संगीतकार ओ. पी. नय्यर ने सच ही कहा है कि किसी भी गीत के लिए 50% श्रेय गीतकार को मिलना चाहिये, 25% संगीतकार को, और बाकी के 25% में गायक और साज़िन्दे आदि आते हैं। सच ही तो है कि किसी गीत को कालजयी बनाता है उसके असरदार बोल, उसका सुन्दर काव्य, उसमें छुपा दर्शन और संदेश। ऐसी ही एक कालजयी रचना है फ़िल्म 'आनन्द' में - "कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये, मेरे ख़यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाये, दीप जलाये"। योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश की तिकड़ी ने कई बार साथ में अच्छा काम किया है, पर शायद यह गीत इस तिकड़ी की सबसे लोकप्रिय रचना है। इस गीत से जुड़ा सबसे रोचक तथ्य यह है कि यह गीत इस सिचुएशन के लिए तो क्या बल्कि इस फ़िल्म तक के लिए नहीं लिखा गया था, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस गीत में फ़िल्म 'आनन्द' का पूरा सार छुपा हुआ है। इस गीत को गाने वाला आनन्द नाम का युवक यह जानता है कि मौत उसके घर के दरवाज़े पर दस्तक देने ही वाला है, आज नहीं तो बहुत जल्द, और दुनिया की कोई भी दवा उसे नहीं बचा सकती। फिर भी वो अपनी बची-खुची ज़िन्दगी का हर एक दिन, हर एक लम्हा पूरे जोश और उल्लास के साथ जीना चाहता है, और उसके आसपास के लोगों में भी ख़ुशियाँ लुटाना चाहता है। आनन्द अपनी प्रेमिका के जीवन से बाहर निकल जाता है क्योंकि वो नहीं चाहता कि उसकी मौत के बाद वो रोये। मौत के इतने नज़दीक होकर भी अपनों के प्रति प्यार लुटाना और आसपास के नये लोगों से उसकी दोस्ती को दर्शाता है "कहीं दूर जब दिन ढल जाये"। इस गीत के बोलों को पहली बार सुनते हुए समझ पाना बेहद मुश्किल है। हर एक पंक्ति, हर एक शब्द अपने आप में गहरा भाव छुपाये हुए है, और गीत को बार-बार सुनने पर ही इसके तह तक पहुँचा जा सकता है।
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ऋषीकेश मुखर्जी |
"कहीं दूर जब दिन ढल जाये" दरसल 1972 की फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए योगेश ने लिखा था। 'अन्नदाता' के निर्माता थे एल. बी. लछमन। 'अन्नदाता' के संगीतकार सलिल दा ही थे। एक दिन सलिल दा के यहाँ फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए इसी गीत की सिटिंग् हो रही थी। एल. बी. लछमन, योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश मौजूद थे। उसी दिन वहाँ फ़िल्म 'आनन्द' के लिए भी सिटिंग् होनी थी। पहली सिटिंग् चल ही रही थी कि 'आनन्द' की टीम आ पहुँची। निर्माता-निर्देशक ॠषीकेश मुखर्जी तो थे ही, साथ में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन भी। जैसे ही इन तीनों ने यह गीत सुना, गीत इन्हें पसन्द आ गई। ऋषी दा ने लछमन साहब का हाथ पकड़ कर कहा कि यह गीत आप मुझे दे दीजिए! लछमन जी तो चौंक गए कि ये यह क्या माँग रहे हैं। अपनी फ़िल्म के लिए बन रहा गीत किसी अन्य निर्माता तो वो कैसे दे देते? उन्होंने ऋषी दा को मना कर दिया और माफ़ी माँग ली। पर ऋषी दा और राजेश खन्ना आसानी से कहाँ छोड़ने वाले थे? वो अनुरोध करते रहे, करते ही रहे। ऋषी दा ने यह भी कहा कि इस गीत के बोल उनकी फ़िल्म 'आनन्द' के एक सिचुएशन के लिए बिल्कुल सटीक है। इतने अनुनय विनय को देख कर न चाहते हुए भी लछमन जी ने कहा कि पहले आप मुझे वह सिचुएशन समझाइये जिसके लिए आप इस गीत को लेना चाहते हैं, अगर मुझे ठीक लगा तो ही मैं यह गीत आपको दे दूँगा। ऋषी दा ने इतनी सुन्दरता से सिचुएशन को लछमन साहब की आँखों के सामने उतारा कि लछमन जी काबू हो गये और उन्होंने यह गीत ऋषी दा को दे दी यह कहते हुए कि वाकई यह गीत आप ही की फ़िल्म में होनी चाहिए। यह बहुत बड़ी बात थी। दो निर्माताओं के बीच में साधारणत: प्रतियोगिता रहती है, ऐसे में लछमन साहब का ऋषी दा को अपना इतना सुन्दर गीत दे देना वाकई उनका बड़प्पन था।
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योगेश, सलिल चौधरी और मुकेश |
गीत तो 'अन्नदाता' की झोली से निकल कर 'आनन्द' की झोली में आ गया, पर लछमन साहब ने भी योगेश और सलिल चौधरी के सामने यह शर्त रख दी कि बिल्कुल ऐसा ही एक ख़ूबसूरत गीत वो 'अन्न्दाता' के लिए भी दोबारा लिख दें। कुछ-कुछ इसी भाव को बरकरार रखते हुए योगेश ने फ़िल्म 'अन्नदाता' के लिए फिर से गीत लिखा - "नैन हमारे सांझ सकारे, देखें लाखों सपने, सच ये कहीं होंगे या नहीं, कोई जाने ना, कोई जाने ना, यहाँ"। इन दोनों गीतों के भावों का अगर तुलनात्मक विश्लेषण किया जाये तो दोनों में समानता महसूस की जा सकती है। और लछमन साहब के अनुरोध को ध्यान में रखते हुए योगेश जी ने इस नए गीत के मुखड़े में भी "सांझ" और "सपने" को जगह दी है। यह गीत भी एक बेहद सुन्दर रचना है, पर शायद 'आनन्द' के मुकाबले 'अन्नदाता' को कम लोकप्रियता मिलने की वजह से इस गीत को बहुत ज़्यादा बढ़ावा नहीं मिला। उधर "कहीं दूर जब..." का रेकॉर्डिंग् पूरा होने पर ऋषी दा इस गीत से इतने ज़्यादा ख़ुश हुए कि उन्होंने योगेश जी को इसी फ़िल्म के लिए एक और गीत लिखने का प्रस्ताव दे दिया। और इस दूसरे गीत के रूप में योगेश लिख लाये "ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय!" फ़िल्म के रिलीज़ होने पर इन दोनों गीतों ने योगेश को रातों-रात मशहूर कर दिया। मज़ेदार बात यह भी है कि फ़िल्म का तीसरा गीत "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने" जो कि गुलज़ार ने लिखा था, लोग यह समझ बैठे कि यह भी योगेश की ही रचना है, और योगेश के घर पर गुलज़ार के लिखे इस गीत के लिए भी फूलों के गुल्दस्ते आने लगे।
योगेश के लिखे गीतों में शुद्ध हिन्दी के शब्द प्रचूर मात्रा में सुनाई देते हैं। पर ख़ुद योगेश इसके लिए श्रेय देते हैं सलिल चौधरी को। उन्हीं के शब्दों में - "सलिल दा के जो कम्पोज़िशन्स थे, उनमें उर्दू के शब्दों की गुंजाइश नहीं होती थी। उनकी धुनें ऐसी होती थीं कि उर्दू के वर्ड्स उसमें फ़िट नहीं हो सकते। पहले वहाँ शैलेन्द्र जी लिखते थे जो सीधे सरल शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। एक और बात, मैं तो सलिल दा से यह कह भी चुका हूँ, कि अगर वो संगीत के बजाय लेखन की तरफ़ ध्यान देते तो रबीन्द्रनाथ टैगोर के बाद उन्हीं की कवितायें जगह जगह गूंजतीं।" यह सच है कि सलिल दा एक लेखक भी थे, पर एक गीतकार द्वारा एक संगीतकार के लिए ऐसे विचार अपने आप में बड़ी बात थी। "कहीं दूर जब...." एक अमर रचना है, जब तक फ़िल्म-संगीत रहेगा, फ़िल्म संगीत के इतिहास के श्रेष्ठ गानें जब तक याद किये जायेंगे, तब तक इस गीत का ज़िक्र होता रहेगा। योगेश के ही शब्दों में, "मेरे गीत गाते रहना, मेरे गीत गुनगुनाते रहना, मैं अगर भूल भी जाऊँ गीतों का सफ़र, तुम मुझे याद दिलाते रहना"।
फिल्म - आनन्द : 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए...' : गायक - मुकेश : गीत - योगेश : संगीत - सलिल चौधरी
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