बातों बातों में - 19
पार्श्वगायिका शमशाद बेगम से गजेन्द्र खन्ना की बातचीत
भाग-2
भाग-2
"ज़िआ ने फिर कभी भी मुझे मेक-अप लगाने को नहीं कहा "
नमस्कार दोस्तो। हम रोज़ फ़िल्म के परदे पर नायक-नायिकाओं को देखते हैं, रेडियो-टेलीविज़न पर गीतकारों के लिखे गीत गायक-गायिकाओं की आवाज़ों में सुनते हैं, संगीतकारों की रचनाओं का आनन्द उठाते हैं। इनमें से कुछ कलाकारों के हम फ़ैन बन जाते हैं और मन में इच्छा जागृत होती है कि काश, इन चहेते कलाकारों को थोड़ा क़रीब से जान पाते, काश; इनके कलात्मक जीवन के बारे में कुछ जानकारी हो जाती, काश, इनके फ़िल्मी सफ़र की दास्ताँ के हम भी हमसफ़र हो जाते। ऐसी ही इच्छाओं को पूरा करने के लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ने फ़िल्मी कलाकारों से साक्षात्कार करने का बीड़ा उठाया है। । फ़िल्म जगत के अभिनेताओं, गीतकारों, संगीतकारों और गायकों के साक्षात्कारों पर आधारित यह श्रृंखला है 'बातों बातों में', जो प्रस्तुत होता है हर महीने के चौथे शनिवार को। आज इस स्तंभ में हम आपके लिए लेकर आए हैं फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम से गजेन्द्र खन्ना की बातचीत। गजेन्द्र खन्ना के वेबसाइट www.shamshadbegum.com पर यह साक्षात्कार अंग्रेज़ी में पोस्ट हुआ था जनवरी 2012 में। गजेन्द्र जी की अनुमति से इस साक्षात्कार को हिन्दी में अनुवाद कर हम ’रेडियो प्लेबैक इन्डिया’ पर प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले महीने हमने पेश किए थे इस साक्षात्कार का पहला भाग; आज प्रस्तुत है इसका दूसरा भाग।
दोस्तों, पिछले सप्ताह सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम से गजेन्द्र खन्ना की लम्बी बातचीत के पहले भाग में शमशाद जी ने अपने जीवन के शुरुआती दिनों का हाल विस्तृत तरीके से बताया। और बातचीत का सिलसिला आकर रुका था उनकी पहली सुपरहिट हिन्दी फ़िल्म ’ख़ज़ांची’ पर। यहाँ से बातचीत का सिलसिला आज हम आगे बढ़ाते हैं...
'ख़ज़ांची’ की कामयाबी के बाद आपकी ज़िन्दगी किस तरह से संवरी, किस तरह से बदली?
मुझे हर किसी से मुबारक़बाद मिली, सबने वाह-वाही की, शाबाशी दी। अब तक मेरी आवाज़ पंजाब और इसके आसपास तक सीमित थी, पर इस फ़िल्म की वजह से पूरे देश भर के लोगों को मेरी आवाज़ सुनने का मौक़ा मिला, लोग मेरी आवाज़ को पहचानने लगे, और इस वजह से मेरे लिए बहुत से नए दरवाज़े खुल गए। पंडित गोबिन्दराम और पंडित अमरनाथ के लिए मैंने लाहौर में गाना शुरु कर दिया।
1943 में फ़िल्म ’तक़दीर’ का ऑफ़र आपको कैसे मिला?
इसके लिए मैं शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ महबूब ख़ान साहब का जिनकी ज़िद या इसरार की वजह से मुझे
इस फ़िल्म से जुड़ने का मौक़ा मिला। वो अपने ज़माने के मशहूर डिरेक्टर थे। उनकी फ़िल्में जैसे कि ’जागिरदार’ (1937), 'डेक्कन क्वीन’ (1936), और 'औरत’ (1940) बहुत कामयाब हुई थी; ’औरत’ तो मील का पत्थर साबित हुई। तब लोग उन्हें Father of Indian Cinema कहने लगे थे फ़िल्मों में उनकी योगदान के लिए। उन्होंने मेरे गीत ’ख़ज़ांची’ केसुन रखे थे। ’तक़दीर’ वो प्लान कर रहे थे मोतीलाल और नई लड़की नरगिस को लेकर। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा कि मेरी बूकिंग् करा ले। सेक्रेटरी ने उनसे कहा कि "साहब, ये आर्टिस्ट बूक नहीं होती"। जब महबूब साहब ने उनसे इसका कारण पूछा तो सेक्रेटरी ने उन्हें बताया कि इनके सख़्त अब्बा कोई जवाब नहीं देते और इन्हें लाहौर से बाहर निकलने भी नहीं देते"। पर यह सुन कर महबूब साहब हार नहीं माने और सीधे लाहौर पहुँच गए मेरे वालिद साहब को मनाने के लिए। यह उस वक़्त बहुत बड़ी बात थी कि इतने बड़े प्रोड्युसर-डिरेक्टर ख़ुद चल कर बम्बई से लाहौर आये हैं एक नई सिंगर को अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म में गवाने के लिए। यह चर्चा का विषय बन गया था। महबूब साहब हमारे घर पर आए और मेरे अब्बा से कहा, "ये अभी छोटी है। बोलोगे बैठ जाओ तो बैठ जाएगी, जो कहोगे मान लेगी। आपने उसे कुएँ का मेंढक बनाया हुआ है। लेकिन वो तो समुद्र की मछली है। समुद्र में डालोगे तो वहाँ भी तैरेगी। आप इसे इजाज़त नहीं देंगे तो जब ये बड़ी होगी तो आपको अपना करीयर ना आगे बढ़ने के लिए ज़िम्मेदार मानेगी।" मेरे वालिद साहब को उनकी बात समझ में आ गई और उन्होंने मुझे बम्बई जाने की इजाज़त दे दी। महबूब साहब ने उनसे यह वादा किया कि वो मुझे एक घर, गाड़ी और नौकर देंगे ताकि मुझे बम्बई में कोई तक़लीफ़ ना हो। और उन्होंने अपनी बात रखी। मुझे इस फ़िल्म के हर गीत के लिए 300 रुपये देने की बात तय हुई। और मैं बम्बई आ गई ’तक़दीर’ फ़िल्म में गीत गाने के लिए। फ़िल्म के सभी गीत मेरे गाये हुए थे। और सारे गीत बहुत हिट हुए। गाने रेकॉर्ड होते ही मैं फ़ौरन लाहौर भाग गई।
ओह, मेरी यह धारणा थी कि आप ’तक़दीर’ के बाद भी बम्बई में ही रहने लगी थीं। फिर आप दुबारा बम्बई वापस कब और कैसे आईं?
मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब के भतीजे आमिर अली को एक फ़िल्म मिली ’नवयुग चित्रपट’ की - ’पन्ना’। इस फ़िल्म में गीत गाने के लिए मैं फिर से लाहौर से बाहर निकली।
फ़िल्म ’पन्ना’ के गीत तो रेकॉर्ड पर राजकुमारी जी की आवाज़ में हैं, है न?
जी हाँ, रेकॉर्ड्स तो HMV के लिए थे, लेकिन जैसा कि मैं पहले बता चुकी हूँ कि ’जिएन-ओ-फ़ोन’ की कॉन्ट्रैक्ट की वजह से मैं ग्रामोफ़ोन कंपनी के लिए नहीं गा सकी। ’ख़ज़ांची’, ’ज़मीनदार’, ’तक़दीर’ जैसी फ़िल्मों के रेकॉर्ड्स ’जिएन-ओ-फ़ोन’ पर जारी होने की वजह से मेरे गाये गीत ही रेकॉर्ड पर भी आ सके। यह मसला सुलझा जब HMV ने ’जिएन-ओ-फ़ोन’ को ख़रीद लिया।
तो इस दूसरे सफ़र में कैसा रहा सब?
जब सारे गाने पूरे हो गए, मैं उमराओ ज़िआ बेगम और मास्टर जी से मिलने उनके घर गई और वहाँ दो तीन दिन तक रही। और इस वजह से पूरे शहर में यह बात फैल गई कि मैं वहाँ मौजूद हूँ या बम्बई में रहने लगी हूँ। बहुत से संगीतकार जैसे कि सी. रामचन्द्र और अनिल बिस्वास मुझसे दरख़्वास्त की कि मैं उनके गाने गाऊँ। मैंने उनको कहा कि मेरा बहुत सारा काम लाहौर में पड़ा हुआ है जिन्हें मुझे पूरे करने हैं। और मैंने उनसे यह वादा किया कि मैं दो-एक महीने बाद दुबारा आऊँगी। मैं फिर आई एक हफ़्ते के लिए, दोनों के लिए एक एक गीत गाई और फिर वापस चली गई।
मुझे याद नहीं कि आमिर अली ने फिर किसी फ़िल्म में संगीत दिया था या नहीं। लेकिन ’पन्ना’ के गीत तो काफ़ी हिट हुए थे न?
अफ़सोस कि उनका बहुत जल्दी इन्तकाल हो गया। ’पन्ना’ सिल्वर जुबिली हिट थी और फ़िल्म के रिलीज़ होने के कुछ ही दिनों के अन्दर आमिर साहब का इन्तकाल हो गया। उन्हें और भी अभुत सारी फ़िल्में ज़रूर मिलती लेकिन नसीब ने उनका साथ नहीं दिया।
आप ने लगभग सभी दिग्गज संगीतकारों के लिए गाया है उस ज़माने में। लेकिन उनमें से बहुतों के बारे में बहुत कम ही जाना गया है। इनमें से कुछ की चर्चा करते चलें?
ज़रूर! हमारे ज़माने के लोगों में समर्पण बहुत होता था और मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि मैं उनमें से बहुत से लोगों के साथ काम किया है।
एक संगीतकार जिनके साथ आप बिल्कुल शुरुआती से काम करती आई हैं, ये हैं पंडित गोबिन्दराम। उनके लिए आपने जिन फ़िल्मों में गाया था उनमें शामिल हैं ’हिम्मत’ (1941), 'सस्से पुन्नु’ (1946), 'रंगीन ज़माना’ (1948), ’दिल की दुनिया’ (1949), 'माँ का प्यार’ (1949), 'निसबत’ (1949), 'सरकार’ (1951), 'जलपरी’ (1952), 'जीवन नौका’ (1952)।
जी हाँ, मैंने इनके लिए बहुत गाया। वो बड़े नेक इंसान थे और बहुत मेहनती भी। हमारी बहुत सी फ़िल्मों ने
सिल्वर जुबिली मनाई और इन्होंने मुझे बहुत अच्छे अच्छे गीत गाने को दिए। हम एक दूसरे की बहुत इज़्ज़त करते थे और हमारे बीच एक प्रोफ़ेशनल जो रिश्ता कायम हो गया था। सच तो यह है कि हर किसी के साथ ही मेरा रिश्ता अच्छा रहा; मैं बस अपना काम करती और घर वापस आ जाती। मैंने कदि चाचे, मामे, पुत्तर नहीं बनाए। स्टुडियो जाती थी, सबको आदाब अर्ज़ है बोला, सब ठीक ठाक है पूछा। फिर कहा चलो गाना शुरु करते हैं, गाना किया और सीधे घर। मैंने कभी किसी के साथ ज़्याति रिश्ता कायम करने की कभी नहीं सोची। लेकिन मैं सभी के साथ बहुत अच्छे से पेश आती थी। मेरे वालिद साहब कहा करते थे कि इतने मीठे भी मत बनो कि कोई खा जाए और इतने कड़वे भी मत बनो कि थूक दे। मैं इसी बात का पालन किया करती थी। मैं कभी किसी के साथ बैठ कर हँसी-मज़ाक या बेफ़िज़ुल की बकवास नहीं करती थी। मैं थोड़ा सा अन्तर्मुखी किस्म की थी और इस बात का ख़याल रखती थी कि एक औरत होने के नाते मुझे हर वक़्त और हर जगह अपना मर्यादा बनाये रखना है। इस वजह से कई बार लोग समझते थे कि मैं एक घमंडी औरत हूँ, लेकिन यह बात सच नहीं है। मैं हक़ीक़त में एक नेक और अच्छी औरत थी।
इसका मतलब आप कभी लोगों से नहीं मिलती थीं, पार्टियों वगेरह में?
नहीं! जैसा कबीर ने कहा था कि "ना कहु संग दोस्ती ना कहु संग बैर", मेरे साथ भी यही था। मैं कभी किसी के घर नहीं जाती थी। सिर्फ़ उन आर्टिस्ट्स के घर जाती थी जो संघर्ष कर रहे थे, जिनके पास रिहर्सल करवाने की अच्छी जगह नहीं थी, जैसे कि सी. रामचन्द्र। सी. रामचन्द्र एक कमरे के एक घर में रहा करते थे उस वक़्त और मैं कई दफ़ा उस घर में गई हूँ रिहर्सल करने के लिए। इस प्रोफ़ेशन में मेरी बस एक ही सहेली हुआ करती थी, वो थीं ज़ोहराबाई अम्बालेवाली, जो मेरे घर पर भी आती थीं। मैं अगर उसके घर ना भी जाऊँ तो भी वो मेरे घर आती रहती थीं। मेरी बेटी उषा और उनकी बेटी रोशन कुमारी सहेलियाँ थी।
यहाँ उषा जी बताती हैं आगे का हाल...
जी हाँ, हम दोनों सहेलियाँ थे। ज़ोहरा बाई चाहती थीं कि रोशन भी एक प्लेबैक सिंगर बने, लेकिन रोशन एक
कथक डान्सर बनना चाहती थी। मम्मी ने तब ज़ोहरा जी से बात की कि अपनी बेटी को उसी दिशा में आगे बढ़ने में मदद करे जिस दिशा में वो चाहती है। और देखिए आगे चलकर रोशन एक ऐसी कथक डान्सर बनी जिनका कोई सानी नहीं। आशा जी भी कभी कभार हमारे घर आ जाया करतीं। एक मज़ेदार क़िस्सा बताती हूँ आपको। एक रोज़ वो हमारे घर आईं। हमारे नौकर ने उनसे कहा कि मम्मी नहा रही हैं, इसलिए वो बैठक-खाने में इन्तज़ार करें। मैं बगल के कमरे में थीं, अपने बाल बना रही थी और मन ही मन कुछ गुनगुना रही थी। क्योंकि मेरी आवाज़ अच्छी थी, आशा जी को यह लगा कि मम्मी गा रही है। वो हैरान रह गईं जब अन्दर आकर देखा कि मैं गा रही हूँ। "बाई तुम कितना अच्छा गाती हो!" ऐसा उन्होंने कहा, और मुझसे कहा कि मुझे प्रोफ़ेशनल सिंगर बनना चाहिए। पर मेरे पापा कहाँ मानने वाले थे!
शमशाद जी, आपका नूरजहाँ जी के साथ संबंध किस तरह का था? वो भीत ओ मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब की खोज थीं!
वो बहुत अच्छी इंसान थीं और उतनी ही अच्छी फ़नकार। हमारे छुटपन से ही हम दोनों एक ही ग्रूप के हिस्सेदार
थे। हम एक दूसरे के काम की दाद दिया करते थे और दोनों के बीच एक बहुत ही चंगा रिश्ता था और एक दूसरे की बहुत इज़्ज़त किया करते थे।
जब वो 1981 में बम्बई आई थीं ’Mortal Men Immortal Melodies’ नामक कॉनसर्ट के लिए, तब क्या आप उनसे मिली थीं?
नहीं, किसी ने मुझे वहाँ नहीं बुलाया वरना ज़रूर उनसे मिलती। क्योंकि शायद मैं इंडस्ट्री से दूर जा चुकी थी, इसलिए लोगों को यह पता नहीं था कि मैं कहाँ रहती हूँ। और मैं उन दिनों अपने बेटी-दामाद के साथ एक जगह से दूसरी जगह शिफ़्ट होती रहती थी। सच तो यह है कि 1947 के बटवारे के बाद फिर हम कभी नहीं मिले।
आप उमराओ ज़िआ बेगम, जो ग़ुलाम हैदर साहब की पत्नी भी थीं, के बहुत करीब थीं, है ना?
जी हाँ! जब मैंने ’जिएन-ओ-फ़ोन’ जोइन किया था, तभी से हम अच्छे दोस्त बन गए थे। वो एक अदाकारा के रूप में आई थी और बहुत से गाने भी गाईं। दोनों ने एक साथ भी बहुत सारे गाए। एक ’ढोलक के गीत’ नाम का प्रोग्राम रेडियो पर हर शाम को ब्रॉडकास्ट होता था जिसमें मैं ढोलक बजाती और वो भी कोई दूसरा साज़ बजाती। एक गीत "ताली दे थल्ले बाई के आ माहिया वे आ माहिया आ कर लाइयें दिल दियाँ गल्लाँ" को ख़ूब सारी फ़रमाइशें मिलती थीं। मैं उसे ज़िआ कह कर पुकारा करती थी और आज से क़रीब 15-20 साल पहले जब मैं लाहौर गई थी, तब उससे मिली थी। वो बहुत ख़ूबसूरत थीं और उस ज़माने में जब मेक-अप का ज़्यादा रिवाज़ नहीं था, तब भी वो पूरे मेक-अप में होती थीं। सजने सँवरने का उसे बहुत शौक़ था। हमेशा मैचिंग् के कपड़े पहनती थी और किस कपड़े के साथ कौन से गहने ज़ेवर पहनने हैं इसका पूरा पूरा ख़याल रखतीं। इस वजह से वो कई बार रेडियो स्टेशन देर से पहूँचती। उसके बाद से तो आलम यह था कि जब भी वो थोड़ी देर से पहुँचती, हम समझ जाते कि ज़रूर कोई ज़ेवर या कपड़े की दिक्कत आई होगी! मैंने कभी मेक-अप नहीं लगाया और वो मुझे बार बार मेक-अप लगाने के लिए गुज़ारिश करतीं। मुझे याद है एक दिन मैं उसके घर गई थी, वहाँ उसने फिर से ज़िद शुरु कर दी कि वो मुझ पर मेक-अप लगाएंगी। अचानक कुछ मेहमान वहाँ आए और हम सब हॉल में बातचीत कर रहे थे। बीच में मैंने यह नोटिस किया कि ज़िआ मेरी तरफ़ ध्यान से कुछ देख रही हैं और ज़्यादा बातें भी नहीं कर रही हैं। जब मेहमान चले गए तब उसने मुझे आईना दिखाया। उस दिन गरमी बहुत ज़्यादा थी और मैंने अनजाने में अपने दुपट्टे से अपना मुंह पोंछ लिया था जिस वजह से पूरा मेक-अप बिगड़ गया था। मैं बहुत ही बदसूरत दिख रही थी क्योंकि मामला पूरा बिगड़ चुका था। फिर उस दिन के बाद से ज़िआ ने फिर कभी भी मुझे मेक-अप लगाने को नहीं कहा।
वाक़ई मज़ेदार क़िस्सा था! अब वापस मुड़ते हैं संगीतकारों पर। एक और लाहौरी संगीतकार, पंडित अमरनाथ। इनके लिए आपने ’निशानी’ (1942), 'शिरीं फ़रहाद’ (1945) और ’रूपरेखा’ (1948) में गाने गाए। कुछ बताइए इस बारे में।
वो एक बहुत लायक आदमी थे। उनकी पसन्दीदा गायिका थीं ज़ीनत बेगम, लेकिन मुझे भी उनके लिए गाने के कई मौक़े मिले। तीन भाइयों में वो अव्वल थे। उन्होंने अपने भाइयों हुस्नलाल और भगतराम के लिए भी बहुत कुछ किया।
एक संशय है 1947 की फ़िल्म ’मिर्ज़ा साहिबाँ’ को लेकर। हक़ीक़त में कौन थे इस फ़िल्म के संगीतकार? ख़ुद पंडित अमरनाथ या हुस्नलाल-भगतराम?
जैसा कि मैंने कहा कि पंडित अमरनाथ ने अपने भाइयों के लिए बहुत कुछ किया। इस फ़िल्म के गीतों की रेकॉर्डिंग्स के वक़्त उनकी तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही थी। वो गीतों के नोटेशन भेज दिया करते थे, जिन्हें हुस्नलाल और भगतराम रेकॉर्ड करते थे।
आपने हुस्नला-भगतराम के लिए भी बहुत से गाने गाईं हैं। उनके बारे में बताइए।
जी हाँ, उनके पूरे करीयर भर में मैंने उनके लिए गाए।
जी, जैसे कि 60 के दशक में फ़िल्म ’सपनी’ का गीत "सुन भेंगेया वे"।
(गीत के बोलों पर हँसते हुए) जी हाँ, मैं इस तरह के मस्ती भरे गीत बहुत गाई हूँ। कई कम्पोज़र्स के लिए इस तरह के गीतों के ज़रिये पंजाबी लोक संगीत को हिन्दी फ़िल्मों में लोकप्रिय बनाने में इनका काफ़ी योगदान था।
संगीतकारों में अगला नाम मैं लेना चाहूँगा उस्ताद झंडे ख़ाँ साहब का।
झंडे ख़ाँ साहब के लिए मैंने 1943 की फ़िल्म ’पगली’ में गाया था। वो एक मौलवी थे और बहुत मज़हबी क़िस्म
के इंसान थे, एक नमाज़ी। फ़िल्मों में आने से पहले वो स्टेज में काम करते थे। जब मैं उनके लिए गीत गाई तब तक वो 80 साल के हो चुके थे। बहुत ही गुणी संगीतकार थे और बहुत मुश्किल मुश्किल गीत बनाया करते थे। उनके लिए गाना कोई मज़ाक की बात नहीं थी। उस ज़माने में संगीतकार गायकों की कोई बात नहीं सुनते थे, बल्कि गायकों को उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ गाना पड़ता था। गायक को तकलीफ़ हो रही है, इस वजह से कभी किसी बोल को बदल देना या सुर को बदल देना, ये सब नहीं चलता था उस ज़माने में, जैसा कि आज हो रहा है।
शमशाद जी, अब ख़ान मस्ताना साहब के बारे में कुछ बताइए।
वो भी बड़े नेक इंसान थे। मेरा गीत "ऐ हिन्द के मीनार", फ़िल्म शायद ’बैरम ख़ान’ थी, बहुत हिट हुआ था यह गाना। मैंने फ़िल्म ’हुमायूं’ में भी उनके लिए गाया है। वो अपने आप में ही रहते थे, ज़्यादा किसी से बातचीत नहीं करते थे। उन्होंने सिर्फ़ संगीत ही नहीं दिया बल्कि एक उम्दा गायक भी थे और बहुत अच्छे अच्छे गीत भी गाए। पर अफ़सोस की बात है कि धीरे धीरे वो धुंद में कहीं खो गए।
अच्छा ग़ुलाम मोहम्मद साहब कैसे इंसान थे?
वो एक बड़े लायक कम्पोज़र थे। बहुत ही सीधे आदमी थे। वो भी फ़िल्मों में आने से पहले स्टेज में काम किया करते थे। बड़ी पिक्चरें की हमने साथ में।
और फ़िरोज़ निज़ामी?
वो तो क्लासिकल वाला था; बड़ी सारी फ़िल्मों में क्लासिकल कम्पोज़िशन्स दिए उन्होंने। ’जुगनु’ बहुत बड़ी हिट फ़िल्म थी उनकी। वो भी रेडियो में काम करने वालों में से थे और बटवारे के बाद वो पाक़िस्तान चले गए और वहाँ की फ़िल्मों में संगीत देने लगे।
शमशाद जी, हम उन संगीतकारों की चर्चा कर रहे हैं जो आज विस्मृत हो चुके हैं, जिन्हें आज हम लगभग भूल से गए हैं। अगला जो नाम मेरे ज़ेहन में आ रहा है, वह है बुलो सी. रानी का।
वो एक बड़ा सीधा भला आदमी था। हमने बहुत गाने गाए उनके लिए। अच्छे से काम करते थे वो।
और ज्ञान दत्त?
वो उम्रदराज़, काफ़ी समय से काम कर रहे थे और उन्होंने बहुत सी हिट फ़िल्में दीं, ख़ास तौर से ’रणजीत स्टुडियोस’ की फ़िल्मों में।
संगीतकार विनोद की क्या यादें हैं आपने दिल में?
विनोद एक बहुत अच्छे कम्पोज़र थे। मैंने उनकी कई फ़िल्मों में गाए हैं। मुझे अब भी याद है कि उनकी वालिदा हमारे साथ अक्सर बैठी रहती थीं रिहर्सलों के वक़्त। वो एक सादे क़िस्म के इंसान थे।
क्योंकि विनोद भी लाहौर से ताल्लुख़ रखते थे, तो क्या आप उन्हें लाहौर से ही जानती थीं?
जी नहीं, मैंने उनके साथ बम्बई में ही सिर्फ़ काम किया।
आपने जी. एम. दुर्रानी साहब के साथ भी कुछ बहुत अच्छे गीत गाईं, जैसे कि "हेल्लो साईं हेल्लो", फ़िल्म ’बड़े भैया’ में।
(हँसते हुए) जी हाँ, यह वाला गीत तो बड़ा हिट हुआ था उस ज़माने में। हम दोनों ने साथ में बहुत सारे अच्छे गीत गाए।
ख़ुर्शीद अनवर के साथ भी आपने कई बहुत अच्छे गीत गाए हैं।
थोड़े गाने ही गाये उनके साथ। ओ वी बहुत लायक कम्पोज़र आया, माचिस दी डिब्बी ते लय बनांदा रहंदा आया (वो भी बहुत लायक कम्पोज़र थे, माचिस की डिब्बी पर धुनें बनाया करता था)।
तो दोस्तों, यहाँ पर आकर आज हम रुकते हैं। आज शमशाद जी ने अपनी शुरुआती फ़िल्म - ’तक़दीर’ और ’पन्ना’ के बारे में बताया। साथ ही उमराओ ज़िआ बेगम और ज़ोहराबाई अम्बालेवाली से अपनी दोस्ती की बातें बताईं। और फिर कुछ ऐसे संगीतकारों को याद किया जो आज लगभग भूला दिए गए हैं। बातचीत का यह सिलसिला जारी रहेगा अगले महीने भी। शमशाद बेगम के जीवन से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातें लेकर हम दुबारा हाज़िर होंगे अगले महीने।
आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य बताइएगा। आप अपने सुझाव और फरमाइशें ई-मेल आईडी soojoi_india@yahoo.co.in पर भेज सकते है। अगले माह के चौथे शनिवार को हम एक ऐसे ही चर्चित अथवा भूले-विसरे फिल्म कलाकार के साक्षात्कार के साथ उपस्थित होंगे। अब हमें आज्ञा दीजिए।
साक्षात्कार : गजेन्द्र खन्ना
अनुवाद एवं प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
अनुवाद एवं प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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