कहकशाँ - 9
गुलज़ार की लिखी एक त्रिवेणी
"आदमी बुलबुला है पानी का..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को हमारा सलाम! दोस्तों, शेर-ओ-शायरी, नज़्मों, नगमों, ग़ज़लों, क़व्वालियों की रवायत सदियों की है। हर दौर में शायरों ने, गुलुकारों ने, क़व्वालों ने इस अदबी रवायत को बरकरार रखने की पूरी कोशिशें की हैं। और यही वजह है कि आज हमारे पास एक बेश-कीमती ख़ज़ाना है इन सुरीले फ़नकारों के फ़न का। यह वह कहकशाँ है जिसके सितारों की चमक कभी फ़ीकी नहीं पड़ती और ता-उम्र इनकी रोशनी इस दुनिया के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ को सुकून पहुँचाती चली आ रही है। पर वक्त की रफ़्तार के साथ बहुत से ऐसे नगीने मिट्टी-तले दब जाते हैं। बेशक़ उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए इस ख़ज़ाने में से हम चुन कर लाएँगे आपके लिए कुछ कीमती नगीने हर हफ़्ते और बताएँगे कुछ दिलचस्प बातें इन फ़नकारों के बारे में। तो पेश-ए-ख़िदमत है नगमों, नज़्मों, ग़ज़लों और क़व्वालियों की एक अदबी महफ़िल, कहकशाँ। आज पेश है गुलज़ार साहब की लिखी हुई त्रिवेणी एक बार फिर जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ में।
कुछ फ़नकार ऎसे होते हैं जिनके बारे में लिखने चलो तो न आपको मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाने पड़ते हैं और न ही आपको अतिशयोक्ति का सहारा लेना होता है, शब्द खुद-ब-खुद ही पन्ने पर उतरने लगते हैं। यूँ तो आलेख लिखते समय लेखक को कभी भी भावुक नहीं होना चाहिए, लेकिन आज के जो फ़नकार हैं उनकी लेखनी का मैं इस कदर दीवाना हूँ कि तन्हाई में भी मेरे इर्द-गिर्द उनके ही शब्द घूमते रहते हैं। और इसलिए संभव है कि आज मैं जो भी कहूँ, जो भी लिखूँ, वह आपको अतिशय प्रतीत हो। पिछले अंक में हमने "गज़लजीत" जगजीत सिंह की मखमली आवाज़ का मज़ा लूटा था और उस पुरकशिश आवाज़ के सम्मोहन का असर देखिए कि हम आज के अंक को भी उन्हीं की स्वरलहरियों के सुपूर्द करने पर मजबूर हैं। तो आप समझ गए कि हम किस फ़नकार की बातें कर रहे थे... जगजीत सिंह। वैसे आज के गीत को साज़ और आवाज़ से इन्हीं ने सजाया है, लेकिन आज हम जिनकी बात कर रहे हैं, वह इस गाने के संगीतकार या गायक नहीं बल्कि इसके गीतकार हैं। बरसों पहले "काबुलीवाला" नाम की एक फिल्म आई थी, जो अपनी कहानी और अदायगी के कारण तो मकबूल हुई ही, उसकी मकबूलियत में चार चाँद लगाया था "ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन" गीत ने। इस गीत के गीतकार "प्रेम धवन" थे। अरे नहीं... आज हम उनकी बात नहीं कर रहे। उनकी बात समय आने पर करेंगे। इस फिल्म में एक और बड़ा ही दिलकश और मनोरम गीत था- "गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे" । आज हम इसी गीत के गीतकार की बात कर रहे हैं। जी हाँ, हम पद्म भूषण श्री संपूरण सिंह "गुलज़ार" की बात कर रहे हैं।
मैंने पहले ही लिख दिया है कि "गुलज़ार" के बारे में लिखने चलूँगा तो भावों के उधेड़-बुन में उलझ जाऊँगा। इसलिए सीधे-सीधे गाने पर आता हूँ। २००६ में गु्लज़ार साहब (इन्हें अमूमन इसी नाम से संबोधित किया जाता है) और जगजीत सिंह जी की ग़ैर-फिल्मी गानों की एक एलबम आई थी "कोई बात चले"। यूँ तो जगजीत सिंह ग़ज़ल-गायकी के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस एलबम के गीतों को ग़ज़ल कहना सही नहीं होगा, इस एलबम के गीत कभी नज़्म हैं तो कभी त्रिवेणी। त्रिवेणी को तख़्लीक़-ए-गुलज़ार भी कहते हैं क्योंकि इसकी रचना और संरचना गुलज़ार साहब के कर-कमलों से ही हुई है। त्रिवेणी वास्तव में क्या है, क्यों न गु्लज़ार साहब से ही पूछ लें। बकौल गु्लज़ार साहब : "शुरू शुरू में जब ये फ़ार्म बनाई थी तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा, जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है, नज़र नहीं आती। त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है। तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है।" गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी जो मुझे बेहद पसंद है:
"कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!"
इसे क्या कहियेगा कि जो चीज़ हमें सबसे आसानी से हासिल हो, उसे समझना सबसे ज्यादा ही मुश्किल हो। ज़िंदगी कुछ वैसी ही चीज है। और इस ज़िंदगी को जो बरसों से बिना समझे ही जिए जा रहा है, उसे क्या कहेंगे? इंसान न खुद को समझ पाया है और न खुद की ज़िंदगी को, फिर भी बेसाख़्ता हँसता है, बोलता है और हद यह कि ख़ुद पर गुमां करता है और दूसरों को समझने का दावा भी करता है। इस जहां में जो भी जंग-ओ-जु्नूं है, उसकी सलामती का बस एक ही सबब है और वह है नासमझी की नुमाइंदगी, अपनी हस्ती की नासमझी, अपनी ज़िंदगी की नासमझी और तो और दूसरों की ज़िंदगी की नासमझी। जिस रोज़ यह अदना-सी चीज़ हमारे समझ में आ गई, उस दिन सारी तकरारें ख़त्म हो जाएँगीं और फिर हम कह सकेंगे कि बस कुछ रोज़ जीकर ही हमने इस ज़िंदगी को जान लिया है।
मैंने कभी इन्हीं भावों को एक त्रिवेणी में पिरोने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:
यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब ज़िन्दगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥
"ज़िंदगी क्या है जानने के लिए" में गुलज़ार साहब इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है ज़िंदगी की बेबाक तस्वीर:
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।
किसने बारूद बोया बागों में॥
आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।
सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥
हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥
हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥
ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।
तुमने मुझको पिरोके रखा था॥
मैंने पहले ही लिख दिया है कि "गुलज़ार" के बारे में लिखने चलूँगा तो भावों के उधेड़-बुन में उलझ जाऊँगा। इसलिए सीधे-सीधे गाने पर आता हूँ। २००६ में गु्लज़ार साहब (इन्हें अमूमन इसी नाम से संबोधित किया जाता है) और जगजीत सिंह जी की ग़ैर-फिल्मी गानों की एक एलबम आई थी "कोई बात चले"। यूँ तो जगजीत सिंह ग़ज़ल-गायकी के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस एलबम के गीतों को ग़ज़ल कहना सही नहीं होगा, इस एलबम के गीत कभी नज़्म हैं तो कभी त्रिवेणी। त्रिवेणी को तख़्लीक़-ए-गुलज़ार भी कहते हैं क्योंकि इसकी रचना और संरचना गुलज़ार साहब के कर-कमलों से ही हुई है। त्रिवेणी वास्तव में क्या है, क्यों न गु्लज़ार साहब से ही पूछ लें। बकौल गु्लज़ार साहब : "शुरू शुरू में जब ये फ़ार्म बनाई थी तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी - त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि पहले दो मिसरे गंगा, जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है, नज़र नहीं आती। त्रिवेणी का काम सरस्वती दिखाना है। तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है।" गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी जो मुझे बेहद पसंद है:
"कुछ इस तरह ख़्याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!"
इसे क्या कहियेगा कि जो चीज़ हमें सबसे आसानी से हासिल हो, उसे समझना सबसे ज्यादा ही मुश्किल हो। ज़िंदगी कुछ वैसी ही चीज है। और इस ज़िंदगी को जो बरसों से बिना समझे ही जिए जा रहा है, उसे क्या कहेंगे? इंसान न खुद को समझ पाया है और न खुद की ज़िंदगी को, फिर भी बेसाख़्ता हँसता है, बोलता है और हद यह कि ख़ुद पर गुमां करता है और दूसरों को समझने का दावा भी करता है। इस जहां में जो भी जंग-ओ-जु्नूं है, उसकी सलामती का बस एक ही सबब है और वह है नासमझी की नुमाइंदगी, अपनी हस्ती की नासमझी, अपनी ज़िंदगी की नासमझी और तो और दूसरों की ज़िंदगी की नासमझी। जिस रोज़ यह अदना-सी चीज़ हमारे समझ में आ गई, उस दिन सारी तकरारें ख़त्म हो जाएँगीं और फिर हम कह सकेंगे कि बस कुछ रोज़ जीकर ही हमने इस ज़िंदगी को जान लिया है।
मैंने कभी इन्हीं भावों को एक त्रिवेणी में पिरोने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:
यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब ज़िन्दगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥
"ज़िंदगी क्या है जानने के लिए" में गुलज़ार साहब इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। तो लीजिए आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है ज़िंदगी की बेबाक तस्वीर:
आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता - आदमी बुलबुला है पानी का।
ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।
किसने बारूद बोया बागों में॥
आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।
सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥
हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥
हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥
ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।
तुमने मुझको पिरोके रखा था॥
खोज और आलेख : विश्वदीपक ’तन्हा’
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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