प्लेबैक वाणी -40 - संगीत समीक्षा - अमन की आशा
दोस्तों, आज हम चर्चा करेंगें एक और एल्बम की, ‘अमन की आशा’ के पहले भाग को श्रोताओं ने हाथों हाथ लिया तो इस सफलता ने टाईम्स म्यूजिक को प्रेरित किया कि इस अनूठे प्रयास को एक कदम और आगे बढ़ाया जाए. आज के इस दौर में जब फ़िल्मी संगीत में नयेपन का अभाव पूरी तरह हावी है, अमन की आशा सरीखा कोई एल्बम संगीत प्रेमियों की प्यास को कुछ हद तक तृप्त करने कितना कामियाब है आईये करें एक पड़ताल.
एल्बम में इतने बड़े और नामी कलाकारों की पूरी फ़ौज मौजूद है कि पहले किसका जिक्र
करें यही तय नहीं हो पाता, बहरहाल शुरुआत करते हैं आबिदा परवीन की रूहानी सदा से. गुलज़ार
साहब फरमाते हैं कि ये वो आवाज़ है जो सीधे खुदा से बात करती है, वाकई उनके तूने
दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना...को सुनकर इस बात का यकीन हो ही जाता है. इस कव्वाली
को जब आबिदा मौला की सदा से उठाती है तभी से श्रोताओं को अपने साथ लिए चलती
है और होश वालों की दुनिया से दूर हम एक ऐसे नशीले से माहौल में पहुँच जाते हैं जहाँ
ये आवाज़ हमें सीधे मुर्शिद से जोड़ देती है....बहतरीन...बहतरीन...आबिदा की आवाज़ का जादू
इस एल्बम में आप तीन बार और सुन सकते हैं प्रीतम मत परदेस जा और बुल्ले नुं
सम्झावां भी उतने ही असरकारक हैं, जब आवाज़ ही ऐसी हो कोई क्या करे, पर तूने
दीवाना बनाया की बात तो कुछ और ही है.
चलिए अब बात राहत साहब की करें. फ़िल्मी गीतों में बेशक बेहद लोकप्रिय है इन
दिनों पर जब एस तरह की एल्बम के लिए वो तान खींचते हैं तो यकीं मानिये उनकी आवाज़ की
कशिश कई गुना बढ़ जाती है. वो नुसरत साहब के नक़्शे कदम पर चलते सानु एक पल चैन न
आवे गाते हैं तो वहीँ मैं तैनू समझावा की में तो जैसे वो कहर ढा देते हैं.
इस गीत में इतना ठहराव है कि आप आँखें मूँद कर सुनते जाईये और गीत खत्म होते होते आपकी
पलकें भी नम हो उठेगीं. यही असर है इस बेमिसाल गीत का.
तीन दिग्गज अपनी आवाज़ का हुस्न बखेर कर मौहोल को सुर गुलज़ार कर देते हैं, तीनों
के मूड अलग अलग हैं पर हर अंदाज़ अपने आप में दिलकश दिलनशीं. नुसरत साहब की कव्वाली
अली द मलंग झूमने को मजबूर कर देगा तो अब के हम बिछड़े में मेहदी हसन
साहब, एहमद फ़राज़ के शब्दों में जान फूंकते मिलते हैं, तो वहीँ गुलाम अली साहब दिल
में एक लहर सी उठी है अभी में अपनी चिर परिचित मुस्कान होंठों पर लिए सुनने वालों
के दिलों की लहरों में हलचल मचाते सुनाई देते हैं.
अत्ता उल्लाह खान साहब की आवाज़ इस एल्बम में एक सुखद आश्चर्य है, जिस तरह मुकेश
की आवाज़ में शब्दों में छुपा दर्द और गहराई से उभर कर आता है उसी तरह अत्ता उल्लाह
की आवाज़ में छुपी दर्द की टीस को श्रोता शिद्दत से महसूस कर पाते हैं ये कैसा हम
पे उमर इश्क का जूनून है....
चलिए अब बात करें भारतीय फनकारों की. छाप तिलक का पारंपरिक अंदाज़ पूरी
तरह से नदारद मिलता है कविता सेठ के गाये संस्करण में, मुझे तो मज़ा नहीं आया. पर इस
कमी को हरिहरण साहब पूरी तरह से पूरी करते नज़र आते हैं. जब भी मैं एक आधुनिक
भजन है जिसमें सुन्दर शुद्ध हिंदी के शब्दों में कवि ने सुन्दर चित्र रचा है और हरी
की आवाज़ ने गीत की सुंदरता को बरकरार रखते हुए भरपूर न्याय किया है.
संगीत समीक्षा - सजीव सारथी
आवाज़ - अमित तिवारी
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संगीत समीक्षा - अमन की आशा
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