Skip to main content

‘सिया रानी के जाये दुई ललनवा, विपिन कुटिया में...’ सोहर से होता है नवागन्तुक का स्वागत

सुर संगम- 44 – संस्कार गीतों में अन्तरंग पारिवारिक सम्बन्धों की सोंधी सुगन्ध

संस्कार गीतों की नयी श्रृंखला - पहला भाग

‘सुर संगम’ स्तम्भ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः उपस्थित हूँ। पिछले अंकों में आपने शास्त्रीय गायन और वादन की प्रस्तुतियों का रसास्वादन किया था, आज बारी है, लोक संगीत की। आज के अंक से हम आरम्भ कर रहे हैं, लोकगीतों के अन्तर्गत आने वाले संस्कार गीतों का सिलसिला।

किसी देश के लोकगीत उस देश के जनमानस के हृदय की अभिव्यक्ति होते हैं। वे उनकी हार्दिक भावनाओं के सच्चे प्रतीक हैं। प्रकृतिक परिवेश में रहने वाला मानव अपने आसपास के वातावरण और संवेदनाओं से जुड़ता है तो नैसर्गिक रूप से उनकी अभिव्यक्ति के लिए एकमात्र साधन है, लोकगीत अथवा ग्राम्यगीत। भारतीय उपमहाद्वीप के निवासियों का जीवन आदिकाल से ही संगीतमय रहा है। वैदिक ऋचाओं को भी तीन स्वरों में गान की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। भारतीय परम्परा के अनुसार प्रचलित लोकगीतों को हम चार वर्गों में बाँटते हैं। प्रत्येक उत्सव, पर्व और त्योहारों पर गाये जाने वाले गीतों को हम ‘मंगल गीत’ की श्रेणी में, तथा घरेलू और कृषि कार्यों के दौरान श्रम को भुलाने के लिए गाने वाले गीतों को ‘श्रम गीत’ के नाम से पुकारा जाता है। तीसरी श्रेणी के गीतों को ‘ऋतु गीत’ कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत चैती, कजरी, सावनी आदि का गायन होता है। लोकगीतों की चौथी श्रेणी है- ‘संस्कार गीत’ की, जिसका गायन मानव जीवन से जुड़े १६ संस्कार के अवसरों पर किया जाता है।

आज से हम ‘सुर संगम’ के आगामी अंकों में संस्कार गीतों पर आपसे चर्चा करेंगे। भारतीय समाज में व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के जीवन को १६ संस्कारों में बाँटा जाता है। भारत के गैर हिन्दू समुदाय में भी इन अवसरों पर थोड़े नाम परिवर्तन और भिन्न रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है। १६ संस्कारों में से आज हम ‘जातकर्म संस्कार’ अर्थात पुत्र-जन्म के अवसर पर मनाए जाने वाले उत्सव और इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों की चर्चा करेंगे। इस विधा के गीतों में सन्तान के जन्म का उल्लास होता है, नवगन्तुक शिशु के प्रति मंगल-कामनाएँ प्रकट की जाती है और शिशु की माता को बधाई दी जाती है। शिशु जन्मोत्सव के गीतों का चलन देश के हर प्रान्त और हर क्षेत्र में है। भाषा में आंचलिक परिवर्तन के होते हुए भी गीतों का मूलभाव सर्वत्र एक ही रहता है। समूचे उत्तर भारत में इस प्रकार के गीत को ‘सोहर’ के नाम से जाना जाता है। सोहर-गायन की कई धुने प्रचलित हैं। एक सर्वाधिक लोकप्रिय धुन में बँधे सोहर से हम आज शुरुआत करते हैं। जाने-माने शास्त्रीय गायक पण्डित छन्नूलाल मिश्र इस पारम्परिक सोहर में प्रयुक्त स्वरों के माध्यम से सामवेद की ऋचाओं के स्वरों की व्याख्या और तुलना कर रहे हैं। लीजिए पहले आप सुनिए यह सोहर-

भोजपुरी सोहर : ‘मोरे पिछवरवा चन्दन गाछ....’ : स्वर – पण्डित छन्नूलाल मिश्र


‘जातकर्म संस्कार’ पुत्र-जन्म के अवसर पर मनाया जाता है। परन्तु १६ संस्कारों की सूची में यह चौथे क्रमांक पर है। जातकर्म से पूर्व के तीन संस्कार और मनाए जाते हैं, जिन्हें गर्भाधान, पुंसवन और सीमान्त संस्कार कहते हैं। इन अवसरों पर प्रस्तुत किए जाने वाले गीतों में गर्भस्थ शिशु और माँ के स्वास्थ्य की कामना की जाती है। अवध क्षेत्र में इन गीतों को ‘सरिया’ कहा जाता है। सरिया गीतों में प्रायः ननद-भाभी के बीच रोचक और कटाक्षपूर्ण वार्तालाप भी उपस्थित रहता है। सोहर गीतों के वर्ण्य विषयों में पर्याप्त विविधता होती है। इन गीतों में कहीं सास और ननद पर कटाक्ष होता है तो ससुर से धन-धान्य का मुक्त-हस्त दान का अनुरोध होता है। नवजात शिशु के स्वस्थ रहने, बुद्धिमान बनने और भावी जीवन में सफलता पाने की कामना भी इन गीतों में की जाती है। ब्रज, बुन्देलखण्ड, अवध और भोजपुर क्षेत्र के सोहर गीतों में राम और कृष्ण के जन्म के प्रसंग सहज और सरल लौकिक रूप में चित्रण अनिवार्य रूप से मिलता है। कुछ सोहर गीतों में बाल्मीकि आश्रम में सीता के पुत्रों- लव और कुश के जन्म का प्रसंग भी वर्णित होता है। आइए, अब हम आपको एक ऐसा ही सोहर सुनवाते हैं, जिसमे लव-कुश के जन्म का प्रसंग है। यह सोहर गीत पारम्परिक नहीं है। इसकी रचना और गायन लखनऊ के भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर तथा शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत की विदुषी कमला श्रीवास्तव ने किया है। आइए सुनते हैं, यह मनमोहक अवधी सोहर गीत-

अवधी सोहर : ‘सिया रानी के जाये दुई ललनवाँ...’ : स्वर – विदुषी कमला श्रीवास्तव


सोहर गीतों का वर्ण्य विषय कुछ भी हो, कोई भी भाषा हो अथवा किसी भी क्षेत्र की हो, नवजात शिशु के स्वागत और उसके भावी सुखमय जीवन की कामना तथा उल्लास का भाव हर गीत में मौजूद होता है। एक भोजपुरी सोहर की एक पंक्ति है- ‘सासु लुटावेली रुपैया, त ननदी मोहरवा रे....’, जिसका भाव यह है कि शिशु के आगमन से हर्षित सास रूपये का और ननद सोने की मोहरों का दान करतीं हैं। सोहर का ही एक प्रकार होता है- ‘मनरजना’, जिसे प्रसव से ठीक पहले गाया जाता है। नाम से ही सहज अनुमान हो जाता है इन गीतों का उद्देश्य परिवार के सदस्यों का मनोरंजन करना होता है। मनरजना गीतों का एक उद्देश्य यह भी होता है कि गर्भवती के कष्ट को कम किया जा सके। ऐसी ही एक अवधी मनरजना गीत की एक पंक्ति देखें- ‘ननदी जो तोरे हुईहैं भतीजवा, तोहे देहों गले की तिलरी...’। इस गीत में वर्णित ‘तिलरी’ का अर्थ है, तीन लड़ियों वाला गले का आभूषण। अब हम आपको अवध क्षेत्र का एक लोकप्रिय सोहर गीत सुनवाते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस सोहर की रचना गोस्वामी तुलसीदास ने किया था। इस सोहर गीत को स्वर दिया है, सुपरिचित गायिका इन्दिरा श्रीवास्तव ने।

अवधी सोहर : ‘चैतहि के तिथि नौमी त नौबत बाजै हो...’ : स्वर – विदुषी इन्दिरा श्रीवास्तव


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अन्दर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुर संगम 45 की पहेली : एक भोजपुरी फिल्म में सोहर गीत शामिल किया गया था। इस ऑडियो क्लिप को सुन कर गीत की गायिका को पहचानिए। गायिका के नाम की सही पहचान करने पर आपको मिलेंगे 5 अंक।


पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 44 वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर है- सोहर, और पहेली का सही उत्तर दिया है- क्षिति जी ने, जिन्हें मिलते हैं 5 अंक, बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। परन्तु सोहर गीतों पर यह चर्चा हम ‘सुर संगम’ के अगले अंक में भी जारी रखेंगे। अगले रविवार को हम पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं। आप अपने विचार और सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६-३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

Comments

बहुत बढ़िया शृंखला होगी ये निश्चित ही
RAJ SINH said…
कृष्ण मिश्र जी ,मैं आपकी प्रस्तुतियों का हमेशा आस्वादन करता रहा हूँ .आप शास्त्रीय संगीत के साथ ही पारंपरिक लोकगीत और अन्य विधाओं का तो एक तरह से दस्तावेज ही तैयार कर रहे हैं .जितना भी सराहें कम होगा .स्वार्थी हूँ और एहसान फारमोस भी की रस तो हमेशा लेता हूँ लेकिन आभार में दो शब्द भी नहीं लिख पाता . इसे गूंगे का गुड समझ क्षमा करेंगे .
Kshiti said…
Gaika- Alka Yagnik

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट