स्वरगोष्ठी – 118 में आज
यूँ बनी पहली भोजपुरी फिल्म- ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’
संगीत-प्रेमियों की साप्ताहिक महफिल ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नये अंक के साथ
मैं कृष्णमोहन मिश्र पुनः उपस्थित हूँ। भारतीय सिनेमा के इतिहास में 4
अप्रैल, 1963 की तिथि इसलिए बेहद महत्त्वपूर्ण है कि इस दिन पहली भोजपुरी
फिल्म ‘गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो’ का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन वाराणसी
के प्रकाश सिनेमाघर में हुआ था। इस तिथि के अनुसार भोजपुरी सिनेमा प्रदर्शन
की आधी शताब्दी पूर्ण कर चुका है। इस अवसर पर हम इस फिल्म के निर्माण से
जुड़े कुछ ऐतिहासिक तथ्यों और रोचक प्रसंगों की चर्चा इस विशेष अंक में कर
रहे हैं। आज का यह अंक प्रस्तुत कर रहे हैं, युवा फ़िल्म पत्रकार, शोधार्थी,
स्वतंत्र डॉक्यूमेंट्री व लघु फिल्मकार तथा पटना स्थित सिने सोसाइटी के
मीडिया प्रबन्धक, रविराज पटेल।
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रविराज पटेल |
यह प्रबल एवं प्रमाणित अवधारणा है कि सिनेमा समाज का आईना होता है। इस आईने में और भी स्पष्ट प्रतिछाया बने, इसके लिए एक सहज सम्प्रेषणशील भाषा की आवश्यकता समझी जाती है। एक ऐसी भाषा जिसमें हर दर्शक अपनी सोंधी माटी की महक आसानी से महसूस कर उस चित्र में मिश्रित हो सके। भारतीय सिनेमा पाँच दशक का स्वर्णिम सफर तय चुका था। इस अवधि तक उत्तर-पूर्व की लोकप्रिय भाषा भोजपुरी, सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम तक अपनी पहुँच नहीं बना पाई थी। लेकिन इसकी कल्पना उस समय से होती रही, जब हिन्दी सिनेमा किशोरावस्था से निकल कर युवावस्था में प्रवेश ही कर रहा था। ऐतिहासिक तथ्यों को माने तो भोजपुरी सिनेमा का खयाल सबसे पहले जद्दनबाई (मशहूर अदाकारा नरगिस की माँ) के जहन में आया था। इस कड़ी में प्रख्यात अभिनेता कन्हैयालाल का भी नाम आता है। कन्हैयालाल बनारस से थे तथा बम्बई फिल्म उद्योग में प्रतिष्ठित एवं विलक्षण कलाकार के रूप में उनकी पहचान थी। लेकिन दोनों की कसक अधूरी रह गई। कारण थी, इनकी निजी सीमाएँ और उम्रगत विवशताएँ। सन् 1950 के उत्तरार्द्ध में बम्बई में एक फिल्म पुरस्कार समारोह आयोजित हुआ था। इस समारोह में बतौर मुख्यअतिथि गणतंत्र भारत के तत्कालीन प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद उपस्थित हुए थे। इसी कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था- ‘मेरी मातृभाषा भोजपुरी है। हालाँकि साहित्यिक दृष्टि से उतनी समृद्ध तो नहीं लेकिन सांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण बहुत ही प्यारी भाषा है। अगर आप फिल्मकारों की पहल इस ओर भी हो, तो सबसे ज्यादा खुशी मुझे होगी’। उनका यह विचार सुन कर उपस्थित कई फिल्मकारों में सुगबुगाहट तो हुई, किन्तु सबसे अधिक उद्वेलित जो हुए, वे थे भोजपुरी माटी के खाँटी लाल, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर निवासी एवं चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन। नज़ीर साहब उन्हें सुन कर बेहद उत्प्रेरित हुए थे। नतीजतन, उसी सभा में राजेन्द्र बाबू से मिल कर उन्होंने यह आश्वस्त किया कि समझिए हम इस दिशा में प्रयत्नशील हो गए हैं। नजीर साहब के मन में पहले से ही भोजपुरी को लेकर कुछ बातें चल रही थी। वे इसी बात को ध्यान में रख कर एक कहानी पर काम भी कर रहे थे। खैर, समारोह में उन्हें सुन कर राजेंद्र बाबू ने नजीर साहब को अपनी शुभकामनाएँ दी।
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नजीर हुसैन |
नजीर हुसैन एक चरित्र अभिनेता के साथ-साथ ख्यातिलब्ध निर्देशक विमल रॉय के मुख्य सहायक एवं ए.आर. कारदार के साथ फिल्मिस्तान में बतौर लेखक भी सम्बद्ध थे। ग्रामीण पृष्ठभूमि में पले-बढे होने के कारण ग्राम्यबोध की कूट उनके रगों में थी। अपने इसी बोध से सुन्दर, सोंधी साँचे में एक ऐसी कहानी को आकार दिया, जिसे सुनते ही भोजपुरी परिवेश में युक्त विवश परिस्थितियों, समस्याओं, वेदनाओं एवं तपिश की जीती-जागती तस्वीर मालूम पड़ती थी। इस पर पटकथा एवं संवाद लिख कर कमर कसा और निकल पड़े निर्माता के तलाश में। लेकिन भोजपुरी भाषा में फिल्म बनाने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। इस खोज में अभिनेता असीम कुमार का भी सम्मिलित प्रयास जारी था। विमल रॉय की फिल्मों में एक साथ काम करने एवं बनारस का होने के नाते दोनों में गहन दोस्ती थी। यही वजह थी कि फिल्म में मुख्य अभिनेता असीम कुमार ही होंगे, दोनों में यह अटल वादा उसी समय हो गया था। वर्षों बीत गए लेकिन कोई भी निर्माता भोजपुरी में नई लीक गढ़ने की हिम्मत न जुटा सका। निर्देशक विमल रॉय को यह कहानी बेहद पसन्द थी। लेकिन उन्होंने भी इसे भोजपुरी में न बना कर हिन्दी में बनाने की पेशकश की, परन्तु धैर्यवान और अपने भाषा-प्रेम में विवश नजीर हुसैन इस सम्मानजनक प्रस्ताव की क़द्र करते हुए उनके प्रस्ताव पर असहमति जता दी। लगातार भाषा से समझौता कर लेने एवं नकारात्मक सुझाव के वावजूद अपना हौसला बुलन्द रखा। कभी-कभी नजीर साहब कहते थे-
‘इ फिलिमिया चाहे जहिया बनी, बाकि बनी त भोजपुरिये में...’।
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फिल्म की नायिका कुमकुम |
एक दिन अचानक नजीर हुसैन से मिलने एक ऐसे सज्जन पुरुष आते हैं, जो जद्दनबाई से प्रेरित होकर खुद ही भोजपुरी फिल्म के सूत्रधार बनने के कल्पनालोक में पूरी तरह खोए हुए थे। वे थे मुंगेर, बिहार निवासी बच्चालाल पटेल। यूँतो पटेल ने ‘लंकादहन’ जैसी कुछ पौराणिक फिल्मों में अभिनय भी किया था, लेकिन मूलतः वे फिल्मों के निर्माण, प्रबन्धन, नियंत्रण और वितरण कार्यों से सम्बन्धित थे। इसलिए बिहार और बंगाल के कई फिल्म वितरकों से उनकी अच्छी जान-पहचान थी। बम्बई में नजीर हुसैन की भोजपुरी कहानी की चर्चा ही उन्हें उन तक खींच लाई थी। उन्होने कहानी सुनी और पसन्द भी कर लिया। बावजूद इसके, बात आगे नहीं बढ़ पाई, क्योँकि पूरी फिल्म बनाने लायक पूँजी बच्चालाल पटेल के पास नहीं थी। इसी दरम्यान 1 जनवरी, 1961 को एक फिल्म आयी ‘गंगा जमुना’। इस फिल्म में अवधी संवादों का प्रयोग था। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में यह पहली बार हुआ था। यह फिल्म व्यापक सफल हुई थी। इसके निर्माता दिलीप कुमार के भाई नासिर खाँ एवं निर्देशक नितिन बोस थे। दिलीप कुमार एवं वैजयन्ती माला के साथ नज़ीर हुसैन ने भी इस फिल्म में अभिनय किया था। ‘गंगा जमुना’ ने यह विश्वास कायम कर दिया था कि अगर कोई उत्तर भारतीय बोलियों-भाषाओँ में भी फ़िल्में बनाए, तो वह घाटे का सौदा नहीं होगा। इतने सफल उदाहरण के बावजूद नजीर हुसैन के साथ कोई भी खड़ा होने को तैयार नहीं हुआ। यह हिम्मत और हिमाकत जिस व्यक्ति ने दिखाई वह गिरिडीह (तत्कालीन बिहार) के कोयला व्यवसायी विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी थे। शाहाबादी जी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के करीबी, समर्थक और मित्रों में से एक थे। दोनों के बीच हुई एक मुलाक़ात में अनायास फ़िल्मी बातचीत शुरू हो गई। बातचीत के क्रम में राजेन्द्र बाबू ने वर्षों पहले बम्बई में नजीर हुसैन से हुई भेंट और भोजपुरी फिल्म के निर्माण के संकल्प की चर्चा भी की। शाहाबादी जी पक्के एवं सच्चे भोजपुरिया इंसान थे, ऊपर से राजेन्द्र बाबू के व्यक्तित्व के मुरीद और आर्थिक रूप से भी सम्पन्न व्यक्ति थे। शाहाबादी जी ने उसी वक़्त यह फैसला कर लिया कि बहुत जल्द ही बम्बई जाकर नजीर हुसैन से मिलेंगे। उन्हें नजीर हुसैन का बम्बई का पता-ठिकाना मालूम नहीं था, फिर भी सन 1961 के वर्षांत में एक दिन अपने एक मित्र के साथ बम्बई के लिए रवाना हुए। दादर स्थित फिल्मी कलाकारों के मेल-मिलाप के लिए चर्चित प्रीतम होटल में ठहरे। यहाँ पहुँच कर नजीर साहब को ढूँढना शुरू किया। अन्ततः होटल के पास स्थित एक फिल्म स्टूडियो में दोनों की भेंट हुई। शाहाबादी जी का प्रयोजन सुन नजीर साहब की खुशी का ठिकाना न रहा। मुलाक़ात के अगले ही दिन उसी प्रीतम होटल के एक कमरे में दोनों की बैठक हुई। नजीर साहब ने उन्हें कहानी सुनाई। सुनते ही शाहाबादी जी ने नजीर साहब को हरी झंडी दे दी। उसी होटल में नज़ीर साहब ने एक नवयुवक कुन्दन कुमार का परिचय कराया, जिन्हें फिल्म के निर्देशन का दायित्व दिया गया।
हफ्ता-दस दिनों का समय लगा होगा, जिसमें लगभग कलाकारों का चयन एवं शूटिंग स्थल तय करने के बाद इस पर कुल बजट एक लाख पचास हज़ार रूपये तय किया गया। किन्तु फिल्म पूरी होने तक यह बजट पूर्वनिर्धारित से तीन गुना से भी अधिक यानि पाँच लाख रूपये तक पहुँच गया था। मुकम्मल तैयारी के पश्चात 16 फरवरी, 1962 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री सत्येन्द्र नारायण सिन्हा एवं उनकी धर्मपत्नी किशोरी सिन्हा जी की उपस्थिति में इस फिल्म का मुहूर्त पटना स्थित शहीद स्मारक परिसर में सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर फिल्म की नायिका अभिनेत्री कुमकुम के साथ चरित्र अभिनेता नजीर हुसैन और नायक असीम कुमार के एक छोटे से दृश्य का फिल्मांकन हुआ। इसके बाद फिल्म की कुछेक आउटडोर शूटिंग मनेर (पटना) में हुई, जिसमें पंचायत, ताड़ीखाना (निरालय) तथा पालकी आदि दृश्यों को फिल्माया गया। वहीँ वाराणसी में गंगाघाट, कबीरचौरा, चौक आदि के अलावा गाजीपुर में भी फिल्म के कुछ महत्त्वपूर्ण दृश्यों को कैमरे में समेटा गया। आधिकांश शूटिंग बम्बई के प्रकाश तथा श्रीकान्त स्टूडियो में की गई।
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भोजपुरी की इस पहली फिल्म को बनने में कुल अवधि लगभग एक वर्ष लगी थी। पूरी तरह से तैयार फिल्म को निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी ने 21 फरवरी, 1963 को तत्कालीन राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद को पटना के सदाकत आश्रम में समर्पित किया। यानि 21 फरवरी, 1963 को इस फ़िल्म का उद्घाटन समारोह समझा गया। इसके एक दिन बाद अर्थात 22 फरवरी, 1963 को फिल्म का एक प्रीमियर शो पटना के वीणा सिनेमा में रखा गया। लेकिन इसके व्यावसायिक प्रदर्शन की शुरुआत 4 अप्रैल, 1963 को वाराणसी के प्रकाश टॉकीज (अब बन्द हो चुका है) से हुई। 21 फरवरी से 4 अप्रैल के बीच एकतालीस दिनों की अवधि का अन्तर इसलिए आया कि उन्हीं दिनों डॉ. राजेन्द्र बाबू अस्वस्थ हो गए थे। अस्वस्थता की स्थिति में ही उन्होने 25 फरवरी, 1963 को इस फिल्म के निर्माण पर पूरे दल को बधाई-पत्र भेजा था। इसी दौरान उन्होने बीमार रहते हुए भी 1 मार्च, 1963 को फिल्म के तमाम कलाकारों से मिलने का कार्यक्रम तय किया था। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, इस निर्धारित तिथि के ठीक एक दिन पूर्व यानि 28 फरवरी, 1963 को ही उनकी ह्रदयगति रुक गई और वे अमरत्व को प्राप्त कर गए।
पहली भोजपुरी फिल्म की व्यावसायिक शुरुआत देवभूमि वाराणसी से हुई और इसकी गूँज विश्व भर में गुंजायमान हुई। कुमकुम की करुणा, असीम का अभिनय, नजीर के मुरीद कौन नहीं हुए? वहीँ, इस फिल्म में शैलेंद्र के गीत और चित्रगुप्त के संगीत ने भी लोगों को कभी भावविह्वल किया तो कभी खूब खिलखिलाया। प्रत्यक्षदर्शी कहते हैं कि वाराणसी के प्रकाश टॉकीज में तो रात-दिन मेले जैसा दृश्य बना रहता था। लोग दूर-दराज से खाना, बिछावन के साथ एक दिन पूर्व ही टॉकीज परिसर में डेरा जमा देते थे। उस समय एक नई कहावत भी चल पड़ी थी- “गंगा नहा, बाबा बिसनाथ दरसन करा, गंगा मैया... देखा, तब घरे जा...”। इसकी सन्देशात्मक लोकप्रियता एवं आकर्षण का ही प्रतिफल कहें कि तत्कालीन केन्द्रीय विदेश एवं गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी (बाद में देश के द्वितीय प्रधानमंत्री बने), केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण तथा संसदीय कार्यमंत्री सत्यनारायण सिन्हा जी एवं परिवहनमंत्री जगजीवन राम जी जैसी विभूति ने भी इसे देखने की इच्छा जाहिर की थी। फलतः 11 अक्टूबर, 1963 को दिल्ली के गोलचा सिनेमा में फिल्म के विशेष प्रदर्शन का आयोजन किया गया। फिल्म की कहानी इतनी प्रभावकारी और ह्रदय विदारक थी कि प्रदर्शन के दौरान शास्त्री जी की आँखे नम हो गईं थी। भोजपुरी भाषा में बनी यह पहली फिल्म “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबो” ने किसी भी अन्य भाषाओँ के मुकाबले में कम सफलता एवं लोकप्रियता हासिल नहीं की थी, बल्कि समाज में दहेज, बेमेल विवाह, विधवा विवाह, सामन्ती विचारों, सूदखोरी, अशिक्षा, सामाजिक जिम्मेदारी तथा अन्धविश्वास परम्पराओं से उत्पन्न सामाजिक समस्याओं का एक सही और संवेदनशील चित्र उपस्थित हुआ।
अब हम आपको इस फिल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय शीर्षक गीत सुनवाते हैं। इसके गीतकार शैलेन्द्र और संगीतकार चित्रगुप्त थे।
फिल्म गंगा मैया तोहें पियरी चढ़इबो : ‘हे गंगा मैया तोहें...’ : लता और उषा मंगेशकर
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 118वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक रागमाला गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। प्रतिभागियों से अनुरोध है कि पहेली में गीत/संगीत का जो अंश आपको सुनवाया जा रहा है, राग की पहचान केवल उतने ही अंश से करें। रागमाला के अन्य रागों का अपने उत्तर में उल्लेख न करें। पहेली के 120वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – गीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह अंश किस राग पर आधारित है?
2 – यह गीतांश किस ताल में निबद्ध किया गया है?
आप अपने उत्तर केवल
swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें।
comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 120वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए
comments के माध्यम से या
swargoshthi@gmail.com अथवा
radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ के 116वें अंक में हमने आपको 1953 में प्रदर्शित फिल्म ‘हमदर्द’ से लिये गए रागमाला गीत का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग जोगिया और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- तीनताल। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर बैंगलुरु के पंकज मुकेश, लखनऊ के प्रकाश गोविन्द और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
झरोखा अगले अंक का
मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर
लघु श्रृंखला ‘रागों के रंग रागमाला गीत के संग’ अगले अंक से पुनः जारी
होगा। अगले अंक का रागमाला गीत तीन अलग-अलग राग पर आधारित अन्तरॉ वाला गीत
है। अगले अंक में हम इसी रागमाला गीत पर चर्चा करेंगे। आप भी हमारे आगामी
अंकों के लिए भारतीय शास्त्रीय संगीत से जुड़े नये विषयों, रागों और अपनी
प्रिय रचनाओं की फरमाइश कर सकते हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों को पूरा
सम्मान देंगे। अगले अंक में रविवार को प्रातः 9-30 ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच
पर आप सभी संगीत-रसिकों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
शोध एवं आलेख : रविराज पटेल
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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