फिल्म चर्चा - हाईवे
सालों पहले निर्देशक इम्तियाज़ अली ने छोटे परदे के लिए एक टेलीफिल्म बनायीं थी, जिसकी कहानी उनके दिलो दिमाग को रह रह कर झकझोरती रही, और अततः जब वी मेट, लव आजकल जैसी सफल व्यावसायिक फ़िल्में बनाने के बाद आखिरकार वो साहस जुटा पाए अपनी उस कहानी को बिना लाग लपेट के परदे पर साकार करने का. फिल्म में इम्तियाज़ के साथ जुड़े देश के सबसे अव्वल छायाकार अशोक मेहता, ओस्कर विजेता ध्वनि संयोजक रसूल पुकुट्टी, संगीत गुरु ए आर रहमान, और संवेदनशील गीतकार इरशाद कामिल. यकीन मानिये हाइवे इम्तियाज़ की एक बहतरीन पेशकश है.
धुर्विया फासलों और एकदम विपरीत परिस्थियों से निकले दो किरदारों को हालात एक सफर में बाँध देता हैं, अपने अतीत के आघातों से मुहँ छुपाते, रूह के जख्मों को कहीं गहरे तहखानों में छुपाये ये किरदार इसी सफर के दौरान एक दूसरे को समझने की कोशिश में कहीं न कहीं खुद से ही आँख मिलाने के काबिल हो जाते हैं. वीरा के किरदार में अलिया अपनी पहली फिल्म (स्टूडेंट ऑफ द ईयर ) की सामान्य भूमिका और 'प्लास्टिक फेस इमेज' से कहीं अधिक परिपक्व और बेहतर नज़र आई है, तो वहीँ महाबीर की भूमिका में रणदीप हूडा चमत्कृत करते हैं. एक संगदिल हत्यारे और अपहरणकर्ता का दबा आक्रोश और किरदार का रूखापन उन्होंने बेहद संजीदगी से उभारा है.
अशोक मेहता का कैमरा हाईवे के रास्ते दिल्ली, हरयाणा, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान और कश्मीर के रास्तों पर आपको जिंदगी के कई चेहरे दिखाता है और इम्तियाज़ की खूबी ये है कि वो किरदार के भावों और संवेदनाओं को भी इन्हीं रास्तों पर बेलिबास छोड़ देते हैं. फिल्म कहीं से भी बनावटी नहीं लगती. रहमान का संगीत गजब है, उनके मूल गीतों के साथ साथ, जिस खूबी से उन्होंने रसूल के साथ मिलकर क्षेत्रीय ध्वनियों और लोक गीतों का समन्वय किया है उसका तो कहना ही क्या.
दबी चीखों की वेदना है यहाँ, निशब्द संवादों का गूंजता सैलाब है यहाँ, दर्द की वादियों में प्रेम का संताप है यहाँ. व्यावसायिक सिनेमा के शौक़ीन शायद इस फिल्म को न सराहें, पर सिनेमा को उसके गैर मिलावटी रूप में देखने को तरसते कद्रदानों के लिए हाइवे एक आवश्यक फिल्म है.
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