'मुग़ल-ए-आज़म', 1960 की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म। के. आसिफ़ निर्देशित इस महत्वाकांक्षी फ़िल्म की नीव सन् 1944 में रखी गयी थी। दरअसल बात ऐसी थी कि आसिफ़ साहब ने एक नाटक पढ़ा। उस नाटक की कहानी शाहंशाह अकबर के राजकाल की पृष्ठभूमि में लिखी गयी थी। कहानी उन्हें अच्छी लगी और उन्होंने इस पर एक बड़ी फ़िल्म बनाने की सोची। लेकिन उन्हें उस वक़्त यह अन्दाज़ा भी नहीं हुआ होगा कि उनके इस सपने को साकार होते 16 साल लग जायेंगे। 'मुग़ल-ए-आज़म' अपने ज़माने की बेहद मंहगी फ़िल्म थी। एक-एक गीत के सीक्वेन्स में इतना खर्चा हुआ कि जो उस दौर की किसी पूरी फ़िल्म का खर्च होता था। नौशाद के संगीत निर्देशन में भारतीय शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की छटा लिये इस फ़िल्म में कुल 12 गीत थे जिनमें आवाज़ें दी उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, लता मंगेशकर, शमशाद बेग़म और मोहम्मद रफ़ी। हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का यह एक स्वर्णिम अध्याय रहा। यहाँ तक कि इस फ़िल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत
"प्यार किया तो डरना क्या" को शताब्दी का सबसे रोमांटिक गीत का ख़िताब भी दिया गया था। लता मंगेशकर की ही आवाज़ में फ़िल्म का अन्य गीत
"मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे" का भी अपना अलग महत्व है। कहा जाता है कि मुस्लिम सब्जेक्ट पर बनी इस ऐतिहासिक फ़िल्म में राधा-कृष्ण से सम्बन्धित इस गीत को रखने पर विवाद खड़ा हो सकता है, ऐसी आशंका जतायी गयी थी। वरिष्ठ निर्देशक विजय भट्ट भी इस गीत को फ़िल्म में रखने के ख़िलाफ़ थे। हालाँकि वो इस फ़िल्म से सीधे-सीधे जुड़े नहीं थे, पर उनकी यह धारणा थी कि यह फ़िल्म को ले डूब सकता है क्योंकि मुग़ल शाहंशाह को इस गीत के दृश्य में हिन्दू उत्सव जन्माष्टमी मनाते हुए दिखाया जाता है। नौशाद ने यह तर्क भी दिया कि जोधाबाई चूँकि ख़ुद एक हिन्दू थीं, इसलिए सिचुएशन के मुताबिक इस गीत को फ़िल्म में रखना कुछ ग़लत नहीं था। फिर भी नाज़ुकता को ध्यान में रखते हुए फ़िल्म के पटकथा लेखकों ने इस सीन में एक संवाद ऐसा रख दिया जिससे यह तर्क साफ़-साफ़ जनता तक पहुँच जाये।
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इन्दुबाला |
बहुत से फ़िल्मी गीतों को कृष्ण की लीलाओं से प्रेरणा मिली हैं। पर
"मोहे पनघट..." कुछ अलग ही मुकाम रखता है। इस गीत के लिए गीतकार शक़ील बदायूंनी और संगीतकार नौशाद का नाम रेकॉर्ड पर दर्शाया गया है। पर सत्य यह है कि मूल गीत न तो शक़ील ने लिखा है और न ही मूल संगीत नौशाद का है। यह दरअसल एक पारम्परिक बन्दिश है जिसे शक़ील और नौशाद ने फ़िल्मी जामा पहनाया है। क्योंकि इसके मूल रचयिता का नाम किसी को मालूम नहीं है और इसे एक पारम्परिक रचना के तौर पर भी गाया जाता रहा है, इसलिए शायद किसी ने विरोध नहीं किया। पर ऐसे गीतों में गीतकार के नाम के जगह 'पारम्परिक' शब्द दिया जाना बेहतर होता। ख़ैर, उपलब्ध तथ्यों के अनुसार राग गारा पर आधारित इस मूल ठुमरी का सबसे पुराना ग्रामोफ़ोन 78 RPM रेकॉर्ड इन्दुबाला की आवाज़ में मौजूद है।
इन्दुबाला का जन्म 1899 में हुआ था और ऐसी धारणा है कि उनकी गायी यह रेकॉर्डिंग 1915 से 1930 के बीच के किसी वर्ष में की गयी होगी। 1932 में उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँदिलरंग ने इसी ठुमरी को 'कोलम्बिआ रेकॉर्ड कम्पनी' के लिए गाया था। गौहर जान की आवाज़ में यह ठुमरी मशहूर हुई थी। मूल रचना के शब्द हैं
"मोहे पनघट पर नन्दलाल छेड़ दीनो रे, मोरी नाजुक कलइयाँ मरोड़ दीनो रे.."। 'मुग़ल-ए-आज़म' के गीत में शक़ील ने शब्दों को आम बोलचाल वाली हिन्दी में परिवर्तित कर ठुमरी का फ़िल्मी संस्करण तैयार किया है।
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नौशाद और शक़ील |
विविध भारती के एक कार्यक्रम में नौशाद साहब ने इस गीत को याद करते हुए बताया,
"इस फ़िल्म में एक सिचुएशन ऐसा आया जिसमें अकबर बादशाह कृष्णजन्म पर्व मना रहे हैं। आसिफ़ साहब ने मुझसे कहा कि वो इस सिचुएशन पर एक गाना चाहते हैं जिसमें वह झलक, वह माहौल पैदा हो। मैंने गाना बनाया, रेकॉर्ड करवाया, और उन्हें सुनाया। उन्हें बहुत पसन्द आया। तब मैंने उनसे रिक्वेस्ट किया कि इस गीत के पिक्चराइज़ेशन में जो डान्स इस्तेमाल होगा, उसे आप किसी फ़िल्मी डान्स डिरेक्टर से नहीं, बल्कि एक क्लासिकल डान्सर से करवाइयेगा। उन्होंने कहा कि फिर आप ही ढूँढ लाइये। मैंने लच्छू महाराज को आसिफ़ साहब से मिलवाया, जो कथक के एक नामी कलाकार थे। आसिफ़ साहब ने उन्हें गाना सुनाया, तो वो रोने लग गये। आसिफ़ साहब परेशान हो गये, कहने लगे कि यह डान्स का गाना है, इसमें रोने की कौन सी बात है भला, मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात हो गई, तब लच्छू महाराज ने कहा कि बिल्कुल यही स्थायी वाली ठुमरी मेरे बाबा गाया करते थे, इसने मुझे उनकी याद दिला दी।"
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लच्छु महाराज |
फिर आयी गीत के फ़िल्मांकन की बारी। यह भी कोई आसान काम नहीं था। मधुबाला एक सीखी हुई नृत्यांगना नहीं थी। लच्छू महाराज ने लगातार पाँच दिनों तक मधुबाला को नृत्य सिखाया। कहा जाता है कि इस गीत के लाँग शॉट्स में लच्छू महाराज के ट्रूप के किसे लड़के ने मधुबाला के स्थान पर नृत्य किया, पर गीत के दृश्यों को देख कर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है। है ना आश्चर्य की बात! एक और आश्चर्य की बात यह है कि इतने स्तरीय गीतों के बावजूद उस वर्ष का 'फ़िल्मफ़ेअर' पुरस्कार 'मुग़ल-ए-आज़म' के लिए नौशाद को नहीं बल्कि 'दिल अपना और प्रीत परायी' के लिए शंकर जयकिशन को दिया गया। इसमें सन्देह नहीं कि 'दिल अपना...' के गानें भी बेहद मकबूल हुए थे, पर स्तर की बात करें तो 'मुग़ल-ए-आज़म' कई क़दम आगे थी। फ़िल्मफ़ेअर में ऐसा कई बार हुआ है। उदाहरण के तौर पर 1967 में शंकर जयकिशन को 'सूरज' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि 'गाइड', 'ममता' और 'अनुपमा' प्रतियोगिता में शामिल थी। 1971 में शंकर जयकिशन को फ़िल्म 'पहचान' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि उसी साल 'दो रास्ते' और 'तलाश' जैसी म्युज़िकल फ़िल्में थीं। 1973 में एक बार फिर शंकर जयकिशन को 'बेइमान' के लिए यह पुरस्कार दिया गया जबकि 'पाक़ीज़ा' के संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। क्या यह सही निर्णय था? ख़ैर, कला किसी पुरस्कार का मोहताज नहीं। सच्चा पुरस्कार है, श्रोताओं का प्यार जो 'मुग़ल-ए-आज़म' को बराबर मिली और अब तक मिलती रही है।
फिल्म - मुगल-ए-आजम : 'मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड़ गयो रे...' : गायिका - लता मंगेशकर : संगीत - नौशाद
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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पर बात यहाँ ख़तम नहीं होती है| २००४में फिल्मको सम्पूर्ण तरीके से कलर में रुपांतर किया गया और दुबारा रिलीज़ किया गया| रघुनाथजी तो जीवित नहीं थे, पर उनके पोते डा. राज ब्रह्मभट्ट, जो की मुंबई में बतौर सेक्सोलोजिस्ट प्रेक्टिस करते है, उन्होंने बोनी कपूर का संपर्क किया, जो इस प्रोजेक्ट के साथ संलग्न थे| फिल्म की नयी आवृति में मूल गीतकार-कवि को क्रेडिट दिया जाय, ऐसी ख्वाहिश उनके वारिस को हो, यह तो कोई भी समज सके ऐसी बात है| डा. राज ब्रह्मभट्टने फिल्म की रिलीज़ के दो-चार दिन पहेले ही बोनी कपूर का संपर्क किया और यह बात स्पष्ट की कि वो इस बात के लिए अदालतमें नहीं जाना चाहते| ना ही उन्हें कोई मुआवजा चाहिए| वो तो बस, अपने दादाजी को क्रेडिट मिले, उतना ही चाहते है| बोनी कपूर को यह बात समज में आ गयी| उन्होंने ‘इरोज़’में रखे गए फिल्म के प्रिमियर शो के पास भी डाक्टरसाहब को भिजवाये| पर इस बार भी प्रिंट्स निकल चुके थे और रिकार्ड्स बन चुके थे, तो क्रेडिट की बात तो वहीं पर खड़ी रही| फिर शुरू हुई एक पोते की अपने दादा को क्रेडिट दिलाने की डेढ़ साल लम्बी लड़ाई| इस बात को गुजराती-हिंदी-मराठी मिडियाने अच्छा कवरेज दिया| फिल्म की ओरिजिनल टीममें से अब तीन ही लोग जीवित थे- संगीतकार नौशाद, लताजी और दिलीपकुमार| डा. ब्रह्मभट्ट नौशादसाहब को भी मिले| पर उनकी बीमार अवस्था में वो भी कुछ करने के हालात में न थे| बात फिर फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के पास गयी| डा. ब्रह्मभट्टके पास सबूत के तौर पर १९२० से लेके उस दिन तक के अखबार-सामयिक के कटिंग्ज, मूल गुजराती नाटकमें इस्तेमाल किये गए गाने की रिकार्डिंग – यह सब मिलके जितने भी सबूत थे उनका वज़न ही करीबन २० किलो से ज़्यादा था| उस वक्त असोसिएशन की टीम में डा. अचला नागर प्रेसिडेंट थे, जिन्होंने ‘बागबान’ फिल्म लिखी हुई है| उनके अलावा कवि प्रदीपजी की बेटी भी इस टीम में थी और एक ८४ साल के बूढ़े सज्जन भी थे, जो कि पहेले भी जब यह मामला एसोसिएशनमें आया तब उस दौरान भी टीम का हिस्सा थे| उन्हें यह बात याद थी की पहेले भी इस बात का फैसला हो चूका है की यह गीत ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे....’ रघुनाथजी का लिखा हुआ है| एसोसिएशन के रिकार्ड में भी यह बात मौजूद थी| जब यह बात सामने आई तब डा. अचला नागर की आँखे नम हो गई| कोई अपने दादाजी के आत्मसन्मान के लिए इस तरह लड़ सकता है, यह बात उन्हें छू गयी|
अच्छी बात यह हुई की यह सब होने के बाद थोड़े दिनों के बाद नयी ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की टीम की और से फिल्म के केलेंडर के साथ एक खूबसूरत सुवेनियर प्रकाशित किया गया, जिसमे बड़े आदर के साथ यह लिखा गया था की ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे...’ गीत के गीतकार रसकवि रघुनाथ ब्रह्मभट्ट है| उतना ही नहीं, फिल्म की नयी डीवीडी और म्युज़िक आल्बम के कवर पर भी कविश्री का नाम बड़े आदर के साथ छापा गया| ४५ साल के बाद एक गीत को अपनी असली पहेचान मिली| अपने दादाजी की गरिमा के लिए की गयी लड़ाई में उनके पोते को आखिर जीत मिली|