तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 12
नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी
"भूखा मरना है तो मुंबई में जाकर मरूँ..."
"भूखा मरना है तो मुंबई में जाकर मरूँ..."
’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है जाने माने अभिनेता नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी पर।
फ़िल्म इंडस्ट्री के इस युग में बहुत से अभिनेता स्टार कलाकारों की संताने हैं जिन्हें फ़िल्मों में आने के लिए कोई ख़ास संघर्ष नहीं करना पड़ा। लेकिन कुछ ऐसे सशक्त अभिनेता भी हुए हैं जिन्हें यह सुविधा प्राप्त नहीं थी। ऐसे अभिनेताओं को दीर्घ संघर्ष करना पड़ा और अपना रास्ता ख़ुद बनाते हुए सफलता के क़दम चूमे। ऐसे कलाकारों में एक नाम है नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी का जिनकी कहानी को पढ़ कर इस भ्रम को हमेशा हमेशा के लिए तोड़ा जा सकता है कि केवल भाग्यशाली लोगों को ही सफलता मिलती है। उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले में जन्मे नवाज़ुद्दीन का ज़मीनदार परिवार नंबरदारों का परिवार था। आठ भाई बहनों में सबसे बड़े थे नवाज़ुद्दीन। रसायन शास्त्र में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद बड़ोदा में केमिस्ट की नौकरी में लग गए। कुछ समय बाद बेहतर नौकरी की तलाश में वो दिल्ली चले गए। दिल्ली में एक बार उन्होंने एक नाटक क्या देख लिया कि उनके अन्दर अभिनय की तीव्र इच्छा जागृत हुई। तीव्रता इतनी थी कि उन्होंने National School of Drama (NSD) में दाख़िला लेने की ठान ली। उसमें भर्ती की शर्तों में एक शर्त थी कम से कम दस नाटकों में अभिनय का अनुभव। इसके चलते नवाज़ुद्दीन अपने कुछ दोस्तों के साथ उतर गए नाटकों के संसार में। हो गए भर्ती NSD में। अपनी पढ़ाई चलाने के लिए उन्होंने वाचमैन की नौकरी कर ली। NSD से पास करने के बाद उनके पास कोई नौकरी नहीं थी। उन्हें लगा कि भूखा मरना है तो मुंबई में जाकर मरूँ। वो मुंबई चले तो गए पर रहने के लिए उनके पास कोई जगह नहीं थी। NSD के अपने एक सीनियर से अनुरोध किया कि क्या वो उनके साथ रह सकते हैं? अनुमति मिली इस शर्त पर कि उन्हें खाना बनाना पड़ेगा। केमिस्ट और वाचमैन के बाद अब बारी थी बावर्ची बनने की।
खाना बनाने के साथ-साथ नवाज़ुद्दीन टीवी सीरियल्स में रोल मिलने की कोशिशें करने लगे। पर उस समय सास-बहू
वाले सीरिअल्स का ज़माना था; गोरे, चिकने और "जिम-फ़िट" शरीर वाले लड़कों को ही मौके मिलते थे। उनके अभिनय की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया, उनके चेहरे और रंग-रूप को देख कर दरवाज़े से ही उन्हें विदा कर दिया जाता। उनका मज़ाक उड़ाया जाता। किसी ने यह कहा कि वो एक कृषक जैसे दिखते हैं, इसलिए वापस लौट कर खेती-बारी सम्भाले। नवाज़ुद्दीन को कि इस तरह की जातिवाद (racism) हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री की जड़ों तक फैल चुकी है जिसका कोई इलाज नहीं। और वो यह भी समझ गए कि नायक बनना उनके लिए संभव नहीं, इसलिए वो चरित्र अभिनेता बनने की तरफ़ ध्यान देने लगे। उनकी सूरत और रंग-रूप के हिसाब से उन्हें फ़िल्म ’शूल’ में वेटर का रोल मिला, ’सरफ़रोश’ में 61 सेकण्ड का एक गुंडे का रोल, ’मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ में पाकिटमार और ’दि बाइपास’ में एक डाकू का रोल मिला। ये सभी रोल मिनटों की नहीं, सेकण्ड्स की थी। इन फ़िल्मों के बाद उन्हें काम मिलना बन्द हो गया। अगले पाँच साल तक उनके पास एक भी काम नहीं था। फिर 2004 में एक फ़िल्म आई ’ब्लैक फ़्राइडे’ जिसमें भी उनकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया। ’सरफ़रोश’ के बाद पूरे बारह साल तक निरन्तर मेहनत और कोशिशें करने के बाद साल 2010 में उन्हें मिला ’पीपली लाइव’ जिसने उन्हें दिलाई अपार लोकप्रियता। अगर 2004 में वो हार कर फ़िल्म जगत को छोड़ देते तो यह दिन उन्हें कभी देखने को नहीं मिलता। उनका जस्बा, उनकी शख़्सियत, अपने आप पर भरोसा, ये सब उन्हें खींच ले गई उनकी मंज़िल की तरफ़। एक व्यर्थ केमिस्ट से लेकर राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त करने की नवाज़ुद्दीन की कहानी किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं। नवाज़ुद्दीन सिद्दिक़ी को ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ का सलाम!
'बजरंगी भाईजान’ फ़िल्म का दृश्य |
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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