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सलिल दा के बहाने येसुदास की बात


बीते १९ तारीख को हम सब के प्रिय सलिल दा की ८६ वीं जयंती थी, लगभग १३ साल पहले वो हम सब को छोड़ कर चले गए थे, पर देखा जाए इन्ही १३ सालों में सलिल दा की लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ है, आज की पीढी को भी उनका संगीत समकालीन लगता है, यही सलिल दा की सबसे बड़ी खासियत है. उनका संगीत कभी बूढा ही नही हुआ.सलिल दा एक कामियाब संगीतकार होने के साथ साथ एक कवि और एक नाटककार भी थे और १९४० में उन्होंने इप्टा से ख़ुद को जोड़ा था. उनके कवि ह्रदय ने सुकांता भट्टाचार्य की कविताओं को स्वरबद्ध किया जिसे हेमंत कुमार ने अपनी आवाज़ से सजाया. लगभग ७५ हिन्दी फिल्मों और २६ मलयालम फिल्मों के अलावा उन्होंने बांग्ला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजरती, मराठी, असामी और ओडिया फिल्मों में अच्छा खासा काम किया. सलिल दा की पिता डाक्टर ज्ञानेंद्र चौधरी एक डॉक्टर होने के साथ साथ संगीत के बहुत बड़े रसिया भी थे. अपने पिता के वेस्टर्न क्लासिकल संगीत के संकलन को सुन सुन कर सलिल बड़े हुए. असाम के चाय के बागानों में गूंजते लोक गीतों और और बांग्ला संगीत का भी उन पर बहुत प्रभाव रहा. वो ख़ुद भी गाते थे और बांसुरी भी खूब बजा लेते थे. अपने पिता के वो बहुत करीब थे. कहते हैं एक बार एक ब्रिटिश प्रबंधक ने उनके पिता को एक भद्दी गाली दी जिसके जवाब में उनके पिता ने उस प्रबंधक को एक ऐसा घूँसा दिया कि उसके ३ दांत टूट गए. दरअसल उनके पिता ब्रिटिश साम्राज्य के सख्त विरोधी थे और उन्होंने असाम के चाय बागानों में काम कर रहे गरीब और शोषित मजदूरों और कुलियों के साथ मिल कर कुछ नाटकों का भी मंचन किया जो उनका अपना तरीका था, अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का. यही आक्रोश सलिल दा में भी उपजा, उन्होंने भी बहुत से ballad किए जिसमें उन्होंने संगीत और संवाद के माध्यम से अपने नज़रिए को बहुत सशक्त रूप से सामने रखा.

बांग्ला फ़िल्म "रिक्शावाला" का जब हिन्दी रूपांतरण बना तो विमल दा ने उन्हें मुंबई बुला लिया और बना "दो बीघा ज़मीन" का संगीत. मूल फ़िल्म भी सलिल दा ने ख़ुद लिखी थी और संगीत भी उन्हीं का था. दोनों ही फिल्में बहुत कामियाब रहीं. और यहीं से शुरू हुआ था सलिल दा का सगीत सफर, हिन्दी फ़िल्म जगत में. "जागतेरहो", "काबुलीवाला", "छाया", "आनंद", "छोटी सी बात" जैसी जाने कितनी फिल्में हैं जिनका संगीत सलिल दा के "जीनियस" रचनाकर्म का जीता जागता उदहारण बन कर आज भी संगीत प्रेमियों को हैरान करता है.

१९६५ में एक मलयालम फ़िल्म आई थी जो कि साहित्यिक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित तकजी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास "चेमीन" पर आधारित थी. फ़िल्म का शीर्षक भी यही थी. चेमीन एक किस्म की मछली होती है और ये कहानी भी समुद्र किनारे बसने वाले मछवारे किरदारों के इर्द गिर्द बुनी एक प्रेम त्रिकोण थी. ये उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ था कि सभी भारतीय भाषाओं के अलावा इसका अंग्रेजी, रुसी, जर्मन, इटालियन और फ्रेंच भाषा में भी रूपांतरण हुआ. जाहिर सी बात है कि जब निर्देशक रामू करिआत को इस कहानी पर फ़िल्म बनाने का काम सौंपा गया. तो उन्हें समझ आ गया था कि ये फ़िल्म मलयालम सिनेमा के लिए एक बड़ी शुरुआत होने वाली है. वो सब कुछ इस फ़िल्म के लिए बहतरीन चाहते थे. यह फ़िल्म मलयालम की पहली रंगीन और सिनेमास्कोप फ़िल्म भी थी तो रामू ने मलयालम इंडस्ट्री के बहतरीन कलाकारों को चुनने के साथ साथ बॉलीवुड के गुणी लोगों को भी इस महान प्रोजेक्ट में जोड़ा, ऋषिकेश मुख़र्जी ने संपादन का काम संभाला. तो संगीत का जिम्मा सौंपा गया हमारे सलिल दा को. सलिल दा जानते थे कि उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, पर ये एक ऐसा काम था जिसमें सलिल दा कोई कमी नही छोड़ना चाहते थे. वो मुंबई से अचानक गायब हो गए कोई चार पाँच महीनों के लिए. किसी को नही पता और सलिल दा जा कर बस गए केरल के एक मछवारों की बस्ती में. वो उनके साथ रहे उनके संगीत को और बोलियों को ध्यान से सीखा समझा और इस तरह बने फ़िल्म "चेमीन" के यादगार गीत. इस फ़िल्म के संगीत ने मलयालम संगीत का पैटर्न ही बदल डाला या यूँ कहें कि रास्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित यह फ़िल्म मलयालम फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए मील का पत्थर साबित हुई. यहीं सलिल दा को मिला एक बेहद प्रतिभाशाली गायक -येसुदास. पहले फ़िल्म के सभी गीत येसु दा की आवाज़ में रिकॉर्ड हुए, पर सलिल दा को एक गीत "मानसा मयिले वरु" में कुछ कमी सी महसूस हो रही थी, उन्हें लगा कि यदि इस गीत को मन्ना डे गाते तो शायद और बेहतर हो पाता. बहरहाल मन्ना डे ने इस गीत को गाया और इतना खूब गाया कि मन्ना डे ने ख़ुद अपने एक इंटरव्यू में यह माना कि शायद ही उनका कोई प्रोग्राम हुआ हो जिसमें उन्हें ये गीत गाने की फरमाईश नही मिली हो. सुनते है पहले मन्ना दा की आवाज़ में वही गीत.



इस फ़िल्म में ही एक और गीत था "पुथन वलाकरे". इस एक ही गीत में सलिल दा ने बहुत से शेड्स दिए. बीच में एक पंक्ति आती है "चाकरा...चाकरा.." (जब मछुवारों को जाल भर मछलियाँ मिलती है ये उस समय का आह्लाद है) में जो धुन सलिल दा बनाई वो उस धुन को अपने जेहन से निकाल ही नही पा रहे थे. यही कारण था कि १९६५ में ही आई फ़िल्म "चंदा और सूरज" में उन्होंने उसी धुन पर "बाग़ में कली खिली" गीत बनाया. सुनते हैं दोनों गीत, पहले मलयालम गीत का आनंद ले येसुदास और साथियों की आवाज़ में, लिखा है वायलार रवि ने, जिन्होंने अपने सरल गीतों से साहित्य को जन जन तक पहुँचने का अनूठा काम किया. उनका जिक्र फ़िर कभी फिलहाल आनंद लें इस गीत का.



और अब सुनिए फ़िल्म चंदा और सूरज का वो मशहूर गीत आशा जी की आवाज़ में -



यहीं से शुरुआत हुई सलिल दा और येसुदास के संगीत संबंधों की, येसुदास को हिन्दी सिनेमा में लाने वाले भी अपने सलिल दा ही थे. कल हम बात करेंगे येसु दा पर विस्तार से. फिलहाल हम आपको छोड़ते हैं तनूजा पर फिल्माए गए इस गीत के विडियो के साथ जो कि बहुत खूब फिल्माया गया है, देखिये और आनंद लीजिये -




Comments

बहुत सुंदर लेख. कल ही बच्चों के एक स्टेज कार्यक्रम में जब आशा-येसुदास के गाये "जानेमन-जानेमन" का संगीत शुरू हुआ तो सभी दर्शक भी झूमने लगे. जब गाने के बोल शुरू हुए तो मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि गीत दरअसल बांग्ला का "प्रजपोती-प्रजपोती" था.
बेहद सुंदर, रूचिकर एवं उपयोग आलेख!
बधाई एवं शुक्रिया स्वीकारें!
shanno said…
Mujhe Hindyugm ki har kahani, Awaaz aur geet sab bahut,bahut achcha lagta hai.Itna ki main bata nahin sakti.

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