ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 416/2010/116
'दिल-ए-नादान' सन् १९५३ की एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें तलत महमूद के गाए कुछ गानें बेहद लोकप्रिय हुए थे, जैसे कि "ज़िंदगी देनेवाले सुन तेरी दुनिया से जी भर गया", "जो ख़ुशी से चोट खाए, वो जिगर कहाँ से लाऊँ", "ये रात सुहानी रात नहीं, ऐ चांद सितारों सो जाओ" आदि। दरअसल 'दिल-ए-नादान' वह फ़िल्म थी जिसमें ए. आर. कारदार ने तलत साहब को बतौर नायक लौंच किया था। तलत साहब की नायिका बनीं श्यामा। उन दिनों कारदार साहब अपनी फ़िल्मों के लिए नौशाद साहब को संगीतकार लिया करते थे। लेकिन इस फ़िल्म में नौशाद साहब के उस ज़माने के सहायक ग़ुलाम मोहम्मद ने संगीत दिया। 'आन' और 'बैजु बावरा' के निर्माण के दौरान नौशाद साहब मानसिक रूप से बीमार हो गए थे। शायद यही वजह रही होगी उनके इस फ़िल्म में अनुपस्थिति की। ख़ैर, यह फ़िल्म तो पिट गई थी, लेकिन फ़िल्म का संगीत चल पड़ा था। तलत साहब के गाए कुछ महत्वपूर्ण गीतों का ज़िक्र हमने उपर किया। लेकिन ऐसे चर्चित गीतों के बीच इस फ़िल्म में एक ऐसा गीत भी है जिसे लोगों ने बहुत कम सुना है, और आज तो यह गीत कहीं से भी सुनाई नहीं देता। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम किस गीत की बात कर रहे हैं? हम बात कर रहे हैं उस गीत की जिसे सुधा मल्होत्रा ने गाया था - "कहीं भी अपना नहीं ठिकाना"। आपने यह गीत एक लम्बे अरसे से नहीं सुना न? चलिए आज 'दुर्लभ दस' में याद करते हैं इसी गीत को!
'दिल-ए-नादान' के गानें लिखे थे शक़ील बदायूनी ने। उनके कलम का जादू सर चढ़ कर बोला इस फ़िल्म के गीतों में भी। तलत साहब के गाए हिट गीतों के अलावा तीन गायिकाओं ने इस फ़िल्म में अपनी आवाज़ें दीं, जिनमें एक सुधा मल्होत्रा के गीत का ज़िक्र तो हम कर ही चुके हैं; दूसरी हैं आशा भोसले जिन्होने गाया "लीजो बाबुल मेरा सलाम रे", तथा जगजीत कौर की आवाज़ में "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी" गीत भी उस ज़माने में चले थे। इसी फ़िल्म में एक अनोखा गीत भी है "मोहब्बत की धुन बेक़रारों से पूछो"। हमने अनोखा इसलिए कहा क्योंकि शायद यह एकमात्र ऐसा गीत है जिसे तलत महमूद, सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर ने साथ में मिल कर गाया है। सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर, दोनों ही फ़िल्म जगत की कमचर्चित गायिकाएँ रहीं हैं, और इन दोनों गायिकाओं का ज़िक्र हमने अपनी लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' में की थी। आज वही बात हम दोहरा रहे हैं कि सुधा जी ने जिस वक़्त फ़िल्म जगत में क़दम रखा था, उस वक़्त लता, आशा, गीता, शम्शाद जैसे नाम चोटी पर विराजमान थे। ऐसे में किसी भी नई गायिका को मौका मिल पाना आसाम काम नहीं था। फिर अपनी प्रतिभा, लगन और कोशिश के बलबूते पर कुछ गायिकाएँ फ़िल्म जगत में दाख़िल हुईं और कुछ ऐसे यादगार गीत गा कर चली गईं जो भुलाए नहीं भूलते। सुधा मल्होत्रा भी उन्ही में से एक हैं। कोई कैसे भुला सकता है उनका गाया और उन्ही का संगीतबद्ध किया हुआ "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको"! सुधा जी के गाए गीतों में कुछ उल्लेखनीय फ़िल्मों के नाम हैं - आरज़ू, अब दिल्ली दूर नहीं, धूल का फूल, गर्ल फ़्रेंड, बरसात की रात, दीदी, काला पानी, देख कबीरा रोया, गौहर, दिल-ए-नादान, बाबर, और प्रेम रोग। तो दोस्तों, आइए सुधा जी की आवाज़ में फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' का नग़मा पेश हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि ग़ुलाम मोहम्मद १९३२ में सरोज मूवीटोन में शामिल हो गए थे और इस बैनर की फ़िल्म 'राजा भारथरी' में उनके बजाए तबले की बहुत तारीफ़ें हुईं थीं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस गीत को एक ऐसे गायक ने गाया है जिनकी आवाज़ कुंदन लाल सहगल से दूसरों के मुकाबले सब से ज़्यादा मिलती जुलती थी। गायक का नाम बताएँ। २ अंक।
२. यह एक श्रीकृष्ण भजन है जिसे कीर्तन शैली में स्वरबद्ध किया गया है। मुखड़े मे शब्द आता है "प्यारे"। भजन के बोल बताएँ। ३ अंक।
३. इस फ़िल्म की नायिका हैं सुरैय्या और यह १९५४ की फ़िल्म है। क्या आप फ़िल्म के नाम का अंदाज़ा लगा सकते हैं? २ अंक।
४. इस फ़िल्म के निर्देशक और गीतकार एक ही हैं, और ये वो शख़्स हैं जिन्होने पहला फ़िल्मी समूह गीत लिखा था १९४० में - "घर आजा बलमवा रुत बसंत की आई"। कौन हैं ये निर्देशक व गीतकार? ३ अंक।
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी और शरद जी के खाते में २-२ अंक और जुड़े हैं. इंदु जी जल्दी से भारमुक्त होकर लौटिये
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
'दिल-ए-नादान' सन् १९५३ की एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें तलत महमूद के गाए कुछ गानें बेहद लोकप्रिय हुए थे, जैसे कि "ज़िंदगी देनेवाले सुन तेरी दुनिया से जी भर गया", "जो ख़ुशी से चोट खाए, वो जिगर कहाँ से लाऊँ", "ये रात सुहानी रात नहीं, ऐ चांद सितारों सो जाओ" आदि। दरअसल 'दिल-ए-नादान' वह फ़िल्म थी जिसमें ए. आर. कारदार ने तलत साहब को बतौर नायक लौंच किया था। तलत साहब की नायिका बनीं श्यामा। उन दिनों कारदार साहब अपनी फ़िल्मों के लिए नौशाद साहब को संगीतकार लिया करते थे। लेकिन इस फ़िल्म में नौशाद साहब के उस ज़माने के सहायक ग़ुलाम मोहम्मद ने संगीत दिया। 'आन' और 'बैजु बावरा' के निर्माण के दौरान नौशाद साहब मानसिक रूप से बीमार हो गए थे। शायद यही वजह रही होगी उनके इस फ़िल्म में अनुपस्थिति की। ख़ैर, यह फ़िल्म तो पिट गई थी, लेकिन फ़िल्म का संगीत चल पड़ा था। तलत साहब के गाए कुछ महत्वपूर्ण गीतों का ज़िक्र हमने उपर किया। लेकिन ऐसे चर्चित गीतों के बीच इस फ़िल्म में एक ऐसा गीत भी है जिसे लोगों ने बहुत कम सुना है, और आज तो यह गीत कहीं से भी सुनाई नहीं देता। आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम किस गीत की बात कर रहे हैं? हम बात कर रहे हैं उस गीत की जिसे सुधा मल्होत्रा ने गाया था - "कहीं भी अपना नहीं ठिकाना"। आपने यह गीत एक लम्बे अरसे से नहीं सुना न? चलिए आज 'दुर्लभ दस' में याद करते हैं इसी गीत को!
'दिल-ए-नादान' के गानें लिखे थे शक़ील बदायूनी ने। उनके कलम का जादू सर चढ़ कर बोला इस फ़िल्म के गीतों में भी। तलत साहब के गाए हिट गीतों के अलावा तीन गायिकाओं ने इस फ़िल्म में अपनी आवाज़ें दीं, जिनमें एक सुधा मल्होत्रा के गीत का ज़िक्र तो हम कर ही चुके हैं; दूसरी हैं आशा भोसले जिन्होने गाया "लीजो बाबुल मेरा सलाम रे", तथा जगजीत कौर की आवाज़ में "ख़ामोश ज़िंदगी को एक अफ़साना मिल गया" और "चंदा गाए रागिनी छम छम बरसे चांदनी" गीत भी उस ज़माने में चले थे। इसी फ़िल्म में एक अनोखा गीत भी है "मोहब्बत की धुन बेक़रारों से पूछो"। हमने अनोखा इसलिए कहा क्योंकि शायद यह एकमात्र ऐसा गीत है जिसे तलत महमूद, सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर ने साथ में मिल कर गाया है। सुधा मल्होत्रा और जगजीत कौर, दोनों ही फ़िल्म जगत की कमचर्चित गायिकाएँ रहीं हैं, और इन दोनों गायिकाओं का ज़िक्र हमने अपनी लघु शृंखला 'हमारी याद आएगी' में की थी। आज वही बात हम दोहरा रहे हैं कि सुधा जी ने जिस वक़्त फ़िल्म जगत में क़दम रखा था, उस वक़्त लता, आशा, गीता, शम्शाद जैसे नाम चोटी पर विराजमान थे। ऐसे में किसी भी नई गायिका को मौका मिल पाना आसाम काम नहीं था। फिर अपनी प्रतिभा, लगन और कोशिश के बलबूते पर कुछ गायिकाएँ फ़िल्म जगत में दाख़िल हुईं और कुछ ऐसे यादगार गीत गा कर चली गईं जो भुलाए नहीं भूलते। सुधा मल्होत्रा भी उन्ही में से एक हैं। कोई कैसे भुला सकता है उनका गाया और उन्ही का संगीतबद्ध किया हुआ "तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको"! सुधा जी के गाए गीतों में कुछ उल्लेखनीय फ़िल्मों के नाम हैं - आरज़ू, अब दिल्ली दूर नहीं, धूल का फूल, गर्ल फ़्रेंड, बरसात की रात, दीदी, काला पानी, देख कबीरा रोया, गौहर, दिल-ए-नादान, बाबर, और प्रेम रोग। तो दोस्तों, आइए सुधा जी की आवाज़ में फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' का नग़मा पेश हैं।
क्या आप जानते हैं...
कि ग़ुलाम मोहम्मद १९३२ में सरोज मूवीटोन में शामिल हो गए थे और इस बैनर की फ़िल्म 'राजा भारथरी' में उनके बजाए तबले की बहुत तारीफ़ें हुईं थीं।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. इस गीत को एक ऐसे गायक ने गाया है जिनकी आवाज़ कुंदन लाल सहगल से दूसरों के मुकाबले सब से ज़्यादा मिलती जुलती थी। गायक का नाम बताएँ। २ अंक।
२. यह एक श्रीकृष्ण भजन है जिसे कीर्तन शैली में स्वरबद्ध किया गया है। मुखड़े मे शब्द आता है "प्यारे"। भजन के बोल बताएँ। ३ अंक।
३. इस फ़िल्म की नायिका हैं सुरैय्या और यह १९५४ की फ़िल्म है। क्या आप फ़िल्म के नाम का अंदाज़ा लगा सकते हैं? २ अंक।
४. इस फ़िल्म के निर्देशक और गीतकार एक ही हैं, और ये वो शख़्स हैं जिन्होने पहला फ़िल्मी समूह गीत लिखा था १९४० में - "घर आजा बलमवा रुत बसंत की आई"। कौन हैं ये निर्देशक व गीतकार? ३ अंक।
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी और शरद जी के खाते में २-२ अंक और जुड़े हैं. इंदु जी जल्दी से भारमुक्त होकर लौटिये
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
Comments
कृष्ण भजन वारिस मे हो सकता है .
इसलिए प्रश्न तीन का उत्तर 'वारिस' होना चाहिए./
आगे तो...............
राज सर,शरद भैया आप ही अपनी नैय्या के खेवैया.आप जितना नोलेज तो हम मे नही. बचाइए.
पुराने गीत आपके हिंदी युग्म में सुन कर साँस आने लगती है
बहुत बड़ा गीतों का कुबेर धन है ५२ वर्षों के पश्चात गीत को सुना
धन्यवाद
अवध लाल
बहुत ही बढ़िया लगा... मैं हमेशा इस ब्लाग पर आता हूं जहां अच्छे गीत सुनने को मिलते हैं..
इसके अतिरिक्त " कहां से चले थे, कहां को है जाना, मुसाफिर न जाने कहां है ठिकाना ". यह गीत उन्नीस सौ छियासी से पहले का रिकार्ड है जिसे किसी महिला गायक ने आवाज दी है. श्रीमान भूपिन्दर सिंह की आवाज में तो यह गीत मिल गया जिसके लिये अमित और प्रकाश गोविन्द जी को धन्यवाद, किन्तु यदि महिला गायक की आवाज वाला गीत मिल जाये तो और भी अच्छा हो.