साप्ताहिक स्तम्भ स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ मैं, कृष्णमोहन
मिश्र अपने संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं के बीच एक बार पुनः उपस्थित हूँ।
आज के अंक में हम संगीत की एक ऐसी शैली पर चर्चा करेंगे जो लोक संगीत की
विधा में उतनी ही लोकप्रिय है, जितनी उप-शास्त्रीय में। ऋतु के अनुकूल इस
गायकी को हम चैती के नाम से सम्बोधित करते हैं। होली के अगले दिन से भारतीय
पंचांग का चैत्र मास और एक पखवारे के बाद पंचांग का नया वर्ष आरम्भ हो
जाता है। इस अवसर पर और इस ऋतु विशेष में गाँव की चौपालों से लेकर
शास्त्रीय मंचों पर चैती गीतों का गायन बेहद सुखदायी होता है।
परम्परागत भारतीय संगीत शैलियों को आज़ादी के बाद, जाने-माने संगीतविद् ठाकुर जयदेव सिंह ने चार श्रेणी- शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय, सुगम और लोक संगीत के रूप में वर्गीकृत किया था। इन विधाओं के अलग-अलग रंग हैं और इन्हें पसन्द करने वालों के अलग-अलग वर्ग भी हैं। लोक संगीत, वह चाहे किसी भी क्षेत्र का हो, उनमें ऋतु के अनुकूल गीतों का समृद्ध खज़ाना होता है। लोक संगीत की एक ऐसी ही विधा है, चैती। उत्तर भारत के पूरे ब्रज, बुन्देलखण्ड, अवधी, भोजपुरी और मिथिला क्षेत्र के साथ पूरे मध्यभारत और छत्तीसगढ़ क्षेत्रो की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली चैती है। भारतीय या हिन्दू कैलेण्डर के चैत्र मास से गाँव के चौपालों पर महफिल सजती है और एक विशेष परम्परागत धुन में श्रृंगार और भक्तिरस में पगे 'चैती' गीतों का देर रात तक गायन जारी रहता है। जब महिला या पुरुष इसे एकल रूप में गाते हैं तो इसे 'चैती' कहा जाता है परन्तु जब समूह या दल बना कर गाया जाता है तो इसे 'चैता' कहा जाता है। इस गायकी का एक और प्रकार है जिसे 'घाटो' कहते हैं। 'घाटो' की धुन 'चैती' से थोड़ी बदल जाती है। इसकी उठान बहुत ऊँची होती है और केवल पुरुष वर्ग ही समूह में गाते हैं। कभी-कभी गायकों को दो दलों में बाँट कर सवाल-जवाब या प्रतियोगिता के रूप में भी इन गीतों को प्रस्तुत किया जाता है, जिसे ‘चैता दंगल' कहा जाता है। आइए, चैती गीतों की शुरुआत सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी गिरिजा देवी की गायी एक चर्चित चैती से करते हैं।
चैती गीत : ‘चैत मासे चुनरी रंगइबे हो रामा...’ : विदुषी गिरिजा देवी
ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में गाये जाने वाले 'चैती' गीतों का विषय मुख्यतः भक्ति और श्रृंगार प्रधान होता है। इसी ऋतु में चूँकि भारतीय नया वर्ष भी शुरू होता है और नई फसल के घर आने का भी यही समय होता है अतः इसका उल्लास 'चैती' में भी प्रकट होता है। चैत्र मास नवरात्र के प्रथम दिवस से शुरू होता है और नौमी के दिन राम-जन्मोत्सव का पर्व भी मनाया जाता है, अतः चैती गीतों में राम-जन्म के प्रसंग भी होते हैं। इसके आलावा जिस नायिका का पति इस मधुमास में परदेस में है, उसकी विरह व्यथा का चित्रण भी इन गीतों में होता है। लोकशैली की 'चैती' के कुछ लोकप्रिय गीत हैं- 'जन्में अवध रघुराई हो रामा, चैतहि मासे...’ (प्रोफ़ेसर कमला श्रीवास्तव की रचना), 'हथवा धरत कुम्हला गइलें रामा, जूही के फुलवा ...' (पारम्परिक श्रृंगार गीत), ‘आयल चईत उतपतिया हो रामा, भेजें न पतिया...’ (पारम्परिक विरह गीत)। कुछ चैती गीतों का साहित्य पक्ष इतना सबल होता है कि श्रोता संगीत और साहित्य के सम्मोहन में बँध कर रह जाता है। पटना की लोकसंगीत विदुषी विंध्यवासिनी देवी की एक चैती में अलंकारों का प्रयोग देखें- 'चाँदनी चितवा चुरावे हो रामा, चईत के रतिया...’। इस गीत की अगली पंक्ति का श्रृंगार पक्ष तो अनूठा है- 'मधु ऋतु मधुर-मधुर रस घोले, मधुर पवन अलसावे हो रामा...’।
चैती गीतों से सुसज्जित आज की इस गोष्ठी में अब हम आपको एक प्राचीन चैती गीत सुनवाते हैं। इस चैती गीत की गायिका पिछली शताब्दी की चर्चित गायिका अच्छन बाई हैं। भारत में ग्रामोफोन कम्पनी ने पहली बार गीतों की रिकार्डिंग 1902 में शुरू की थी। गायिका गौहर जान की आवाज़ में पहला रिकार्ड जारी हुआ था। ग्रामोफोन कम्पनी ने 1902 से 1910 के बीच लगभग 500 कलाकारों को रिकार्ड किया था। इन्हीं में एक गायिका थीं, अच्छन बाई। अब जो चैती गीत आप सुनेंगे, वह अच्छन बाई की आवाज़ में उसी अवधि में बने रिकार्ड से लिया हुआ है।
चैती गीत : 'अरे फूलेला फूल लौंगवा कौने वन मा...' : अच्छन बाई
यह मान्यता है की प्रकृतिजनित लोक कलाएँ नैसर्गिक रूप से पहले उपजीं, परम्परागत रूप में उनका क्रमिक विकास हुआ और अपनी उच्चतम गुणबत्ता के कारण शास्त्रीय रूप में ढल गईं। प्रदर्शनकारी कलाओं पर भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र' नामक ग्रन्थ पंचम वेद माना जाता है। नाट्यशास्त्र प्रथम भाग, पंचम अध्याय के श्लोक 57 में ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि लोक जीवन में उपस्थित तत्वों को नियमों में बाँध कर ही शास्त्र प्रवर्तित होता है। श्लोक का अर्थ है- 'इस चर-अचर, दृश्य और अदृश्य जगत की जो विधाएँ, शिल्प, गतियाँ और चेष्टाएँ हैं, वह सब शास्त्र-रचना के मूल तत्त्व हैं'। तात्पर्य यह कि शास्त्रीय कलाओं की उत्पत्ति लोक कलाओं से ही हुई है। चैती गीत के लोक स्वरुप में ताल पक्ष के चुम्बकीय गुण के कारण ही उप-शास्त्रीय संगीत में यह स्थान पा सका। लोक परम्परा में चैती 14 मात्रा के चाँचर ताल में गायी जाती है, जिसके बीच-बीच में कहरवा ताल का प्रयोग भी होता है। पूरब अंग की बोल-बनाव की ठुमरी भी 14 मात्रा के दीपचन्दी ताल में निबद्ध होती है और गीत के अन्तिम हिस्से में कहरवा की लग्गी का प्रयोग होता है। सम्भवतः चैती के इस गुण ने ही उप-शास्त्रीय गायकों को आकर्षित किया होगा। लोक जब शास्त्रीय स्वरुप ग्रहण करता है तो उसमें गुणात्मक वृद्धि होती है। चैती गीत इसका एक बेहतर उदाहरण है। चैती के लोक और उपशास्त्रीय स्वरुप का समग्र अनुभव करने के लिए हम आपके सम्मुख एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें आपको लोक और शास्त्रीय, दोनों स्वरूप परिलक्षित होंगे। आइए सुप्रसिद्ध गायिका निर्मला देवी के स्वरों में सुनते हैं एक श्रृंगार प्रधान चैती। इसमें चैती का लोक स्वरुप, राग 'यमनी बिलावल' के मादक स्वर, दीपचन्दी और कहरवा ताल का जादू तथा निर्मला देवी की भावपूर्ण आवाज़ आपको परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में समर्थ होंगे। निर्मला देवी आज के सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता गोविन्दा की माँ और अपने समय की जानी-मानी गायिका थीं।
चैती गीत : ‘यही ठइयाँ मोतिया हेराय गइली रामा...’ : निर्मला देवी
चैती की एक और विशेषता भी उल्लेखनीय है। यदि चैती गीत में प्रयोग किये गए स्वरों और राग 'यमनी बिलावल' के स्वरों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो आपको इसमें समानता मिलेगी। अनेक प्राचीन चैती में 'बिलावल' के स्वर मिलते हैं किन्तु आजकल अधिकतर चैती में 'तीव्र मध्यम' का प्रयोग होने से राग 'यमनी बिलावल' का अनुभव होता है। यह उदाहरण भरतमुनि के इस कथन की पुष्टि करता है कि लोक कलाओं कि बुनियाद पर शास्त्रीय कलाओं का भव्य महल खड़ा है। और अब अन्त में कुछ चर्चा फिल्म संगीत में चैती गीतों के प्रयोग की करते हैं। कुछ फिल्मों में चैती गीतों और धुन का प्रयोग किया गया है। 1964 में प्रदर्शित फिल्म 'गोदान' में पण्डित रविशंकर के संगीत निर्देशन में मुकेश ने एक चैती गीत- ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा...’ गाया है। यह लोक शैली में गाया हुआ गीत है। आप यह गीत सुनिए और मुझे इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
फिल्म गोदान : ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा...’ : संगीत – पं. रविशंकर : गायक – मुकेश
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 116वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक रागमाला गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के 120वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह गीत किस राग पर आधारित है?
2 – यह गीत किस ताल में निबद्ध किया गया है?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 118वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से या swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ के 114 वें अंक में हमने आपको 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘उमराव जान’ से लिये गए रागमाला गीत का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भीमपलासी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- तीनताल। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर बैंगलुरु के पंकज मुकेश, जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’
के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला
गीत के संग’ अगले अंक से पुनः जारी होगा। अगले अंक का रागमाला गीत चार
अलग-अलग राग में निबद्ध अन्तरॉ वाला गीत है। अगले अंक में हम इसी रागमाला
गीत पर चर्चा करेंगे। आप भी हमारे आगामी अंकों के लिए भारतीय शास्त्रीय
संगीत से जुड़े नये विषयों, रागों और अपनी प्रिय रचनाओं की फरमाइश कर सकते
हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों को पूरा सम्मान देंगे। अगले अंक में
रविवार को प्रातः 9-30 ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सभी संगीत-रसिकों की
हमें प्रतीक्षा रहेगी।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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चैत्रादि नव-संवत्सर पर हार्दिक शुभकामनायें!