैया को बाबुल" जो एक पारम्परिक चैती रचना पर आधारित है। पर उपर्युक्त चैती पर आधारित जो फ़िल्मी गीत है वह है 2007 की फ़िल्म ’लागा चुनरी में दाग’ का। शान्तनु मोइत्र के संगीत में इसे रेखा भारद्वाज ने गाया है और गीत के बोल भी लगभग वही है "एही थैया मोतिया हेराय गइल..."। फ़िल्म संगीत एक शक्तिशाली माध्यम है जिससे दूर दराज़ के प्रान्तों के लोक गीतों को देश भर के जन जन तक पहुँचाया जा सकता है, और ऐसा ही होता आया है फ़िल्म-संगीत के शुरुआती दिनों से लेकर अब तक।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में अब एक लाचारी की बातें। "बहारदार बगिया न जइबे राजा" एक लाचारी लोक गीत है जिसका अर्थ यह है कि नायिका कह रही है कि बहारदार बगिया जो है वहाँ, मैं नहीं जाऊँगी, ऐसा लगता है जैसे ससुरों का डेरा है, बार बार ससुर सामने आ जाते हैं तो मैं बार बार उनके पाँव नहीं छूऊँगी। फिर कुछ कहती है कि वहाँ भासुरों (जेठों) का डेरा है, तो मैं बार बार घुंघट नहीं करूँगी। ये सब वो अपने पति को बता रही है, नख़रे दिखा रही है। आगे कहती है कि मेरे देवर जी आ रहे हैं, तो मैं बार बार ठुमका (यहाँ ठुमका का अर्थ है मज़ाक) नहीं, एक बार हो गया, बस! लेकिन अन्त में उसने कहा है कि पिया बुलाएँगे तो मैं बार बार जाऊँगी। पति का भाव है, उनका अंदाज़ है, उनका हक़ है, जो पूरे परिवार को दिखना चाहिए और साथ ही मेरी भी मर्ज़ी चलनी चाहिए। अपने मन के जो भाव हैं, उसे लोक गीत के माध्यम से किस सुन्दर तरीके से व्यक्त किया गया है इस लाचारी में, उसे बस इसे सुनते हुए ही महसूस किया जा सकता है। हमारे लोक गीतों की ख़ासियत ही यह है कि जीवन से जुड़ी जो बातें हैं, उलाहना है, और एक प्यार भरी मीठी बात है, वह दिल को छू लेती है। और इसमें श्रॄंगार रस भी है। ताल के माध्यम से भी श्रॄंगार रस को बढ़ावा मिलता है और ताल में भी इतनी शक्ति है कि वो इन भावों को कितने सुन्दर तरीके से सुननेवालों को समझा सकती है। ताल में एक लग्गी लड़ी है, दादरे में, जो ख़ुशी को ज़ाहिर करने में इस्तमाल होता है। साथ में लग्गी लड़ी भी बजायी है। "बहारदार बगिया..." गीत में राग कल्याण का अंक सुनाई पड़ता है और इस लोक गीत पर आधारित फ़िल्मी रचना है 1982 की फ़िल्म ’बाज़ार’ में। जगजीत कौर और पामेला चोपड़ा की आवाज़ों में यह ख़य्याम साहब की रचना है "चले आओ सैयाँ, रंगीले मैं वारी"। इस गीत के अन्तरों की शुरुआत को सुनने पर जैसे राग पीलू का आभास होता है, मसलन "सजन मोहे तुम बिन भाये ना..." वाले हिस्से में। खमाज, मंज खमाज, तिलक कामोद और पीलू राग जैसे एक चतुर्भुज समानता पैदा करती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रचलित विवाह और विदाई गीत, चैती, कजरी आदि इस चतुर्भुज का हिस्सा बनते हैं। "काहे को ब्याही बिदेस" की चर्चा हम कर चुके हैं, एक और गीत जो इस चतुर्भुज में आता है, वह है "प्यार कुछ और भी भड़का दी झलक दिखला के"। 1958 की फ़िल्म ’लाला रुख़’ का यह नग़मा है।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में एक महत्वपूर्ण श्रेणी है कजरी की। उपशास्त्रीय संगीत गायन की एक शैली है कजरी जो बिहार में भी परचलित है। अक्सर चैती में सावन के आने पर अपने प्रेमी/ पिया/ पति के इन्तज़ार में नायिका इसे गाती है। वर्षा ॠतु का गीत है कजरी। चैती, होरी और सावनी की तरह कजरी भी ॠतु गीतों की श्रेणी में आता है जो सबसे ज़्यादा बनारस, मिर्ज़ापुर, मथुरा, इलाहाबाद और बिहार के भोजपुर अंचलों में गाया जाता रहा है। एक लोकप्रिय कजरी है "बरसे बदरिया सावन की"। कजरी में इन्तज़ार की वजह से श्रॄंगार के साथ-साथ थोड़ा विरह पक्ष भी होता है। अपने नायक की पतीक्षा कर रही नायिका गाती है "बरसे बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की, सावन में उमंग्यो मेरो मनवा झनक सुनी हरि आवन की"। आगे गाती है "उमड़ घुमड़ चहुँ दिसा से आयो, दामिनी धमके झर लावन की"। और फिर अन्त में बारिश शुरु जाने पर वो गाती है "नन्ही नन्ही बून्दन मेघा बरसे, शीतल पवन सुहावन की"। कहरवा ताल में निबद्ध यह लोक रचना राग भैरवी पर आधारित है। वैसे इसे कुछ गायकों ने राग श्याम कल्याण और तीन ताल में भी गाया है। संगीतकार वसन्त देसाई ने इस लोक गीत पर आधारित एक फ़िल्मी गीत की रचना की थी वी. शान्ताराम की सुरीली फ़िल्म ’गूंज उठी शहनाई’ के लिए। लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गाना था "दिल का खिलौना हाय टूट गया"। भरत व्यास का लिखा यह गीत हू-ब-हू उन्हीं स्वरों पर आधारित है जिन स्वरों पर "बरसे बदरिया सावन की" आधारित है।
इस तरह से उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोक गीतों पर आधारित बारह फ़िल्मी रचनाओं की बातें हमने की। ऐसे और भी ढेर सारे गीत हैं जो यू.पी के लोक धुनों पर आधारित हैं, हमारी कोशिश यही थी कि अलग अलग शैलियों के कम से कम एक एक गीत के ज़रिए लोक गीत और फ़िल्मी गीत के आपस के रिश्ते को साकार करें। अगले सप्ताह फिर किसी रोचक विषय के साथ हम पुन: उपस्थित होंगे, नमस्कार!
लोरी के बाद अब बातें विदाई गीत की। विदाई गीत आम तौर पर लड़की की शादी के बाद विदाई की रस्म को निभाते वक़्त गायी जाती है और इसमें ससुराल जाती हुई लड़की की जो भी भावनाएँ होती हैं, वो सब प्रकट किए जाते हैं। और साथ ही साथ माँ, पिता, भाई-बहन और सखी-सहेलियों की भावनाओं को भी शामिल किया जाता है। विदाई गीत बड़ा मार्मिक गीत है और उत्तर प्रदेश के लखनऊ अंचल के आसपास सर्वाधिक गाया जाता है। विदाई गीतों में जो गीत सर्वाधिक प्रचलित है, वह है "काहे को ब्याही बिदेस, लखी बाबुल मोरे..."। शब्दों का थोड़ा हेर-फेर भी इस गीत में नज़र आता है, जैसे कि किसी किसी में "ब्याही" की जगह "दीनी" भी गाया जाता है - "काहे को दीनी बिदेस..."। इस गीत में एक बेटी अपने पिता से कह रही है कि "काहे को ब्याही बिदेस अरे लखिया बाबुल, बाबुल लखिया मोरे"। आगे कहती है - भैया को दे दी महला दो महला", अर्थात् भैया को तो दो मंज़िला मकान दे दिया और मुझे भेज रहे हो परदेस! अरे लखिया बाबुल, आपने ऐसा क्यों किया? मैं तो आपकी बेटी हूँ। फिर गाती है "मैं तो हूँ बाबुल तेरी आंगन की गैया", मैं तो बेटी हूँ, आंगन की गाय हूँ, अरे यहान से वहाँ बाँध देते, इतनी दूर क्यों भेज दिया मुझे! बेटी की व्यथा है कि इतनी दूर शादी कर रहे हो मेरी, कभी माँ को देखने का मन हुआ, पिता को देखने का मन हुआ, उस समय आना संभव होगा, नहीं होगा, मैं नहीं जानती हूँ। इस गीत को पारम्परिक लोक रचना कहा जाता है, पर ऐसी भी मान्यता है कि इसे अमीर ख़ुसरो ने लिखा था। इस गीत का कई फ़िल्मों में प्रयोग किया गया है। 1942 की फ़िल्म ’झंकार’ में बशीर दहल्वी के संगीत में राजकुमारी ने इसे गाया था। फिर 1948 में अज़ीज़ ख़ान के संगीत में लता मंगेशकर ने इसे गाया। इसी वर्ष फ़िल्म ’सुहाग रात’ में स्नेहल भाटकर के संगीत में मुकेश ने गाया था "लखी बाबुल मोरे, काहे को दीन्ही बिदेस"। 1954 की फ़िल्म ’सुहागन’ में सी. रामचन्द्र के संगीत में आशा भोसले ने इसे गाया। 1968 में एस. एन. त्रिपाठी के संगीत में फ़िल्म ’नादिर शाह’ में इसे गाया सुमन कल्याणपुर और श्यामा हेमाडी ने। 1977 में आशा भोसले ने फिर एक बार इसे गाया लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत में फ़िल्म ’आधा दिन आधी रात’ के लिए। लक्ष्मी-प्यारे ने 1980 में भी अपनी फ़िल्म ’माँग भरो सजना’ में इस गीत को स्वरबद्ध किया जिसे कविता कृष्णमूर्ति ने गाया। और 1981 में ख़य्याम के संगीत में उनकी अर्धांगिनी व गायिका जगजीत कौर ने कालजयी फ़िल्म ’उमराव जान’ में इसे गाया। जगजीत कौर के गाए संस्करण की शुरुआत में राग तिलक कामोद की झलक मिलती है पर आगे चल कर स्वर बदल जाता है। धीमी लय में दीपचन्दी ताल की वजह से भाव और व्यथा पूरी पूरी निखर के सामने आती है।
"काहे को ब्याही बिदेस" अगर सर्वाधिक प्रचलित विदाई गीत है तो एक और लोकप्रिय विदाई गीत है "मोरे अंगने की सोन चिड़ैया चली"। इस गीत में भी भाव लगभग वही है जो पिछले गीत का था, लेकिन दोनों गीतों में फ़र्क है। "काहे को ब्याही..." में एक बेटी के दिल की पुकार थी, उसकी व्यथा थी, उसकी शिकायत थी अपने पिता से कि लखी बाबुल, आपने क्यों मुझे परदेस में भेज दिया। लेकिन "मोरे अंगने की..." गीत में भाव पिता का है। "सोन चिड़ैया" यानी कि सोने की चिड़िया। पिता कहता है कि मेरी सोने की चिड़िया, मेरे आंगन में जो रहती है, आज जा रही है। इस गीत में सारे भाव पिता का है कि उन्होंने अपनी बेटी को कैसे पाला, कैसे लाड किया, कैसे बड़ा किया उसे। अन्य विदाई गीतों की तरह यह गीत भी दीपचन्दी ताल पर आधारित है। विदाई गीतों की ख़ासियत यह है कि चाहे जब भी हम इन्हें सुनें, आँखें नम हो जाती हैं। गीत के बोल और धुन व ताल, सब एक साथ मिल जुल कर ऐसा समा बाँध देता है कि करुण रस का संचार होने लगता है सुनने वाले के दिल-ओ-दिमाग़ में। दीपचन्दी में जो विदाई गीत होते हैं, उनमें कम बोलों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि गाने का जो भाव है, उसमें ज़्यादा बोलों के प्रयोग से भाव कम हो जाने की स्थिति बन सकती है। शब्दों की प्रधानता होने की वजह से बोल कम रखा जाता है, आधुनिक भाषा में यह कह सकते हैं कि शब्दों का "बिज़ी पैटर्ण" नहीं रखते। यह गीत राग गारा पर आधारित है। संगीतकार नौशाद के संगीत में महबूब ख़ान की कालजयी फ़िल्म ’मदर इंडिया’ में शमशाद बेगम ने गाया था "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली" जो इस पारम्परिक लोक गीत "मोरे अंगने की सोन चिड़ैया चली" पर आधारित है। शमशाद बेगम की खनकती पर उदासी भरी आवाज़ में यह गीत रोंगटे खड़े कर देता है जब कभी भी हम इसे सुनते हैं।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में ख़ास जगह रखती है चैती। चैती गीत सावन के आसपास के समय में गाया जाता है। समूह गीत के रूप में चैती गाया जाता है जिसमें एक मुख्य गायक होता या होती है, और बाकी लोग आख़िरी लाइन साथ में गाते हैं। एक प्रचलित चैती रचना है "एही थैया मोतिया हेराय गइल रामा", यहीं कहीं मोतिया हेराय गइल रामा, कहाँ कहाँ ढूंढ़ू, यानी कि मेरे पास एक मोती था, खो गया है, अब उसे कहाँ ढूंढ़ू? और मैं ढूंढ़ रही हूँ, पति से पूछ रही हूँ, देवर से पूछ रही हूँ, मैं ढूंढ़ रही हूँ, और किस किस से पूछूँ! इसी समस्या को लेकर पूरा गीत बन जाता है। और इसमें भी फिर से दीपचन्दी ताल का प्रयोग हुआ है। लेकिन अन्त में ताल दीपचन्दी से कहरवा बन जाता है और यही इसकी ख़ूबसूरती है कि बीच में लय दुगुना हो जाता है लेकिन बाद में इसी दीपचन्दी पर वापस आ जाता है। इस गीत में मिश्र तिलक कामोद राग की झलक मिलती है। फ़िल्मों में भी चैती गीतों का प्रयोग समय समय पर होता आया है, एक लोकप्रिय गीत है फ़िल्म ’बन्दिनी’ का "अब के बरस भेजो भैया को बाबुल" जो एक पारम्परिक चैती रचना पर आधारित है। पर उपर्युक्त चैती पर आधारित जो फ़िल्मी गीत है वह है 2007 की फ़िल्म ’लागा चुनरी में दाग’ का। शान्तनु मोइत्र के संगीत में इसे रेखा भारद्वाज ने गाया है और गीत के बोल भी लगभग वही है "एही थैया मोतिया हेराय गइल..."। फ़िल्म संगीत एक शक्तिशाली माध्यम है जिससे दूर दराज़ के प्रान्तों के लोक गीतों को देश भर के जन जन तक पहुँचाया जा सकता है, और ऐसा ही होता आया है फ़िल्म-संगीत के शुरुआती दिनों से लेकर अब तक।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में अब एक लाचारी की बातें। "बहारदार बगिया न जइबे राजा" एक लाचारी लोक गीत है जिसका अर्थ यह है कि नायिका कह रही है कि बहारदार बगिया जो है वहाँ, मैं नहीं जाऊँगी, ऐसा लगता है जैसे ससुरों का डेरा है, बार बार ससुर सामने आ जाते हैं तो मैं बार बार उनके पाँव नहीं छूऊँगी। फिर कुछ कहती है कि वहाँ भासुरों (जेठों) का डेरा है, तो मैं बार बार घुंघट नहीं करूँगी। ये सब वो अपने पति को बता रही है, नख़रे दिखा रही है। आगे कहती है कि मेरे देवर जी आ रहे हैं, तो मैं बार बार ठुमका (यहाँ ठुमका का अर्थ है मज़ाक) नहीं, एक बार हो गया, बस! लेकिन अन्त में उसने कहा है कि पिया बुलाएँगे तो मैं बार बार जाऊँगी। पति का भाव है, उनका अंदाज़ है, उनका हक़ है, जो पूरे परिवार को दिखना चाहिए और साथ ही मेरी भी मर्ज़ी चलनी चाहिए। अपने मन के जो भाव हैं, उसे लोक गीत के माध्यम से किस सुन्दर तरीके से व्यक्त किया गया है इस लाचारी में, उसे बस इसे सुनते हुए ही महसूस किया जा सकता है। हमारे लोक गीतों की ख़ासियत ही यह है कि जीवन से जुड़ी जो बातें हैं, उलाहना है, और एक प्यार भरी मीठी बात है, वह दिल को छू लेती है। और इसमें श्रॄंगार रस भी है। ताल के माध्यम से भी श्रॄंगार रस को बढ़ावा मिलता है और ताल में भी इतनी शक्ति है कि वो इन भावों को कितने सुन्दर तरीके से सुननेवालों को समझा सकती है। ताल में एक लग्गी लड़ी है, दादरे में, जो ख़ुशी को ज़ाहिर करने में इस्तमाल होता है। साथ में लग्गी लड़ी भी बजायी है। "बहारदार बगिया..." गीत में राग कल्याण का अंक सुनाई पड़ता है और इस लोक गीत पर आधारित फ़िल्मी रचना है 1982 की फ़िल्म ’बाज़ार’ में। जगजीत कौर और पामेला चोपड़ा की आवाज़ों में यह ख़य्याम साहब की रचना है "चले आओ सैयाँ, रंगीले मैं वारी"। इस गीत के अन्तरों की शुरुआत को सुनने पर जैसे राग पीलू का आभास होता है, मसलन "सजन मोहे तुम बिन भाये ना..." वाले हिस्से में। खमाज, मंज खमाज, तिलक कामोद और पीलू राग जैसे एक चतुर्भुज समानता पैदा करती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रचलित विवाह और विदाई गीत, चैती, कजरी आदि इस चतुर्भुज का हिस्सा बनते हैं। "काहे को ब्याही बिदेस" की चर्चा हम कर चुके हैं, एक और गीत जो इस चतुर्भुज में आता है, वह है "प्यार कुछ और भी भड़का दी झलक दिखला के"। 1958 की फ़िल्म ’लाला रुख़’ का यह नग़मा है।
उत्तर प्रदेश के लोक गीतों में एक महत्वपूर्ण श्रेणी है कजरी की। उपशास्त्रीय संगीत गायन की एक शैली है कजरी जो बिहार में भी परचलित है। अक्सर चैती में सावन के आने पर अपने प्रेमी/ पिया/ पति के इन्तज़ार में नायिका इसे गाती है। वर्षा ॠतु का गीत है कजरी। चैती, होरी और सावनी की तरह कजरी भी ॠतु गीतों की श्रेणी में आता है जो सबसे ज़्यादा बनारस, मिर्ज़ापुर, मथुरा, इलाहाबाद और बिहार के भोजपुर अंचलों में गाया जाता रहा है। एक लोकप्रिय कजरी है "बरसे बदरिया सावन की"। कजरी में इन्तज़ार की वजह से श्रॄंगार के साथ-साथ थोड़ा विरह पक्ष भी होता है। अपने नायक की पतीक्षा कर रही नायिका गाती है "बरसे बदरिया सावन की, सावन की मनभावन की, सावन में उमंग्यो मेरो मनवा झनक सुनी हरि आवन की"। आगे गाती है "उमड़ घुमड़ चहुँ दिसा से आयो, दामिनी धमके झर लावन की"। और फिर अन्त में बारिश शुरु जाने पर वो गाती है "नन्ही नन्ही बून्दन मेघा बरसे, शीतल पवन सुहावन की"। कहरवा ताल में निबद्ध यह लोक रचना राग भैरवी पर आधारित है। वैसे इसे कुछ गायकों ने राग श्याम कल्याण और तीन ताल में भी गाया है। संगीतकार वसन्त देसाई ने इस लोक गीत पर आधारित एक फ़िल्मी गीत की रचना की थी वी. शान्ताराम की सुरीली फ़िल्म ’गूंज उठी शहनाई’ के लिए। लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गाना था "दिल का खिलौना हाय टूट गया"। भरत व्यास का लिखा यह गीत हू-ब-हू उन्हीं स्वरों पर आधारित है जिन स्वरों पर "बरसे बदरिया सावन की" आधारित है।
इस तरह से उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोक गीतों पर आधारित बारह फ़िल्मी रचनाओं की बातें हमने की। ऐसे और भी ढेर सारे गीत हैं जो यू.पी के लोक धुनों पर आधारित हैं, हमारी कोशिश यही थी कि अलग अलग शैलियों के कम से कम एक एक गीत के ज़रिए लोक गीत और फ़िल्मी गीत के आपस के रिश्ते को साकार करें। अगले सप्ताह फिर किसी रोचक विषय के साथ हम पुन: उपस्थित होंगे, नमस्कार!
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
Comments
Nmaskaar. Pratut ank padh kar bahut aanand mahsoos kar raha hoon. Is vishay ke dono khand (part-1&2), wastav mein bade rochak ahein aur shikshaprad hain. Mere ahan mein filhaal 2-3 geet aa rahe hain jinka jikra karna mahatwapoorn samajh raha hoon. Apitu main ye bhi samajh raha hoon ki aapke liye shabd sthaan wa geeton ki tay seema ek bada muskil paida karne wala awarodh hai. Chunki main Uttar pradesh ke Banaras ka rahanewala hoon aur shiksha deekha Allahabaad aur lagbhag UP-Bihaar ke bahut se saharon/kshetron mein jaa chuka hoon. Is dauraan mera jo bhi anubhaw raha aur prastut khand ke anusaar kuchh batein kahana chahata hoon.
Aapne bidai geeton mein "Lakhi Babul, kahe ko dini bidesh" ka zikra kar ke jo sampoorn jaankaari dee, iske liye aap sabhi ka shukriya.
Mere bachapan ke dinon mein ek lok geet bahut prachalit that jiska prayog hindi flimon mein bhi huwa hai-Gorki Patarki re, maare gulelwa jiya udi-udi jaay...jise Rafi sahab gaye huwe hain. Halanki ye geet thoda alag sheni romantik ka hai. Magar is geet se judi jaankaari bahut hi mazadaar hogi. Amooman, uttar bharat mein sangeet ki ek vidhaa bahut prachalit hai jise, Birhaa kaha jata hai. Kya birhaa ke gaanon dhunon par hindi filmon mein prayog huwa hai, agar haain to prakash dalne ka kripa karein. Sath hi aam janta ko mugdha karne ke liye aajkal Birhaa mein bhi bahut se filmi geeton ka prayog hone laga hain, jisase Birhaa ka swaroop khatare mein hai. Mere tau ji (fathers eleder brother) swayam hi ek Birhaa gayak they, jinka dehant mere bachapan ke din kareeb 8-10 saal ke umra mein ho gaya jisase bahut see jankaariya mujhe mil nahin payin. Atah aap sab se anurodh hai ki kripaya is wishay ko dhyaaan mein rakha kar ek charcha awashya prastut karein.
Aabhaar sahit Sukriya