जीनिअस संगीतकार ओ पी नैयर की दूसरी पुण्यतिथि पर विशेष -
१९५२ में एक फ़िल्म आई थी, -आसमान, जिसमें गीता दत्त ने एक बेहद खूबसूरत गीत गाया था -"देखो जादू भरे मोरे नैन..." यह संगीतकार ओ पी नैयर की पहली फ़िल्म थी, जो पहला गाना इस फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड हुआ था वो था "बेवफा जहाँ में वफ़ा ढूँढ़ते रहे..." गायक थे सी एच आत्मा साहब. दो अन्य गीत सी एच आत्मा की आवाज़ में होने थे जो नासिर पर फिल्माए जाने थे और ४ अन्य गीत, गीता ने गाने थे जो नायिका श्यामा पर फिल्मांकित होने थे. फ़िल्म के कुल ८ गीतों में से आखिरी एक गीत जो फ़िल्म की सहनायिका पर चित्रित होना था उसके बोल थे "जब से पी संग नैना लगे...". नैयर ने इस गीत के लिए लता जी को तलब किया पर जब लता जी को ख़बर मिली कि उन्हें एक ऐसा गीत गाने को कहा जा रहा है जो नायिका पर नही फिल्माया जाएगा (ये उन दिनों बहुत बड़ी बात हुआ करती थी) उनके अहम् को धक्का लगा. वो उन दिनों की (और उसके बाद के दिनों की भी) सबसे सफल गायिका थी. लता ने ओ पी के लिए इस गीत को गाने से साफ़ इनकार कर दिया और जब नैयर साहब तक ये बात पहुँची, तो उन्होंने भी एक दृढ़ निश्चय किया, कि वो अपने कैरिअर में कभी भी लता के साथ काम नही करेंगें. ज़रा सोचिये इंडस्ट्री में कौन होगा ऐसा दूसरा, जो अपनी पहली फ़िल्म में ऐसा दबंग फैसला कर ले और लगभग दो दशकों तक जब तक भी उन्होंने फिल्मों में संगीत दिया वो अपने उस फैसले पर अडिग रहे. उस वक्त वो मात्र २५ साल के थे और पहली और आखिरी बार उन्होंने "जब से पी संग..." गीत के लिए चुना गायिका राजकुमारी को.
बेवफा जहाँ में वफ़ा ढूँढ़ते रहे (सुनिए ओ पी का सबसे पहला रेकॉर्डेड गीत)
हालांकि “आसमान” और उसके बाद आयी “छम छमा छम” और “बाज़”, तीनों ही फिल्में बुरी तरह पिट गई. पर गायिका गीता रॉय (दत्त) ने इस नए संगीतकार के हुनर को पहचान लिया था, उन्होंने गुरु दत्त से जब वो अपनी पहली प्रोडक्शन पर काम शुरू करने वाले थे ओ पी की सिफारिश की. गीता के आग्रह को गुरु टाल नही पाये और इस तरह ओ पी को मिली "आर पार". इस फ़िल्म ने नैयर ने गीता के साथ मिलकर वो गीत रचे कि आज तक जिनके रिमिक्सिस बनते और बिकते हैं. और इसी के साथ हिन्दी फिल्मों को मिला एक बेमिसाल संगीतकार. “आर पार” के बाद गुरु दत्त प्रोडक्शन के साथ नैयर ने अपनी हैट ट्रिक पूरी की मिस्टर और मिसिस ५५ (१९५५), और सी ई डी (१९५६) से. अब उनका सिक्का चल निकला था.
सुनिए गीता की मदभरी आवाज़ में "हूँ अभी मैं जवां..."
वो जिनके गीत आज भी हमें दौड़ भाग भरी इस जिंदगी में सकून देते हैं, उस ओ पी नैयर साहब के जीवन मगर फूलों की सेज नही रही कभी, कुछ स्वभाव से भी वो शुद्ध थे, खरे को खरा और खोटे को खोटा कहने से वो कभी नही चूकते थे. शायद यही वजह थी कि उनकी फिल्मी दुनिया में बहुत कम लोगों के साथ पटरी बैठी, यहाँ तक कि उनकी सबसे पसंदीदा गायिका गीता दत्त और आशा के साथ भी एक मोड़ पर आकर उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया.
उनके दर्द को ही शायद आवाज़ दे रहे हैं मुकेश यहाँ -
स्कूल कॉलेजों में कभी उनका मन नही लगा था. मात्र 8 वर्ष की आयु में उन्हें लाहोर रेडियो में गाने का अवसर मिला. १० वर्ष की उम्र में वो संगीतकार बन गए पंजाबी फ़िल्म “धुलिया भट्टी” से जिसमें सी एच आत्मा का गाया गीत जिसे एच एम् वी ने रीलीस किया था "प्रीतम आन मिलो..." सुपर हिट साबित हुआ, इस फ़िल्म में उन्होंने एक छोटी सी भूमिका भी की. बँटवारे के बाद वो मुंबई आ गए. १९५२ में "आसमान" से शुरू हुआ संगीत सफर १९९३ में आई "जिद्द" फ़िल्म के साथ ख़तम हुआ. इस A टू Z के बीच ७३ फिल्में आई और ओ पी नैयर अपने कभी न भूल सकने वाले, गुनगुने, दिल के तार बरबस छेड़ते गीतों के साथ संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा के लिए कैद हो गए. "आखों ही आखों में इशारा हो गया..." क्या ये गीत अपने बनने के आज लगभग ५०-५२ सालों के बाद भी उतना ही तारो ताज़ा नही लगता आपको, भाई हमें तो लगता है -
कितनी अजीब बात है कि आल इंडिया रेडियो ने उनके कुछ गीत ब्रोडकास्ट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था यह कहकर कि इनके बोल और धुन युवा पीढी को पथभ्रमित करने वाले हैं. हँसी आती है आज सोच कर भी (निखिल भाई गौर कीजिये, आप अकले नही हैं). बाद में रेडियो सीलोन पर उनके गीतों को सुनने की बढती चाहत से हार कर ख़ुद मंत्री महोदय को इस अंकुशता को हटाने के लिए आगे आना पड़ा. मात्र ३० साल की उम्र में उन्हें “रिदम किंग” की उपाधि मिल गई थी. उन्होंने संगीतकार के दर्जे को हमेशा ऊँचा माना और एक लाख रुपये पाने वाले पहले संगीत निर्देशक बने. १९५७ में आई "नया दौर" संगीत के आयाम से देखें तो उनके सफर का "मील का पत्थर" थी. शम्मी कपूर के आने के बाद तो ओ पी नैयर के साथ साथ हिन्दी फ़िल्म संगीत भी जैसे फ़िर से जवान हो उठा. मधुबाला ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वो अपना पारिश्रमिक उन निर्माताओं के लिए कम कर देंगीं जो ओ पी को संगीतकार लेंगें. मधुबाला की ६ फिल्मों के लिए ओ पी ने संगीत दिया. वो उन दिनों के सबसे मंहगे संगीतकार होने के बावजूद उनकी मांग सबसे अधिक थी. फ़िल्म के शो रील में उनका नाम अभिनेताओं के नाम से पहले आता था. ऐसा पहले किसी और संगीतकार के लिए नही हुआ था, ओ पी ने ट्रेंड शुरू किया जिसे बाद में बहुत से सफल संगीतकारों ने अपनाया.
फ़िल्म १२ o clock का ये गीत सुनिए -"कैसा जादू..." (गौर कीजियेगा इसमें जब गायिका "तौबा तौबा" बोलती है सुनने वालों के दिल में एक अजीब सी कसक उठती है, यही ओ पी का जादू था)
एक साल ऐसा भी आया जब ओ पी की एक भी फ़िल्म नही आई. वर्ष १९६१ को याद कर ओ पी कहते थे -"मोहब्बत में सारा जहाँ लुट गया था..". दरअसल ओ पी अपनी सबसे पसंदीदा पार्श्व गायिका (आशा) के साथ अपने संबंधों की बात कर रहे थे. १९६२ में उन्होंने शानदार वापसी की फ़िल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना" से. इसी दशक में उन्होंने "फ़िर वही दिल लाया हूँ"(१९६३), काश्मीर की कली (१९६४, और "मेरे सनम(१९६५) जैसी फिल्मों के संगीत से शीर्ष पर स्थान बरकरार रखा. एक बार वो शर्मीला टैगोर पर फिल्माए अपने किसी गीत पर उनके अभिनय से खुश नही थे, उन्होंने बढ़ कर शर्मीला को सलाह दे डाली कि मेरे गीतों आप बस खड़े रहकर लब नही हिला सकते ये गाने हरकतों के हैं आपको अपने शरीर के हाव भावों का भी इस्तेमाल करना पड़ेगा. शर्मीला ने उनकी इस सलाह को गांठ बाँध ली और अपनी हर फ़िल्म में इस बात का ख़ास ध्यान रखा. ओ पी का सीमित संगीत ज्ञान कभी भी उनके आडे नही आया फ़िल्म "बहारें फ़िर भी आयेंगीं" के गीत "आपके हसीं रुख पे...." के लिए उन्होंने सारंगी का बहुत सुंदर इस्तेमाल किया.
रफी साहब की आवाज़ में पेश है "आपके हसीन रुख पे..."
पर दशक खत्म होते होते अच्छे संगीत के बावजूद उनकी फिल्में फ्लॉप होने लगी. रफी साहब से भी उनके सम्बन्ध बिगड़ चुके थे. गुरु दत्त की मौत के बाद गीता ने ख़ुद को शराब में डुबो दिया था और १९७२ में उनकी भी दुखद मौत हो गई, उधर आशा के साथ ओ पी के सम्बन्ध एक नाज़ुक दौर से गुजर रहा था. ये उनके लिए बेहद मुश्किल समय था. फ़िल्म "प्राण जाए पर वचन न जाए" में आशा ने उनके लिए गाया "चैन से हमको कभी....". अगस्त १९७२ में आखिरकार ओ पी और आशा ने कभी भी साथ न काम करने का फैसला किया और उसके बाद उन्हें कभी भी एक छत के नीचे एक साथ नही देखा गया. १९७३ में जब आशा को अपने इसी गीत के लिए फ़िल्म फेयर मिला तब वो वहां मौजूद नही थी (ऐसा उन्होंने जानकर ही किया होगा). ओ पी ने उनकी तरफ़ से पुरस्कार ले तो लिया, पर घर लौटते वक्त उन्होंने उस ट्रोफी को अपनी कार से बाहर फैंक दिया. कहते हैं उसके टूटने की गूँज आखिरी दम तक उन्हें सुनाई देती रही. जाहिर है, उसके बाद भी उन्होंने काम किया (लगभग १५० गीतों में) अलग अलग गायिकाओं को आजमाया, पर वो जादू अब खो चुका था. कहने को जनवरी २८, २००७ तक ओ पी जीवित रहे पर संगीतकार ओ पी नैयर को तो हम बहुत पहले ही कभी खो चुके थे….
"चैन से हमको कभी ...." (यकीनन ये आशा जी के गाये सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक है..महसूस कीजिये उस दर्द को जो उन्होंने आवाज़ में घोला है)
(जारी...)
१९५२ में एक फ़िल्म आई थी, -आसमान, जिसमें गीता दत्त ने एक बेहद खूबसूरत गीत गाया था -"देखो जादू भरे मोरे नैन..." यह संगीतकार ओ पी नैयर की पहली फ़िल्म थी, जो पहला गाना इस फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड हुआ था वो था "बेवफा जहाँ में वफ़ा ढूँढ़ते रहे..." गायक थे सी एच आत्मा साहब. दो अन्य गीत सी एच आत्मा की आवाज़ में होने थे जो नासिर पर फिल्माए जाने थे और ४ अन्य गीत, गीता ने गाने थे जो नायिका श्यामा पर फिल्मांकित होने थे. फ़िल्म के कुल ८ गीतों में से आखिरी एक गीत जो फ़िल्म की सहनायिका पर चित्रित होना था उसके बोल थे "जब से पी संग नैना लगे...". नैयर ने इस गीत के लिए लता जी को तलब किया पर जब लता जी को ख़बर मिली कि उन्हें एक ऐसा गीत गाने को कहा जा रहा है जो नायिका पर नही फिल्माया जाएगा (ये उन दिनों बहुत बड़ी बात हुआ करती थी) उनके अहम् को धक्का लगा. वो उन दिनों की (और उसके बाद के दिनों की भी) सबसे सफल गायिका थी. लता ने ओ पी के लिए इस गीत को गाने से साफ़ इनकार कर दिया और जब नैयर साहब तक ये बात पहुँची, तो उन्होंने भी एक दृढ़ निश्चय किया, कि वो अपने कैरिअर में कभी भी लता के साथ काम नही करेंगें. ज़रा सोचिये इंडस्ट्री में कौन होगा ऐसा दूसरा, जो अपनी पहली फ़िल्म में ऐसा दबंग फैसला कर ले और लगभग दो दशकों तक जब तक भी उन्होंने फिल्मों में संगीत दिया वो अपने उस फैसले पर अडिग रहे. उस वक्त वो मात्र २५ साल के थे और पहली और आखिरी बार उन्होंने "जब से पी संग..." गीत के लिए चुना गायिका राजकुमारी को.
बेवफा जहाँ में वफ़ा ढूँढ़ते रहे (सुनिए ओ पी का सबसे पहला रेकॉर्डेड गीत)
हालांकि “आसमान” और उसके बाद आयी “छम छमा छम” और “बाज़”, तीनों ही फिल्में बुरी तरह पिट गई. पर गायिका गीता रॉय (दत्त) ने इस नए संगीतकार के हुनर को पहचान लिया था, उन्होंने गुरु दत्त से जब वो अपनी पहली प्रोडक्शन पर काम शुरू करने वाले थे ओ पी की सिफारिश की. गीता के आग्रह को गुरु टाल नही पाये और इस तरह ओ पी को मिली "आर पार". इस फ़िल्म ने नैयर ने गीता के साथ मिलकर वो गीत रचे कि आज तक जिनके रिमिक्सिस बनते और बिकते हैं. और इसी के साथ हिन्दी फिल्मों को मिला एक बेमिसाल संगीतकार. “आर पार” के बाद गुरु दत्त प्रोडक्शन के साथ नैयर ने अपनी हैट ट्रिक पूरी की मिस्टर और मिसिस ५५ (१९५५), और सी ई डी (१९५६) से. अब उनका सिक्का चल निकला था.
सुनिए गीता की मदभरी आवाज़ में "हूँ अभी मैं जवां..."
वो जिनके गीत आज भी हमें दौड़ भाग भरी इस जिंदगी में सकून देते हैं, उस ओ पी नैयर साहब के जीवन मगर फूलों की सेज नही रही कभी, कुछ स्वभाव से भी वो शुद्ध थे, खरे को खरा और खोटे को खोटा कहने से वो कभी नही चूकते थे. शायद यही वजह थी कि उनकी फिल्मी दुनिया में बहुत कम लोगों के साथ पटरी बैठी, यहाँ तक कि उनकी सबसे पसंदीदा गायिका गीता दत्त और आशा के साथ भी एक मोड़ पर आकर उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया.
उनके दर्द को ही शायद आवाज़ दे रहे हैं मुकेश यहाँ -
स्कूल कॉलेजों में कभी उनका मन नही लगा था. मात्र 8 वर्ष की आयु में उन्हें लाहोर रेडियो में गाने का अवसर मिला. १० वर्ष की उम्र में वो संगीतकार बन गए पंजाबी फ़िल्म “धुलिया भट्टी” से जिसमें सी एच आत्मा का गाया गीत जिसे एच एम् वी ने रीलीस किया था "प्रीतम आन मिलो..." सुपर हिट साबित हुआ, इस फ़िल्म में उन्होंने एक छोटी सी भूमिका भी की. बँटवारे के बाद वो मुंबई आ गए. १९५२ में "आसमान" से शुरू हुआ संगीत सफर १९९३ में आई "जिद्द" फ़िल्म के साथ ख़तम हुआ. इस A टू Z के बीच ७३ फिल्में आई और ओ पी नैयर अपने कभी न भूल सकने वाले, गुनगुने, दिल के तार बरबस छेड़ते गीतों के साथ संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा के लिए कैद हो गए. "आखों ही आखों में इशारा हो गया..." क्या ये गीत अपने बनने के आज लगभग ५०-५२ सालों के बाद भी उतना ही तारो ताज़ा नही लगता आपको, भाई हमें तो लगता है -
कितनी अजीब बात है कि आल इंडिया रेडियो ने उनके कुछ गीत ब्रोडकास्ट करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था यह कहकर कि इनके बोल और धुन युवा पीढी को पथभ्रमित करने वाले हैं. हँसी आती है आज सोच कर भी (निखिल भाई गौर कीजिये, आप अकले नही हैं). बाद में रेडियो सीलोन पर उनके गीतों को सुनने की बढती चाहत से हार कर ख़ुद मंत्री महोदय को इस अंकुशता को हटाने के लिए आगे आना पड़ा. मात्र ३० साल की उम्र में उन्हें “रिदम किंग” की उपाधि मिल गई थी. उन्होंने संगीतकार के दर्जे को हमेशा ऊँचा माना और एक लाख रुपये पाने वाले पहले संगीत निर्देशक बने. १९५७ में आई "नया दौर" संगीत के आयाम से देखें तो उनके सफर का "मील का पत्थर" थी. शम्मी कपूर के आने के बाद तो ओ पी नैयर के साथ साथ हिन्दी फ़िल्म संगीत भी जैसे फ़िर से जवान हो उठा. मधुबाला ने तो यहाँ तक कह दिया था कि वो अपना पारिश्रमिक उन निर्माताओं के लिए कम कर देंगीं जो ओ पी को संगीतकार लेंगें. मधुबाला की ६ फिल्मों के लिए ओ पी ने संगीत दिया. वो उन दिनों के सबसे मंहगे संगीतकार होने के बावजूद उनकी मांग सबसे अधिक थी. फ़िल्म के शो रील में उनका नाम अभिनेताओं के नाम से पहले आता था. ऐसा पहले किसी और संगीतकार के लिए नही हुआ था, ओ पी ने ट्रेंड शुरू किया जिसे बाद में बहुत से सफल संगीतकारों ने अपनाया.
फ़िल्म १२ o clock का ये गीत सुनिए -"कैसा जादू..." (गौर कीजियेगा इसमें जब गायिका "तौबा तौबा" बोलती है सुनने वालों के दिल में एक अजीब सी कसक उठती है, यही ओ पी का जादू था)
एक साल ऐसा भी आया जब ओ पी की एक भी फ़िल्म नही आई. वर्ष १९६१ को याद कर ओ पी कहते थे -"मोहब्बत में सारा जहाँ लुट गया था..". दरअसल ओ पी अपनी सबसे पसंदीदा पार्श्व गायिका (आशा) के साथ अपने संबंधों की बात कर रहे थे. १९६२ में उन्होंने शानदार वापसी की फ़िल्म 'एक मुसाफिर एक हसीना" से. इसी दशक में उन्होंने "फ़िर वही दिल लाया हूँ"(१९६३), काश्मीर की कली (१९६४, और "मेरे सनम(१९६५) जैसी फिल्मों के संगीत से शीर्ष पर स्थान बरकरार रखा. एक बार वो शर्मीला टैगोर पर फिल्माए अपने किसी गीत पर उनके अभिनय से खुश नही थे, उन्होंने बढ़ कर शर्मीला को सलाह दे डाली कि मेरे गीतों आप बस खड़े रहकर लब नही हिला सकते ये गाने हरकतों के हैं आपको अपने शरीर के हाव भावों का भी इस्तेमाल करना पड़ेगा. शर्मीला ने उनकी इस सलाह को गांठ बाँध ली और अपनी हर फ़िल्म में इस बात का ख़ास ध्यान रखा. ओ पी का सीमित संगीत ज्ञान कभी भी उनके आडे नही आया फ़िल्म "बहारें फ़िर भी आयेंगीं" के गीत "आपके हसीं रुख पे...." के लिए उन्होंने सारंगी का बहुत सुंदर इस्तेमाल किया.
रफी साहब की आवाज़ में पेश है "आपके हसीन रुख पे..."
पर दशक खत्म होते होते अच्छे संगीत के बावजूद उनकी फिल्में फ्लॉप होने लगी. रफी साहब से भी उनके सम्बन्ध बिगड़ चुके थे. गुरु दत्त की मौत के बाद गीता ने ख़ुद को शराब में डुबो दिया था और १९७२ में उनकी भी दुखद मौत हो गई, उधर आशा के साथ ओ पी के सम्बन्ध एक नाज़ुक दौर से गुजर रहा था. ये उनके लिए बेहद मुश्किल समय था. फ़िल्म "प्राण जाए पर वचन न जाए" में आशा ने उनके लिए गाया "चैन से हमको कभी....". अगस्त १९७२ में आखिरकार ओ पी और आशा ने कभी भी साथ न काम करने का फैसला किया और उसके बाद उन्हें कभी भी एक छत के नीचे एक साथ नही देखा गया. १९७३ में जब आशा को अपने इसी गीत के लिए फ़िल्म फेयर मिला तब वो वहां मौजूद नही थी (ऐसा उन्होंने जानकर ही किया होगा). ओ पी ने उनकी तरफ़ से पुरस्कार ले तो लिया, पर घर लौटते वक्त उन्होंने उस ट्रोफी को अपनी कार से बाहर फैंक दिया. कहते हैं उसके टूटने की गूँज आखिरी दम तक उन्हें सुनाई देती रही. जाहिर है, उसके बाद भी उन्होंने काम किया (लगभग १५० गीतों में) अलग अलग गायिकाओं को आजमाया, पर वो जादू अब खो चुका था. कहने को जनवरी २८, २००७ तक ओ पी जीवित रहे पर संगीतकार ओ पी नैयर को तो हम बहुत पहले ही कभी खो चुके थे….
"चैन से हमको कभी ...." (यकीनन ये आशा जी के गाये सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक है..महसूस कीजिये उस दर्द को जो उन्होंने आवाज़ में घोला है)
(जारी...)
Comments
नैयर साहब पर अच्छी पेशकश। बहुत कुछ नया जानने को मिला।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
अच्छा लेख है |
लेकिन यदि कुछ कम करके अलग अलग चरणों में भेजा जाए तो और अच्छा होगा |
बधाई |
अवनीश तिवारी