हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९०
"जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ."
पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे में ऐसा कुछ पढने को मिलेगा.. मुझे ऐसी उम्मीद न थी। लेकिन क्या कीजिएगा.. कई दफ़ा कई चीजें उम्मीद के उलट चली जाती हैं, जिनपर आपका तनिक भी बस नहीं होता। और वैसे भी शायरों की(या किसी भी फ़नकार की) ज़िन्दगी कितनी जमीन के ऊपर होती हैं और कितनी जमीन के अंदर.. इसका पता आराम से नहीं लग पाता। जैसे कि साहिर सच में क्या थे.. कौन जाने? हम तो उतना हीं जान पाते हैं, जितना हमें मुहय्या कराया जाता है। और यह सही भी है.. हमें शायरों के इल्म से मतलब होना चाहिए, न कि उनकी जाती अच्छाईयों और खराबियों से। खैर........ हम भी कहाँ उलझ गए। महफ़िल जाँ निसार साहब को समर्पित है तो बात भी उन्हीं की होनी चाहिए।
निदा फ़ाज़ली जब उन शायरों का ज़िक्र करते हैं जो लिखते तो "माशा-अल्लाह" कमाल के हैं, लेकिन अपनी रचना सुनाने की कला से नावाकिफ़ होते हैं... तो वैसे शायरों में "जाँ निसार" साहब का नाम काफ़ी ऊपर आता है। निदा कहते हैं:
अभी भी ऐसे कई शायर हैं जिनकी रचनाएँ कागज़ पर तो खुब रीझाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं को मंच पर परोसना नहीं आता। वहीं कुछ शायर ऐसे होते हैं जो दोनों विधाओं में माहिर होते हैं.. जैसे कि "कैफ़ी आज़मी"। कैफ़ी आज़मी का उदाहरण देते हुए "निदा" कहते हैं:
मंच से कहने की कला आए ना आए, लेकिन लिखने की कला में माहिर होना एक शायर की बुनियादी जरूरत है। वैसे आजकल कई ऐसे कवि और शायर हो आए हैं, जो बस "मज़ाक" के दम पर मंच की शोभा बने रहते हैं। ऐसे शायरों की जमात बढती जा रही है। जहाँ पहले कैफ़ी आज़मी जैसे शायर मिनटों में अपनी गज़लें सुना दिया करते थे, वहीं आजकल ज्यादातर मंचीय कवि घंटों माईक के सामने रहते हुए भी चार पंक्तियाँ भी नहीं कह पाते, क्योंकि उन्हें बीच में कई सारी "फूहड़" कहानियाँ जो सुनानी होती हैं। पहले के शायर मंच पर अगर उलझते भी थे तो उसका एक अलग मज़ा होता था.. आजकल की तरह नहीं कि व्यक्तिगत आक्षेप किए जा रहे हैं। निदा ऐसे हीं दो महान शायरों की उलझनों का जिक्र करते हैं -
नारायण प्रसाद मेहर और मुज़्तर ख़ैराबादी, ग्वालियर के दो उस्ताद शायर थे.
मेहर साहब दाग़ के शिष्य और उनके जाँनशीन थे, मुज़्तर साहब दाग़ के समकालीन अमीर मीनाई के शागिर्द थे. दोनों उस्तादों में अपने उस्तादों को लेकर मनमुटाव रहता था, दोनों शागिर्दों के साथ मुशायरों में आते थे और एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते.
अब आप सोच रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है.. जाँ निसार अख्तर की बात करते-करते मैं ये कहाँ आ गया। घबराईये मत... "मेहर" साहब और "खैराबादी" साहब का जिक्र बेसबब नहीं।
दर-असल "खैराबदी" साहब कोई और नहीं जाँ निसार अख्तर के अब्बा थे और "मेहर" साहब "जाँ निसार" के उस्ताद..
जाँ निसार अख्तर किस परिवार से ताल्लुकात रखते थे- इस बारे में "विजय अकेला" ने "निगाहों के साये" किताब में लिखा है:
जाँ निसार अख्तर न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में ,रूबाईयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। फिल्मी गीतों के बारे में तो आपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर पढा हीं होगा, इसलिए मैं यहाँ उनकी बातें न करूँगा। एक रूबाई तो हम पहले हीं पेश कर चुके हैं, इसलिए अब नज़्म की बारी है। मुझे पूरा यकीन है कि आपने यह नज़्म जरूर सुनी होगी, लेकिन यह न जानते होंगे कि इसे "जां निसार" साहब ने हीं लिखा था:
एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.
इस शायर के बारे में क्या कहूँ और क्या अगली कड़ी के लिए रख लूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा। फिर भी चलते-चलते ये दो शेर तो सुना हीं जाऊँगा:
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
"जाँ निसार" साहब के बारे में और भी कुछ जानना हो तो यहाँ जाएँ। वैसे इतना तो आपको पता हीं होगा कि "जाँ निसार अख्तर" आज के सुविख्यात शायर और गीतकार "जावेद अख्तर" के पिता थे।
आज के लिए इतना हीं काफ़ी है। तो अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज जो गज़ल लेकर हम आप सब के बीच हाज़िर हुए हैं उसे तरन्नुम में सजाया है "रूप कुमार राठौड़" ने। लीजिए पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल, जिसमें यादें गढने और चेहरे पढने की बातें हो रही हैं:
हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको ______ देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-
बस अब तो मेरा दामन छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने
पिछली बार की महफ़िल-ए-गज़ल की शोभा बनीं शन्नो जी। महफ़िल में शन्नो जी और सुमित जी के बीच "गज़लों में दर्द की प्रधानता" पर की गई बातचीत अच्छी लगी। इसी वाद-विवाद में अवनींद्र जी भी शामिल हुए और अंतत: निष्कर्ष यह निकला कि बिना दर्द के शायरों का कोई अस्तित्व नहीं होता। शायर तभी लिखने को बाध्य होता है, जब उसके अंदर पड़ा दर्द उबलने की चरम सीमा तक पहुँच जाता है या फिर वह दर्द उबलकर "ज्वालामुखी" का रूप ले चुका होता है। "खुशियों" में तो नज़्में लिखी जाती हैं, गज़लें नहीं। महफ़िल में आप तीनों के बाद अवध जी के कदम पकड़े। अवध जी, आपने सही पकड़ा है... वह इंसान जो ज़िंदगी भर प्यार का मुहताज रहा, वह जीने के लिए दर्द के नगमें न लिखेगा तो और क्या करेगा। फिर भी ये हालत थी कि "दिल के दर्द को दूना कर गया जो गमखार मिला "। आप सबों के बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में मंजु जी और शरद जी आएँ जिन्होंने श्रोताओं का दामन दर्द और खलिश से भर दिया। आशीष जी का इस महफ़िल में पहली बार आना हमारे लिए सुखदायी रहा और उनकी झोली से शेरों की बारिश देखकर मन बाग-बाग हो गया। और अंत में महफ़िल का शमा बुझाने के लिए "नीलम" जी का आना हुआ, जो अभी-अभी आए नियमों से अनभिज्ञ मालूम हुईं। कोई बात-बात नहीं धीरे-धीरे इन नियमों की आदत पड़ जाएगी :)
ये रहे महफ़िल में पेश किए गए शेर:
जुल्म सहने की भी कोई इन्तहां होती है
शिकायतों से अपनी कोई दामन भर गया. (शन्नो जी)
आसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा,
हाथ तो मैने उठाये थे दुआ किसकी थी (अनाम)
मेरे दामन तेरे प्यार की सौगात नहीं
तो कोई बात नही,तो कोई बात नही । (शरद जी)
काँटों में खिले हैं फूल हमारे रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से दामन को बचाए जाते हैं. (शैलेन्द्र)
अपने ही दामन मैं लिपटा सोचता हूँ
आसमाँ पे कुछ नए गम खोजता हूँ (अवनींद्र जी)
तेरे आने से खुशियों का दामन चहक रहा ,
जाने की बात से दिल का आंगन छलक रहा . (मंजु जी)
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला || (हरिवंश राय बच्चन)
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफ़ाई)
शफ़क़,धनुक ,महताब ,घटाएं ,तारें ,नगमे बिजली फूल
उस दामन में क्या -क्या कुछ है,वो दामन हाथ में आये तो (अनाम)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
"जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ."
पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे में ऐसा कुछ पढने को मिलेगा.. मुझे ऐसी उम्मीद न थी। लेकिन क्या कीजिएगा.. कई दफ़ा कई चीजें उम्मीद के उलट चली जाती हैं, जिनपर आपका तनिक भी बस नहीं होता। और वैसे भी शायरों की(या किसी भी फ़नकार की) ज़िन्दगी कितनी जमीन के ऊपर होती हैं और कितनी जमीन के अंदर.. इसका पता आराम से नहीं लग पाता। जैसे कि साहिर सच में क्या थे.. कौन जाने? हम तो उतना हीं जान पाते हैं, जितना हमें मुहय्या कराया जाता है। और यह सही भी है.. हमें शायरों के इल्म से मतलब होना चाहिए, न कि उनकी जाती अच्छाईयों और खराबियों से। खैर........ हम भी कहाँ उलझ गए। महफ़िल जाँ निसार साहब को समर्पित है तो बात भी उन्हीं की होनी चाहिए।
निदा फ़ाज़ली जब उन शायरों का ज़िक्र करते हैं जो लिखते तो "माशा-अल्लाह" कमाल के हैं, लेकिन अपनी रचना सुनाने की कला से नावाकिफ़ होते हैं... तो वैसे शायरों में "जाँ निसार" साहब का नाम काफ़ी ऊपर आता है। निदा कहते हैं:
जाँ निसार नर्म लहज़े के अच्छे रूमानी शायर थे... उनके अक्सर शेर उन दिनों नौजवानों को काफ़ी पसंद आते थे। कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ अपने प्रेम-पत्रों में उनका इस्तेमाल भी करते थे– जैसे,
दूर कोई रात भर गाता रहा
तेरा मिलना मुझको याद आता रहा
छुप गया बादलों में आधा चाँद,
रौशनी छन रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले,
झाँकता है कोई सलाखों से
लेकिन अपनी मिमियाती आवाज़ में, शब्दों को इलास्टिक की तरह खेंच-खेंचकर जब वह सुनाते थे, तो सुनने वाले ऊब कर तालियाँ बजाने लगाते थे। जाँ निसार आखें बंद किए अपनी धुन में पढ़े जाते थे, और श्रोता उठ उठकर चले जाते थे.
अभी भी ऐसे कई शायर हैं जिनकी रचनाएँ कागज़ पर तो खुब रीझाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं को मंच पर परोसना नहीं आता। वहीं कुछ शायर ऐसे होते हैं जो दोनों विधाओं में माहिर होते हैं.. जैसे कि "कैफ़ी आज़मी"। कैफ़ी आज़मी का उदाहरण देते हुए "निदा" कहते हैं:
कैफ़ी आज़मी, बड़े-बड़े तरन्नुमबाज़ शायरों के होते हुए अपने पढ़ने के अंदाज़ से मुशायरों पर छा जाते थे. एक बार ग्वालियर के मेलामंच से कैफी साहब अपनी नज़्म सुना रहे थे.
तुझको पहचान लिया
दूर से आने वाले,
जाल बिछाने वाले
दूसरी पंक्तियों में ‘जाल बिछाने वाले’ को पढ़ते हुए उनके एक हाथ का इशारा गेट पर खड़े पुलिस वाले की तरफ था. वह बेचारा सहम गया. उसी समय गेट क्रैश हुआ और बाहर की जनता झटके से अंदर घुस आई और पुलिसवाला डरा हुआ खामोश खड़ा रहा
मंच से कहने की कला आए ना आए, लेकिन लिखने की कला में माहिर होना एक शायर की बुनियादी जरूरत है। वैसे आजकल कई ऐसे कवि और शायर हो आए हैं, जो बस "मज़ाक" के दम पर मंच की शोभा बने रहते हैं। ऐसे शायरों की जमात बढती जा रही है। जहाँ पहले कैफ़ी आज़मी जैसे शायर मिनटों में अपनी गज़लें सुना दिया करते थे, वहीं आजकल ज्यादातर मंचीय कवि घंटों माईक के सामने रहते हुए भी चार पंक्तियाँ भी नहीं कह पाते, क्योंकि उन्हें बीच में कई सारी "फूहड़" कहानियाँ जो सुनानी होती हैं। पहले के शायर मंच पर अगर उलझते भी थे तो उसका एक अलग मज़ा होता था.. आजकल की तरह नहीं कि व्यक्तिगत आक्षेप किए जा रहे हैं। निदा ऐसे हीं दो महान शायरों की उलझनों का जिक्र करते हैं -
नारायण प्रसाद मेहर और मुज़्तर ख़ैराबादी, ग्वालियर के दो उस्ताद शायर थे.
मेहर साहब दाग़ के शिष्य और उनके जाँनशीन थे, मुज़्तर साहब दाग़ के समकालीन अमीर मीनाई के शागिर्द थे. दोनों उस्तादों में अपने उस्तादों को लेकर मनमुटाव रहता था, दोनों शागिर्दों के साथ मुशायरों में आते थे और एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते.
अब आप सोच रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है.. जाँ निसार अख्तर की बात करते-करते मैं ये कहाँ आ गया। घबराईये मत... "मेहर" साहब और "खैराबादी" साहब का जिक्र बेसबब नहीं।
दर-असल "खैराबदी" साहब कोई और नहीं जाँ निसार अख्तर के अब्बा थे और "मेहर" साहब "जाँ निसार" के उस्ताद..
जाँ निसार अख्तर किस परिवार से ताल्लुकात रखते थे- इस बारे में "विजय अकेला" ने "निगाहों के साये" किताब में लिखा है:
जाँ निसार अख्तर उस मशहूर-ओ-मारुफ़ शायर मुज़्तर खै़राबादी के बेटे थे जिसका नाम सुनकर शायरी किसी शोख़ नाज़नीं की तरह इठलाती है। जाँ निसार उस शायरी के सर्वगुण सम्पन्न और मशहूर शायर सय्यद अहमद हुसैन के पोते थे जिनके कलाम पढ़ने भर ही से आप बुद्धिजीवी कहलाते हैं। हिरमाँ जो उर्दू अदब की तवारीख़ में अपना स्थान बना चुकी हैं वे जाँ निसार अख़्तर की दादी ही तो थीं जिनका असल नाम सईदुन-निसा था। अब यह जान लीजिए कि हिरमाँ के वालिद कौन थे। वे थे अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ खै़राबादी जिन्होंनें दीवान-ए-ग़ालिब का सम्पादन किया था और जिन्हें १८५७ के सिपाही-विद्रोह में शामिल होने और नेतृत्व करने के जुर्म में अंडमान भेजा गया था। कालापानी की सजा सुनाई गयी थी।
शायर की बेगम का नाम साफ़िया सिराज-उल-हक़ था, जिसका नाम भी उर्दू अदब में उनकी किताब ‘ज़ेर-ए-नज़र’ की वजह से बड़ी इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। और साफ़िया के भाई थे मजाज़। उर्दू शायरी के सबसे अनोखे शायर। आज के मशहूर विचारक डॉ. गोपीचन्द्र नारंग ने तो इस ख़ानदान के बारें में यहाँ तक लिख दिया है कि इस खा़नदान के योगदान के बग़ैर उर्दू अदब की तवारीख़ अधूरी है।
जाँ निसार अख्तर न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में ,रूबाईयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। फिल्मी गीतों के बारे में तो आपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर पढा हीं होगा, इसलिए मैं यहाँ उनकी बातें न करूँगा। एक रूबाई तो हम पहले हीं पेश कर चुके हैं, इसलिए अब नज़्म की बारी है। मुझे पूरा यकीन है कि आपने यह नज़्म जरूर सुनी होगी, लेकिन यह न जानते होंगे कि इसे "जां निसार" साहब ने हीं लिखा था:
एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.
इस शायर के बारे में क्या कहूँ और क्या अगली कड़ी के लिए रख लूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा। फिर भी चलते-चलते ये दो शेर तो सुना हीं जाऊँगा:
अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
"जाँ निसार" साहब के बारे में और भी कुछ जानना हो तो यहाँ जाएँ। वैसे इतना तो आपको पता हीं होगा कि "जाँ निसार अख्तर" आज के सुविख्यात शायर और गीतकार "जावेद अख्तर" के पिता थे।
आज के लिए इतना हीं काफ़ी है। तो अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज जो गज़ल लेकर हम आप सब के बीच हाज़िर हुए हैं उसे तरन्नुम में सजाया है "रूप कुमार राठौड़" ने। लीजिए पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल, जिसमें यादें गढने और चेहरे पढने की बातें हो रही हैं:
हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको ______ देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-
बस अब तो मेरा दामन छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने
पिछली बार की महफ़िल-ए-गज़ल की शोभा बनीं शन्नो जी। महफ़िल में शन्नो जी और सुमित जी के बीच "गज़लों में दर्द की प्रधानता" पर की गई बातचीत अच्छी लगी। इसी वाद-विवाद में अवनींद्र जी भी शामिल हुए और अंतत: निष्कर्ष यह निकला कि बिना दर्द के शायरों का कोई अस्तित्व नहीं होता। शायर तभी लिखने को बाध्य होता है, जब उसके अंदर पड़ा दर्द उबलने की चरम सीमा तक पहुँच जाता है या फिर वह दर्द उबलकर "ज्वालामुखी" का रूप ले चुका होता है। "खुशियों" में तो नज़्में लिखी जाती हैं, गज़लें नहीं। महफ़िल में आप तीनों के बाद अवध जी के कदम पकड़े। अवध जी, आपने सही पकड़ा है... वह इंसान जो ज़िंदगी भर प्यार का मुहताज रहा, वह जीने के लिए दर्द के नगमें न लिखेगा तो और क्या करेगा। फिर भी ये हालत थी कि "दिल के दर्द को दूना कर गया जो गमखार मिला "। आप सबों के बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में मंजु जी और शरद जी आएँ जिन्होंने श्रोताओं का दामन दर्द और खलिश से भर दिया। आशीष जी का इस महफ़िल में पहली बार आना हमारे लिए सुखदायी रहा और उनकी झोली से शेरों की बारिश देखकर मन बाग-बाग हो गया। और अंत में महफ़िल का शमा बुझाने के लिए "नीलम" जी का आना हुआ, जो अभी-अभी आए नियमों से अनभिज्ञ मालूम हुईं। कोई बात-बात नहीं धीरे-धीरे इन नियमों की आदत पड़ जाएगी :)
ये रहे महफ़िल में पेश किए गए शेर:
जुल्म सहने की भी कोई इन्तहां होती है
शिकायतों से अपनी कोई दामन भर गया. (शन्नो जी)
आसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा,
हाथ तो मैने उठाये थे दुआ किसकी थी (अनाम)
मेरे दामन तेरे प्यार की सौगात नहीं
तो कोई बात नही,तो कोई बात नही । (शरद जी)
काँटों में खिले हैं फूल हमारे रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से दामन को बचाए जाते हैं. (शैलेन्द्र)
अपने ही दामन मैं लिपटा सोचता हूँ
आसमाँ पे कुछ नए गम खोजता हूँ (अवनींद्र जी)
तेरे आने से खुशियों का दामन चहक रहा ,
जाने की बात से दिल का आंगन छलक रहा . (मंजु जी)
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला || (हरिवंश राय बच्चन)
दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफ़ाई)
शफ़क़,धनुक ,महताब ,घटाएं ,तारें ,नगमे बिजली फूल
उस दामन में क्या -क्या कुछ है,वो दामन हाथ में आये तो (अनाम)
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
Comments
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
regards
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही
ग़लत न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का
न माने दीदा-ए-दीदारजू तो क्यों कर हो
(ग़ालिब )
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
(गुलज़ार )
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब
(जावेद अख़्तर )
हर कोई झूठी तसल्ली दे रहा है इन दिनों
ये शहर रूठा हुआ बच्चा हुआ है दोस्तो।
(कमलेश भट्ट 'कमल' )
regards
शेर अर्ज़ है
देखा था उसे इक बार बड़ी तसल्ली से
उस से बेहतर कोई दूसरा नहीं देखा
ज़िन्दगी से मिला हूँ मगर कुछ इस तरह
मैंने उसकी उसने मेरी तरफ नहीं देखा (स्वरचित )
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
जानकारी पूर्ण आलेख! निदा साहब के शब्दों में थोड़ी व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता झलक रही है.
वो मेरे बचपन की यादें भी सुहानी ले गया ।
आ गया अखबार वाला हादिसे होने के बाद
कुछ तसल्ली दे के वो मेरी कहानी ले गया ।
(स्वरचित)
क्या ये कम है मसीहा के होने से ही मौत का भी इरादा बदल जायेगा
---कभी रेडियो में जगजीत सिंह की आवाज में सुनी थी शायर का नाम नहीं पता |तनहा जी आप से ही उम्मीद है :)
वो रुला के हंस न पाया देर तक
रो के जब मैं मुस्कुराया देर तक
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
---नवाज़ देवबंदी
---------आशीष
tab tak k liye bbye.....
१.
जब निगाहें बचा के तसल्ली न मिली
तो उस गली से गुजरना ही छोड़ दिया.
( स्वरचित ) - शन्नो
२.
सारे जमाने का दर्द है जिसके सीने में
वो तसल्ली भी दे किसी को तो कैसे.
( स्वरचित ) - शन्नो
३.
क्यों बेरहम है मुझपर खुदा इतना तो बता
मुझे तसल्ली न दे सके तो जख्म भी न दे.
( स्वरचित ) - शन्नो
---Ashish
स्वरचित शेर प्रस्तुत है -
मेरे ख्वाबों का जनाजा उनकी गली से गुजरा ,
बेवफा !तसल्ली के दो शब्द भी न बोल सका .
कुछ शीशे के टुकड़े थे यहाँ
अपने मन की तसल्ली को
कोई बुहारी लगा गया यहाँ.
( स्वरचित ) - शन्नो
किस्मत थी किसकी ,किसकी वफ़ा थी
तनहा जी आपके कुछ मित्र के कहने पर आपने जो रोक लगाईं है ,हम नहीं मानने वाले उसके दो कारण हैं :-
१)आपके वो मित्र हैं तो हम सब कौन हैं ????????????
२)कुछ राय मशवरा करने के लायक भी नहीं समझा हम लोगों को
गब्बर बहुत दुखी है ,आपकी महफ़िल छोड़ने की सोच रहा है ,
अलविदा (सभी तनहा जी के मित्रों को )
नीलम जी को सारी कहानी मैं बताऊँ या फिर आप बता देंगी? मैंने नियम बनाने का क्यों सोचा... उसका कारण अगर आप हीं नीलम जी को बता दें तो अच्छा रहेगा।
-विश्व दीपक
आँसू बहाकर मन तसल्ली पा गया.
( स्वरचित ) - शन्नो
तसल्ली से कुछ कहना चाहता हूँ जो रोक विश्व जी ने लगायी थी उसके लिए मैं आपका दोषी हूँ आप प्लीस बुरा मत मानियेगा इसमें ऐसी कोई भी इरादतन वजह नहीं थी ये तो इक कोमन प्रॉब्लम बनती जा रही थी इसमें मैं भी शामिल था हमारी आपकी शोले चल ही रही थी बस थोड़ी सी मेरी गलती हुई मुझे लगा की हम लोग इस महफ़िल के वास्तविक उद्देश्य से भटक रहे हैं ! यदि मेरा ऐसा कहना आपको बुरा लगा तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ और यदि जाना ही जरूरी है तो मुझे जाना चाहिए ! क्यूंकि आप इस महफ़िल के वरिष्ठ सदस्य हैं ! मैं तो बस यूँही बिन बुलाया मेहमान हूँ ! और शायद मेरा लेखन भी इस महफ़िल के लायक नहीं ! विश्व जी की तरफ से मैं माफ़ी चाहता हूँ ! अब यदि आप चाहे तो मैं यहाँ ठहरूं नहीं तो ? मगर एक बात आप तसल्ली से सोचियेगा की विश्व जी का ऐतराज़ सही था या गलत !
१)इस महफ़िल कोई में किसी का कोई क्रम नहीं है सब बराबर हैं (कोई वरिष्टनहीं)
२)सोच तो हम भी यही रहे थे पर हम कुछ रोज के लिए बाहर गए( रामगढ़ से ) हुए थे तो लोगों .............
३)आप दोषी मत मानिए अपने आप को आपकी शेर'ओ शायरी के लिए सर्वोत्तम जगह है ,
४)हम लोग तो बस यूं ही ..........अब शुरूआत में आपको भी ये चुहल बाजी पसंद आई थी ,पर खैर जाने दीजिये आप लिखते रहिये हम अपनी कुछ और जुगाड़ करते हैं
५)महफ़िल तो शायद कोई भी छोड़ने नहीं जा रहा ,इसे छोड़ना आसान भी नहीं ,तनहा जी की मेहनत से लिखी हुई पोस्ट पर सब का आवागमन यूँ ही बना रहना चाहिए
अगली पोस्ट के इन्तजार में नीलम उर्फ़ गब्बर (अब इतनी शरारत तो चल ही जायेगी ना )