भारतीय सिनेमा के सौ साल – 37
कारवाँ सिने-संगीत का‘एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...’
भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित
विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का
हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और माह के दूसरे और चौथे
गुरुवार को हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक
इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक
‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक
में हम भारतीय फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के
प्रारम्भिक दौर का ज़िक्र करेंगे।
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फिल्म पहले आप : ‘हिन्दुस्तान के हम हैं हिन्दुस्तान हमारा...’ : मोहम्मद रफी और साथी
यह गीत न केवल रफ़ी साहब के करियर का एक महत्वपूर्ण गीत बना, बल्कि इसके गीतकार डी.एन. मधोक के लिए भी यह उतना ही महत्वपूर्ण गीत बना क्योंकि इस गीत में उनके धर्मनिरपेक्षता के शब्दों के प्रयोग के लिए उन्हें “महाकवि” के शीर्षक से सम्मानित किया गया था। ब्रिटिश राज ने इस गीत का मार्च-पास्ट गीत के रूप में विश्वयुद्ध में इस्तेमाल किया। भले ही “हिन्दुस्तान के हम हैं...” गीत के लिए रफ़ी का नाम रेकॉर्ड पर नहीं छपा, पर इसी फ़िल्म में नौशाद ने उनसे दो और गीत भी गवाए, जो शाम के साथ गाए हुए युगल गीत थे– “तुम दिल्ली मैं आगरे, मेरे दिल से निकले हाय...” और “एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...”। एक गीत ज़ोहराबाई के साथ भी उनका गाया हुआ बताया जाता है “मोरे सैंयाजी ने भेजी चुंदरी”, पर रेकॉर्ड पर ‘ज़ोहराबाई और साथी’ बताया गया है। जो भी है, ‘पहले आप’ से नौशाद और रफ़ी की जो जोड़ी बनी थी, वह अन्त तक क़ायम रही। यहाँ थोड़ा रुक कर आइए, रफी के शुरुआती दौर के इन दोनों गीतों को सुनते हैं।
फिल्म पहले आप : “तुम दिल्ली मैं आगरे, मेरे दिल से निकले हाय...” : रफी और शाम
फिल्म पहले आप : “एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...” : रफी और शाम
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गायकी तेरा हुस्न-ए-फ़न रफ़ी, तेरे फ़न पर हम सभी को नाज़ है,
ये सबक सीखा तेरे नग़मात से, ज़िंदगानी प्यार का एक साज़ है,
मेरी सरगम में भी तेरा ज़िक्र है, मेरे गीतों में तेरी आवाज़ है।
कहता है कोई दिल चला गया, दिलबर चला गया, साहिल पुकारता है समन्दर चला गया,
लेकिन जो बात सच है वो कहता नहीं कोई, दुनिया से मौसिक़ी का पयम्बर चला गया।
तुझे नग़मों की जान अहले नज़र यूंही नहीं कहते, तेरे गीतों को दिल का हमसफ़र यूंही नहीं कहते,
सुनी सब ने मोहब्बत जवान आवाज़ में तेरी, धड़कता है हिन्दुस्तान आवाज़ में तेरी।”
ख़लीक अमरोहवी एक ऐसे शख्स हैं जिन्होंने रफ़ी साहब पर काफ़ी शोध कार्य किया है। विविध भारती के एक कार्यक्रम में उन्होंने रफ़ी साहब से सम्बन्धित कई जानकारियाँ दी थीं जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत है। 24 दिसम्बर 1924 को कोटला सुल्तानपुर, पंजाब में जन्मे रफ़ी छह भाइयों में दूसरे नम्बर पर थे। उनके बाक़ी पाँच भाइयों के नाम हैं शफ़ी, इमरान, दीन, इस्माइल और सिद्दिक़। उनके बचपन में उनके मोहल्ले में एक फ़कीर आया करता था, गाता हुआ। रफ़ी उसकी आवाज़ से आकृष्ट होकर उसके पीछे चल पड़ता और बहुत दूर निकल जाया करता। उनके बड़े भाई के दोस्त हमीद ने पहली बार उनकी गायन प्रतिभा को महसूस किया और उन्हें इस तरफ़ प्रोत्साहित किया। रफ़ी उस्ताद बरकत अली ख़ाँ के सम्पर्क में आए और उनसे शास्त्रीय संगीत सीखना शुरु किया। उस समय उनकी आयु मात्र 13 वर्ष थी। हमीद के ही सहयोग से उन्हें लाहौर रेडियो में गाने का अवसर मिला। एक बार यूं हुआ कि कुंदनलाल सहगल लाहौर गए किसी शो के लिए। पर बिजली फ़ेल हो जाने की वजह से जब शो बाधित हुआ, तब आयोजकों ने शोर मचाती जनता के सामने रफ़ी को खड़ा कर दिया गाने के लिए। इतनी कम उम्र में शास्त्रीय संगीत की बारीक़ियों को देख सहगल भी चकित रह गए और उनकी तारीफ़ की। यह रफ़ी के करियर की पहली उपलब्धि रही। हमीद ने फिर उन्हें दिल्ली भेजा दिल्ली रेडियो में गाने के लिए। वहाँ फ़िरोज़ निज़ामी थे जिन्होंने रफ़ी को कई ज़रूरी बातें सिखाईं। आइए, अब हम आपको रफी साहब का गाया, फिल्म ‘विलेज गर्ल उर्फ गाँव की गोरी’ का वह पहला गीत, जो संगीतकार श्यामसुन्दर ने गवाया था, किन्तु यह फिल्म 1945 में प्रदर्शित हुई। इससे पहले 1944 में फिल्म ‘पहले आप’ प्रदर्शित हो चुकी थी।
फिल्म विलेज गर्ल उर्फ गाँव की गोरी : “दिल हो काबू में तो दिलदार की...” : रफी और साथी
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के स्तम्भ ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ के अन्तर्गत आज
हमने सुजॉय चटर्जी की इसी शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक के कुछ पृष्ठ उद्धरित
किये हैं। आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमें अवश्य लिखिएगा। आपकी
प्रतिक्रिया, सुझाव और समालोचना से हम इस स्तम्भ को और भी सुरुचिपूर्ण रूप
प्रदान कर सकते हैं। ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ के आगामी अंक में आपके लिए हम
इस पुस्तक के कुछ और रोचक पृष्ठ लेकर उपस्थित होंगे। सुजॉय चटर्जी की
पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ प्राप्त करने के लिए तथा अपनी प्रतिक्रिया
और सुझाव हमें भेजने के लिए radioplaybackindia@live.com पर अपना सन्देश भेजें।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
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