ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 66 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-२)
भाग ०१ यहाँ पढ़ें
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी।
सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर।
विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार!
सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये?
विजय अकेला - जी ज़रूर!
सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत।
विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत सुनवा दीजिए। ख़य्याम साहब की तर्ज़, लता जी और नितिन मुकेश की आवाज़ें।
गीत - आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा (नूरी)
सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी इस बात पर कि जाँनिसार साहब के गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स तो आपको मिल गए, पर समस्या यह आन पड़ी कि इन्हें सूना कहाँ जाये क्योंकि ग्रामोफ़ोन प्लेयर तो आजकल मिलते नहीं हैं। तो किस तरह से समस्या का समाधान हुआ?
विजय अकेला - जी, ये रेकॉर्ड्स सुनना बहुत ज़रूरी था क्योंकि गानों को करेक्टली और शुद्धता के साथ छापना भी तो इस किताब को छापने की एक अहम वजह थी बिना किसी ग़लती के!
सुजॉय - बिल्कुल! ऑथेन्टिसिटी बहुत ज़रूरी है।
विजय अकेला - जी!
सुजॉय - तो फिर रेकॉर्ड प्लेयर का इंतज़ाम हुआ?
विजय अकेला - प्लेयर का इंतज़ाम करना ही पड़ा। महंगी क़ीमत देनी पड़ी।
सुजॉय - महंगी क़ीमत देनी पड़ी, मतलब ऐन्टिक की दुकान में मिली?
विजय अकेला - जी, ठीक समझे आप। मगर एक एक लफ़्ज़ को सौ सौ बार सुन कर पर्फ़ेक्ट होने के बाद ही किताब में लिखा।
सुजॉय - जी जी, क्योंकि ऑडियो क्वालिटी अच्छी नहीं होगी।
विजय अकेला - बिल्कुल सही। पर हमेशा नहीं, कुछ गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी।
सुजॉय - सही है! क्या है कि उन गीतों में गोलाई होती थी, आजकल के गीतों में शार्पनेस है पर राउण्डनेस ग़ायब हो गई है, इसलिए ज़्यादा तकनीकी लगते हैं और जज़्बाती कम। ख़ैर, विजय जी, यहाँ पर जाँनिसार साहब के लिखे एक और गीत की गुंजाइश बनती है। बताइए कौन सा गीत सुनवाया जाये?
विजय अकेला - "आँखों ही आँखों में इशारा हो गया", फ़िल्म 'सी.आई.डी' का गीत है।
सुजॉय - नय्यर साहब के संगीत में रफ़ी साहब और गीता दत्त की आवाज़ें।
गीत - आँखों ही आँखों में इशारा हो गया (सी.आई.डी)
सुजॉय - विजय जी, 'निगाहों के साये' किताब का विमोचन कहाँ और किनके हाथों हुआ?
विजय अकेला - जुहू के 'क्रॉसरोड' में गुलज़ार साहब के हाथों हुआ। जावेद अख़्तर साहब और ख़य्याम साहब भी वहाँ मौजूद थे।
सुजॉय - विजय जी, हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर पेश करना चाहेंगे वो शब्द जो गुलज़ार साहब और जावेद साहब नें आपके और आपके इस किताब के बारे में कहे हैं।
विजय अकेला - जी ज़रूर!
सुजॉय - विजय जी, गुलज़ार साहब और जावेद साहब के विचार तो हमने जाने, और यह भी पता चला कि आगे आप किन गीतकारों पर काम करना चाहते हैं। फ़िल्हाल जाँनिसार साहब का लिखा कौन सा गीत सुनवाना चाहेंगे?
विजय अकेला - 'रज़िया सुल्तान' का "ऐ दिल-ए-नादान"
गीत - ऐ दिल-ए-नादान (रज़िया सुल्तान)
सुजॉय - विजय जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातचीत कर, आपकी इस किताब के लिए और इस साहसी प्रयास के लिए हम आपको बधाई देते हैं, पर एक शिकायत है आपसे।
विजय अकेला - वह क्या?
सुजॉय - आप फ़िल्मों में बहुत कम गीत लिखते हैं, ऐसा क्यों?
विजय अकेला - अब ज़्यादा लिखूंगा। सुजॉय - हा हा, चलिए इसी उम्मीद के साथ आज आपसे विदा लेते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएँ।
विजय अकेला - शुक्रिया बहुत बहुत!
तो ये थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर। अगले सप्ताह फिर किसी विशेष प्रस्तुति के साथ उपस्थित होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिये, पर आप बने रहिये 'आवाज़' के साथ! नमस्कार!
भाग ०१ यहाँ पढ़ें
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी।
सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर।
विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार!
सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये?
विजय अकेला - जी ज़रूर!
सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत।
विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत सुनवा दीजिए। ख़य्याम साहब की तर्ज़, लता जी और नितिन मुकेश की आवाज़ें।
गीत - आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा (नूरी)
सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी इस बात पर कि जाँनिसार साहब के गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स तो आपको मिल गए, पर समस्या यह आन पड़ी कि इन्हें सूना कहाँ जाये क्योंकि ग्रामोफ़ोन प्लेयर तो आजकल मिलते नहीं हैं। तो किस तरह से समस्या का समाधान हुआ?
विजय अकेला - जी, ये रेकॉर्ड्स सुनना बहुत ज़रूरी था क्योंकि गानों को करेक्टली और शुद्धता के साथ छापना भी तो इस किताब को छापने की एक अहम वजह थी बिना किसी ग़लती के!
सुजॉय - बिल्कुल! ऑथेन्टिसिटी बहुत ज़रूरी है।
विजय अकेला - जी!
सुजॉय - तो फिर रेकॉर्ड प्लेयर का इंतज़ाम हुआ?
विजय अकेला - प्लेयर का इंतज़ाम करना ही पड़ा। महंगी क़ीमत देनी पड़ी।
सुजॉय - महंगी क़ीमत देनी पड़ी, मतलब ऐन्टिक की दुकान में मिली?
विजय अकेला - जी, ठीक समझे आप। मगर एक एक लफ़्ज़ को सौ सौ बार सुन कर पर्फ़ेक्ट होने के बाद ही किताब में लिखा।
सुजॉय - जी जी, क्योंकि ऑडियो क्वालिटी अच्छी नहीं होगी।
विजय अकेला - बिल्कुल सही। पर हमेशा नहीं, कुछ गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी।
सुजॉय - सही है! क्या है कि उन गीतों में गोलाई होती थी, आजकल के गीतों में शार्पनेस है पर राउण्डनेस ग़ायब हो गई है, इसलिए ज़्यादा तकनीकी लगते हैं और जज़्बाती कम। ख़ैर, विजय जी, यहाँ पर जाँनिसार साहब के लिखे एक और गीत की गुंजाइश बनती है। बताइए कौन सा गीत सुनवाया जाये?
विजय अकेला - "आँखों ही आँखों में इशारा हो गया", फ़िल्म 'सी.आई.डी' का गीत है।
सुजॉय - नय्यर साहब के संगीत में रफ़ी साहब और गीता दत्त की आवाज़ें।
गीत - आँखों ही आँखों में इशारा हो गया (सी.आई.डी)
सुजॉय - विजय जी, 'निगाहों के साये' किताब का विमोचन कहाँ और किनके हाथों हुआ?
विजय अकेला - जुहू के 'क्रॉसरोड' में गुलज़ार साहब के हाथों हुआ। जावेद अख़्तर साहब और ख़य्याम साहब भी वहाँ मौजूद थे।
सुजॉय - विजय जी, हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर पेश करना चाहेंगे वो शब्द जो गुलज़ार साहब और जावेद साहब नें आपके और आपके इस किताब के बारे में कहे हैं।
विजय अकेला - जी ज़रूर!
गुलज़ार - मुझे ख़ुशी इस बात की है कि यह रवायत अकेला नें बड़ी ख़ूबसूरत शुरु की है ताकि उन शायरों को, जिनके पीछे काम करने वाला कोई नहीं था, या जिनका लोगों नें नेग्लेक्ट किया, या जिनपे राइटर्स ऐसोसिएशन काम करती या ऐसी कोई ऑरगेनाइज़ेशन काम करती, उन शायरों के कलाम को सम्भालने का एक सिलसिला शुरु किया, वरना फ़िल्मों में लिखा हुआ कलाम या फ़िल्मों में लिखी शायरी को ऐसा ही ग्रेड दिया जाता था कि जैसे ये किताबों के क़ाबिल नहीं है, ये तो सिर्फ़ फ़िल्मों में है, बाक़ी आपकी शायरी कहाँ है? ये हमेशा शायरों से पूछा जाता था। यह एक बड़ा ख़ूबसूरत क़दम अकेला नें उठाया है कि जिससे वो शायरी, जो कि वाक़ई अच्छी शायरी है, जो कभी ग़र्द के नीचे दब जाती या रह जाती, उसका एक सिलसिला शुरु हुआ है और उसका आग़ाज़ उन्होंने जाँनिसार अख़्तर साहब से, और बक्शी साहब से किया है, और भी कई शायर जिनका नाम उन्होंने लिया, जैसे राजेन्द्र कृष्ण है, और भी बहुत से हैं, ताकि उनका काम सम्भाला जा सके।
जावेद अख़्तर - सबसे पहले तो मैं विजय अकेला का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिन्होंने इससे पहले ऐसे ही बक्शी साहब के गीतों को जमा करके एक किताब छापी थी और अब जाँनिसार अख़्तर साहब के १५१ गीत उन्होंने जमा किए हैं और उसे किताब की शक्ल में 'राजकमल' नें छापा है। ये बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और हमारे जो पुराने गीत हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि इसके बाद जो दूसरे शायर हैं, राजेन्द्र कृष्ण हैं, राजा मेहन्दी अली हैं, शैलेन्द्र जी हैं, मजरूह साहब हैं, इनकी रचनाओं को भी वो संकलित करने का इरादा करेगें
सुजॉय - विजय जी, गुलज़ार साहब और जावेद साहब के विचार तो हमने जाने, और यह भी पता चला कि आगे आप किन गीतकारों पर काम करना चाहते हैं। फ़िल्हाल जाँनिसार साहब का लिखा कौन सा गीत सुनवाना चाहेंगे?
विजय अकेला - 'रज़िया सुल्तान' का "ऐ दिल-ए-नादान"
गीत - ऐ दिल-ए-नादान (रज़िया सुल्तान)
सुजॉय - विजय जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातचीत कर, आपकी इस किताब के लिए और इस साहसी प्रयास के लिए हम आपको बधाई देते हैं, पर एक शिकायत है आपसे।
विजय अकेला - वह क्या?
सुजॉय - आप फ़िल्मों में बहुत कम गीत लिखते हैं, ऐसा क्यों?
विजय अकेला - अब ज़्यादा लिखूंगा। सुजॉय - हा हा, चलिए इसी उम्मीद के साथ आज आपसे विदा लेते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएँ।
विजय अकेला - शुक्रिया बहुत बहुत!
तो ये थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर। अगले सप्ताह फिर किसी विशेष प्रस्तुति के साथ उपस्थित होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिये, पर आप बने रहिये 'आवाज़' के साथ! नमस्कार!
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