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5 सुनहरे साल रेडियो प्लेबैक इंडिया के - आभार समस्त श्रोताओं का


दोस्तों आप लोग सोच रहे होंगें कि आज गुरूवार है और आज तो दिन है 'खरा सोना गीत' के पोडकास्ट का, तो फिर ये ख़ामोशी क्यों है भाई...? तो दोस्तों हम आपको बता दें कि आज है ५ जुलाई और आज से ठीक ५ साल पहले यानी ५ जुलाई २००८ को रेडियो प्लेबैक इंडिया (पूर्व में आवाज़) की विधिवत शुरुआत हुई थी. यानी आज रेडियो प्लेबैक की ५ वीं सालगिरह है और हमारे अभासिया स्टूडियो में एक जबरदस्त पार्टी चल रही है, और हमारे सारे पॉडकास्टर वहीँ व्यस्त हैं, चलिए वहीँ चलें और देखें कि क्या क्या हो रहा है वहाँ... 

लीजिए द्वार पर ही हमें मिल गए हैं पीट्सबर्ग  के 'स्मार्ट इंडियन' यानी सुनो कहानी स्तंभ के कर्ता धर्ता अनुराग शर्मा जी. अरे अरे रुकिए अनुराग जी RPI के ५ साल पूरे होने की बहुत बहुत बधाई, आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो कैसा लगता है ये सफर ? 

अनुराग शर्मा - छोटी सी ज़िंदगी ने मुझे भारत और बाहर बहुत सी जगहें देखने और साथ ही बहुत से काम करने के अवसर दिये। बहुत कुछ सीखा और किया लेकिन यह मन किसी भी काम में लंबे समय तक नहीं लग सका। जो भी किया वह सब कुछ महीने से लेकर अधिकतम 3-4 साल तक ही चला। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मेरे शौक या अवैतनिक कार्यों में से एक ऐसा काम है जिसे करते हुए 5 साल हो गए। रेडियो प्लेबैक इंडिया से जुड़ना संयोग ही था। एक कहानी क्या पढ़ी, साप्ताहिक कथा-पाठ की एक शृंखला सी चल पड़ी। पता ही नहीं चला कब 250 कहानियाँ पढ़ डालीं। मृदुल कीर्ति जी के संचालन में कवि सम्मेलन हों या हाल ही के कविता कार्यक्रम, लोग जुडते गए, सहयोग मिलता रहा और कार्य का आनंद बढ़ता गया। उम्र के इस पड़ाव पर रेडियो प्लेबैक इंडिया ने मुझे एक नई चीज़ सिखाई है - सातत्य। 

जी अनुराग जी,....चलिए जरा दायीं तरफ चलें...अरे वो देखिये वहाँ संज्ञा जी अपने नए पोडकास्टरों की टीम के साथ पेस्ट्री का आनंद ले रहीं है. संज्ञा जी, आप RPI के सबसे नए सदस्यों में से एक हैं, आपको इस अवसर पर क्या कहना है ?

संज्ञा टंडन - जी मैं तो बचपन से ही रेडियो से जुडी रही हूँ, आकाशवाणी रायपुर में बतौर बाल कलाकार और उसके बाद ड्रामा कलाकार के रूप में. उद्घोषक बनी बिलासपुर आकाशवाणी के लिए...एक तरीके से रेडियो कल्चर के साथ ही मेरी परवरिश हुई है, इंटरनेट आया तो इससे भी मेरा जुड़ाव हुआ. तो एक ढूंढते खोजते आवाज़ तक पहुंचीं, तो लगा यहाँ तो सब कुछ बिलकुल वैसा ही है जैसा मेरे रेडियो संस्कृत विचारों में बसा हुआ था. बस सजीव जी से फोन पर बात की....उनका सकारात्मक अपनापन...सिर्फ दो मिनट की बातचीत में ही उनका ये कहना कि आप आज से रेडियो प्लेबैक के साथ जुड गयीं हैं...मुझे RPI के प्रति और गहरे से जोड़ता चला गया और ये लगाव दिन ब दिन बढ़ता चला गया ..... 

 दोस्तों हमने सुना कि संज्ञा जी आवाज़ पर आईं और अब वो रेडियो प्लेबैक के साथ हैं...ये आवाज़ और रेडियो प्लेबैक का क्या आपसी सम्बन्ध है ? चलिए इस बारे में RPI के सबसे पुराने सदस्यों में से एक विश्व दीपक जी से ही पूछ लिया जाए, हम आपको बता दें कि हमारे वी डी भाई पक्के कवि हैं तो इनकी बातचीत में भी कविता आ जाए तो हमें दोष मत दीजियेगा.... वी डी भाई सबसे पहले तो बधाई आपको कि अब आपके नाम के आगे से 'तनहा' तकल्लुस अब हट गया है क्योंकि अब आपको अपना जीवन साथी जो मिल गया है. अब ये बताएं कि आवाज़ और रेडियो प्लेबैक कैसे आपस में जुड़े हैं ? 

 विश्व दीपक - जी शुक्रिया....देखते-देखते पाँच साल हो गये हैं। चंद छोटे-छोटे टुकड़े थे। छोटी-छोटी पहचान बिखरी पड़ी थी इधर-उधर। गले में शब्द अटके थे। सब चुप थे, सब शांत। बस ज़रा मिलना हुआ और ’आवाज़’ को आवाज़ मिल गई। हम आवाज़ हो गये। ’आवाज़’ हमारा बचपन था, हमारा लड़कपन । हम चिट्ठे पर कविताएँ बुनते रहे, गानें सुनते रहे... सुनाते रहे। सप्ताह दर सप्ताह हमने नये गीतों को भी जन्म दिया। उम्र बढी तो हमें अपने पंख फैलाने की ज़रूरत महसूस हुई। हमने चिट्ठे का रेडियो से निकाह करा दिया.... एक संगम, जिसे पढने-सुनने वाले आज-कल ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ के नाम से जानते हैं। यह सफर अब पाँच-साला हो चुका है। प्रौढ हो चुका है हमारा प्रयास और यह देखकर बेहद खुशी होती है। इस सफ़र का मैं अदना-सा राही, इन दिनों ज़रा सुस्ताया-सा हूँ। अपनी रवानी पर मैंने सालों तक गानों को अपने पैमाने पर नापा है, ग़ज़लों को तराजू सौंपी है ताकि वज़न का सही निर्धारण हो सके, कविताओं की लड़ी पिराई है और मौका-बे-मौका अपनी पसंद के अनमोल हीरे गिनवाए और सुनवाये हैं। सीधे-सीधे कहूँ तो "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" , "ताज़ा सुर ताल" , "शब्दों के चाक पर" , "शब्दों में संसार" जैसी महफ़िलें और श्रृंखलाएँ लंबे समय तक मेरे सान्निध्य में रही हैं या कहिए कि मुझे इनकी अगुवाई का सौभाग्य मिला है... और मैं बता नहीं सकता कि इस बहाने मैंने कितना कुछ सीखा है। मैं थमा ज़रूर हूँ, लेकिन थका नहीं। ज़रा इधर-उधर भटक गया हूँ, लेकिन जल्द हीं इस रास्ते पर उसी पुराने जोश के साथ वापस आऊँगा। तब तक अपने इस यकीन पर फिर से गर्वित हो लूँ कि मेरे सारे हमराह बिन रूके, बिन थके इस राह पर यूँ हीं बढते रहेंगे और हम बिना किसी रोक-टोक के दसवीं सालगिरह भी मना रहे होंगे। मेरी तरफ से सजीव जी और पूरी टीम को हार्दिक शुभकामनाएँ। सजीव जी को विशेषकर.... आप न होते तो ख्वाबों को सुबह का शीशा जाने कौन दिखाता.... 

 अच्छा तो ये कहानी है...अरे ये अचानक इतनी चहल पहल क्यों बढ़ गयी है....वाह वो देखिये सुनिया यादव जी तशरीफ़ ला रहीं हैं....आईये जल्दी से उन्हें भी इस गुफ्तुगू में शामिल कर लें....सुनीता जी....बधाई आपको भी, आप भी आवाज़ से जुड़ीं और आज RPI के ५ सालाना जश्न में भी आपकी उपस्तिथि गजब ढा रही है....आप बताएं क्या कहना चाहेंगीं ? 

 सुनीता यादव (अपनी चिर परिचित हँसी हँसते हुए) - किसी ने सच ही कहा है, दुनिया में इतना काम करो कि नाम हो जाए...और इतना नाम कमाओ कि काम हो जाए...ये दोनों बातें सजीव और आवाज़ (अब RPI) पर लागू हो जाती है ....हा हा हा... यूँ तो गुनगुनाना सभी को अच्छा लगता है पर आवाज़ ने न सिर्फ गुनगुनाना ही सिखाया, बल्कि संगीतकारों, गायकों, वादकों, समीक्षकों, संगीत प्रेमियों को सोचने पर विवश किया....इतना ही नहीं हिंदी साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षरों की कृतियों को पोडकास्ट के जरिये हजारों श्रोताओं तक पहुँचाया...आज उत्सुक विधार्थी भी चाहते हैं कि उनकी आवाज़ 'आवाज़' या रेडियो प्लेबैक का हिस्सा बनें...व्यक्तिगत तौर पर आवाज़ ने मुझे सोचने की एक नई दिशा प्रदान की है...आज मुझे गर्व है कि मैं जहाँ भी जाती हूँ, कविताओं के जरिये, गीतों के जरिये हिंदी प्रेमियों को तलाश लेती हूँ....शुक्रिया RPI, शुक्रिया सजीव....  


दोस्तों, आज रेडियो प्लेबैक आज जिस मुकाम पर है वहाँ तक इसे पहुंचाने में जिस शख्स का सबसे बड़ा योगदान है वो है अद्भुत प्रतिभा के धनी सुजॉय चट्टर्जी...वो देखिये वहाँ दूर कोने में खड़े मुस्कुरा रहे हैं सुजॉय...आईये जरा उनसे भी मिला जाए...सुजॉय जी, इस अवसर पर आपको क्या कहना है ? 

 सुजॉय चट्टर्जी - बचपन से ही मुझे रेडियो सुनने का ज़बरदस्त शौक था। मैं इस तरह रेडियो की ओर आकृष्ट था कि मन में कहीं न कहीं एक उदघोषक बनने की एक दबी हुई आस हुआ करती थी। यह सपना सच तो नहीं हो पाया पर जब मुझे 'आवाज़' (बाद में 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया') का मंच मिला और फ़िल्मी गीतों पर लेख/ स्तंभ प्रस्तुत करने का मौका मिला तो ऐसा लगा कि जैसे उस सपने का एक हिस्सा पूरा हो गया। 'ओल्ड इज़ गोल्ड', 'एक गीत सौ कहानियाँ' , 'सिने पहली' और तमाम साक्षात्कार प्रस्तुत करते हुए जैसे मैं अपने बचपन के उस रेडियो दौर में पहुँच गया। 'रेडियो प्लेबैक इंडिया' के लिए लिखना मेरा पेशा नहीं बल्कि नशा रहा है। आज व्यक्तिगत जीवन की अत्यधिक व्यस्तता की वजह से लिखना संभव नहीं हो पा रहा है, पर निकट भविष्य में दोबारा सक्रिय होने की उम्मीद रखता हूँ। 'रेडियो प्लेबैक इंडिया' के इस मुकाम तक पहुँचने के लिए सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ! 

सुजॉय भाई ने सभी को शुभकानाएं दे डाली...RPI के तकनीकी सलाहकार अमित तिवारी जी कहीं नहीं दिख रहे...लीजिए दिख गए...अपने लैपटॉप पे बैठकर कुछ जमा घटा कर रहे हैं....क्या बात है अमित जी यहाँ भी काम ?  

अमित तिवारी - जी कुछ आंकडें सेट कर रहा था....रेडिओ प्लेबैक इंडिया के पुराने संस्करण आवाज़ से मेरा परिचय २०१०, सम्भवतः अक्टूबर महीने में पहली बार हुआ था. उस समय आवाज़ में प्रकाशित होने वाली पोस्ट से लगाव उनके प्रकाशित करने के तरीके से होना शुरू हुआ. शायद दिसम्बर का महीना था जब ओल्ड इस गोल्ड में प्रकाशित होने वाले सवालों के उत्तर देना शुरू करा. यह लगाव एक जुनून में कब तब्दील हुआ पता ही नहीं चला. इसके माध्यम से काफी सारे लोगों से परिचय हुआ और सितम्बर २०११ में मौका मिला लता मंगेशकर के जन्मदिवस के अवसर पर १० अंको का एक आलेख प्रकाशित करने का. नवम्बर में सजीव जी के साथ मिलकर रेडिओ प्लेबैक इंडिया के नये प्रारूप की परिकल्पना करी गयी जिसमे कृष्णमोहन जी, अनुराग जी, सुजॉय जी, और विश्व दीपक जी का भरपूर सहयोग मिला. १ दिसम्बर २०११ को रेडिओ प्लेबैक इंडिया को विधिवत रूप से इंटरनेट पर लाइव कर दिया गया और धीरे धीरे इसकी पोस्टों को एक लाख से ऊपर की हिट मिली. आज यह संख्या 1,28,450 को पार कर गयी है. 546 लोगों ने रेडिओ प्लेबैक इंडिया के फेसबुक पन्ने को लाइक करा है. यह कारवां आगे बढ़ता ही जा रहा है जिसमे सबसे बड़ा योगदान हमारे दुनिया भर के पाठकों और श्रोताओं का है जिनके बिना इस मुकाम तक पहुंचना असम्भव था. गूगल एनालिटिक्स के अनुसार हमारे श्रोता/ पाठक सबसे ज्यादा इन देशों से हैं: India, United States, Canada, United Kingdom, United Arab Emirates, Finland, Azerbaijan, Australia, Germany, Saudi Arabia, Nepal, Qatar, Russia, Singapore, New Zealand, Spain, Kuwait, Malaysia, Mauritius, Switzerland, Italy, Japan, Netherlands, Sweden, Israel, Oman, Pakistan, Brazil, Egypt, France, Bangladesh, Jordan, Philippines, Ukraine, Belgium, Bahrain, Denmark, Poland, Turkey, Taiwan, Yemen, Hong Kong, South Korea, Sri Lanka, Morocco, Mexico, Romania, Serbia, Sudan, Senegal, Suriname, Albania, Bulgaria, Burundi, China,, Colombia, Czech Republic, Algeria, Fiji, Croatia, Indonesia, Ireland, Iraq, Kenya, Lithuania, Libya, Mongolia, Malta, Maldives, Nigeria, Norway, Peru, Réunion, Togo, Thailand, Tunisia, Trinidad and Tobago 

अरे बाप रे...ये तो पूरी दुनिया ही है....कौन सा देश छूटा है बस ये बता दीजिए....वाकई हैरानी होती है कि दुनिया भर में फैले हैं हिंदी प्रेमी और जाने क्यों हमारे ही देश में हम अपनी राष्ट्रभाषा में बात करते कतराते हैं....खैर आज इस बहस को एक तरफ रखकर हम बढते हैं आगे...लीजिए जिन्हें ढूंढ रहे थे वो अब जाकर मिले हैं....सजीव सारथी जी....सजीव जी कैसा लग रहा है आज आपको ? 

सजीव सारथी  - ४ जुलाई २००८ को मैंने, शैलेश भारतवासी के साथ मिलकर जब आवाज़ की नींव डाली थी तो पहला उद्देश्य ओरिजिनल गीतों और उभरते हुए कलाकारों को एक मंच देना था...धीरे धीरे विज़न बढता गया नए साथी जुड़ते रहे और उन साथियों की क्षमताओं के आधार पर हम नए नए रास्ते खोजते रहे...कब ५ साल गुजर गए पता ही नहीं चला...हिंदी ब्लॉग्गिंग में संगीत से जुड़े लगभग सभी नामी ब्लोग्गर हमारे इस सफर में किसी न किसी रूप में जुड़े रहे, ढेरों पाठकों /श्रोताओं का स्नेह हमें निरंतर अपनी कोशिशें जारी रखने को प्रेरित करता रहा...बिना उनके सहयोग के भला हम क्या कर पाते....RPI के लिए नए नए कार्यक्रम की रूप रेखा बनाने में मुझे भरपूर आनंद और अपनी टीम का जबरदस्त सहयोग मिला. हर शुक्रवार एक नए गीत को दुनिया के सामने लेकर आने में कितना आनंद था ये मुझसे बेहतर कौन जानता है. अन्य कार्यक्रमों में 'ओल्ड इस गोल्ड' मेरा सबसे पसंदीदा रहा. इसे मैंने २० फरवरी २००९ को अपनी स्वर्गवासी नानी के स्मृति दिवस पर उन्हीं को समर्पित कर शुरू किया था, क्योंकि वो भी पुराने गीतों की ही तरह ओल्ड थी और गोल्ड भी. सुजॉय ने इसे ९५० एपिसोड तक बड़े प्यार से सजाया...हम नित नई योजनाएं बनाते....वो बड़े खूबसूरत दिन थे...मुझे याद है जब ये कार्यक्रम शाम ६.३० पर प्रकाशित होता था तो करीब १०० से अधिक श्रोता ठीक उसी समय अपने कंप्यूटर को खोल कर पहेली का जवाब ढूँढने में जुट जाते थे, और हमारे श्रोता देखिये एक मिनट से कम समय में करीब ५-६ सही जवाब सामने होते थे....सुनो कहानी, महफ़िल-ए-ग़ज़ल, पोडकास्ट कवि सम्मलेन, शब्दों में संसार सब ही मेरे बड़े प्रिय कार्यक्रम रहे....समय के अभाव में बहुत कुछ चाह कर भी न कर पाना खलता है....पर फिर भी खुशी है कि जितना हो सकता है हम कर पा रहे हैं....मैं कृष्ण मोहन जी को विशेष धन्येवाद देना चाहूँगा क्योंकि आजकल तो हम पूरी तरह इन्हीं पर बहुत अधिक जिम्मेदारी डाल चुके हैं...खैर इस सफर का हर पल खूबसूरत रहा...मैं तहे दिल से अपनी पूरी टीम और पाठकों/श्रोताओं को धन्यवाद देता हूँ.... 


सजीव जी ने जिक्र किया कृष्णमोहन जी का...लीजिए वो भी आ गए हैं महफ़िल में....और अब केक भी सबसे वरिष्ठ सदस्य होने के कारण उन्हीं के कर कमलों से काटा जायेगा....इससे पहले कि वो डाईस की तरफ बढ़ें....जल्दी से उनकी भी खुशी का इजहार सुन लिया जाए। 


कृष्णमोहन मिश्र - पहले 'आवाज़' और फिर 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' से मैं दिसम्बर 2010 से सम्बद्ध हुआ। मुझ अकिंचन को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संगीत और नाट्य विधाओं की रिपोर्टिंग, समीक्षा और सम्पादन कार्य का लगभग चार दशक का अनुभव तो था ही। सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुँचते ही इन्टरनेट पर चल रही हिन्दी लेखन की गतिविधियों का चस्का लग गया। एक मित्र ने ताना मारा- 'लगता है, अब सींग कटा कर बछड़ा बनने का इरादा है'। अपने आपको एक नई विधा के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करने और मुद्रित माध्यम (प्रिंट मीडिया) की अपेक्षा इन्टरनेट माध्यम की शक्ति को पहचानने में मुझ जाहिल ने लगभग दो वर्ष का समय लगा दिया। अन्ततः दिसम्बर, 2010 में पहले मेरे पुत्रवत मित्र सुजॉय चटर्जी और फिर कवि-लेखक सजीव सारथी ने मुझे 'आवाज़' से जोड़ लिया। मुझसे शास्त्रीय,उपशास्त्रीय और लोक संगीत विधाओ पर लिखवाया। सुजॉय उन दिनों 'ओल्ड इज गोल्' शीर्षक से सप्ताह में पाँच दिन अपडेट होने वाली श्रृंखला सफलतापूर्वक लिख रहे थे। इस स्तम्भ की 800 कड़ियाँ प्रकाशित/प्रसारित हो चुकी हैं, जिसके मुख्य संचालक तो सुजॉय ही रहे, किन्तु इसकी कुछ कड़ियाँ मैंने और हमारे साथी अमित तिवारी ने भी लिखे थे। इसके साथ ही सुजॉय ने जनवरी, 2011 से 'सुर संगम' नामक एक साप्ताहिक श्रृंखला की शुरुआत की थी। इस रविवासरीय स्तम्भ में हमारे एक और साथी, सुमित चक्रवर्ती का योगदान भी रहा। एक वर्ष के बाद हमने इस स्तम्भ का शीर्षक स्वरगोष्ठी कर दिया। वर्तमान में हमारे इस पुनीत अभियान से पुराने साथी अनुराग शर्मा और विश्वदीपक तो जुड़े ही हैं, अमित तिवारी, रश्मिप्रभा, संज्ञा टण्डन आदि प्रतिभावान हस्ताक्षर 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' से जुड़े हुए हैं। पाठकों/श्रोताओं का हमें अगाध स्नेह प्राप्त हो रहा है। आभार सभी मित्रों का,जिन्होने मुझे अभिव्यक्ति का एक मनभावन माध्यम उपलब्ध कराया। 
बिलकुल सही कहा कृष्णमोहन जी ने, अरे वो देखिये सामने मुख्यद्वार से चले आ रहे हैं प्लेबैक इंडिया के एक और महत्वपूर्ण सहयोगी रितेश खरे उर्फ सब्र जबलपुरी साहब....आईये इनसे भी जान लें इनके अनुभवों को...



सब्र जबलपुरी - रेडियो प्लेबैक इंडिया (संक्षिप्त में RPI) से मेरा रिश्ता उस नदी की तरह है जिसका मीठा पानी पथिकों की प्यास बुझाने को हमेशा तत्पर और उपलब्ध रहता है चाहे गीत-संगीत की प्यास हो या कहानियों-पहेलियों की या साहित्य, फ़िल्म, कलाकारों समाज के अनेक पहलुओं की तह तक पहुँचने की जिज्ञासु लालसा. RPI के समर्पित कर्णधारों ने अपनी सुरुचिपूर्ण धाराओं से इसके मीठे जल को कभी कम न होने दिया, बल्कि मुझे यह आश्चर्य हमेशा से रहा है कि ग़ज़ब स्त्रोत और संयोजन है कर्णधारों का जो नित प्रवाह उपलब्ध रखते हैं। सजीव सारथी जी के सरस सहयोग और विनम्रता से मुझे उनकी कई कविताओं को स्वर देने का सौभाग्य मिला, जिसमें से ‘स्पर्श की गर्मी’ नामक कविता को उन्होंने ‘बैकग्राउंड साउंड इफेक्ट्स’ के साथ RPI पर प्रकाशित भी किया। यह मेरे लिए बेहद उत्साह और प्रसन्नता की बात थी। अनुराग शर्मा जी और अमित तिवारी जी के सहयोग और उत्प्रेरण से, महान लेखक श्री निर्मल वर्मा जी की डायरी’ के एक अंश को अपनी आवाज़ में बोलती कहानियां नामक किस्सागोई के खंड में प्रस्तुत करने मिला, जो अपने आप में एक अविस्मर्णीय अनुभव था। मित्र सुजॉय चटर्जी का उल्लेख भी नितांत ज़रूरी है मेरे लिए जिनकी अगुआई में कितने ही सप्ताह ‘सिने पहेलियों’ में जोश-खरोश से हिस्सा लिया, जिससे मुझे सिनेमा से जुड़े अमूल्य ज्ञान का वर्धन हुआ। हर सप्ताह कितने कौशल से वे एक नयी पहेली रचते हैं और RPI के पाठकों को अवसर देते हैं भरपूर मनोरंजन का। एक भाव्नात्मक क्षण वह भी था जिसमें सजीव जी के आदेश और भाई विश्व दीपक के सहयोग से मूर्धन्य साहित्यकार श्री फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ जी की कविता ‘नूना मांझी’ रिकॉर्ड की जो RPI में प्रस्तुत की गयी। बच्चों के लिए स्तम्भ शब्दों की चाक परके अंतर्गत एक ‘बाल-गीत’ भी सजीव जी के उत्प्रेरण से सम्मिलित हुआ हिन्द-युग्म के मंच से चली आवाज़ का वो क़तरा अब RPI के रूप में अपने शैशव कल के 5 वर्ष पूर्ण कर रहा है, पर पूत के पाँव पालने में ब-ख़ूब नज़र आ रहे हैं। इस मीठी नदी में ज्ञान, मनोरंजन, साहित्य, संगीत आदि विषयों का प्रवाह यूँ ही बना रहे। संभावनाएं निश्चित ही पूर्णता से परिणित होंगी क्योंकि ‘होनहार बिरवान के होते चीकने पात’। शुभकामनायें और गर्वानुभूति कि इस नदी की मैं भी एक धारा बना रहूँ और सभी पाठकों की तरह छक के इसका मीठा जल भी पीता रहूँ।

RPI के नादघोष के हवाले से, बक़ौल बशीर बद्र साहब,

हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है,

जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा

वाह क्या शायराना अंदाज़ में रितेश RPI की पूरी कहानी कह गए...चलिए दोस्तों, अब इस अभासिया पार्टी को जारी रहने देते हैं, और हम आपसे विदा लेते हैं, पर हाँ ये तो थे विचार RPI के सूत्रधारों के, अब बारी आप पाठकों /श्रोताओं की है. तो जल्दी से भी अपनी टिप्पणियों के माध्यम से हमें बताएं कि इन ५ सालों में आपका और RPI का मेल कैसा रहा...अच्छा -बुरा कुछ भी....लेकिन हम बेताब हैं आपसे कुछ सुनने को....बतायेंगें न ?

Comments

Reetesh Khare said…
भई विश्वदीपक...लुत्फ़ आ गया आपकी लेखनी तो जनाब माशाल्लाह से ग़जब कहती है..

मसलन...
हमने चिट्ठे का रेडियो से निकाह करा दिया....
या
आप न होते तो ख्वाबों को सुबह का शीशा जाने कौन दिखाता....

हम तो आपके भी बाद के जुड़े अदने से भी अदने मुरीद हैं इस जालस्थान के...पर आपसा योगदान बहुत मायने रखता है..

शुभकामनायें आपको भी कि ये जुड़ाव फिर परवान चढ़े और आपका रंग नित चढ़ता ही रहे..
ओल्ड इस गोल्ड वाकई गोल्ड ही था ....
ये साल यूँ ही बढ़ते रहे ...सभी को बहुत बधाई !
itniiiiiiiiiiii sari bdhai aur shubhkamnaye. aur mai bhi aa gaiiiiiii ha ha ha yahaan sbse ke bare me pdhkr aisa lga jaise sb mere samne baithe hain aur main sbke bare me bss sun rhi hun jbki inme se koi bhi ere liye ajnbi nhi.
5 saal kya hm sbhi iska 50vaa saal bhi manyenge dekh lena ha ha ha
Pankaj Mukesh said…
Poore RP team ko meri taraf se bahut-2 badhai!!!
AVADH said…
बहुत बहुत बधाई
अवध लाल
वाह क्‍या बात है. कि‍तने ही लोगों के अनुभव पढ़ने को मि‍ले. मुझे वे दि‍न याद आए जब युववाणी दि‍ल्‍ली पर एक कार्यक्रम के हमें 10 रूपये का चैक मि‍लता था. उस समय, कुछ दूसरे पोस्‍टग्रेजुएट लोग थे जि‍न्‍हें 20 रूपये मि‍लते थे. उनसे रश्‍क होता था ? 2-3 महीने में एक से ज़्यादा प्रोग्राम मि‍लने का तो सवाल ही नहीं उठता था. ब्रॉडकास्‍टिंग नशा है :-) नशा अधूरा ही रह जाता था. अपनी रि‍कॉर्ड की हुई आवाज सुनने का ज़रि‍या नहीं होता था. प्रासरण स्‍टीरि‍यो नहीं होते थे, बस स्‍टूडि‍यो फ़ीट सुन कर ही real ब्रॉडकास्‍टिंग का मज़ा समझ आता था.

आज मोबाइल तक में आवाज़ रि‍कार्ड कर के सुनी जा सकती है. कि‍तने ही प्राइवेट टी.वी. और रि‍डि‍यो चैनल हैं, वेब पर पॉडकास्‍टिंग की दुनि‍या है. बहुत अच्‍छा लगता है.
तब मैं ब्लॉग और नेट की दुनिया में नई नई आई थी . जाने कैसे 'आवाज़' तक पहुँच गई . प्यारे प्यारे मीठे मीठे गाने सुनने को मिले। रोज आने लगी . प्रश्नोत्तरी में जवाब देने में मजा आने लगा। रोज .....नियमित आती . सबसे पहले उत्तर देने का जूनून सा सवार था.

धीरे धीरे एक भावनात्मक, आत्मीय लगाव हो गया इससे भी और यहाँ के लोगों से भी। अवध भैया,राजीव भाटिया भैया,पाबला जी ,हिमांशु मोहन जी ,दिलीप कवठेकर जी,रश्मिप्रभा जी ,सुजोय सजीव जी और अपने लाडले छोटे भाई अमित तिवारी जी से यहीं मिलना हुआ था मेरा।

राजीव भाटिया जी जितना प्यारा भाई मुझे यहीं मिला.

पाबला भैया कब मेरा 'वीरा' बनकर हमारे परिवार और जीवन का हिस्सा बन गये पता ही नही चला .

'आवाज़' मेरे लिए एक साईट या ब्लॉग मात्र नही रहा। यहाँ आकर ही मैंने शास्त्रीय संगीत में डूबना सीखा।
अपनी अपनी सर्विस के बाद भी समय निकालकर आप लोग कितनी मेहनत करते हैं इसके लिए ! संगीत की साधना करते हैं।
आप लोगों को या 'रेडिओ प्लेबेक इण्डिया' को कैसे भूल सकती हूँ भला! मेरे दिल (हार्ट) में लगे 'स्टंट' की तरह हैं आप मेरे लिए ....जो .....मेरे साथ ही जायेगा। आज भी बहुsssत प्यार करती हूँ आप लोगों को। करती रहूंगी। क्या करूं??? ऐसीइच हूँ मैं तो हा हा हा पांच साल पूरे हुए .....पचास भी होंगे। मेरी और से ढेर सारी बधाईयाँ और प्यार

आपकी अपनी 'वो ही '

इंदु
Unknown said…
काजल भाई आप भी हमारे पॉडकास्टर बन सकते हैं, विधि बहुत आसान है, कहें तो आपको सिखा सकता हूँ, और इंदु जी क्या कहूँ....आपकी टिपण्णी पढ़ लो तो बस लगता है सारी मेहनत सफल हो गयी....आभार आभार आभार
pcpatnaik said…
WAISE TO HARA SAMAY MUSIC AADAMI SUNATA HAI...MAGAR USASE RELATED BAHUT SAARI ALAGA-2 PEHALOO JUDI RAHATI HAI..JAISE RAAGA...GAYAK AUR GEETAKAARA KE KUCHHA ASMARANIYA GAATHAA...ADI KE VISAYA MEIN CHARCHA KHAASHA KARA BAHUT BHAATA HAI...THNX...Sangya ji...

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सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट