मोजार्ट ऑफ़ मद्रास को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाओं सहित -
बात तब की है, जब रहमान "गुरू" फिल्म के गाने रिकार्ड कर रहे थे। "नुसरत" साहब के एक बहुत हीं सोफ्ट-से गाने "सजना तेरे बिना" ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। गौरतलब बात है कि "रहमान" की गिनती नुसरत साहब के बड़े फैन्स में की जाती है। रहमान भी "सजना तेरे बिना" जैसा हीं कोई सोफ्ट-सा गाना तैयार करना चाहते थे। "नुसरत" साहब का या फिर कहिये उनकी दुआओं का यह असर हुआ कि २५ मिनट का गाना बन कर तैयार हो गया। छ:-सात मुखरों से सजे इस गाने की एडिटिंग शुरू हुई और अंतत: गाने को इसकी मुकम्मल और संतुलित लंबाई मिल गई। मज़े की बात यह है कि इस गाने से पहले रहमान ने "ऎ हैरते आशिकी" गाना भी बना लिया था. "ऎ हैरते आशिकी" के पीछे का वाक्या भी बड़ा हीं मज़ेदार है। अमीर खुसरो के एक नज़्म "ये शरबती आशिकी" ने "रहमान" पर गहरा असर किया था। रहमान इसे धुनों में उतारना चाहते थे, लेकिन फारसी की बहुलता आड़े आ रही थी। तब खेवनहार के तौर पर आए "गुलज़ार साहब" जिन्होने "ये शरबती आशिकी" को अलग हीं अंदाज़ देकर बना दिया "ऎ हैरते आशिकी",जिसे "क्यूँ उर्दू-फारसी बोलते हो, दस कहते हो, दो तोलते हो" जैसे मिसरों ने मिश्री-सा मीठा कर दिया। तो हाँ हम बात कर रहे थे उस २५ मिनट के गाने की। "गुरू" के निर्देशक मणिरत्नम को "ऎ हैरते आशिकी" भारी-भरकम-सा लग रहा था, जिसे वो फिल्म की शुरूआत में नहीं डालना चाहते थे। तब नुसरत साहब की दुआओं से उपजे गाने को फिल्म का पहला गाना बनने का मौका मिला। वह गाना था "तेरे बिना" ("सजना तेरे बिना" से "सजना" को देशनिकाला मिल गया ) । इस गाने को रहमान ने कादिर खान और चिन्मयी की आवाज़ों में रिकार्ड कर लिया । लेकिन तभी मणिरत्नम को "दिल से" के "दिल से" की याद आ गई। मणिरत्नम जिद्द पर अड़ गए कि यह गाना अगर रहमान खुद नहीं गाते तो गाना फिल्म में रहेगा हीं नहीं। रहमान द्वंद्व में, कादिर खान के साथ धोखा भी नहीं कर सकते थे,लेकिन गाना भी प्यारा था । अंतत: रहमान ने हामी भर दी और हमें रहमान की आवाज़ में प्यारा-सा गाना सुनने को मिल गया। वैसे गाने में कादिर खान की आवाज़ है, लेकिन महज़ आलाप में हीं।
कादिर खान की आवाज़ में "तेरे बिना" यहाँ सुने-
सौम्या राव की आवाज़ में "शौक है" सुनें,जिसे ओडियो में रीलिज नहीं किया गया, लेकिन फिल्म में विद्या बालन और माधवन पर फिल्माया गया था।
यह तो हम सभी जानते हैं कि रहमान का वास्तविक नाम "दिलीप कुमार" है। रहमान जब रहमान नहीं थे, बल्कि अपने दोस्तों के साथ संगीत तैयार करने वाले "दिलीप" थे, तब उन्होंने "शुभा" नाम की एक गायिका के साथ "सेट मी फ्री" (set me free) नाम का अंग्रेजी गानों का एलबम तैयार किया था। यह बात "रोजा" के रीलिज होने से पहले की है। इस एलबम को "मैंग्नासाउंड" नाम की कंपनी ने रीलिज किया था। चूँकि संगीतकार नया था, गीतकार नया था, गायिका नयी थी और लोगों की पसंद पुराने ढर्रे की, "सेट मी फ्री" कुछ ज्यादा कमाल नहीं कर सकी। दो साल बाद "रोज़ा" रीलिज हुई और "रहमान" रातोंरात अव्वल नंबर के संगीतकारों में शुमार हो गए । "रोज़ा" में पहली बार दिलीप को "ए०आर०रहमान" के रूप में पेश किया गया था। "दिलीप" के "ए०आर०रहमान" बनने की कहानी जितनी दु:खद(पिता की मृत्य, बहन की लाईलाज बिमारी)है,उतनी हीं रोमांचक भी है। "दिलीप" के पूरे परिवार ने धर्म-परिवर्तन का फैसला कर लिया था। "दिलीप" की माँ ज्योतिष में बेहद यकीन करती थी। चेन्नई के जानेमाने ज्योतिष "उलगनथम" के पास एक बार "दिलीप", उनकी बहन और उनकी माँ का जाना हुआ। उनकी माँ ने उस ज्योतिष से "दिलीप" के लिए कोई इस्लामिक नाम सुझाने का आग्रह किया। "उलगनथम" ने नाम दिया "अब्दुल रहमान" लेकिन कहा कि इसे "ए०आर०रहमान" कहो । बार-बार यह पूछने पर भी कि इसमें "आर०" किस शब्द के लिए है, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, बस इतना हीं कहा कि "ए०आर०रहमान" नाम हीं इसे प्रसिद्धि दिलायेगा। आगे चलकर प्रख्यात संगीतकार "नौशाद" की सलाह पर "ए०आर०" हुआ "अल्लाह रक्खा" । जब फिल्म रोजा रीलिज होने वाली थी,तो इस फिल्म के कैसेट्स के कवर पर "दिलीप कुमार" लिखने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। तभी रहमान की माँ ने निर्देशक "मणिरत्नम" से संपर्क किया और उनसे गुजारिश की कि "दिलीप कुमार" की बजाय "ए०आर०रहमान" लिखा जाए और इस तरह "दिलीप" हो गए "ए०आर०रहमान" । हाँ तो हम बात कर रहे थे "सेट मी फ्री" की। रोज़ा की सफलता के बाद "मैग्नासाउंड" कंपनी ने "रहमान" के नाम को भुनाना चाहा। रहमान से इजाजत लिए बिना उन लोगों ने पुराने कैसेट्स को नए कवर में बाज़ार में उतार दिया, चेन्नई में जगह-जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लगा दी और कैसेट को रहमान का सबसे पहला अंतर्राष्ट्रीय एलबम कहा गया । जाहिर सी बात है रीलौंच हुए कैसेट को "रहमान" के नाम के कारण बाज़ार तो मिलना हीं था, कैसेट्स हाथों-हाथ बिक गए,वही कैसेट जिसकी पहले केवल ३०० प्रतियाँ हीं बिकी थी। आज भी हम से कई "सेट मी फ्री" को आज के रहमान का एलबम मानते हैं, जबकी "रहमान" खुद इसके रीलौंच से नाराज़ थे। उनका कहना था कि यह कैसेट उनके लिए एक प्रयोग मात्र था,"मैग्नासाउंड" जब इसे रीलौंच हीं करना चाहती थी तो उनसे धुनों का कच्चापन तो खत्म करा लेती। लेकिन रूपयों के चकाचौंध ने "मैग्नासाउंड" की आँखों पर पट्टी डाला हुआ था। गनीमत देखिए कि उसी कंपनी ने २००६ में फिर से उसी एलबम को रीलिज किया है और इस बार भी "रहमान" के नाम ने उसे करोड़ों की कमाई करा दी है। यह है "रहमान" के संगीत का कमाल...........क्या हुआ कि कच्चा है....लेकिन है तो रहमान का हीं।
पिछले अंक में हम बातें कर रहे थे रहमान के संगीत के अनोखे अंदाज़ के बारे मे। रहमान जानते हैं कि उन्हें किस वाद्य-यंत्र से कितनी ध्वनि चाहिए। कल हम "ताल" की बात पर रूके थे। तो "ताल" का हीं किस्सा सुनाते हैं। "ताल से ताल मिला" की रिकार्डिंग हो रही थी। "रहमान" धुन तैयार कर चुके थे, अब बस म्युजिसियन्स या कहिए वादकों को अपना काम करना था। "ताल से ताल मिला" अगर आपको याद हो तो आप महसूस करेंगे कि इस गाने में "तबला" का बेहद खूबसूरत प्रयोग किया गया है। दर-असल इसका सारा श्रेय जाता है रहमान के अनूठेपन को। तबला-वादक इस गाने की धुन को बेहद आसान और कन्वेंशनल मान रहा था। लेकिन रहमान जानते थे कि उन इस गाने में तबले का प्रयोग कैसे करना है। उन्होंने तबला-वादक को अपनी ऊँगलियों में रबर-बैंड के सहारे आईस-क्रीम-स्टीक्स बाँधने को कहा ,फिर धुन भी अनकन्वेंशनल हो गई और तबले की आवाज भी।
तो चलिए सुनते हैं "ताल" से "ताल से ताल मिला"-
रहमान के स्टुडियो में गानों की रिकार्डिंग कितने अलहदा तरीके से होती है, उसके कई प्रमाण है। रहमान गानों की रिकार्डिंग के वक्त स्टुडियो की हरेक आवाज़ को रिकार्ड कर लेते हैं,फिर चाहे वह माईक का ग्लिच हीं क्यों ना हो। एक ऎसा हीं मज़ेदार वाक्या हुआ तमिल फिल्म "कदल वाईरस" के एक गाने की रिकार्डिंग के वक्त । गाने में नायक की खाँसी की आवाज़ की जरूरत थी। गाने की रिकार्डिंग के बीच में गायक खाँस पड़ता है। इस एक खाँसी के अलावा गाने की रिकार्डिंग के दौरान गायक कभी भी खाँसी की वास्तविक नकल नहीं कर पाता। खाँसी के बिना पूरी रिकार्डिंग खत्म हो जाती है। रहमान पहले से रिकार्ड कर रखी हुई गायक "मनू" की वास्तविक खाँसी को हीं गाने में फिट कर देते हैं। ऎसे हीं कई किस्से हैं जो रहमान को औरों से अलग करते हैं और परफेक्शनिस्ट बनाते हैं। कहा जाता है कि रहमान गायक के अनुसार धुन में फेरबदल नहीं करते,बल्कि धुन के मुताबिक गायक चुनते हैं। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि रहमान की बड़ी बहन "रेहाना" भी एक गायिका हैं ,लेकिन रहमान ने अपने कैरियर के १७ साल बीत जाने के बाद तमिल फिल्म "शिवाजी" में उन्हं गाने का अवसर दिया। रहमान संगीत को जीते हैं,इसलिए संगीत के साथ धोखा करने की सोच भी नहीं सकते । रहमान धुन के अनुसार गायको के साथ प्रयोग करते रहते हैं। यही कारण है कि हम "दौड़" फिल्म के एक गाने "ओ भंवरे" में "येशुदास" की आवाज़ सुनते हैं, जिसकी शायद हीं कोई कल्पना कर सकता है ।
आप भी "दौड़" के "ओ भँवरे" का मज़ा लीजिए:
रहमान ने किसी भी संगीतकार से ज्यादा ४ रजत कमल पुरस्कार(silver lotus, national award) प्राप्त किये हैं उन्हें ये पुरस्कार क्रमश: रोज़ा(१९९२), मिन्सारा कनावु(१९९७), लगान(२००१) और कनतिल मुतमित्तल(२००२)के लिए प्रदान किए गए। टाईम मैगजीन ने "रोज़ा" के संगीत को विश्व के सर्वश्रेष्ठ १० गीतों में शुमार किया है। टाईम मैगजीन ने रहमान को "मोज़ार्ट औफ मद्रास" की उपाधि से भी नवाज़ा है। पूरे विश्व में अबतक रहमान के १० करोड़ से भी ज्यादा साउंडट्रैकस एवं फिल्म -स्कोर्स बिक चुके हैं। यह उपलब्धि उन्हें संसार के १० सबसे बड़े रिकार्ड आर्टिस्टों की कतार में ला खड़ा करती है। यह किसी भी भारतीय के लिए फख़्र की बात है।
चलिए अंत में हम सुनते हैं रहमान का संगीतबद्ध एवं स्वरबद्ध किया हुआ फिल्म "लगान" का "बार-बार हाँ, चले चलो" गाना-
अंत में जाते-जाते रहमान को उनके जन्मदिवस पर ढेरों शुभकामनाएँ। खुदा करे कि उनपर बरकत बनी रहे और पूरा संगीत-जगत सदियों तक उनके संगीत और गीत का यूँ हीं लुत्फ़ लेता रहे। आमीन!!!!
चित्र में (उपर) शांत और सोम्य रहमान, (नीचे) प्रिय निर्देशक मणि रत्नम के साथ
प्रस्तुति - विश्व दीपक "तन्हा"
बात तब की है, जब रहमान "गुरू" फिल्म के गाने रिकार्ड कर रहे थे। "नुसरत" साहब के एक बहुत हीं सोफ्ट-से गाने "सजना तेरे बिना" ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। गौरतलब बात है कि "रहमान" की गिनती नुसरत साहब के बड़े फैन्स में की जाती है। रहमान भी "सजना तेरे बिना" जैसा हीं कोई सोफ्ट-सा गाना तैयार करना चाहते थे। "नुसरत" साहब का या फिर कहिये उनकी दुआओं का यह असर हुआ कि २५ मिनट का गाना बन कर तैयार हो गया। छ:-सात मुखरों से सजे इस गाने की एडिटिंग शुरू हुई और अंतत: गाने को इसकी मुकम्मल और संतुलित लंबाई मिल गई। मज़े की बात यह है कि इस गाने से पहले रहमान ने "ऎ हैरते आशिकी" गाना भी बना लिया था. "ऎ हैरते आशिकी" के पीछे का वाक्या भी बड़ा हीं मज़ेदार है। अमीर खुसरो के एक नज़्म "ये शरबती आशिकी" ने "रहमान" पर गहरा असर किया था। रहमान इसे धुनों में उतारना चाहते थे, लेकिन फारसी की बहुलता आड़े आ रही थी। तब खेवनहार के तौर पर आए "गुलज़ार साहब" जिन्होने "ये शरबती आशिकी" को अलग हीं अंदाज़ देकर बना दिया "ऎ हैरते आशिकी",जिसे "क्यूँ उर्दू-फारसी बोलते हो, दस कहते हो, दो तोलते हो" जैसे मिसरों ने मिश्री-सा मीठा कर दिया। तो हाँ हम बात कर रहे थे उस २५ मिनट के गाने की। "गुरू" के निर्देशक मणिरत्नम को "ऎ हैरते आशिकी" भारी-भरकम-सा लग रहा था, जिसे वो फिल्म की शुरूआत में नहीं डालना चाहते थे। तब नुसरत साहब की दुआओं से उपजे गाने को फिल्म का पहला गाना बनने का मौका मिला। वह गाना था "तेरे बिना" ("सजना तेरे बिना" से "सजना" को देशनिकाला मिल गया ) । इस गाने को रहमान ने कादिर खान और चिन्मयी की आवाज़ों में रिकार्ड कर लिया । लेकिन तभी मणिरत्नम को "दिल से" के "दिल से" की याद आ गई। मणिरत्नम जिद्द पर अड़ गए कि यह गाना अगर रहमान खुद नहीं गाते तो गाना फिल्म में रहेगा हीं नहीं। रहमान द्वंद्व में, कादिर खान के साथ धोखा भी नहीं कर सकते थे,लेकिन गाना भी प्यारा था । अंतत: रहमान ने हामी भर दी और हमें रहमान की आवाज़ में प्यारा-सा गाना सुनने को मिल गया। वैसे गाने में कादिर खान की आवाज़ है, लेकिन महज़ आलाप में हीं।
कादिर खान की आवाज़ में "तेरे बिना" यहाँ सुने-
सौम्या राव की आवाज़ में "शौक है" सुनें,जिसे ओडियो में रीलिज नहीं किया गया, लेकिन फिल्म में विद्या बालन और माधवन पर फिल्माया गया था।
यह तो हम सभी जानते हैं कि रहमान का वास्तविक नाम "दिलीप कुमार" है। रहमान जब रहमान नहीं थे, बल्कि अपने दोस्तों के साथ संगीत तैयार करने वाले "दिलीप" थे, तब उन्होंने "शुभा" नाम की एक गायिका के साथ "सेट मी फ्री" (set me free) नाम का अंग्रेजी गानों का एलबम तैयार किया था। यह बात "रोजा" के रीलिज होने से पहले की है। इस एलबम को "मैंग्नासाउंड" नाम की कंपनी ने रीलिज किया था। चूँकि संगीतकार नया था, गीतकार नया था, गायिका नयी थी और लोगों की पसंद पुराने ढर्रे की, "सेट मी फ्री" कुछ ज्यादा कमाल नहीं कर सकी। दो साल बाद "रोज़ा" रीलिज हुई और "रहमान" रातोंरात अव्वल नंबर के संगीतकारों में शुमार हो गए । "रोज़ा" में पहली बार दिलीप को "ए०आर०रहमान" के रूप में पेश किया गया था। "दिलीप" के "ए०आर०रहमान" बनने की कहानी जितनी दु:खद(पिता की मृत्य, बहन की लाईलाज बिमारी)है,उतनी हीं रोमांचक भी है। "दिलीप" के पूरे परिवार ने धर्म-परिवर्तन का फैसला कर लिया था। "दिलीप" की माँ ज्योतिष में बेहद यकीन करती थी। चेन्नई के जानेमाने ज्योतिष "उलगनथम" के पास एक बार "दिलीप", उनकी बहन और उनकी माँ का जाना हुआ। उनकी माँ ने उस ज्योतिष से "दिलीप" के लिए कोई इस्लामिक नाम सुझाने का आग्रह किया। "उलगनथम" ने नाम दिया "अब्दुल रहमान" लेकिन कहा कि इसे "ए०आर०रहमान" कहो । बार-बार यह पूछने पर भी कि इसमें "आर०" किस शब्द के लिए है, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, बस इतना हीं कहा कि "ए०आर०रहमान" नाम हीं इसे प्रसिद्धि दिलायेगा। आगे चलकर प्रख्यात संगीतकार "नौशाद" की सलाह पर "ए०आर०" हुआ "अल्लाह रक्खा" । जब फिल्म रोजा रीलिज होने वाली थी,तो इस फिल्म के कैसेट्स के कवर पर "दिलीप कुमार" लिखने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। तभी रहमान की माँ ने निर्देशक "मणिरत्नम" से संपर्क किया और उनसे गुजारिश की कि "दिलीप कुमार" की बजाय "ए०आर०रहमान" लिखा जाए और इस तरह "दिलीप" हो गए "ए०आर०रहमान" । हाँ तो हम बात कर रहे थे "सेट मी फ्री" की। रोज़ा की सफलता के बाद "मैग्नासाउंड" कंपनी ने "रहमान" के नाम को भुनाना चाहा। रहमान से इजाजत लिए बिना उन लोगों ने पुराने कैसेट्स को नए कवर में बाज़ार में उतार दिया, चेन्नई में जगह-जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लगा दी और कैसेट को रहमान का सबसे पहला अंतर्राष्ट्रीय एलबम कहा गया । जाहिर सी बात है रीलौंच हुए कैसेट को "रहमान" के नाम के कारण बाज़ार तो मिलना हीं था, कैसेट्स हाथों-हाथ बिक गए,वही कैसेट जिसकी पहले केवल ३०० प्रतियाँ हीं बिकी थी। आज भी हम से कई "सेट मी फ्री" को आज के रहमान का एलबम मानते हैं, जबकी "रहमान" खुद इसके रीलौंच से नाराज़ थे। उनका कहना था कि यह कैसेट उनके लिए एक प्रयोग मात्र था,"मैग्नासाउंड" जब इसे रीलौंच हीं करना चाहती थी तो उनसे धुनों का कच्चापन तो खत्म करा लेती। लेकिन रूपयों के चकाचौंध ने "मैग्नासाउंड" की आँखों पर पट्टी डाला हुआ था। गनीमत देखिए कि उसी कंपनी ने २००६ में फिर से उसी एलबम को रीलिज किया है और इस बार भी "रहमान" के नाम ने उसे करोड़ों की कमाई करा दी है। यह है "रहमान" के संगीत का कमाल...........क्या हुआ कि कच्चा है....लेकिन है तो रहमान का हीं।
पिछले अंक में हम बातें कर रहे थे रहमान के संगीत के अनोखे अंदाज़ के बारे मे। रहमान जानते हैं कि उन्हें किस वाद्य-यंत्र से कितनी ध्वनि चाहिए। कल हम "ताल" की बात पर रूके थे। तो "ताल" का हीं किस्सा सुनाते हैं। "ताल से ताल मिला" की रिकार्डिंग हो रही थी। "रहमान" धुन तैयार कर चुके थे, अब बस म्युजिसियन्स या कहिए वादकों को अपना काम करना था। "ताल से ताल मिला" अगर आपको याद हो तो आप महसूस करेंगे कि इस गाने में "तबला" का बेहद खूबसूरत प्रयोग किया गया है। दर-असल इसका सारा श्रेय जाता है रहमान के अनूठेपन को। तबला-वादक इस गाने की धुन को बेहद आसान और कन्वेंशनल मान रहा था। लेकिन रहमान जानते थे कि उन इस गाने में तबले का प्रयोग कैसे करना है। उन्होंने तबला-वादक को अपनी ऊँगलियों में रबर-बैंड के सहारे आईस-क्रीम-स्टीक्स बाँधने को कहा ,फिर धुन भी अनकन्वेंशनल हो गई और तबले की आवाज भी।
तो चलिए सुनते हैं "ताल" से "ताल से ताल मिला"-
रहमान के स्टुडियो में गानों की रिकार्डिंग कितने अलहदा तरीके से होती है, उसके कई प्रमाण है। रहमान गानों की रिकार्डिंग के वक्त स्टुडियो की हरेक आवाज़ को रिकार्ड कर लेते हैं,फिर चाहे वह माईक का ग्लिच हीं क्यों ना हो। एक ऎसा हीं मज़ेदार वाक्या हुआ तमिल फिल्म "कदल वाईरस" के एक गाने की रिकार्डिंग के वक्त । गाने में नायक की खाँसी की आवाज़ की जरूरत थी। गाने की रिकार्डिंग के बीच में गायक खाँस पड़ता है। इस एक खाँसी के अलावा गाने की रिकार्डिंग के दौरान गायक कभी भी खाँसी की वास्तविक नकल नहीं कर पाता। खाँसी के बिना पूरी रिकार्डिंग खत्म हो जाती है। रहमान पहले से रिकार्ड कर रखी हुई गायक "मनू" की वास्तविक खाँसी को हीं गाने में फिट कर देते हैं। ऎसे हीं कई किस्से हैं जो रहमान को औरों से अलग करते हैं और परफेक्शनिस्ट बनाते हैं। कहा जाता है कि रहमान गायक के अनुसार धुन में फेरबदल नहीं करते,बल्कि धुन के मुताबिक गायक चुनते हैं। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि रहमान की बड़ी बहन "रेहाना" भी एक गायिका हैं ,लेकिन रहमान ने अपने कैरियर के १७ साल बीत जाने के बाद तमिल फिल्म "शिवाजी" में उन्हं गाने का अवसर दिया। रहमान संगीत को जीते हैं,इसलिए संगीत के साथ धोखा करने की सोच भी नहीं सकते । रहमान धुन के अनुसार गायको के साथ प्रयोग करते रहते हैं। यही कारण है कि हम "दौड़" फिल्म के एक गाने "ओ भंवरे" में "येशुदास" की आवाज़ सुनते हैं, जिसकी शायद हीं कोई कल्पना कर सकता है ।
आप भी "दौड़" के "ओ भँवरे" का मज़ा लीजिए:
रहमान ने किसी भी संगीतकार से ज्यादा ४ रजत कमल पुरस्कार(silver lotus, national award) प्राप्त किये हैं उन्हें ये पुरस्कार क्रमश: रोज़ा(१९९२), मिन्सारा कनावु(१९९७), लगान(२००१) और कनतिल मुतमित्तल(२००२)के लिए प्रदान किए गए। टाईम मैगजीन ने "रोज़ा" के संगीत को विश्व के सर्वश्रेष्ठ १० गीतों में शुमार किया है। टाईम मैगजीन ने रहमान को "मोज़ार्ट औफ मद्रास" की उपाधि से भी नवाज़ा है। पूरे विश्व में अबतक रहमान के १० करोड़ से भी ज्यादा साउंडट्रैकस एवं फिल्म -स्कोर्स बिक चुके हैं। यह उपलब्धि उन्हें संसार के १० सबसे बड़े रिकार्ड आर्टिस्टों की कतार में ला खड़ा करती है। यह किसी भी भारतीय के लिए फख़्र की बात है।
चलिए अंत में हम सुनते हैं रहमान का संगीतबद्ध एवं स्वरबद्ध किया हुआ फिल्म "लगान" का "बार-बार हाँ, चले चलो" गाना-
अंत में जाते-जाते रहमान को उनके जन्मदिवस पर ढेरों शुभकामनाएँ। खुदा करे कि उनपर बरकत बनी रहे और पूरा संगीत-जगत सदियों तक उनके संगीत और गीत का यूँ हीं लुत्फ़ लेता रहे। आमीन!!!!
चित्र में (उपर) शांत और सोम्य रहमान, (नीचे) प्रिय निर्देशक मणि रत्नम के साथ
प्रस्तुति - विश्व दीपक "तन्हा"
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