एक गीत सौ कहानियाँ - 24
‘मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे...’
इन्दुबाला |
इन्दुबाला का जन्म 1899 में हुआ था और ऐसी धारणा है कि उनकी गायी यह रेकॉर्डिंग 1915 से 1930 के बीच के किसी वर्ष में की गयी होगी। 1932 में उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँदिलरंग ने इसी ठुमरी को 'कोलम्बिआ रेकॉर्ड कम्पनी' के लिए गाया था। गौहर जान की आवाज़ में यह ठुमरी मशहूर हुई थी। मूल रचना के शब्द हैं "मोहे पनघट पर नन्दलाल छेड़ दीनो रे, मोरी नाजुक कलइयाँ मरोड़ दीनो रे.."। 'मुग़ल-ए-आज़म' के गीत में शक़ील ने शब्दों को आम बोलचाल वाली हिन्दी में परिवर्तित कर ठुमरी का फ़िल्मी संस्करण तैयार किया है।
नौशाद और शक़ील |
लच्छु महाराज |
फिल्म - मुगल-ए-आजम : 'मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे...' : गायिका - लता मंगेशकर : संगीत - नौशाद
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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पर बात यहाँ ख़तम नहीं होती है| २००४में फिल्मको सम्पूर्ण तरीके से कलर में रुपांतर किया गया और दुबारा रिलीज़ किया गया| रघुनाथजी तो जीवित नहीं थे, पर उनके पोते डा. राज ब्रह्मभट्ट, जो की मुंबई में बतौर सेक्सोलोजिस्ट प्रेक्टिस करते है, उन्होंने बोनी कपूर का संपर्क किया, जो इस प्रोजेक्ट के साथ संलग्न थे| फिल्म की नयी आवृति में मूल गीतकार-कवि को क्रेडिट दिया जाय, ऐसी ख्वाहिश उनके वारिस को हो, यह तो कोई भी समज सके ऐसी बात है| डा. राज ब्रह्मभट्टने फिल्म की रिलीज़ के दो-चार दिन पहेले ही बोनी कपूर का संपर्क किया और यह बात स्पष्ट की कि वो इस बात के लिए अदालतमें नहीं जाना चाहते| ना ही उन्हें कोई मुआवजा चाहिए| वो तो बस, अपने दादाजी को क्रेडिट मिले, उतना ही चाहते है| बोनी कपूर को यह बात समज में आ गयी| उन्होंने ‘इरोज़’में रखे गए फिल्म के प्रिमियर शो के पास भी डाक्टरसाहब को भिजवाये| पर इस बार भी प्रिंट्स निकल चुके थे और रिकार्ड्स बन चुके थे, तो क्रेडिट की बात तो वहीं पर खड़ी रही| फिर शुरू हुई एक पोते की अपने दादा को क्रेडिट दिलाने की डेढ़ साल लम्बी लड़ाई| इस बात को गुजराती-हिंदी-मराठी मिडियाने अच्छा कवरेज दिया| फिल्म की ओरिजिनल टीममें से अब तीन ही लोग जीवित थे- संगीतकार नौशाद, लताजी और दिलीपकुमार| डा. ब्रह्मभट्ट नौशादसाहब को भी मिले| पर उनकी बीमार अवस्था में वो भी कुछ करने के हालात में न थे| बात फिर फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के पास गयी| डा. ब्रह्मभट्टके पास सबूत के तौर पर १९२० से लेके उस दिन तक के अखबार-सामयिक के कटिंग्ज, मूल गुजराती नाटकमें इस्तेमाल किये गए गाने की रिकार्डिंग – यह सब मिलके जितने भी सबूत थे उनका वज़न ही करीबन २० किलो से ज़्यादा था| उस वक्त असोसिएशन की टीम में डा. अचला नागर प्रेसिडेंट थे, जिन्होंने ‘बागबान’ फिल्म लिखी हुई है| उनके अलावा कवि प्रदीपजी की बेटी भी इस टीम में थी और एक ८४ साल के बूढ़े सज्जन भी थे, जो कि पहेले भी जब यह मामला एसोसिएशनमें आया तब उस दौरान भी टीम का हिस्सा थे| उन्हें यह बात याद थी की पहेले भी इस बात का फैसला हो चूका है की यह गीत ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे....’ रघुनाथजी का लिखा हुआ है| एसोसिएशन के रिकार्ड में भी यह बात मौजूद थी| जब यह बात सामने आई तब डा. अचला नागर की आँखे नम हो गई| कोई अपने दादाजी के आत्मसन्मान के लिए इस तरह लड़ सकता है, यह बात उन्हें छू गयी|
अच्छी बात यह हुई की यह सब होने के बाद थोड़े दिनों के बाद नयी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की टीम की और से फिल्म के केलेंडर के साथ एक खूबसूरत सुवेनियर प्रकाशित किया गया, जिसमे बड़े आदर के साथ यह लिखा गया था की ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे...’ गीत के गीतकार रसकवि रघुनाथ ब्रह्मभट्ट है| उतना ही नहीं, फिल्म की नयी डीवीडी और म्युज़िक आल्बम के कवर पर भी कविश्री का नाम बड़े आदर के साथ छापा गया| ४५ साल के बाद एक गीत को अपनी असली पहेचान मिली| अपने दादाजी की गरिमा के लिए की गयी लड़ाई में उनके पोते को आखिर जीत मिली|