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‘बूझ मेरा क्या नाम रे...’ तीसरा भाग


पार्श्वगायिका शमशाद बेगम को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की श्रद्धांजलि

‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना...' 



फिल्म संगीत के सुनहरे दौर की गायिकाओं में शमशाद बेगम का 23 अप्रैल को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। खनकती आवाज़ की धनी इस गायिका ने 1941 की फिल्म खजांची से हिन्दी फिल्मों के पार्श्वगायन क्षेत्र में अपनी आमद दर्ज कराई थी। आत्मप्रचार से कोसों दूर रहने वाली इस गायिका को श्रद्धांजलि-स्वरूप हम अपने अभिलेखागार से अगस्त 2011 में अपने साथी सुजॉय चटर्जी द्वारा प्रस्तुत दस कड़ियों की लघु श्रृंखला 'बूझ मेरा क्या नाम रे…' के सम्पादित अंश का तीसरा भाग प्रस्तुत कर रहे हैं। 


‘ओल्ड इज़ गोल्ड' में शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ इन दिनों गूँज रही है, उन्हीं को समर्पित लघु श्रृंखला 'बूझ मेरा क्या नाम रे...' में। आज हम जिस संगीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्होंने भी शमशाद बेगम को एक से एक लाजवाब गीत दिए और उनकी आवाज़ को 'टेम्पल बेल वॉयस' की उपाधि देने वाले ये संगीतकार थे, ओ.पी. नैयर। नैयर साहब के अनुसार दो गायिकाएँ हैं जिनकी आवाज़ ओरिजिनल हैं, वे हैं गीता दत्त और शमशाद बेगम। दोस्तों, विविध भारती पर नैयर साहब का एक लम्बा साक्षात्कार प्रसारित हुआ था, ‘दास्तान-ए-नैयर’ शीर्षक से। उस साक्षात्कार में कई बार शमशाद जी का ज़िक्र छिड़ा था। आज और अगली कड़ी में हम उसी साक्षात्कार के चुने हुए अंशों को पेश करेंगे जिनमें नैयर साहब शमशाद जी के बारे में बताते हैं। जब उनसे पूछा गया कि वो अपना पहला पॉपुलर गीत किसे मानते हैं, तो उनका जवाब था- “फिल्म ‘आरपार’ का गाना ‘कभी आर कभी पार लागा तीर-ए-नज़र...’, जो शमशाद बेगम का पहला सुपरहिट गाना था:। शमशाद बेगम के गाये गीतों में नैयर साहब डबल बेस का ख़ूब इस्तेमाल किया करते थे, इस बारे में भी जानिये उन्हीं से- “मैं जब, जैसे चाहता था, एक दिन मुझे एक रेकॉर्डिस्ट नें कम्प्लिमेण्ट दिया कि नैयर साहब, आप रेकॉर्डिंग् करवाना जानते हो, बाकी किसी को ये पता नहीं। आपने सुना “जरा हट के ज़रा बच के, ये है बॉम्बे मेरी जान...” और उसमें, शमशाद जी के गानों में “लेके पहला पहला प्यार...”, “कभी आर कभी पार...”, “बूझ मेरा क्या नाम रे...” आदि। इन सभी गीतों में डबल बेस का खेल है"।

नैयर साहब के इंटरव्यूज़ में एक कॉमन सवाल जो होता था, वह था लता से न गवाने का कारण। ‘दास्तान-ए-नैया’ में जब यह बात चली कि मदन मोहन के कम्पोज़िशन्स को कामयाब बनाने के लिए लता जी का बहुत बड़ा हाथ है, उस पर नैयर साहब नें कहा, "लता मंगेशकर का बहुत बड़ा हाथ था, और हम हैं वो कम्पोज़र हैं जिसने लता मंगेशकर की आवाज़ पसन्द ही नहीं की। वो गायिका नम्बर एक हैं, पसन्द क्यों नहीं की, क्योंकि हमारे संगीत को सूट नहीं करती। 'थिन थ्रेड लाइक वॉयस' हैं वो। मुझे चाहिये थी सेन्सुअस, फ़ुल ऑफ़ ब्रेथ, जैसे गीता दत्त, जैसे शमशाद बेगम। टेम्पल बेल्स की तरह वॉयस है उसकी। शमशाद जी की आवाज़ इतनी ऑरिजिनल है कि बस कमाल है।"

तो आइए दोस्तों, नैयर साहब और शमशाद जी के सुरीले संगम से उत्पन्न तमाम गीतों में से आज हम एक गीत सुनते हैं। 1956 की फ़िल्म सी.आई.डी. का यह गीत है- “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...”। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल हैं और वहीदा रहमान पर फिल्माया गया यह सदाबहार नग़मा। 


फिल्म सी.आई.डी.: “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...” : संगीत – ओ.पी. नैयर



‘रात रंगीली गाये रे, मोसे रहा न जाए रे, मैं क्या करूँ...'


‘ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नए अंक में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तम्भ में जारी है फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम के गाये गीतों से सुसज्जित लघु श्रृंखला 'बूझ मेरा क्या नाम रे...'। पिछले अंक में हमने शमशाद जी का गाया, ओ.पी. नैयर का स्वरबद्ध किया, फिल्म सी.आई.डी. एक गीत सुनवाया था। नैयर साहब के साथ शमशाद जी की पारी इतनी सफल रही कि केवल एक गीत सुनवाकर हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए आज के अंक में भी नैयर-शमशाद जोड़ी की धूम रहेगी। ‘दास्तान-ए-नैयर' सीरीज में जब नैयर साहब से पूछा गया-

कमल शर्मा : शमशाद जी से आप किस तरह मिले?

ओ.पी. नैयर : शमशाद जी को मैं लाहौर से ही जानता हूँ, रेडियो से। वो मुझसे 4-5 साल बड़ी हैं। मैं तो बच्चा हूँ उनके आगे। उनको बहुत पहले से सुना, पेशावर में, पश्तो गाने गाया करती थीं। फिर रेडियो लाहौर में आ गईं। बड़ी ख़ुलूस, बहुत प्यार करने वाली ईमोशनल औरत है।

कमल शर्मा : क्या खनकती आवाज़ है। ओ.पी. नैयर : टेम्पल वायस साहब, उनका नाम ही टेम्पल वॉयस है।

यूनुस खान : नैयर साहब, आपके कई गाने शमशाद बेगम नें गाये हैं, और आपने कहा है कि शमशाद बेगम आपको ख़ास हिन्दुस्तानी धरती से जुड़ा स्वर लगता है।

ओ.पी. नैयर : उसकी आवाज़ का नाम है टेम्पल बेल, जब मन्दिर में घंटियाँ बजती हैं, गिरजाघर में घंटे बजते हैं, इस तरह की खनक है उनकी आवाज़ में, जो किसी फ़ीमेल आर्टिस्ट में नहीं है और न कभी होगी।

यूनुस खान : आपके कम्पोज़ किये और शमशाद बेगम के गाये हुए जो आपके गीत हैं, उनके बारे में हमको बताइए, कि शमशाद बेगम की क्या रेंज थी?

ओ.पी. नैयर : उनकी रेंज कम नहीं थी। ऑरिजिनल वॉयसेस जो हैं, वो शमशाद और गीता ही हैं। आशा की कई क़िस्म की आवाज़ें आपको आज भी मिलेंगी, लता जी की आवाज़ें आपको आज भी मिलेंगी, लेकिन गीता और शमशाद की आवाज़ कहीं नहीं मिलेगी। यह हक़ीक़त है। देखिये पहले तो मैं गीता जी, शमशाद जी, इनसे काफ़ी मैं गानें लेता रहा, और बाद में आशाबाई आ गईं हमारी ज़िन्दगी में, तो वो हमसे भी मोहब्बत करने लगीं और हमारे संगीत से भी।

और इस तरह से दोस्तों, आशा भोसले के आ जाने के बाद गीता दत्त और शमशाद बेगम, दोनों के लिए नैयर साहब ने अपने दरवाज़े बन्द कर दिए। लेकिन तब तक ये दोनों गायिका उनके लिए इतने गानें गा चुकी थी कि जिनकी फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है। उसी लम्बी फ़ेहरिस्त से आज प्रस्तुत है 1956 की फिल्म 'नया अंदाज़' से ‘रात रंगीली गाये रे, मोसे रहा न जाए रे, मैं क्या करूँ...’, जिसे मीना कुमारी पर फ़िल्माया गया था। जाँनिसार अख़्तर साहब का लिखा हुआ गीत है, और खनकती आवाज़ शमशाद बेगम की। मीना कुमारी, जो बाद में ट्रैजेडी क्वीन के रूप में जानी गईं, इस फ़िल्म में उनका किरदार एक सामान्य लड़की का था। आइए आपको सुनवाते हैं, यह गीत और इसी गीत के साथ इस विशेष श्रद्धांजलि श्रृंखला को यहीं विराम देने की हमे अनुमति दीजिए।


फिल्म नया अंदाज़ : ‘रात रंगीली गाये रे, मोसे रहा न जाए रे, मैं क्या करूँ...’ : संगीत – ओ.पी. नैयर



आपको हमारा यह विशेष श्रद्धांजलि अंक कैसा लगा, हमें अवश्य लिखिए। पार्श्वगायिका शमशाद बेगम को श्रद्धांजलि अर्पित करती इस श्रृंखला के बारे में हमें आपके सुझावों और विचारों की प्रतीक्षा रहेगी। आप हमें radioplaybackindia@live.com पर अपना सन्देश भेज सकते हैं। 


शोध व आलेख : सुजॉय चटर्जी

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र

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