ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 713/2011/153
'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'।
सुबह की गलियों में
अंधेरा है बहुत
अभी आँखों को मूँदे रहो
घड़ी का अलार्म जगाये अगर
रख उसके होठों पे हाथ
चुप करा दो
काला सूरज
आसमान पर लटक तो गया होगा
बाहर शोर सुनता हूँ मैं
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अख़बार को
किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज
फिर वही धूप, वही साये
वही भीड़, वही चेहरे
वही सफ़र, वही मंज़िल
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर
वही अंधी दौड़ लगाती
फिर भी थमी-ठहरी सी
रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी
नहीं, आज नहीं
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे
अपनी ही बाहों में
'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे
गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे
कुछ रूठे-रूठे
उजड़े-बिछड़े
सपनों को भी बुलवा लेंगे
मुझे यकीन है
कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर
खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से
ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़िंदगी को मैं।
इस कविता में कवि नें जिस अवकाश की कल्पना की है, वह मेरा ख़याल है कि हर आम आदमी करता होगा। आज की भाग-दौड़ भरी और तनावपूर्ण ज़िंदगी में कभी किसी दिन मन में ख़याल आता है कि काश आज छुट्टी मिल जाती उस गतानुगतिक ज़िंदगी से। तो फिर ख़यालों में ही सही, घूम तो आते यादों की गलियारों से; जिन गलियारों से होते हुए जाती है सड़क बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़, वो पहाड़ें जिनमें गूंजती हुई ख़ामोशी की कल्पना कभी गुलज़ार साहब नें की थी 'मौसम' का वह सदाबहार गीत लिखते हुए। ग़ालिब के शेर "दिल ढूंढ़ता है फिर वो ही फ़ुरसत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुरे जाना किए हुए" को आगे बढ़ाते हुए गुलज़ार साहब नें बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कभी जाड़ों की नर्म धूप को आंगन में बैठ कर सेंकना, कभी गरमी की रातों में छत पर लेटे हुए तारों को देखना, और कभी बर्फ़ीली वादियों में दिन गुज़ारना, इस तरह के अवकाश के दिनों का बड़ा ही सजीव चित्रण किया था। एक तरफ़ गुलज़ार साहब के ये सजीव ख़यालात और दूसरी तरफ़ सजीव जी के आम जीवन का बड़ा ही वास्तविक वर्णन, दोनों ही लाजवाब, दोनों ही अपने आप में बेहतरीन। आइए इस अवकाश की घड़ी में फ़िल्म 'मौसम' के इस गीत को सुनें। मदन मोहन का संगीत है। इस गीत के दो संस्करणों में लता-भूपेन्द्र का गाया युगल-संस्करण हमनें 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में सुनवाया था, आइए आज सुना जाये भूपेन्द्र का एकल संस्करण।
और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।
और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-
सूत्र १ - शशि कपूर नायक है फिल्म के.
सूत्र २ - एक आवाज़ लता की है इस युगल गीत में.
सूत्र ३ - एक अंतरे में "शोख नज़रों" का जिक्र है.
अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
गायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.
पिछली पहेली का परिणाम -
सत्यजीत जी थोड़ी और फुर्ती दिखानी पड़ेगी आपको अमित जी से टक्कर लेने के लिए, आप अभी ३ अंक पीछे हैं उनसे
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
'एक पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'।
सुबह की गलियों में
अंधेरा है बहुत
अभी आँखों को मूँदे रहो
घड़ी का अलार्म जगाये अगर
रख उसके होठों पे हाथ
चुप करा दो
काला सूरज
आसमान पर लटक तो गया होगा
बाहर शोर सुनता हूँ मैं
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अख़बार को
किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज
फिर वही धूप, वही साये
वही भीड़, वही चेहरे
वही सफ़र, वही मंज़िल
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर
वही अंधी दौड़ लगाती
फिर भी थमी-ठहरी सी
रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी
नहीं, आज नहीं
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे
अपनी ही बाहों में
'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे
गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे
कुछ रूठे-रूठे
उजड़े-बिछड़े
सपनों को भी बुलवा लेंगे
मुझे यकीन है
कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर
खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से
ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़िंदगी को मैं।
इस कविता में कवि नें जिस अवकाश की कल्पना की है, वह मेरा ख़याल है कि हर आम आदमी करता होगा। आज की भाग-दौड़ भरी और तनावपूर्ण ज़िंदगी में कभी किसी दिन मन में ख़याल आता है कि काश आज छुट्टी मिल जाती उस गतानुगतिक ज़िंदगी से। तो फिर ख़यालों में ही सही, घूम तो आते यादों की गलियारों से; जिन गलियारों से होते हुए जाती है सड़क बर्फ़ से ढके पहाड़ों की तरफ़, वो पहाड़ें जिनमें गूंजती हुई ख़ामोशी की कल्पना कभी गुलज़ार साहब नें की थी 'मौसम' का वह सदाबहार गीत लिखते हुए। ग़ालिब के शेर "दिल ढूंढ़ता है फिर वो ही फ़ुरसत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुरे जाना किए हुए" को आगे बढ़ाते हुए गुलज़ार साहब नें बड़ी ख़ूबसूरती के साथ कभी जाड़ों की नर्म धूप को आंगन में बैठ कर सेंकना, कभी गरमी की रातों में छत पर लेटे हुए तारों को देखना, और कभी बर्फ़ीली वादियों में दिन गुज़ारना, इस तरह के अवकाश के दिनों का बड़ा ही सजीव चित्रण किया था। एक तरफ़ गुलज़ार साहब के ये सजीव ख़यालात और दूसरी तरफ़ सजीव जी के आम जीवन का बड़ा ही वास्तविक वर्णन, दोनों ही लाजवाब, दोनों ही अपने आप में बेहतरीन। आइए इस अवकाश की घड़ी में फ़िल्म 'मौसम' के इस गीत को सुनें। मदन मोहन का संगीत है। इस गीत के दो संस्करणों में लता-भूपेन्द्र का गाया युगल-संस्करण हमनें 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' में सुनवाया था, आइए आज सुना जाये भूपेन्द्र का एकल संस्करण।
और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।
और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-
सूत्र १ - शशि कपूर नायक है फिल्म के.
सूत्र २ - एक आवाज़ लता की है इस युगल गीत में.
सूत्र ३ - एक अंतरे में "शोख नज़रों" का जिक्र है.
अब बताएं -
गीतकार कौन हैं - ३ अंक
गायक कौन हैं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.
पिछली पहेली का परिणाम -
सत्यजीत जी थोड़ी और फुर्ती दिखानी पड़ेगी आपको अमित जी से टक्कर लेने के लिए, आप अभी ३ अंक पीछे हैं उनसे
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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