तेरे लिए किशमिश चुनें, पिस्ते चुनें: ऐसे मासूम बोल पर सात क्या सत्तर खून माफ़! गुलज़ार और विशाल का कमाल!
Taaza Sur Taal (TST) - 04/2011 - SAAT KHOON MAAF
एक गीतकार जो सीधे-सीधे यीशु से सवाल पूछता है कि तुम अपने चाहने वालों को कैसे चुनते हो, एक गीतकार जो अपनी प्रेमिका के लिए परिंदों से बागों का सौदा कर लेता है ताकि उसके लिए किशमिश और पिस्ते चुन सके, एक गीतकार जो प्रेमिका की तारीफ़ के लिए "म्याउ-सी लड़की" जैसे संबोधन और उपमाओं की पोटली उड़ेल देता है, एक गीतकार जो आँखों से आँखें चार करने की जिद्द तो करता है, लेकिन मुआफ़ी भी माँगता है कि "सॉरी तुझे संडे के दिन ज़हमत हुई", एक गीतकार जो ओठों से ओठों की छुअन को "ऒठ तले चोट चलने" की संज्ञा देता है, एक गीतकार जो सूखे पत्तों को आवारा बताकर ज़िंदगी की ऐसी सच्चाई बयां करता है कि सीधी-सादी बात भी सूफ़ियाना लगने लाती है .. यह एक ऐसे गीतकार की कहानी है जो शब्दों से ज्यादा भाव को अहमियत देता है और इसलिए शब्दों के गुलेल लेकर भावों के बगीचे में नहीं घुमता, बल्कि भावों के खेत में खड़े होकर शब्दों की चिड़ियों को प्यार से अपने दिल के मटर मुहैया कराता है और फिर उन चिड़ियों को छोड़ देता है खुले आसमान में परवाज़ भरने के लिए, फिर जो भी बहेलिया उन चिड़ियों को अपनी समझ के गुलेल से बस में करने की कोशिश करता है, उसे उन "परिंदों" के पर हीं नसीब होते है, लेकिन जिसे खुले आसमान से प्यार है, वह उन "पाखियों" की हरेक उड़ान का मर्म जान लेता है और न जानते हुए भी जुड़ जाता है उस जादूगर से जिसके पास बार-बार लौटकर ये पंछी जाया करते हैं। यह एक ऐसे गीतकार की कहानी है, जिसे यूँ हीं "गुलज़ार" नहीं कहा जाता।
अब खैर तो नहीं,
कोई बैर तो नहीं,
दुश्मन जिये मेरा,
वो भी गैर तो नहीं.. (ओ मामा)
अपने दिल को इतने प्यार से शायद हीं किसी ने दुश्मन कहा होगा, वैसे भी गुलज़ार साहब दिल और चाँद से खेलने में माहिर है.. आखिर इन्होंने हीं "दिल को पड़ोसी" कहा था और "चाँद को थाली में परोस" दिया था.. शायद हीं ऐसी कोई नज़्म या ग़ज़ल होती है, जिसमें ये चाँद का ज़िक्र नहीं करते। संभव है कि किसी नज़्म या ग़ज़ल में ये चाँद का ज़िक्र करना भूल गए हों लेकिन "एलबम" या "फिल्म" के किसी न किसी गीत में चाँद की बात निकल हीं आती है, लेकिन यह क्या... मेरे हिसाब से "सात खून माफ़" अकेली या पहली फिल्म होगी जिसमें चाँद नदारद है.. हाँ तारे हैं, गुलज़ार साहब तारों को नहीं भूलते और इसलिए कहते हैं कि "तेरे लिए मैं सीसे का आसमान बुन दूँगा, ताकि पैर में तारों की किरचियाँ न चुभें" ("तेरे लिए")। सुरेश वाडेकर साहब ने इस गाने में क्या मिसरी घोली है, उसका बयान शब्दों में नहीं किया जा सकता। "तेरे लिए किशमिश चुनें, पिस्ते चुनें".. इन लफ़्ज़ों को सुनते हीं कश्मीर की वादी आँखों के सामने आ जाती है। वाडेकर साहब से विशाल ने इस गाने में वही तिलिस्म बुनवाया है, जो ओंकारा के "जाग जा" में नज़र आया था।
गुलज़ार साहब "तू" से "आप" का सफ़र बड़ी हीं ईमानदारी और बड़े हीं प्यार से पूरा करते हैं। मुझसे अगर एक गीतकार की हैसियत से पूछा जाए तो मुझे "तू" और "आप" दोनों हीं प्यारे हैं, लेकिन "तू" कुछ ज्यादा प्यारा है। किसी को "आप" कहकर "दिल" उड़ेल देना मुझे थोड़ा मुश्किल का काम लगता आया है, लेकिन "बेकरां" में जिस तरह से गुलज़ार साहब ने अपने नायक से "एक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी.......... लिल्लाह!!!" कहवा दिया है, उसके बाद तो मेरे सारे शक़-ओ-शुबहा दूर हो गए। हाँ ,अपनी प्रेयसी को "आप" कहकर भी उससे(उनसे) इश्क़ जताया जा सकता है और वो भी बड़े हीं लाजवाब तरीके से। "आँख कुछ लाल-सी है, रात जागे तो नही, रात जब बिजली गई, डर के भागे तो नही".. वाह! क्या मासूमियत है इन शब्दों में.. इस गीत को विशाल से अच्छी कोई आवाज़ नहीं मिल सकती थी.. "ओंकारा" के "ओ साथी रे" के बाद विशाल ने अपनी आवाज़ का मखमलीपन इसी गीत के लिये बचाकर रखा था मानो!
बरसों पहले जब गुलज़ार साहब ने एक नज़्म के माध्यम से भगवान शंकर से प्रश्न किया था कि "इतने सारे लोग तुम्हें दूध से नहवाते है, चिपचिपा कर देते हैं तुम्हें, धूप और अगरू के धुएँ से तुम्हारी नाक में दम कर देते हैं, फिर भी तुम हिलते-डुलते नहीं, ना हीं अपनी परेशानी बयां करते हो और ना दूसरों की परेशानी हीं सुनते हो"... "एक ज़रा छींक हीं दो तुम कि यकीं आए कि सब देख रहे हो" तभी मालूम पड़ गया था कि यह शायर ऊपर वाले से आँख में आँख डालकर सवाल पूछने की कुव्वत रखता है... तभी तो जब "यीशु" गाने में ये कहते हैं कि "गिरज़े का गज़र सुनते हो? फिर भी क्यूँ चुप रहते हो?" "क्या जिस्म ये बेमानी है, क्या रूह गरीब होती है, तुम प्यार हीं प्यार हो लेकिन, क्या प्यार सलीब होती है?" तो उस सर्वशक्तिमान की सत्ता भी कांपने लगती है। भला किसमें इतनी हिम्मत होगी जो यीशु से यह पूछे कि "रूई की तरह इस जिस्म को तुम कैसे धुनते हो?" जिस्म और रूह के अस्तित्व और अहमियत के ऐसे सवाल हमेशा-से हीं यक्ष-प्रश्न रहे हैं, काश कभी इसका जवाब मिल जाए! रेखा भारद्वाज जिस तरह से रूह में रूई डुबोकर यीशु के सलीब के सामने सवालों की एक सूची तैयार करती हैं, उससे नामुमकिन है कि "यीशु" ज्यादा देर तक चुप रह पाएँगे। सुनने वाले तो कतई नहीं रह सकते.. उनके दिलों से वाह और आह तो निकल हीं आएगी।
"खादिम को दिल पर तो इख्तियार करने दो" हो या फिर "खादिम हूँ, शहजादी को तैयार करने दो" यानि कि "डार्लिंग" हो या फिर "दूसरी डार्लिंग".. दोनों हीं मामलों में "रसियन धुन" पर थिरकती बावली को खुद के खादिम होने पर बड़ा ही गुमान है। खुद को अपने प्रेमी पर निछावर करने की ऐसी तड़प है कि वह "उसके मिलने" को "वस्ल-ए-ख़ुदा" (ख़ुदा से मिलना) मान बैठी है और इस बात से वह कतई भी शर्मिंदा नहीं है तभी तो कहती है कि "पब्लिक में सनसनी एक बार करने दो"। इस गीत में उषा उत्थुप की मर्दानी आवाज़ (जिसमें डार्लिंग की लंबी तान एक गूंज बनकर कानों में उतरती है) और रेखा भारद्वाज का "हस्कीनेस" एक दूसरे के पूरक बनकर सामने आते हैं। यहाँ पर कौन श्रेष्ठ है का निर्णय करना जितना मुश्किल है, उतना हीं फिजूल भी। "दूसरी डार्लिंग" में उषा उत्थुप पार्श्व में चली गई हैं जहाँ पर पहले से क्लिंटन सेरेजो और फ़्रैक्वाईस कैस्टेलिनों मौजूद हैं। इस गाने की धुन एक रसियन "लोक-गीत" की धुन पर आधारित है। उस रसियन गीत को यहाँ और यहाँ सुना जा सकता है।
अगले गीत की बात करूँ उससे पहले मैं उस गीत (आवारा) के बोलों की तरफ़ सबका ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा:
आवारा आवारा
हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा
पाँव जमीं पे लगते ही उड़ लेते हैं दुबारा
ना शाख जुड़े ना जड़ पकड़े
मौसम मौसम बंजारा
झोंका झोंका ये हवा
रोज़ उड़ाये रे
जाकी डा्ल गयी वो तो बीत गया
जाकी माटी गयी वो का मीत गया
कोई न बुलाये रे
रुत रंग लिये आई भी गई
मुठ्ठियाँ ना खुली बेरंग रही
सूखा पत्ता बंजारा
पेड़ से उतर चुके सूखे पत्तों की मिसाल देकर गुलज़ार साहब रूह से उतर चुकी जिस्म या फिर दो इंसानों के बीच खत्म चुके संबंध की कहानी कहते हैं। एक बार जो जिस्म उतर जाए वह फिर से रूह से जुड़ नहीं पाता, एक बार रिश्ते की जो डोर टूट जाए वह फिर से अपने असल रूप में आ नहीं पाती। पल भर को पत्ते जमीं पर पड़े रहें तो इसका मतलब यह नहीं होता कि उसे जड़ नसीब होने वाला है, क्योंकि अगले हीं पल उसे हवा उड़ाकर कहीं और जा पटकती है। जो एक बार डाल छोड़ दे, वह उस डाल के लिए अतीत हो जाता है, जो एक बार माटी छोड़ दे, वह अपनी ज़िंदगी हीं गंवा बैठता है, फिर चाहे कितने भी मौसम आएँ और जाएँ उस पत्ते के लिए मौसम की मुट्ठी में कोई भी पैगाम, कोई भी खुशखबरी नहीं होती। और इस तरह वह सूखा पत्ता आवारा और बंजारा बनकर रह जाता है। इस लिए यही कोशिश होनी चाहिए कि "वह डोर कभी न टूटे".. आखिर रहीम ने भी तो कहा है:
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय,
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय...
रहींम तो इस बात का यकीन दिलाते हैं कि जुड़ना संभव है, लेकिन गुलज़ार साहब की नज़रों में "एक बार नज़र से गिरे तो फिर नज़र में चढने की कोई संभावना नहीं है।" इस गीत को पढने के बाद ऐसा लगता है कि राहत फ़तेह अली ख़ान साहब हीं इसके साथ सही न्याय कर सकते हैं, लेकिन विशाल ने इस बार एक नए गायक "मास्टर सलीम" में अपना यकीन दिखाया है और यकीनन सलीम साहब इसे निबाहने में खरे उतरते हैं।
अगले दो गाने "ओ मामा" और "दिल दिल है" रॉक शैली के हैं। "ओ मामा" में के के की आवाज़ है तो "दिल दिल है" में "सूरज जगन" की। "के के" लगभग दस साल बाद विशाल के साथ लौटे हैं। "अनुराग कश्यप" की "अनरीलिज़्ड फिल्म" "पाँच" में "के के" के गाए गीत "सर झुका ख़ुदा हूँ मैं" को बहुत सारी प्रशंसा हासिल हुई थी। अगर यह फिल्म रीलिज़ हुई होती तो निस्संदेह यह प्रशंसा सैकड़ों गुणा बढ चुकी होती, लेकिन संगीत की सही समझ रखने वालों को इससे कोई खासा फ़र्क नहीं पड़ता। हम सब "के के" की काबिलियत से अच्छी तरह वाकिफ़ है, इसलिए "ओ मामा" में "म्याऊँ-सी लड़की" सुनकर खुश भी होते हैं और झूम भी पड़ते हैं। जहाँ तक "दिल दिल है" की बात है तो "सूरज जगन" की गायकी "विशाल दादलानी" की तरह सुनाई पड़ती है। सूरज कहीं भी कमजोर नहीं पड़े हैं, लेकिन मेरे हिसाब से विशाल दादलानी होते तो बात हीं कुछ और होती। वैसे यह अच्छी ख़बर है कि विशाल भारद्वाज कुछ गिने-चुने गायकों तक हीं सीमित नहीं है, बल्कि नए-नए गायकों को उनकी आवाज़ और पहुँच के हिसाब से मौका दे रहे हैं। अगर ऐसी बात नहीं होती तो हमें इस फ़िल्म में "सुखविंदर" और "राहत" साहब के गाने सुनने को ज़रूर मिलते।
आपने गौर किया होगा कि हमारी यह समीक्षा "गीतकार" के लिए ज्यादा थी बनिस्पत संगीतकार और गायक-गायिकाओं के। अब क्या करें हम! जहाँ गुलज़ार साहब नज़र आ जाते हैं तो नज़र उनसे हटती हीं नहीं। और वैसे भी हमारी संगीत की समझ बहुत कम है। हम किसी भी गाने में बोल को तरज़ीह देते हैं, क्योंकि हम खुद ठहरे एक "संघर्षरत गीतकार" :)
वैसे एक बात कहना चाहूँगा कि आज के दौर में "विशाल भारद्वाज" एकमात्र ऐसे संगीतकार हैं जो "कविता" की कद्र करते हैं और जानते हैं कि "एक गीतकार" (अमूमन "गुलज़ार साहब") के शब्दों को कितनी अहमियत दी जानी चाहिए, तभी तो इनका हर एक गीत दिल के करीब पहुँच जाता है।
चलिए तो अब आज की बातचीत पर यहीं पूर्णविराम लगाते हैं। अगली मुलाकात अगले हफ़्ते होगी। तब तक "दिल दिल है" गाने से "दिल" की परिभाषा जानने की कोशिश की जाए:
सौ जन्नतों के काबिल है,
यह जाहिलों का जाहिल है..
दिल दर्द की मटकी, दिल जान की आफ़त,
बदमाशियाँ करके, दिखलाए शराफ़त..
जो दिल को चुरा ले, दिल उसकी अमानत,
सब इश्क़ के मुजरिम, एक दिल की जमानत......
आवाज़ रेटिंग - 9/10
सुनने लायक गीत - डार्लिंग, दूसरी डार्लिंग, बेकरां, तेरे लिए, आवारा, यीशु, ओ मामा
एक गीतकार जो सीधे-सीधे यीशु से सवाल पूछता है कि तुम अपने चाहने वालों को कैसे चुनते हो, एक गीतकार जो अपनी प्रेमिका के लिए परिंदों से बागों का सौदा कर लेता है ताकि उसके लिए किशमिश और पिस्ते चुन सके, एक गीतकार जो प्रेमिका की तारीफ़ के लिए "म्याउ-सी लड़की" जैसे संबोधन और उपमाओं की पोटली उड़ेल देता है, एक गीतकार जो आँखों से आँखें चार करने की जिद्द तो करता है, लेकिन मुआफ़ी भी माँगता है कि "सॉरी तुझे संडे के दिन ज़हमत हुई", एक गीतकार जो ओठों से ओठों की छुअन को "ऒठ तले चोट चलने" की संज्ञा देता है, एक गीतकार जो सूखे पत्तों को आवारा बताकर ज़िंदगी की ऐसी सच्चाई बयां करता है कि सीधी-सादी बात भी सूफ़ियाना लगने लाती है .. यह एक ऐसे गीतकार की कहानी है जो शब्दों से ज्यादा भाव को अहमियत देता है और इसलिए शब्दों के गुलेल लेकर भावों के बगीचे में नहीं घुमता, बल्कि भावों के खेत में खड़े होकर शब्दों की चिड़ियों को प्यार से अपने दिल के मटर मुहैया कराता है और फिर उन चिड़ियों को छोड़ देता है खुले आसमान में परवाज़ भरने के लिए, फिर जो भी बहेलिया उन चिड़ियों को अपनी समझ के गुलेल से बस में करने की कोशिश करता है, उसे उन "परिंदों" के पर हीं नसीब होते है, लेकिन जिसे खुले आसमान से प्यार है, वह उन "पाखियों" की हरेक उड़ान का मर्म जान लेता है और न जानते हुए भी जुड़ जाता है उस जादूगर से जिसके पास बार-बार लौटकर ये पंछी जाया करते हैं। यह एक ऐसे गीतकार की कहानी है, जिसे यूँ हीं "गुलज़ार" नहीं कहा जाता।
अब खैर तो नहीं,
कोई बैर तो नहीं,
दुश्मन जिये मेरा,
वो भी गैर तो नहीं.. (ओ मामा)
अपने दिल को इतने प्यार से शायद हीं किसी ने दुश्मन कहा होगा, वैसे भी गुलज़ार साहब दिल और चाँद से खेलने में माहिर है.. आखिर इन्होंने हीं "दिल को पड़ोसी" कहा था और "चाँद को थाली में परोस" दिया था.. शायद हीं ऐसी कोई नज़्म या ग़ज़ल होती है, जिसमें ये चाँद का ज़िक्र नहीं करते। संभव है कि किसी नज़्म या ग़ज़ल में ये चाँद का ज़िक्र करना भूल गए हों लेकिन "एलबम" या "फिल्म" के किसी न किसी गीत में चाँद की बात निकल हीं आती है, लेकिन यह क्या... मेरे हिसाब से "सात खून माफ़" अकेली या पहली फिल्म होगी जिसमें चाँद नदारद है.. हाँ तारे हैं, गुलज़ार साहब तारों को नहीं भूलते और इसलिए कहते हैं कि "तेरे लिए मैं सीसे का आसमान बुन दूँगा, ताकि पैर में तारों की किरचियाँ न चुभें" ("तेरे लिए")। सुरेश वाडेकर साहब ने इस गाने में क्या मिसरी घोली है, उसका बयान शब्दों में नहीं किया जा सकता। "तेरे लिए किशमिश चुनें, पिस्ते चुनें".. इन लफ़्ज़ों को सुनते हीं कश्मीर की वादी आँखों के सामने आ जाती है। वाडेकर साहब से विशाल ने इस गाने में वही तिलिस्म बुनवाया है, जो ओंकारा के "जाग जा" में नज़र आया था।
गुलज़ार साहब "तू" से "आप" का सफ़र बड़ी हीं ईमानदारी और बड़े हीं प्यार से पूरा करते हैं। मुझसे अगर एक गीतकार की हैसियत से पूछा जाए तो मुझे "तू" और "आप" दोनों हीं प्यारे हैं, लेकिन "तू" कुछ ज्यादा प्यारा है। किसी को "आप" कहकर "दिल" उड़ेल देना मुझे थोड़ा मुश्किल का काम लगता आया है, लेकिन "बेकरां" में जिस तरह से गुलज़ार साहब ने अपने नायक से "एक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी.......... लिल्लाह!!!" कहवा दिया है, उसके बाद तो मेरे सारे शक़-ओ-शुबहा दूर हो गए। हाँ ,अपनी प्रेयसी को "आप" कहकर भी उससे(उनसे) इश्क़ जताया जा सकता है और वो भी बड़े हीं लाजवाब तरीके से। "आँख कुछ लाल-सी है, रात जागे तो नही, रात जब बिजली गई, डर के भागे तो नही".. वाह! क्या मासूमियत है इन शब्दों में.. इस गीत को विशाल से अच्छी कोई आवाज़ नहीं मिल सकती थी.. "ओंकारा" के "ओ साथी रे" के बाद विशाल ने अपनी आवाज़ का मखमलीपन इसी गीत के लिये बचाकर रखा था मानो!
बरसों पहले जब गुलज़ार साहब ने एक नज़्म के माध्यम से भगवान शंकर से प्रश्न किया था कि "इतने सारे लोग तुम्हें दूध से नहवाते है, चिपचिपा कर देते हैं तुम्हें, धूप और अगरू के धुएँ से तुम्हारी नाक में दम कर देते हैं, फिर भी तुम हिलते-डुलते नहीं, ना हीं अपनी परेशानी बयां करते हो और ना दूसरों की परेशानी हीं सुनते हो"... "एक ज़रा छींक हीं दो तुम कि यकीं आए कि सब देख रहे हो" तभी मालूम पड़ गया था कि यह शायर ऊपर वाले से आँख में आँख डालकर सवाल पूछने की कुव्वत रखता है... तभी तो जब "यीशु" गाने में ये कहते हैं कि "गिरज़े का गज़र सुनते हो? फिर भी क्यूँ चुप रहते हो?" "क्या जिस्म ये बेमानी है, क्या रूह गरीब होती है, तुम प्यार हीं प्यार हो लेकिन, क्या प्यार सलीब होती है?" तो उस सर्वशक्तिमान की सत्ता भी कांपने लगती है। भला किसमें इतनी हिम्मत होगी जो यीशु से यह पूछे कि "रूई की तरह इस जिस्म को तुम कैसे धुनते हो?" जिस्म और रूह के अस्तित्व और अहमियत के ऐसे सवाल हमेशा-से हीं यक्ष-प्रश्न रहे हैं, काश कभी इसका जवाब मिल जाए! रेखा भारद्वाज जिस तरह से रूह में रूई डुबोकर यीशु के सलीब के सामने सवालों की एक सूची तैयार करती हैं, उससे नामुमकिन है कि "यीशु" ज्यादा देर तक चुप रह पाएँगे। सुनने वाले तो कतई नहीं रह सकते.. उनके दिलों से वाह और आह तो निकल हीं आएगी।
"खादिम को दिल पर तो इख्तियार करने दो" हो या फिर "खादिम हूँ, शहजादी को तैयार करने दो" यानि कि "डार्लिंग" हो या फिर "दूसरी डार्लिंग".. दोनों हीं मामलों में "रसियन धुन" पर थिरकती बावली को खुद के खादिम होने पर बड़ा ही गुमान है। खुद को अपने प्रेमी पर निछावर करने की ऐसी तड़प है कि वह "उसके मिलने" को "वस्ल-ए-ख़ुदा" (ख़ुदा से मिलना) मान बैठी है और इस बात से वह कतई भी शर्मिंदा नहीं है तभी तो कहती है कि "पब्लिक में सनसनी एक बार करने दो"। इस गीत में उषा उत्थुप की मर्दानी आवाज़ (जिसमें डार्लिंग की लंबी तान एक गूंज बनकर कानों में उतरती है) और रेखा भारद्वाज का "हस्कीनेस" एक दूसरे के पूरक बनकर सामने आते हैं। यहाँ पर कौन श्रेष्ठ है का निर्णय करना जितना मुश्किल है, उतना हीं फिजूल भी। "दूसरी डार्लिंग" में उषा उत्थुप पार्श्व में चली गई हैं जहाँ पर पहले से क्लिंटन सेरेजो और फ़्रैक्वाईस कैस्टेलिनों मौजूद हैं। इस गाने की धुन एक रसियन "लोक-गीत" की धुन पर आधारित है। उस रसियन गीत को यहाँ और यहाँ सुना जा सकता है।
अगले गीत की बात करूँ उससे पहले मैं उस गीत (आवारा) के बोलों की तरफ़ सबका ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा:
आवारा आवारा
हवा पे रखे सूखे पत्ते आवारा
पाँव जमीं पे लगते ही उड़ लेते हैं दुबारा
ना शाख जुड़े ना जड़ पकड़े
मौसम मौसम बंजारा
झोंका झोंका ये हवा
रोज़ उड़ाये रे
जाकी डा्ल गयी वो तो बीत गया
जाकी माटी गयी वो का मीत गया
कोई न बुलाये रे
रुत रंग लिये आई भी गई
मुठ्ठियाँ ना खुली बेरंग रही
सूखा पत्ता बंजारा
पेड़ से उतर चुके सूखे पत्तों की मिसाल देकर गुलज़ार साहब रूह से उतर चुकी जिस्म या फिर दो इंसानों के बीच खत्म चुके संबंध की कहानी कहते हैं। एक बार जो जिस्म उतर जाए वह फिर से रूह से जुड़ नहीं पाता, एक बार रिश्ते की जो डोर टूट जाए वह फिर से अपने असल रूप में आ नहीं पाती। पल भर को पत्ते जमीं पर पड़े रहें तो इसका मतलब यह नहीं होता कि उसे जड़ नसीब होने वाला है, क्योंकि अगले हीं पल उसे हवा उड़ाकर कहीं और जा पटकती है। जो एक बार डाल छोड़ दे, वह उस डाल के लिए अतीत हो जाता है, जो एक बार माटी छोड़ दे, वह अपनी ज़िंदगी हीं गंवा बैठता है, फिर चाहे कितने भी मौसम आएँ और जाएँ उस पत्ते के लिए मौसम की मुट्ठी में कोई भी पैगाम, कोई भी खुशखबरी नहीं होती। और इस तरह वह सूखा पत्ता आवारा और बंजारा बनकर रह जाता है। इस लिए यही कोशिश होनी चाहिए कि "वह डोर कभी न टूटे".. आखिर रहीम ने भी तो कहा है:
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय,
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ि जाय...
रहींम तो इस बात का यकीन दिलाते हैं कि जुड़ना संभव है, लेकिन गुलज़ार साहब की नज़रों में "एक बार नज़र से गिरे तो फिर नज़र में चढने की कोई संभावना नहीं है।" इस गीत को पढने के बाद ऐसा लगता है कि राहत फ़तेह अली ख़ान साहब हीं इसके साथ सही न्याय कर सकते हैं, लेकिन विशाल ने इस बार एक नए गायक "मास्टर सलीम" में अपना यकीन दिखाया है और यकीनन सलीम साहब इसे निबाहने में खरे उतरते हैं।
अगले दो गाने "ओ मामा" और "दिल दिल है" रॉक शैली के हैं। "ओ मामा" में के के की आवाज़ है तो "दिल दिल है" में "सूरज जगन" की। "के के" लगभग दस साल बाद विशाल के साथ लौटे हैं। "अनुराग कश्यप" की "अनरीलिज़्ड फिल्म" "पाँच" में "के के" के गाए गीत "सर झुका ख़ुदा हूँ मैं" को बहुत सारी प्रशंसा हासिल हुई थी। अगर यह फिल्म रीलिज़ हुई होती तो निस्संदेह यह प्रशंसा सैकड़ों गुणा बढ चुकी होती, लेकिन संगीत की सही समझ रखने वालों को इससे कोई खासा फ़र्क नहीं पड़ता। हम सब "के के" की काबिलियत से अच्छी तरह वाकिफ़ है, इसलिए "ओ मामा" में "म्याऊँ-सी लड़की" सुनकर खुश भी होते हैं और झूम भी पड़ते हैं। जहाँ तक "दिल दिल है" की बात है तो "सूरज जगन" की गायकी "विशाल दादलानी" की तरह सुनाई पड़ती है। सूरज कहीं भी कमजोर नहीं पड़े हैं, लेकिन मेरे हिसाब से विशाल दादलानी होते तो बात हीं कुछ और होती। वैसे यह अच्छी ख़बर है कि विशाल भारद्वाज कुछ गिने-चुने गायकों तक हीं सीमित नहीं है, बल्कि नए-नए गायकों को उनकी आवाज़ और पहुँच के हिसाब से मौका दे रहे हैं। अगर ऐसी बात नहीं होती तो हमें इस फ़िल्म में "सुखविंदर" और "राहत" साहब के गाने सुनने को ज़रूर मिलते।
आपने गौर किया होगा कि हमारी यह समीक्षा "गीतकार" के लिए ज्यादा थी बनिस्पत संगीतकार और गायक-गायिकाओं के। अब क्या करें हम! जहाँ गुलज़ार साहब नज़र आ जाते हैं तो नज़र उनसे हटती हीं नहीं। और वैसे भी हमारी संगीत की समझ बहुत कम है। हम किसी भी गाने में बोल को तरज़ीह देते हैं, क्योंकि हम खुद ठहरे एक "संघर्षरत गीतकार" :)
वैसे एक बात कहना चाहूँगा कि आज के दौर में "विशाल भारद्वाज" एकमात्र ऐसे संगीतकार हैं जो "कविता" की कद्र करते हैं और जानते हैं कि "एक गीतकार" (अमूमन "गुलज़ार साहब") के शब्दों को कितनी अहमियत दी जानी चाहिए, तभी तो इनका हर एक गीत दिल के करीब पहुँच जाता है।
चलिए तो अब आज की बातचीत पर यहीं पूर्णविराम लगाते हैं। अगली मुलाकात अगले हफ़्ते होगी। तब तक "दिल दिल है" गाने से "दिल" की परिभाषा जानने की कोशिश की जाए:
सौ जन्नतों के काबिल है,
यह जाहिलों का जाहिल है..
दिल दर्द की मटकी, दिल जान की आफ़त,
बदमाशियाँ करके, दिखलाए शराफ़त..
जो दिल को चुरा ले, दिल उसकी अमानत,
सब इश्क़ के मुजरिम, एक दिल की जमानत......
आवाज़ रेटिंग - 9/10
सुनने लायक गीत - डार्लिंग, दूसरी डार्लिंग, बेकरां, तेरे लिए, आवारा, यीशु, ओ मामा
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
Comments
आप भी क्या याद रखेंगे, चलिए ९ किए देता हूँ। मुझे बस "दिल दिल है" से कुछ दिक्कते हैं, जैसे कि "सूरज" की आवाज़, इसलिए इस एलबम को दस नहीं दिया, नहीं तो १० पक्का था ;)
-विश्व दीपक
आज गुलज़ार की प्रेरणा से आपकी समीक्षा ओतप्रोत है. सजीव जी ने बिलकुल ठीक ही कहा है.खास तौर पर आपने जो शब्दों के गुलेल और भावों के बगीचे या खेत में दिल से मटर खिलाने का जो रूपक बाँधा है वोह बिलकुल गुलज़ार की तरह सर्वथा अनूठा है.
मरहबा. जीते रहिये.
मेरी भी हमेशा यह मजबूरी रही है कि मैं गीतों में संगीत को अगर फूल समझता हूँ तो शब्दों को खुशबू. यदि पुष्प सुगंधहीन होगा तो उसका रूप कुछ समय तक आकर्षित कर सकता है परन्तु सुगंध तो चारों तरफ वातावरण में फैल कर बहुत समय तक सबको लुभाती रहती है.
गुलज़ार साहेब की उपमाएं तो लाजवाब होती हैं.चाँद कटोरा लिए भिखारिन रात, चड्डी पहन कर खिला फूल, आदि आदि. क्या बात है!मैं भी मुरीद हूँ उनका.
इसी सन्दर्भ में एक और शायर की चीज़ याद आ गयी जो मुझे बहुत पसंद है: चाँद एक बेवा की चूड़ी की तरह टूटा हुआ/हर सितारा बेसहारा सोच में डूबा हुआ/ग़म के बादल एक जनाजे की तरह ठहरे हुए/सिसकियों के साज़ पर कहता है दिल रोता हुआ.हसरत जयपुरी.
अब आप दोनों ने इतनी तारीफ की है और वैसे भी विशाल भारद्वाज का संगीत तो उत्तम होना ही है.
यह मास्टर सलीम कौन हैं? बहुत दिन तक मैं समझता रहा कि संगीतकार सलीम मर्चेंट ही यही गायक हैं.
एक बार फिर आभार,
अवध लाल
aapki sameekhshaa bhi bahut khoob hai !
- Kuhoo