Skip to main content

कुमार गन्धर्व, जसराज और मन्ना डे ने भी कबीर को गाया

  
स्वरगोष्ठी – 149 में आज

रागों में भक्तिरस – 17

‘दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया...’



‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘रागों में भक्तिरस’ की सत्रहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-रसिकों का नये वर्ष की पहली कड़ी में हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। मित्रों, इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम आपके लिए भारतीय संगीत के कुछ भक्तिरस प्रधान राग और कुछ प्रमुख भक्तिरस कवियों की रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही उस भक्ति रचना के फिल्म में किये गए प्रयोग भी आपको सुनवा रहे हैं। श्रृंखला की पिछली कड़ी में हमने पन्द्रहवीं शताब्दी के सन्त कवि कबीर के व्यक्तित्व और उनके एक पद- ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ पर चर्चा की थी। पिछले अंक में हमने यह पद ध्रुवपद, भजन और मालवा की लोक संगीत शैली में प्रस्तुत किया था। कबीर का यही पद आज हम सुविख्यात गायक पण्डित कुमार गन्धर्व, पण्डित जसराज और पार्श्वगायक मन्ना डे की आवाज़ में प्रस्तुत करेंगे। 
  


बीर एक सन्त कवि ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होने हिन्दू और मुस्लिम, दोनों धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों के विरुद्ध अभियान चलाया था। अन्धविश्वासों पर कुठाराघात करते हुए कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दिया। उन्होने अपने काव्य में बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। उनके काव्य में भरपूर व्यंग्य मौजूद है, जो अन्धविश्वास पर जोरदार प्रहार करते हैं। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं। खड़ीबोली, ब्रज, भोजपुरी और पंजाबी के शब्द तो प्रचुर मात्रा में हैं। इसके अलावा तत्कालीन शासकों की अरबी और फारसी के शब्दों का भी उन्होने प्रयोग किया है। इसीलिए उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। पिछले अंक में हमने कबीर के पद- ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ पर चर्चा की थी। आज हम उस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए यही पद पहले पण्डित कुमार गन्धर्व के स्वरों में प्रस्तुत कर रहे हैं। रागदारी संगीत में घरानों के घेरे को तोड़ कर अपनी एक अलग शैली का सूत्रपात करने वाले कुमार गन्धर्व मालवा के सबसे दिव्य सांस्कृतिक विभूति हैं। कुमार गन्धर्व एकमात्र ऐसे संगीतज्ञ हुए हैं जिन्होंने मालवा क्षेत्र की बोली मालवी और उसके लोकगीतों को रागों से सुसज्जित कर बन्दिशों का स्वरूप दिया। कबीर की रचनाओं पर उनका शोध भारतीय संगीत के भण्डार को समृद्ध करता है। स्वरों के माध्यम से मानो उन्होने कबीर के रहस्यवाद को पर्त-दर-पर्त खोल कर रख दिया हो। लोक संगीत को रागदारी संगीत के समकक्ष ले जाने वाले कुमार जी ने कबीर को जैसा गाया वैसा कोई नहीं गा सकेगा। आज के अंक में प्रस्तुत कबीर के पद- ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ को कुमार जी ने राग जोगिया के स्वरों में बाँधा है। राग जोगिया भक्तिरस में छिपे वैराग्य भाव को अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है। प्रथम प्रहर अर्थात सूर्योदय के समय गाया-बजाया जाने वाला यह राग भैरव थाट के अन्तर्गत माना जाता है। कर्नाटक संगीत पद्यति का राग सावेरी, इस राग के समतुल्य होता है। राग जोगिया के आरोह में गान्धार और निषाद स्वर वर्जित होता है। आरोह में ऋषभ और धैवत कोमल और मध्यम स्वर शुद्ध प्रयोग किया जाता है। अवरोह के दो रूप प्रचलित है। अवरोह के पहले रूप में गान्धार और निषाद स्पष्ट होता है। यह रूप कर्नाटक पद्यति के राग सावेरी के निकट होता है। दूसरे रूप में कोमल गान्धार स्वर केवल अवरोह में प्रयोग होता है, वह भी मात्र कण रूप में। यह रूप राग गुणकली के निकट हो जाता है। अवरोह में सात स्वर का प्रयोग होता है। इस प्रकार यह राग औड़व-सम्पूर्ण जाति का है। राग जोगिया में शुद्ध मध्यम स्वर पर न्यास अर्थात ठहराव दिया जाता है, जबकि राग भैरव में ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार राग जोगिया में कोमल ऋषभ और कोमल धैवत स्वरों का आन्दोलन नहीं होता, जबकि राग भैरव में ऐसा होता है। इस राग का वादी स्वर षडज और संवादी स्वर मध्यम होता है। आइए, अब आप पण्डित कुमार गन्धर्व से कबीर का पद- ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ सुनिए, जिसे उन्होने राग जोगिया और चाँचर ताल में प्रस्तुत किया है।


कबीर पद : ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ : पण्डित कुमार गन्धर्व : राग - जोगिया : चाँचर ताल



कबीर के इस पद को अनेक श्रेष्ठ गायकों ने स्वर दिया है। इन्हीं में विश्वविख्यात कलासाधक हैं, पण्डित जसराज। कबीर के इस भक्तिपद का पण्डित जसराज के स्वरों से जो योग हुआ है, उसमें आध्यात्म पक्ष खूब मुखरित हुआ है। पण्डित जसराज की आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक है। उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की गायन शैली की विशिष्टता को झलकाता है। उन्होंने बाबा श्याममनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में 'हवेली संगीत' पर व्यापक अनुसन्धान कर कई नवीन बन्दिशों की रचना भी की है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है उनके द्वारा प्रवर्तित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी, जो प्राचीन शास्त्रोक्त मूर्छना पद्यति को पुनर्जीवित करता है। इसमें एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में दो भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं। जसराज जी के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम 'जसरंगी' रखा गया है। भक्तिरस तो इनकी हर रचना में परिलक्षित होता ही है। पण्डित जी ने कबीर के इस पद को राग अहीर भैरव के स्वरों का आवरण प्रदान किया है। अहीर भैरव एक प्राचीन राग है, जिसमें अप्रचलित और लुप्तप्राय राग अभीरी या अहीरी और भैरव का मेल है। स्वरों के माध्यम से भक्तिरस को उकेरने में सक्षम इस राग में कोमल ऋषभ और कोमल निषाद स्वरों का प्रयोग किया जाता है। शेष सभी शुद्ध स्वर होते हैं। राग अहीर भैरव के आरोह और अवरोह में सभी सात स्वरों का प्रयोग किया जाता है, अर्थात यह सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति का राग है। यह राग भैरव थाट के अन्तर्गत माना जाता है। दक्षिण भारतीय कर्नाटक पद्यति का राग चक्रवाक, इस राग के समतुल्य है। राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है। उत्तरांग प्रधान इस राग का गायन-वादन दिन के प्रथम प्रहर में अत्यन्त सुखदायी होता है। कबीर का पद- ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ अब आप पण्डित जसराज से राग अहीर भैरव के स्वरों में सुनिए।


कबीर पद : ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ : पण्डित जसराज: राग – अहीर भैरव





इसी क्रम में आज हम आपको मानव जीवन की उपमा एक चादर से करते कबीर के इस पद का एक फिल्मी संस्करण भी सुनवाते हैं। 1954 में कबीर के जीवन पर एक फिल्म ‘महात्मा कबीर’ बनी थी, जिसके संगीतकार अनिल विश्वास थे। इस फिल्म के संगीत के विषय में फिल्म संगीत के इतिहासकार पंकज राग अपनी पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ में लिखते हैं- “1953 में मन्ना डे से फिल्म ‘हमदर्द’ के शास्त्रीय संगीत आधारित कंपोज़ीशन गवाने के बाद अनिल विश्वास ने ‘महात्मा कबीर’ में पुनः मन्ना डे के स्वर में ‘झीनी झीनी रे बीनी चदरिया...’, ‘घूँघट का पट खोल रे...’, ‘मनुआ तेरा दिन दिन बीता जाए...’ और ‘सतगुरु मोरा रंगरेज...’ जैसी रचनाएँ निर्गुण भक्ति की एक बेहद प्रभावशाली संगीत धारा का सृजन करती हैं। फिल्म संगीत में कबीर के दोहों और भजनों का इतना सुन्दर उदाहरण फिर नहीं मिलता।” दरअसल अनिल विश्वास ने इस पद को कीर्तन शैली में संगीतबद्ध किया है और मन्ना डे ने शब्दों को पूरी भावाभिव्यक्ति से गाया है। आप कबीर के इस पद का यह फिल्मी रूप भी सुनिए और मुझे आज के इस अंक को विराम देने की अनुमति दीजिए। परन्तु पहेली में भाग लेना न भूलिए। 


कबीर पद : ‘चदरिया झीनी रे बीनी...’ : गायक - मन्ना डे : संगीत – अनिल विश्वास : फिल्म – महात्मा कबीर



  
आज की पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ की 149वीं संगीत पहेली में हम आपको एक बेहद लोकप्रिय भजन का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 150वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला तथा वर्ष का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 – संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि इस रचना में किस राग की झलक है?

2 – यह किस गायिका की आवाज़ है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 151वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

  
पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 147वीं संगीत पहेली में हमने आपको भजन गायक अनूप जलोटा की आवाज़ में कबीर के पद का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग देश और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल कहरवा। इस अंक के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी, जौनपुर से डॉ. पी.के. त्रिपाठी और चंडीगढ़ से हरकीरत सिंह ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


  
झरोखा अगले अंक का


मित्रों, नये वर्ष में भी ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी है, लघु श्रृंखला ‘रागों में भक्तिरस’, जिसके अन्तर्गत हमने आज की कड़ी में आपसे एक बार फिर निर्गुण ब्रह्म के उपासक सन्त कबीर के ही पद का रसास्वादन कराया। अगले अंक में आप एक और भक्तकवि सूरदास की एक भक्ति-रचना का रसास्वादन करेंगे जिसके माध्यम से अनेक शीर्षस्थ कलासाधकों ने अलग-अलग रागों का आधार लेकर भक्तिरस को सम्प्रेषित किया है। इस श्रृंखला की आगामी कड़ियों के लिए आप अपनी पसन्द के भक्तिरस प्रधान रागों या रचनाओं की फरमाइश कर सकते हैं। आप हमें एक नई श्रृंखला के विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों का स्वागत करेंगे। अगले अंक में रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सभी संगीत-रसिकों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  

Comments

Unknown said…
PARAM AADRNIYA KRISHAN MOHAN MISHRA JI KI DIVYA LEKHNI KE JAADU SE RUBARU HUAA.BAHUT ACHCHAA LAGAA.BADHAAEEE.

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...