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मदन मोहन और तलत महमूद |
"हालाँकि
संगीत के सिद्धान्तों का ज्ञान और बुनियादी नियमों के बारे में जानना बहुत
ज़रूरी है, पर यह ज़रूरी नहीं कि जिस किसी ने भी ये बातें सीख ली वो संगीत
में मास्टर बन गया। संगीत को परम्परागत तरीके से किसी गुरु के चरणों में
बैठ कर सीखा जाए यह ज़रूरी नहीं। मेरा ख़याल है कि संगीत कानों से भी सीखा जा
सकता है अगर किसी में सीखने की मन से आकांक्षा हो तो। संगीत एक ऐसी कला है
जिसे अनिच्छुक छात्रों के अन्दर ज़बरदस्ती प्रवेश नहीं कराया जा सकता किसी
पाठ्यक्रम के माध्यम से। जो संगीत के लिए पागल है, वही इसमें महारथ हासिल
कर सकता है। संगीत के दिग्गजों के साथ काम करने की वजह से मुझे संगीत
शिक्षा को करीब से ग्रहण करने और इसे समझने का मौक़ा मिला। बहुत आसानी पर
स्पष्ट तरीके से संगीत ने मुझे चारों ओर से जकड़ लिया। मुझे नहीं मालूम कब
और कैसे मेरी कानों में संगीत की लहरियाँ प्रतिध्वनित होने लगी जो मैं रोज़
सुना करता था। और इसी तरीक़े से मैंने वास्तव में संगीत सीखा।" मदन मोहन
के इन शब्दों का सार हम सब की समझ में आ गया होगा। आइए अब आते हैं आज के
गीत पर। आज हमने चुना है तलत महमूद की आवाज़ में राग केदार पर आधारित और ताल
कहरवा में निबद्ध फ़िल्म ’आशियाना’ का मशहूर गीत
"मैं पागल मेरा मनवा पागल..."।
मदन मोहन तलत साहब के ग़ज़ल गायकी से वाक़िफ़ थे और लखनऊ के अपने शुरुआती
दिनों से ही एक दूसरे को जानते-पहचानते थे। मदन मोहन के फ़िल्म-संगीत सफ़र के
शुरुआती सालों में तलत महमूद ने उनके लिए कई गीत गाए। यह सच है कि जब बाद
के वर्षों में रफ़ी साहब की इण्डस्ट्री में बहुत ज़्यादा डिमाण्ड हो गई थी तब
तलत साहब को उनकी तुलना में कम गाने मिलने लगे थे, तब फ़िल्म ’जहाँआरा’ के
निर्देशक ने फ़िल्म के सभी गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में रेकॉर्ड करने का सुझाव
मदन मोहन को दिया। पर मदन मोहन इस बात पर अन्त तक अड़े रहे कि तलत इस फ़िल्म
में कम से कम तीन गीत ज़रूर गाएँगे और बाक़ी गीत रफ़ी गाएँगे। इस बात पर
उन्होंने स्वेच्छा से फ़िल्म छोड़ने का प्रस्ताव तक दे दिया निर्माता को। तब
जाकर निर्माता ओम प्रकाश जी ने मदन जी को आश्वस्त किया, और मदन जी ने तलत
साहब से
"फिर वही शाम...", "तेरी आँख के आँसू..." और
"मैं तेरी नज़र का सुरूर हूँ..." गवाया जो तलत साहब के करीअर में भी मील के पत्थर सिद्ध हुए।
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तलत महमूद |
अब
बातें ’आशियाना’ की। 1951 में फ़िल्म ’आँखें’ के संगीत की सफलता ने उसी साल
मदन मोहन को जे. बी. एच. वाडिया की एक फ़िल्म दिला दी। फ़िल्म थी ’मदहोश’।
इस फ़िल्म ने उनके सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी। मदन जी के ही शब्दों में -
"जब मैं ’मदहोश’ पर काम कर रहा था, एक दिन वाडिया साहब हाज़िर हुए एक
सिचुएशन के साथ जिसके लिए वो एक प्रभावशाली गीत चाहते थे जो एक धोखा देने
वाले प्रेमी के जज़्बात बयाँ करे। राजा मेंहदी अली ख़ाँ फ़िल्म ’मदहोश’ के गीत
लिख रहे थे। इस सिचुएशन को सुनते ही उन्होंने कहा कि इस तरह के भाव पर
उन्होंने कुछ समय पहले एक गीत लिखा है, अगर सबको ठीक लगे तो यह गीत लिया जा
सकता है। उन्होंने अपनी नोटबूक निकाली और गीत पढ़ने लगे। पाँच मिनट में
मैंने गीत की धुन तैयार कर दी और वाडिया साहब को सुनाया। वो बहुत ख़ुश हुए
और गीत भी बड़ा पॉपुलर हुआ। वह गीत था "मेरी याद में तुम ना आँसू बहाना..."।
यह मदन मोहन और तलत महमूद की जोड़ी का पहला सुपरहिट गीत था। इसके बाद
"आँसू" शब्द वाले कई तलत-मदन गीत बने। ‘मदहोश’ बनने के अगले ही साल 1952
में बनी फिल्म ’आशियाना’ जिसमें राज कपूर और नरगिस की जोड़ी थी। इस फ़िल्म के
संगीत ने मदन मोहन को अव्वल दर्जे के संगीतकारों की श्रेणी में ला खड़ा
किया। मदन मोहन के अनुसार यह उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में से एक है और ख़ास
तौर से तलत महमूद का गाया
"मैं पागल मेरा मनवा पागल..." उनके दिल
के बहुत क़रीब है जिसे कम्पोज़ करने में उन्हें पूरा एक महीना लग गया था।
संगीत की समझ रखने वाले राज कपूर भी ’आशियाना’ के गीत-संगीत से इतने
प्रभावित हुए कि उन्होंने कहा,
"अगर मेरी फ़िल्मों में सिर्फ़ इस तरह का संगीत हो तो मैं अपनी फ़िल्मों को अनन्तकाल तक थिएटरों में चला सकता हूँ।"
भले इस फ़िल्म के संगीत की बहुत तारीफ हुई, पर फ़िल्म बुरी तरह से पिट गई।
बहुत वर्षों के बाद जब मदन मोहन की कुछ फ़िल्में दोबारा प्रद्रशित हुईं और
अब की बार हिट हुईं, तब उन्हें शीर्ष के संगीतकार का दर्जा लोगों ने दिया।
लीजिए, अब आप यही गीत सुनिए।
राग केदार : “मैं पागल मेरा मनवा पागल...” : तलत महमूद : फिल्म – आशियाना
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शुभा मुद्गल |
भक्तिरस
की अभिव्यक्ति के लिए केदार एक समर्थ राग है। कर्नाटक संगीत पद्यति में
राग हमीर कल्याणी, राग केदार के समतुल्य है। औड़व-षाड़व जाति, अर्थात आरोह
में पाँच और अवरोह में छह स्वरों का प्रयोग होने वाला यह राग कल्याण थाट के
अन्तर्गत माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थकार राग केदार को बिलावल थाट के
अन्तर्गत मानते थे, आजकल अधिकतर गुणिजन इसे कल्याण थाट के अन्तर्गत मानते
हैं। इस राग में दोनों मध्यम का प्रयोग होता है। शुद्ध मध्यम का प्रयोग
आरोह और अवरोह दोनों में तथा तीव्र मध्यम का प्रयोग केवल अवरोह में किया
जाता है। आरोह में ऋषभ और गान्धार स्वर और अवरोह में गान्धार स्वर वर्जित
होता है। कभी-कभी अवरोह में गान्धार स्वर का अनुलगन कण का प्रयोग कर लिया
जाता है। राग केदार में तीव्र मध्यम आरोह में पंचम के साथ और शुद्ध मध्यम
आरोह और अवरोह दोनों में प्रयोग किया जाता है। कभी-कभी अवरोह में धैवत से
मध्यम को जाते समय मींड़ के साथ दोनों मध्यम एक साथ प्रयोग किया जाता है। यह
प्रयोग रंजकता से परिपूर्ण होता है। राग हमीर के समान राग केदार में
कभी-कभी अवरोह में मधुरता बढ़ाने के लिए कोमल निषाद विवादी स्वर के रूप में
प्रयोग किया जाता है। राग का चलन वक्र होता है, किन्तु तानों में वक्रता का
नियम शिथिल हो जाता है। राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता
है। इस दृष्टि से यह उत्तरांग प्रधान राग होगा, क्योंकि मध्यम स्वर
उत्तरांग का और षडज स्वर पूर्वांग का स्वर होता है। मध्यम स्वर का समावेश
सप्तक के पूर्वांग में नहीं हो सकता। राग का एक नियम यह भी है कि
वादी-संवादी दोनों स्वर सप्तक के एक अंग में नहीं हो सकते। इस दृष्टि से यह
राग उत्तरांग प्रधान तथा दिन के उत्तर अंग में अर्थात रात्रि 12 बजे से
दिन के 12 बजे के बीच गाया-बजाया जाना चाहिए। परन्तु राग केदार प्रचलन में
इसके ठीक विपरीत रात्रि के पहले प्रहर में ही गाया-बजाया जाता है। राग
केदार उपरोक्त नियम का अपवाद है। इस राग का गायन-वादन रात्रि के पहले प्रहर
में किया जाता है। राग केदार का स्पष्ट अनुभव करने के लिए अब हम आपको इस
राग के स्वरों से अभिसिंचित एक सुमधुर बन्दिश सुनवा रहे हैं। यह खयाल रचना
विख्यात गायिका विदुषी शुभा मुद्गल ने प्रस्तुत किया है। शुभा जी से आप
तीनताल में निबद्ध राग केदार की यह रचना सुनिए और मुझे आज के इस अंक को
यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग केदार : “काहे सुन्दरवा बोलो नाहिं...” : विदुषी शुभा मुद्गल
‘स्वरगोष्ठी’
के 277वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको एक बार पुनः मदन मोहन के राग
आधारित फिल्मी गीत का एक अंश सुनवा रहे हैं। गीत के इस अंश को सुन कर आपको
निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं।
‘स्वरगोष्ठी’ के 280वें अंक की पहेली के सम्पन्न होने के बाद जिस प्रतिभागी
के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष के तीसरे सत्र (सेगमेंट) का विजेता
घोषित किया जाएगा।
1 – गीत के इस अंश को सुन कर आपको किस राग का अनुभव हो रहा है?
2 – गीत में प्रयोग किये गए ताल का नाम बताइए।
3 – क्या आप गीत की गायिका की आवाज़ को पहचान रहे हैं? हमें उनका नाम बताइए।
आप उपरोक्त तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार, 9 जुलाई, 2016 की मध्यरात्रि से पूर्व तक अवश्य प्राप्त हो जाए। COMMENTS
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते है, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर
भेजने की अन्तिम तिथि के बाद किया जाएगा। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम
‘स्वरगोष्ठी’ के 279वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और
प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या
अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी
में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
‘स्वरगोष्ठी’
क्रमांक 275 की संगीत पहेली में हमने आपको वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म
‘दस्तक’ से राग आधारित फिल्मी गीत का एक अंश सुनवा कर आपसे तीन प्रश्न पूछा
था। आपको इनमें से किसी दो प्रश्न का उत्तर देना था। पहेली के पहले प्रश्न
का सही उत्तर है- राग – चारुकेशी, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल – कहरवा और सितारखानी तीसरे प्रश्न का उत्तर है- पार्श्वगायिका – लता मंगेशकर।
इस
बार की संगीत पहेली में पाँच प्रतिभागियों ने तीनों प्रश्नों का सही उत्तर
देकर विजेता बनने का गौरव प्राप्त किया है। ये विजेता हैं - वोरहीज,
न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी, चेरीहिल, न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी। सभी पाँच विजेताओं को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
हार्दिक श्रद्धांजलि : विदुषी वीणा सहस्त्रबुद्धे
खयाल, टप्पा और भजन की सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी वीणा सहस्त्रबुद्धे का गत 29 जून को निधन हो गया। उनके निधन से ग्वालियर धराने की गायकी का एक सितारा अस्त हो गया। उनकी गायकी में ग्वालियर घराने के साथ-साथ जयपुर और किराना घराने की गायकी की झलक भी मिलती थी। उनका जन्म 14 सितम्बर 1948 को संगीतज्ञों के परिवार में हुआ था। उनके पिता पण्डित शंकर श्रीपाद बोड़स ग्वालियर घराने के विख्यात संगीतज्ञ और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के शिष्य थे। वीणा जी की संगीत-शिक्षा पहले अपने पिता से और बाद में अपने अग्रज पण्डित काशीनाथ बोड़स से प्राप्त हुई। आगे चल कर उन्हें वरिष्ठ संगीतज्ञों, पण्डित बलवन्तराव भट्ट, पण्डित वसन्त ठकार और पण्डित गजाननराव जोशी का मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ। वर्ष 1968 में वीणा जी ने कानपुर विश्वविद्यालय से संगीत, संस्कृत और अँग्रेजी विषय से स्नातक, 1969 में अखिल भारतीय गन्धर्व मण्डल से संगीत में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे चल कर 1979 में उन्होने कानपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर और 1988 में अखिल भारतीय गन्धर्व मण्डल से डॉक्ट्रेट की उपाधि अर्जित की। 1968 में उनका विवाह श्री हरि सहस्त्रबुद्धे से हुआ। वर्ष 1972 में वीणा जी को आकाशवाणी का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1993 में उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया गया। 2013 का केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार जब भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें प्रदान किया, उसी वर्ष वह एक असाध्य रोग से ग्रसित हो गई थीं। उन्हे पुरस्कार समारोह में व्हील चेयर पर ले जाया गया था। इसी रोग से ग्रसित होकर गत 29 जून को उनका निधन हो गया। निधन से लगभग दस दिन पूर्व ‘स्वरगोष्ठी’ के 275वें अंक का प्रकाशन 19 जून को किया गया था, जिसमें वीणा जी के स्वर में राग छायानट में निबद्ध खयाल प्रस्तुत किया गया था। ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ परिवार विदुषी वीणा सहस्त्रबुद्धे की स्मृतियों को नमन करता है और उन्हे अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
अगले रविवार को श्रृंखला की एक एक नई कड़ी के साथ प्रातः 8 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।
शोध एवं आलेख : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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