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तंत्रवाद्य मयूर वीणा की विकास यात्रा




स्वरगोष्ठी – 165 में आज


संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला – 3

तत और वितत जाति के वाद्यों का अनोखा गुण है तंत्रवाद्य मयूर वीणा में





मयूर वीणा
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी ‘संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला’ की तीसरी कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के कुछ कम प्रचलित, लुप्तप्राय अथवा अनूठे वाद्यों की चर्चा कर रहे हैं। वर्तमान में प्रचलित अनेक वाद्य हैं जो प्राचीन वैदिक परम्परा से जुड़े हैं और समय के साथ क्रमशः विकसित होकर हमारे सम्मुख आज भी उपस्थित हैं। कुछ ऐसे भी वाद्य हैं जिनकी उपयोगिता तो है किन्तु धीरे-धीरे अब ये लुप्तप्राय हो रहे हैं। इस श्रृंखला में हम कुछ लुप्तप्राय और कुछ प्राचीन वाद्यों के परिवर्तित व संशोधित स्वरूप में प्रचलित वाद्यों का उल्लेख करेंगे। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे एक प्राचीन भारतीय तंत्रवाद्य की चर्चा कर रहे हैं, जो वर्तमान में लुप्तप्राय है। आज हमारी चर्चा में लुप्तप्राय तंत्रवाद्य मयूर वीणा अर्थात ताऊस है। इस तंत्रवाद्य में दो जातियों के वाद्यों का मेल होता है, अर्थात मयूर वीणा में सितार की भाँति पर्दे भी होते हैं और यह सारंगी की भाँति गज (Bow) से बजाया जाता है। वर्तमान में इस वाद्य के कुछ गिने-चुने वादक हैं, जिनमें लखनऊ के पण्डित श्रीकुमार मिश्र एक ऐसे कलासाधक हैं जो न केवल इस अनूठे वाद्य का वादन कर रहे हैं, बल्कि इस लुप्तप्राय वाद्य में निरन्तर परिमार्जन भी कर रहे हैं। आज के अंक में हम आपको इस वाद्य पर उनके बजाये दो राग-रचनाएँ भी प्रस्तुत करेंगे। 
 


इसराज
वैदिक काल से ही तंत्रवाद्य के अनेक प्रकार प्रचलन में रहे हैं। प्राचीन काल में गज (Bow) से बजने वाले तंत्रवाद्यों में ‘पिनाकी वीणा’, ‘निःशंक वीणा’, ‘रावणहस्त वीणा’ आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे। आधुनिक समय में इन्हीं वाद्यों का विकसित और परिमार्जित रूप ‘सारंगी’ और ‘वायलिन’ सर्वाधिक लोकप्रिय है। तंत्रवाद्य का एक दूसरा प्रकार है, जिसे गज (Bow) के बजाय तारों पर आघात (Stroke) कर स्वरों की उत्पत्ति की जाती है। प्राचीन काल में इस श्रेणी में ‘रुद्र वीणा’, ‘सरस्वती वीणा’, ‘शततंत्री वीणा’ आदि प्रचलित थे, तो आधुनिक काल में ‘सितार’, ‘सरोद’, ‘संतूर’ आदि आज लोकप्रिय हैं। इन दोनों प्रकार के वाद्यों की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। प्राचीन गजवाद्यों में नाद पक्ष का गाम्भीर्य उपस्थित रहता है, जबकि आघात से बजने वाले तंत्रवाद्यों में संगीत के चंचल प्रवृत्ति की अधिकता होती है। मध्यकाल में खयाल शैली के विकास के साथ ही कुछ ऐसे वाद्यों का आविष्कार भी हुआ, जिसमें यह दोनों गुण उपस्थित हों। ताऊस (मयूरी वीणा), इसराज अथवा दिलरुबा आदि ऐसे ही वाद्य हैं। इस श्रेणी के वाद्यों की बनावट में सितार और सारंगी का मिश्रित रूप होता है। डाँड (दण्ड) का भाग सितार की तरह होता है जिसमें पर्दे लगे होते हैं, जिस पर उँगलियाँ फिरा कर स्वर-निकास किया जाता है। इस वाद्य का निचला सिरा अर्थात कुंडी, सारंगी की भाँति होती है, जिस पर खाल मढ़ी होती है। सारंगी अथवा वायलिन की तरह इसे गज से बजाया जाता है। ताऊस अथवा मयूरी वीणा का प्रचलन मुगल काल में मिलता है, किन्तु इसकी उत्पत्ति के विषय कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पंजाब के कपूरथला घराने के उस्ताद मीर रहमत अली खाँ सुप्रसिद्ध ताऊस वादक थे, जिनके शिष्य महन्त गज़्ज़ा सिंह थे। महन्त जी पंजाब के भटिण्डा ज़िले के पास स्थित गुरुसर ग्राम के निवासी थे और कपूरथला रियासत के दरबारी कलाकार थे। महन्त गज़्ज़ा सिंह प्रख्यात ताऊस वादक थे। उन दिनों ताऊस अथवा मयूरी वीणा का आकार काफी बड़ा हुआ करता था। महन्त जी ने इसका आकार थोड़ा छोटा इस प्रकार से किया कि वाद्य की ध्वनि में विशेष अन्तर न हो। इस प्रयास में उन्होने ताऊस की कुंडी से मयूर की आकृति को अलग कर दिया और वाद्य के इस नये रूप का नाम ‘दिलरुबा’ रख दिया। इसके अलावा पटियाला दरबार के भाई काहन सिंह भी कुशल ताऊस वादक थे। महन्त गज़्ज़ा सिंह द्वारा ताऊस के परिवर्तित रूप ‘दिलरुबा’ का प्रचलन आज भी है। पंजाब के कई संगीतकार इस वाद्य का सफलतापूर्वक प्रयोग कर रहे हैं। पंजाब के कलासाधक रणवीर सिंह, राज एकेडमी में नई पीढ़ी को दिलरुबा वादन की शिक्षा देते हैं। मयूर वीणा के प्राचीन स्वरूप का शोध और अध्ययन कर लखनऊ के इसराज वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र ने वाद्य निर्माता बारीक अली उर्फ बादशाह भाई के सहयोग से इस वाद्य का पुनरोद्धार किया है। आगे बढ़ने से पहले आइए श्रीकुमार जी का मयूर वीणा पर बजाया राग मारू बिहाग की एक रचना सुनवाते हैं।


मयूर वीणा वादन : राग मारू बिहाग : वादक - पण्डित श्रीकुमार मिश्र‘





पण्डित श्रीकुमार मिश्र 
मयूर वीणा का सरलीकृत रूप इसराज, दिलरुबा और तार शहनाई वाद्य है। इन सभी वाद्यों के स्वरों में अधिक अन्तर नहीं होता। इन वाद्यों का प्रचलन पंजाब के अलावा बंगाल में भी रहा है। बंगाल के विष्णुपुर घराने के रामकेशव भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध ताऊस अर्थात मयूरी वीणा वादक थे। उन्होने भी इस वाद्य को संक्षिप्त रूप देने के लिए इसकी कुण्डी से मोर की आकृति को हटा दिया और इस नए स्वरूप का नाम 'इसराज' रखा। पंजाब का 'दिलरुबा' और बंगाल का 'इसराज' दरअसल एक ही वाद्य के दो नाम हैं। दोनों की उत्पत्ति 'मयूरी वीणा' से हुई है। इस श्रेणी के वाद्य वर्तमान सितार और सारंगी के मिश्रित रूप है। इसराज या दिलरुबा वाद्यों की उत्पत्ति के बाद ताऊस या मयूरी वीणा का चलन प्रायः बन्द हो गया था। लगभग दो शताब्दी पूर्व इसराज की उत्पत्ति के बाद अनेक ख्यातिप्राप्त इसराज-वादक हुए हैं। रामपुर के सेनिया घराने के सुप्रसिद्ध वादक उस्ताद वज़ीर खाँ कोलकाता में 1892 से 1899 तक रहे। इस दौरान उन्होने अमृतलाल दत्त को सुरबहार और इसराज-वादन की शिक्षा दी। उस्ताद अलाउद्दीन खाँ, जो उस्ताद वज़ीर खाँ के शिष्य थे, ने भी कोलकाता में इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। बंगाल के वादकों में स्वतंत्र वादन की परम्परा भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। इसराज पर चमत्कारिक गतकारी शैली का विकास भी बंगाल में ही हुआ। गया घराने के सूत्रधार हनुमान दास (1838-1936) कोलकाता में निवास करते थे और स्वतंत्र इसराज-वादन करते थे। हनुमान दास जी के शिष्य थे- कन्हाईलाल ठेडी, हाबू दत्त, कालिदास पाल, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, सुरेन्द्रनाथ, दिनेन्द्रनाथ, ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी, प्रकाशचन्द्र सेन, शीतल चन्द्र मुखर्जी आदि। ब्रजेन्द्रकिशोर रायचौधरी और प्रकाशचन्द्र सेन से सेनिया घराने के सितार-वादक इमदाद खाँ ने इसराज-वादन की शिक्षा ग्रहण की थी। कोलकाता में ही मुंशी भृगुनाथ लाल और इनके शिष्य शिवप्रसाद त्रिपाठी ‘गायनाचार्य’ इसराज वादन करते थे। शिवप्रसाद जी के शिष्य थे रामजी मिश्र व्यास। वर्तमान में सक्रिय इसराज-वादक और ‘मयूरी वीणा’ के वर्तमान स्वरूप के अन्वेषक पण्डित श्रीकुमार मिश्र, पं॰ रामजी मिश्र व्यास के पुत्र और शिष्य हैं। अपने पिता से दीक्षा लेने के अलावा इन्होने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संगीत में स्नातकोत्तर शिक्षा भी ग्रहण की है। ताऊस अर्थात मयूरी वीणा से उत्पन्न ‘दिलरुबा’ तथा ‘इसराज’ वाद्य का प्रचलन पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र में अधिक रहा है। सिख समाज और रागी कीर्तन के साथ इस वाद्य का प्रचलन आज भी है। पंजाब के भाई वतन सिंह (निधन-1966) प्रसिद्ध दिलरुबा-वादक थे। फिल्म-संगीतकारों में रोशन और एस.डी. बातिश इस वाद्य के कुशल वादक रहे हैं। गुजरात के नागर दास और उनके शिष्य मास्टर वाडीलाल प्रख्यात दिलरुबा-वादक थे। इनके शिष्य कनकराय त्रिवेदी ने दो उँगलियों की वादन तकनीक का प्रयोग विकसित किया था। त्रिवेदी जी ने इसी तकनीक की शिक्षा श्रीकुमार जी को भी प्रदान की है। वर्तमान में ओमप्रकाश मोहन, चतुर सिंह, और भगत सिंह दिलरुबा के और अलाउद्दीन खाँ तथा विजय चटर्जी इसराज के गुणी कलाकार हैं। श्रीकुमार मिश्र एकमात्र ऐसे कलाकार हैं, जो परम्परागत इसराज के साथ-साथ स्वविकसित ‘मयूरी वीणा’ का भी वादन करते हैं। श्री कुमार जी ने संगीत के प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित मयूरी वीणा का अध्ययन कर वर्तमान मयूरी वीणा का निर्माण कराया। मूलतः इसराज वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र ने इस कार्य को अपनी देख-रेख में लगभग डेढ़ दशक पूर्व कराया था, जिसका परिमार्जन समय-समय आज भी जारी है। आज के ताऊस अथवा मयूरी वीणा के निर्माण में लखनऊ के संगीत-वाद्यों के निर्माता बारिक अली उर्फ बादशाह भाई का योगदान रहा। वाद्य को नया जन्म देने के बाद श्रीकुमार जी अपने इस मयूरी वीणा का अनेक बार विभिन्न संगीत समारोहों और गोष्ठियों में वादन कर चुके हैं। आइए अब हम आपको सुनवाते हैं, पण्डित श्रीकुमार मिश्र का बजाया इसराज पर राग रागेश्वरी। आप इस सुरीले वाद्य पर मोहक राग का आनन्द लीजिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिये।


मयूर वीणा वादन : राग रागेश्वरी: वादक - पण्डित श्रीकुमार मिश्र






आज की पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ के 165वें अंक की संगीत पहेली में आज आपको एक प्राचीन ताल वाद्य वादन का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 170वें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।




1 – संगीत के इस अंश को सुन कर इस ताल वाद्य को पहचानिए और हमें उसका नाम लिख भेजिए।

2 – वाद्य संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह कितनी मात्रा का ताल है? संख्या लिख भेजिए।

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 167वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 163वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको पण्डित विश्वमोहन भट्ट द्वारा मोहन वीणा पर प्रस्तुत राग हंसध्वनि, तीनताल की गत का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- वाद्य मोहन वीणा और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- राग हंसध्वनि। इस अंक के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी और हैदराबाद की डी. हरिणा माधवी ने दिया है। चंडीगढ़ के हरकीरत सिंह ने केवल दूसरे प्रश्न का सही उत्तर दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


अपनी बात


मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’के मंच पर हमारी नई श्रृंखला ‘संगीत वाद्य परिचय’ के अन्तर्गत आज हमने आपका परिचय गज-तंत्र वाद्य मयूर वीणा से कराया। अगले अंक में हम आपसे एक ऐसे लोक-ताल-वाद्य की चर्चा करेंगे जो आज प्रायः लुप्तप्राय है। आप भी यदि ऐसे किसी संगीत वाद्य की जानकारी हमारे बीच बाँटना चाहें तो अपना आलेख अपने संक्षिप्त परिचय के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के ई-मेल पते पर भेज दें। अपने पाठको / श्रोताओं की प्रेषित सामग्री प्रकाशित / प्रसारित करने में हमें हर्ष होगा। आगामी श्रृंखलाओं के लिए आप अपनी पसन्द के कलासाधकों, रागों या रचनाओं की फरमाइश भी कर सकते हैं। हम आपके सुझावों और फरमाइशों का स्वागत करेंगे। अगले अंक में रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सभी संगीत-प्रेमियों के हमें प्रतीक्षा रहेगी।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र    

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