सुविख्यात शायर और फिल्म-गीतकार श्री असद भोपाली के सुपुत्र श्री ग़ालिब खाँ साहब से उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत
अब तक आपने पढ़ा...
अब आगे
‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के ‘शनिवार विशेषांक’ में आपका एक बार पुनः स्वागत है। दोस्तों, पिछले सप्ताह हमने फिल्म-जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार असद भोपाली के सुपुत्र ग़ालिब खाँ से उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत का पहला भाग प्रस्तुत किया था। इस भाग में आपने पढ़ा था कि असद भोपाली को भाषा और साहित्य की शिक्षा अपने पिता मुंशी अहमद खाँ से प्राप्त हुई थी। आपने यह भी जाना कि अपनी शायरी के उग्र तेवर के कारण असद भोपाली, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिये गये थे। आज़ादी के बाद अपनी शायरी के बल पर ही उन्होने फिल्म-जगत में प्रवेश किया था। आज हम उसके आगे की बातचीत को आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब, ‘शनिवार विशेषांक’ के दूसरे भाग में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है।
ग़ालिब खाँ- धन्यवाद, और सभी पाठकों को मेरा नमस्कार। अपने पिता असद भोपाली के बारे में ज़िक्र करते हुए पिछले भाग में मैंने बताया था कि १९४९ की फिल्म ‘दुनिया’ के माध्यम से एक गीतकार के रूप में उनकी शुरुआत हुई थी। इसके बाद १९५१ की फिल्म ‘अफसाना’ के गीत से उन्हें लोकप्रियता भी मिली, परन्तु फिल्म कि सफलता के सापेक्ष उन्हें काम नहीं मिला। उस समय के कलाकारों को काम से ज्यादा संघर्ष करना पड़ता था, उन्होंने भी किया। १९६३ में प्रदर्शित फिल्म 'पारसमणि' के गीत लिखने का उन्हें प्रस्ताव मिला। यह एक फेण्टेसी फिल्म थी। फिल्म की संगीत-रचना के लिए नये संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल को अनुबन्धित किया गया था। मेरे पिता ने उस समय की जन-रुचि और फिल्म की थीम के मुताबिक इस फिल्म के लिए गीत लिखे थे। फिल्म ‘पारसमणि’ के गीत- "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." और "वो जब याद आये, बहुत याद आये..." ने लोकप्रियता के परचम लहरा दिये थे। ये गीत वर्षों बाद आज भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं।
कृष्णमोहन- आगे बढ़ने से पहले क्यों न हम इस फिल्म का एक गीत अपने पाठकों-श्रोताओं को सुनवाते चलें।
ग़ालिब खाँ- जी हाँ, मेरे खयाल से हम अपने पाठकों को ‘पारसमणि’ का बेहद लोकप्रिय गीत– "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." सुनवाते हैं-
फिल्म – पारसमणि : "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." : स्वर – लता मंगेशकर और कमल बरोट
कृष्णमोहन- बहुत ही मधुर गीत आपने सुनवाया। ग़ालिब साहब; अब हम जानना चाहेंगे की आपके पिता असद भोपाली ने किन-किन संगीतकारों के साथ काम किया और किन संगीतकारों से उनके अत्यन्त मधुर सम्बन्ध रहे?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने संगीतकार सी. रामचन्द्र, हुस्नलाल-भगतराम, खैय्याम, हंसराज बहल, एन. दत्ता, नौशाद, ए.आर. कुरैशी (मशहूर तबलानवाज़ अल्लारक्खा), चित्रगुप्त, रवि, सी. अर्जुन, सोनिक ओमी, राजकमल, लाला सत्तार, हेमन्त मुखर्जी, कल्याणजी-आनन्दजी जैसे दिग्गज संगीतकरों के साथ काम किया। परन्तु ‘पारसमणि’ में लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल जैसे नए संगीतकारों के साथ सफलतम गीत देने के बाद नए संगीतकारों के साथ काम करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अन्त तक चलता रहा। नए संगीतकारों में गणेश और उषा खन्ना के साथ वो अधिक सहज थे। संगीतकार राम लक्ष्मण उनके अन्तिम संगीतकार साथियों में से हैं, जिनके पास आज भी उनके कई मुखड़े और गीत लिखे पड़े हैं।
कृष्णमोहन- असद भोपाली जी ने हर श्रेणी की फिल्मों में अनेक लोकप्रिय गीत लिखे हैं, किन्तु उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका, जो उन्हें बहुत पहले ही मिलना चाहिए था। इस सम्बन्ध में आपका और आपके परिवार का क्या मत है?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने १९४९ से १९९० तक लगभग चार सौ फिल्मों में दो हज़ार से ज्यादा गीत लिखे परन्तु फिल्म ‘दुनिया’ से लेकर ‘मैंने प्यार किया’ के गीत "कबूतर जा जा जा..." तक उन्हें वो प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वो हकदार थे। इस अन्तिम फिल्म के लिए ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त हुआ था। दरअसल इस स्थिति के लिए वो खुद भी उतने ही ज़िम्मेदार थे, जितनी ये फिल्म नगरी। कवियों और शायरों वाली स्वाभाविक अकड़ उन्हें काम माँगने से रोकती थी और जीवनयापन के लिए जो काम मिलता गया वो करना पड़ा। बस इतना ध्यान उन्होने अवश्य रखा था कि कभी अपनी शायरी का स्तर नहीं गिरने दिया। कम बजट की स्टंट फिल्मों में भी उन्होंने "हम तुमसे जुदा हो के, मर जायेंगे रो-रो के..." जैसे गीत लिखे। अपेक्षित सफलता न मिलने से या यूँ कहूँ कि उनकी असफलता ने उन्हें शराब का आदी बना दिया था और उनकी शराब ने पारिवारिक माहौल को कभी सुखद नहीं होने दिया। पर आज जब मैं उनकी स्थिति को अनुभव कर पाता हूँ तो समझ में आता है कि जितना दुःख उनकी शराब ने हमें दिया उससे ज्यादा दुःख वो चुपचाप पी गए और हमें एहसास तक नहीं होने दिया। प्रसिद्ध शायर ग़ालिब के हमनाम (असद उल्लाह् खाँ) होने के साथ-साथ स्वभाव, संयोग और भाग्य भी उन्होंने कुछ वैसा ही पाया था। मेरे पिता के अन्तर्मन का दर्द उनके गीतों में झलकता है। दर्द भरे गीतों की लम्बी सूची में से फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का एक गीत मैं पाठकों को सुनवाना चाहता हूँ।
कृष्णमोहन- दोस्तों, ग़ालिब खाँ के अनुरोध पर हम आपको १९५७ की फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का यह गीत सुनवा रहे हैं। स्वर मोहम्मद रफी का और संगीत हंसराज बहल का है।
फिल्म – मिस बॉम्बे : "ज़िंदगी भर ग़म जुदाई का.." : स्वर – मोहम्मद रफी
कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब! साहित्य क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के बारे में भी हमें बताएँ। क्या उनके गीत/ग़ज़ल के संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं?
ग़ालिब खाँ- इस मामले में भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनकी लिखी हजारों नज्में और गजले जिस डायरी में थी वो डायरी बारिश कि भेंट चढ़ गयी। उन दिनों हम जिस स्थान पर रहते थे उसका नाम था "नालासोपारा", जो पहाड़ी के तल पर था और वहाँ मामूली बारिश में भी बाढ़ कि स्थिति पैदा हो जाती थी और ऐसी ही एक बाढ़, असद भोपाली की सारी "गालिबी" को बहा ले गयी। तब उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था- 'जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था,और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी'। एक शायर के पूरे जीवन की त्रासदी इस एक वाक्य में निहित है।
कृष्णमोहन- आप अपने बारे में भी हमारे पाठको को कुछ बताएँ। यह भी बताएँ कि अपने पिता का आपके ऊपर कितना प्रभाव पड़ा?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता मिर्ज़ा ग़ालिब से कितने प्रभावित थे इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि उन्होने मेरा नाम ग़ालिब ही रखना पसन्द किया। वो अक्सर कहते थे कि वो असदउल्लाह खाँ "ग़ालिब" थे और ये 'ग़ालिब असदउल्लाह खाँ’ है। अब ये कुछ उस नाम का असर है और कुछ धमनियों में बहते खून का, कि मैंने भी आखिरकार कलम ही थाम ली। शायरी और गीत लेखन से शुरुआत की, फिर टेलीविज़न सीरियल के लेखन से जुड़ गया। ‘शक्तिमान’ जैसे धारावाहिक से शुरुआत की। फिर ‘मार्शल’, ‘पैंथर’, ‘सुराग’ जैसे जासूसी धारावाहिकों के साथ ‘युग’, ‘वक़्त की रफ़्तार’, ‘दीवार’ के साथ-साथ ‘माल है तो ताल है’, ‘जीना इसी का नाम है’, ‘अफलातून’ जैसे हास्य धारावाहिक भी लिखे। ‘हमदम’, ‘वजह’ जैसी फिल्मो का संवाद-लेखन किया और अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म ‘भिन्डी बाज़ार इंक’ की पटकथा-संवाद लिखने का सौभाग्य मिला, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। बस मेरी इतनी ही कोशिश है कि मैं अपने पिता के नाम का मान रख सकूँ और उनके अधूरे सपनों को पूरा कर पाऊँ।
कृष्णमोहन- आपका बहुत-बहुत आभार, आप ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के मंच पर आए और अपने पिता असद भोपाली की शायरी के विषय में हमारे पाठकों के साथ चर्चा की। अब चलते –चलते आप अपनी पसन्द का कोई गीत हमारे पाठकों/श्रोताओं को सुनवा दें।
ग़ालिब खाँ- ज़रूर, पाठको को मैं एक ऐसा गीत सुनवाना चाहता हूँ, जिसे जब भी मैं सुनता हूँ अपने पिता को अपने आसपास पाता हूँ। यह फिल्म ‘एक नारी दो रूप’ का गीत है जिसे रफी साहब ने गाया है और संगीतकार हैं गणेश। चूँकि फिल्म चली नहीं इसलिए गीत भी अनसुना ही रह गया। आप इस गीत को सुने और मुझे इजाज़त दीजिए।
फिल्म – एक नारी दो रूप : “दिल का सूना साज तराना ढूँढेगा...” : स्वर – मोहम्मद रफी
कृष्णमोहन मिश्र
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‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के ‘शनिवार विशेषांक’ में आपका एक बार पुनः स्वागत है। दोस्तों, पिछले सप्ताह हमने फिल्म-जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार असद भोपाली के सुपुत्र ग़ालिब खाँ से उनके पिता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बातचीत का पहला भाग प्रस्तुत किया था। इस भाग में आपने पढ़ा था कि असद भोपाली को भाषा और साहित्य की शिक्षा अपने पिता मुंशी अहमद खाँ से प्राप्त हुई थी। आपने यह भी जाना कि अपनी शायरी के उग्र तेवर के कारण असद भोपाली, तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिये गये थे। आज़ादी के बाद अपनी शायरी के बल पर ही उन्होने फिल्म-जगत में प्रवेश किया था। आज हम उसके आगे की बातचीत को आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब, ‘शनिवार विशेषांक’ के दूसरे भाग में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है।
ग़ालिब खाँ- धन्यवाद, और सभी पाठकों को मेरा नमस्कार। अपने पिता असद भोपाली के बारे में ज़िक्र करते हुए पिछले भाग में मैंने बताया था कि १९४९ की फिल्म ‘दुनिया’ के माध्यम से एक गीतकार के रूप में उनकी शुरुआत हुई थी। इसके बाद १९५१ की फिल्म ‘अफसाना’ के गीत से उन्हें लोकप्रियता भी मिली, परन्तु फिल्म कि सफलता के सापेक्ष उन्हें काम नहीं मिला। उस समय के कलाकारों को काम से ज्यादा संघर्ष करना पड़ता था, उन्होंने भी किया। १९६३ में प्रदर्शित फिल्म 'पारसमणि' के गीत लिखने का उन्हें प्रस्ताव मिला। यह एक फेण्टेसी फिल्म थी। फिल्म की संगीत-रचना के लिए नये संगीतकार लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल को अनुबन्धित किया गया था। मेरे पिता ने उस समय की जन-रुचि और फिल्म की थीम के मुताबिक इस फिल्म के लिए गीत लिखे थे। फिल्म ‘पारसमणि’ के गीत- "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." और "वो जब याद आये, बहुत याद आये..." ने लोकप्रियता के परचम लहरा दिये थे। ये गीत वर्षों बाद आज भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं।
कृष्णमोहन- आगे बढ़ने से पहले क्यों न हम इस फिल्म का एक गीत अपने पाठकों-श्रोताओं को सुनवाते चलें।
ग़ालिब खाँ- जी हाँ, मेरे खयाल से हम अपने पाठकों को ‘पारसमणि’ का बेहद लोकप्रिय गीत– "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." सुनवाते हैं-
फिल्म – पारसमणि : "हँसता हुआ नूरानी चेहरा..." : स्वर – लता मंगेशकर और कमल बरोट
कृष्णमोहन- बहुत ही मधुर गीत आपने सुनवाया। ग़ालिब साहब; अब हम जानना चाहेंगे की आपके पिता असद भोपाली ने किन-किन संगीतकारों के साथ काम किया और किन संगीतकारों से उनके अत्यन्त मधुर सम्बन्ध रहे?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने संगीतकार सी. रामचन्द्र, हुस्नलाल-भगतराम, खैय्याम, हंसराज बहल, एन. दत्ता, नौशाद, ए.आर. कुरैशी (मशहूर तबलानवाज़ अल्लारक्खा), चित्रगुप्त, रवि, सी. अर्जुन, सोनिक ओमी, राजकमल, लाला सत्तार, हेमन्त मुखर्जी, कल्याणजी-आनन्दजी जैसे दिग्गज संगीतकरों के साथ काम किया। परन्तु ‘पारसमणि’ में लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल जैसे नए संगीतकारों के साथ सफलतम गीत देने के बाद नए संगीतकारों के साथ काम करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अन्त तक चलता रहा। नए संगीतकारों में गणेश और उषा खन्ना के साथ वो अधिक सहज थे। संगीतकार राम लक्ष्मण उनके अन्तिम संगीतकार साथियों में से हैं, जिनके पास आज भी उनके कई मुखड़े और गीत लिखे पड़े हैं।
कृष्णमोहन- असद भोपाली जी ने हर श्रेणी की फिल्मों में अनेक लोकप्रिय गीत लिखे हैं, किन्तु उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका, जो उन्हें बहुत पहले ही मिलना चाहिए था। इस सम्बन्ध में आपका और आपके परिवार का क्या मत है?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता ने १९४९ से १९९० तक लगभग चार सौ फिल्मों में दो हज़ार से ज्यादा गीत लिखे परन्तु फिल्म ‘दुनिया’ से लेकर ‘मैंने प्यार किया’ के गीत "कबूतर जा जा जा..." तक उन्हें वो प्रतिष्ठा नहीं मिली जिसके वो हकदार थे। इस अन्तिम फिल्म के लिए ही उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त हुआ था। दरअसल इस स्थिति के लिए वो खुद भी उतने ही ज़िम्मेदार थे, जितनी ये फिल्म नगरी। कवियों और शायरों वाली स्वाभाविक अकड़ उन्हें काम माँगने से रोकती थी और जीवनयापन के लिए जो काम मिलता गया वो करना पड़ा। बस इतना ध्यान उन्होने अवश्य रखा था कि कभी अपनी शायरी का स्तर नहीं गिरने दिया। कम बजट की स्टंट फिल्मों में भी उन्होंने "हम तुमसे जुदा हो के, मर जायेंगे रो-रो के..." जैसे गीत लिखे। अपेक्षित सफलता न मिलने से या यूँ कहूँ कि उनकी असफलता ने उन्हें शराब का आदी बना दिया था और उनकी शराब ने पारिवारिक माहौल को कभी सुखद नहीं होने दिया। पर आज जब मैं उनकी स्थिति को अनुभव कर पाता हूँ तो समझ में आता है कि जितना दुःख उनकी शराब ने हमें दिया उससे ज्यादा दुःख वो चुपचाप पी गए और हमें एहसास तक नहीं होने दिया। प्रसिद्ध शायर ग़ालिब के हमनाम (असद उल्लाह् खाँ) होने के साथ-साथ स्वभाव, संयोग और भाग्य भी उन्होंने कुछ वैसा ही पाया था। मेरे पिता के अन्तर्मन का दर्द उनके गीतों में झलकता है। दर्द भरे गीतों की लम्बी सूची में से फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का एक गीत मैं पाठकों को सुनवाना चाहता हूँ।
कृष्णमोहन- दोस्तों, ग़ालिब खाँ के अनुरोध पर हम आपको १९५७ की फिल्म ‘मिस बॉम्बे’ का यह गीत सुनवा रहे हैं। स्वर मोहम्मद रफी का और संगीत हंसराज बहल का है।
फिल्म – मिस बॉम्बे : "ज़िंदगी भर ग़म जुदाई का.." : स्वर – मोहम्मद रफी
कृष्णमोहन- ग़ालिब साहब! साहित्य क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के बारे में भी हमें बताएँ। क्या उनके गीत/ग़ज़ल के संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं?
ग़ालिब खाँ- इस मामले में भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उनकी लिखी हजारों नज्में और गजले जिस डायरी में थी वो डायरी बारिश कि भेंट चढ़ गयी। उन दिनों हम जिस स्थान पर रहते थे उसका नाम था "नालासोपारा", जो पहाड़ी के तल पर था और वहाँ मामूली बारिश में भी बाढ़ कि स्थिति पैदा हो जाती थी और ऐसी ही एक बाढ़, असद भोपाली की सारी "गालिबी" को बहा ले गयी। तब उनकी प्रतिक्रिया, मुझे आज भी याद है। उन्होने कहा था- 'जो मैं बेच सकता था मैं बेच चुका था,और जो बिक ही नहीं पाई वो वैसे भी किसी काम की नहीं थी'। एक शायर के पूरे जीवन की त्रासदी इस एक वाक्य में निहित है।
कृष्णमोहन- आप अपने बारे में भी हमारे पाठको को कुछ बताएँ। यह भी बताएँ कि अपने पिता का आपके ऊपर कितना प्रभाव पड़ा?
ग़ालिब खाँ- मेरे पिता मिर्ज़ा ग़ालिब से कितने प्रभावित थे इसका अंदाज़ा आप इसी से लगा सकते हैं कि उन्होने मेरा नाम ग़ालिब ही रखना पसन्द किया। वो अक्सर कहते थे कि वो असदउल्लाह खाँ "ग़ालिब" थे और ये 'ग़ालिब असदउल्लाह खाँ’ है। अब ये कुछ उस नाम का असर है और कुछ धमनियों में बहते खून का, कि मैंने भी आखिरकार कलम ही थाम ली। शायरी और गीत लेखन से शुरुआत की, फिर टेलीविज़न सीरियल के लेखन से जुड़ गया। ‘शक्तिमान’ जैसे धारावाहिक से शुरुआत की। फिर ‘मार्शल’, ‘पैंथर’, ‘सुराग’ जैसे जासूसी धारावाहिकों के साथ ‘युग’, ‘वक़्त की रफ़्तार’, ‘दीवार’ के साथ-साथ ‘माल है तो ताल है’, ‘जीना इसी का नाम है’, ‘अफलातून’ जैसे हास्य धारावाहिक भी लिखे। ‘हमदम’, ‘वजह’ जैसी फिल्मो का संवाद-लेखन किया और अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म ‘भिन्डी बाज़ार इंक’ की पटकथा-संवाद लिखने का सौभाग्य मिला, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। बस मेरी इतनी ही कोशिश है कि मैं अपने पिता के नाम का मान रख सकूँ और उनके अधूरे सपनों को पूरा कर पाऊँ।
कृष्णमोहन- आपका बहुत-बहुत आभार, आप ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ के मंच पर आए और अपने पिता असद भोपाली की शायरी के विषय में हमारे पाठकों के साथ चर्चा की। अब चलते –चलते आप अपनी पसन्द का कोई गीत हमारे पाठकों/श्रोताओं को सुनवा दें।
ग़ालिब खाँ- ज़रूर, पाठको को मैं एक ऐसा गीत सुनवाना चाहता हूँ, जिसे जब भी मैं सुनता हूँ अपने पिता को अपने आसपास पाता हूँ। यह फिल्म ‘एक नारी दो रूप’ का गीत है जिसे रफी साहब ने गाया है और संगीतकार हैं गणेश। चूँकि फिल्म चली नहीं इसलिए गीत भी अनसुना ही रह गया। आप इस गीत को सुने और मुझे इजाज़त दीजिए।
फिल्म – एक नारी दो रूप : “दिल का सूना साज तराना ढूँढेगा...” : स्वर – मोहम्मद रफी
कृष्णमोहन मिश्र
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