ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 791/2011/231
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार को हम सब जानते हैं रवीन्द्र जैन के नाम से। प्यार से फ़िल्म-इंडस्ट्री के लोग उन्हें दादु कह कर बुलाते हैं। आइए आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शुरु करते हैं दादु पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले'। यूं तो रवीन्द्र जैन नें बहुत से ऐसे फ़िल्मों में भी संगीत दिया है जिनके गीत किसी और गीतकार नें लिखे हैं, पर इस शृंखला में हम कुछ ऐसे गीतों को चुना है जिन्हें रवीन्द्र जैन नें लिखे और स्वरबद्ध किए हैं।
'मेरे सुर में सुर मिला ले' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हमने उस फ़िल्म का एक गीत चुना है जिसमें रवीन्द्र जैन को अपनी पहली कामयाबी हासिल हुई थी। १९७३ की अमिताभ बच्चन, नूतन और पद्मा खन्ना अभिनीत यह फ़िल्म थी 'सौदागर', जो बंगाल के ग्रामीण पार्श्व पर आधारित थी और खजूर के रस से गुड़ बनाने की प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमती कहानी थी। रवीन्द्र जैन का फ़िल्म जगत में किस तरह से आगमन हुआ इसके बारे में तफ़सील से हम आनेवाली कड़ियों में बताएंगे, आज बस 'सौदागर' फ़िल्म के बारे में जानिए दादु से ही। "जब हम बॉम्बे फ़ाइनली आ गए, तो फिर हरिभाई (संजीव कुमार) ही यहाँ मेरे आत्मीय या दोस्त थे, और हम बॉम्बे १९७० में आ गए, और यहाँ जो पहली नशिष्ट हुई रात को, उसी रात को मुरली हरि बजाज, राधेश्यामजी के दोस्त थे, उनके बेटे का जन्मदिन था, जहाँ मैंने गाना गाया और ख़ूब गाने गाए, और वहाँ रामजी मन्हर, हास्य कवि हमारे, तो उन्होंने सुना और उन्होंने कई लोगों से मीटिंग्स कराई। उन्होंने काफ़ी सहयोग दिया, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' वालों से उन्होंने ही मिलाया, सागर साहब से मिलाया और बहुत दिनों तक प्रोग्राम्स उनके लिए करता रहा जब तक काम नहीं था मेरे पास। इस तरह मदद की उन्होंने। 'सौदागर' में जब, एक बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में १० दिन के लिए आया था जब, तो राजश्री वालों से मुलाक़ात हुई थी, इन्होंने कहा था कि 'तुम्हारे लायक जब भी कोई सब्जेक्ट होगा तो ज़रूर बुलाएंगे और हम काम करेंगे साथ में'। और ताराचन्द जी उस समय हयात थे, वो ही प्रोडक्शन्स सारा देख भाल करते थे और धुनें सिलेक्ट करना, गानें सिलेक्ट करना, 'सौदागर' से उनके साथ यह सिलसिला शुरु हुआ, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' के साथ काम करने का। 'सौदागर' के सभी गानें बेहद मक़बूल हुए। यह एक शॉर्ट स्टोरी थी नरेन्द्रनाथ मित्र की लिखी हुई, जिसका शीर्षक था 'रस', बंगला कहानी थी, और गुड़ बनाने वाले की कहानी, खजूर के रस से गुड़ बनाना। तो बंगाल तो मेरे लिए मतलब, मेरा मनचाहा सब्जेक्ट मिल गया। तो मेरे गानें उस फ़िल्म में, मुझे रिकग्निशन सौदागर से मिला।" (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। तो लीजिए सुनते हैं फ़िल्म 'सौदागर' का यह गीत किशोर कुमार की आवाज़ में।
पहचानें अगला गीत - आरती मुखर्जी और एक पुरुष गायक की युगल आवाज़ में ये एक भक्ति गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है - "बदनाम"
पिछले अंक में
हा हा हा....खूब कहा कृष्ण मोहन जी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ७० के दशक के मध्य भाग से फ़िल्म-संगीत में व्यवसायिक्ता सर चढ़ कर बोलने लग पड़ी थी। धुनों में मिठास कम और शोर-शराबा ज़्यादा होने लगा। गीतों के बोल भी अर्थपूर्ण कम और चलताऊ क़िस्म के होने लगे थे। गीतकार और संगीतकार को न चाहते हुए भी कई बंधनों में बंध कर काम करने पड़ते थे। लेकिन तमाम पाबन्दियों के बावजूद कुछ कलाकार ऐसे भी हुए जिन्होंने कभी हालात के दबाव में आकर अपने उसूलों और कला के साथ समझौता नहीं किया। भले इन कलाकारों नें फ़िल्में रिजेक्ट कर दीं, पर अपनी कला का सौदा नहीं किया। ७० के दशक के मध्य भाग में एक ऐसे ही सुर-साधक का फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था जो न केवल एक उत्कृष्ट संगीतकार हुए, बल्कि एक बहुत अच्छे काव्यात्मक गीतकार और एक सुरीले गायक भी हैं। यही नहीं, यह लाजवाब कलाकार पौराणिक विषयों के बहुत अच्छे ज्ञाता भी हैं। फ़िल्म-संगीत के गिरते स्तर के दौर में अपनी रुचिकर रचनाओं से इसके स्तर को ऊँचा बनाये रखने में उल्लेखनीय योगदान देने वाले इस श्रद्धेय कलाकार को हम सब जानते हैं रवीन्द्र जैन के नाम से। प्यार से फ़िल्म-इंडस्ट्री के लोग उन्हें दादु कह कर बुलाते हैं। आइए आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शुरु करते हैं दादु पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मेरे सुर में सुर मिला ले'। यूं तो रवीन्द्र जैन नें बहुत से ऐसे फ़िल्मों में भी संगीत दिया है जिनके गीत किसी और गीतकार नें लिखे हैं, पर इस शृंखला में हम कुछ ऐसे गीतों को चुना है जिन्हें रवीन्द्र जैन नें लिखे और स्वरबद्ध किए हैं।
'मेरे सुर में सुर मिला ले' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हमने उस फ़िल्म का एक गीत चुना है जिसमें रवीन्द्र जैन को अपनी पहली कामयाबी हासिल हुई थी। १९७३ की अमिताभ बच्चन, नूतन और पद्मा खन्ना अभिनीत यह फ़िल्म थी 'सौदागर', जो बंगाल के ग्रामीण पार्श्व पर आधारित थी और खजूर के रस से गुड़ बनाने की प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमती कहानी थी। रवीन्द्र जैन का फ़िल्म जगत में किस तरह से आगमन हुआ इसके बारे में तफ़सील से हम आनेवाली कड़ियों में बताएंगे, आज बस 'सौदागर' फ़िल्म के बारे में जानिए दादु से ही। "जब हम बॉम्बे फ़ाइनली आ गए, तो फिर हरिभाई (संजीव कुमार) ही यहाँ मेरे आत्मीय या दोस्त थे, और हम बॉम्बे १९७० में आ गए, और यहाँ जो पहली नशिष्ट हुई रात को, उसी रात को मुरली हरि बजाज, राधेश्यामजी के दोस्त थे, उनके बेटे का जन्मदिन था, जहाँ मैंने गाना गाया और ख़ूब गाने गाए, और वहाँ रामजी मन्हर, हास्य कवि हमारे, तो उन्होंने सुना और उन्होंने कई लोगों से मीटिंग्स कराई। उन्होंने काफ़ी सहयोग दिया, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' वालों से उन्होंने ही मिलाया, सागर साहब से मिलाया और बहुत दिनों तक प्रोग्राम्स उनके लिए करता रहा जब तक काम नहीं था मेरे पास। इस तरह मदद की उन्होंने। 'सौदागर' में जब, एक बार दुर्गा पूजा की छुट्टियों में १० दिन के लिए आया था जब, तो राजश्री वालों से मुलाक़ात हुई थी, इन्होंने कहा था कि 'तुम्हारे लायक जब भी कोई सब्जेक्ट होगा तो ज़रूर बुलाएंगे और हम काम करेंगे साथ में'। और ताराचन्द जी उस समय हयात थे, वो ही प्रोडक्शन्स सारा देख भाल करते थे और धुनें सिलेक्ट करना, गानें सिलेक्ट करना, 'सौदागर' से उनके साथ यह सिलसिला शुरु हुआ, 'राजश्री प्रोडक्शन्स' के साथ काम करने का। 'सौदागर' के सभी गानें बेहद मक़बूल हुए। यह एक शॉर्ट स्टोरी थी नरेन्द्रनाथ मित्र की लिखी हुई, जिसका शीर्षक था 'रस', बंगला कहानी थी, और गुड़ बनाने वाले की कहानी, खजूर के रस से गुड़ बनाना। तो बंगाल तो मेरे लिए मतलब, मेरा मनचाहा सब्जेक्ट मिल गया। तो मेरे गानें उस फ़िल्म में, मुझे रिकग्निशन सौदागर से मिला।" (सौजन्य: उजाले उनकी यादों के, विविध भारती)। तो लीजिए सुनते हैं फ़िल्म 'सौदागर' का यह गीत किशोर कुमार की आवाज़ में।
पहचानें अगला गीत - आरती मुखर्जी और एक पुरुष गायक की युगल आवाज़ में ये एक भक्ति गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है - "बदनाम"
पिछले अंक में
हा हा हा....खूब कहा कृष्ण मोहन जी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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आरती मुखर्जी और जसपाल सिंह