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लेकिन दुनिया में कोई दूसरा 'सहगल' नहीं आया...

कुंदनलाल सहगल की ६२ वीं पुण्यतिथि पर विशेष
१८ जनवरी १९४७ —१८ जनवरी २००९, पूरे बासठ साल हुए उस आवाज़ को ख़ामोश हुए जिसका नाम कुंदनलाल सहगल है । आज तक उनके बारे में कई बार लिखा गया है, कई सुनायी गयी बातें जो उनके दोस्तों, सहकर्मियों ने, रिश्तेदारों ने सुनायी । उनका हाथ का लिखा हुआ कुछ या उनका इन्टरव्यु जैसी कोई सामग्री मौजुद नहीं जिनसे उनकी शख्सियत को पूरी तरह जाना जा सके । उनके साथ रहे लोग भी कितने बचे हैं अब ? नौशाद, केदार शर्मा, के एन सिंह जैसे कुछ सहकर्मियों ने वक्त वक्त पर उनके साथ बिताये गये समय का ज़िक्र किया है लेकिन उनके अपने आत्मकथन के बिना इस महान अदाकार के ज़िंदगी के सोये हुये पहलू कभी सामने नहीं आ सके । जगदीश सेठी, पृथ्वी राज कपूर उनके मित्रों में से थे । गुज़रे वक्त में प्रसार माध्यमों की गैर मौजूदगी की वजह से हमारे चालीस व पचास के दशक के ढ़ेर से फनकारों की जीवन संघर्ष की कहानियां हम तक कभी नहीं पहुंची । मोतीलाल, चन्द्रमोहन, ज़ोहरा बाई, अमीर बाई जैसे अनगिनत कलाकार, गायक हैं जिनके साक्षात्कार, व उनकी कोई तसवीर के लिये पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी तरसते हैं ।

सहगल अपने गाये करीब ढ़ाई सौ गानों के ज़रिये अवाम में आज भी ज़िंदा हैं । जब तक अच्छा संगीत सुननेवाले इस दुनिया में रहेंगे तब तक सहगल की आवाज़ हमेशा फ़ज़ा में गुंजेगी । अपने छोटे से जीवनकाल –04 अप्रैल 1904 से 18 जनवरी 1947– यानी गायकी जीवन के पंद्रह से भी कम सालों में गिनी चुनी फिल्में और इतने कम गानों के साथ अपने समय में वे लोकप्रियता की हद तक पहुंचे ।

आम आदमी राग रागिनी, सुरताल को नहीं पहचानता फिर भी उसे 'झूलना झुलाओ…' और 'राधे रानी दे डारो ना…' जैसे गानों के भीतर डूबता देखा गया है । संगीत की कोई बाकायदा तालीम न लेते हुए गलियों के गायकों, सुफि़यों के संग गाने वाले इस सहज पर बुलंद आवाज़ के धनी ने भजन और ग़ज़लें एक से सातत्य से गायीं हैं । उनका पसंदीदा राग भैरवी था । भैरवी ही संगीतकार नौशाद व शंकर जयकिशन का भी पसंदीदा राग था ।

उनकी ग़ज़लें स्पष्ट भाषाई उच्चारण व अदा के नमूने हैं । ग़ालिब —'दिल से तेरी निगाह जीगर तक उतर गयी…', 'इश्क मुजको नहीं वहशत ही सही…', 'आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक…' सीमाब —'ऐ बेख़बरी दिल को दीवाना बना देना…', और ज़ौक़ —'लायी हयात आए कज़ा ले चली चले…' को अपनी आवाज़ के जादू से सहगल ने घर घर तक पहुंचाया । ग़ालिब उनके पसंदीदा शायर थे जिसकी मज़ार की मरम्मत भी उन्होंने करवायी थी । उनकी ग़ज़ल गायकी की एक ख़ासियत थी कि वे ग़ज़ल को एक अनूठी तीव्रता से गाते थे । वे प्राय: तीन मिनट की ग़ज़ल में मुखड़े के साथ 5 या 6 शेर गा देते थे, सब कुछ एक बेहतरीन मिटर और सिमेट्री के साथ । एक निधार्रित तबले की उठी हुयी गति, एक निधार्रित बजाने वाले के संग ही वे गाते थे । यहाँ पर आप याद कर लें :

ग़ालिब की ग़ज़ल - आह को चाहिए...


इश्क मुझको नही...


उस मस्त नज़र पर पड़ी - फ़िल्म - परवाना- ये सहगल की अन्तिम प्रर्दशित फ़िल्म है


जब दिल ही टूट गया - फ़िल्म - शाह जहाँ


गम दिये मुश्तकिल - फ़िल्म - शाह जहाँ


दिया जलो जग में - फ़िल्म - तानसेन


एक बंगला बने न्यारा - फ़िल्म - प्रेजिडेंट


एक और नायब गैर फिल्मी ग़ज़ल - रहमत पे तेरी


या फ़िर स्ट्रीट सिंगर का ये गीत कानन देवी के साथ गाया हुआ - बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...
(सहगल ने इस गीत को लाइव रिकॉर्ड किया था. गीत का फिल्मांकन ऐसे हुआ था कि सहगल कैमरे के सामने लाइव गाते हुए जा रहे थे और साजिन्दे पीछे चल रहे थे बजाते हुए, कैमरे की आंख बचा कर. कानन देवी वाला संस्करण कभी रिकॉर्ड पर नही आया)


झूलना झुलाओ - शायद उनका गाया हुआ ये पहला गीत था.


दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर टाइमकीपर, फिर टाइपराइटर मशीन के सेल्समॅन रहने के अलावा चमड़े की फॅक्टरी में भी उन्होंने काम किया । जम्मू में जन्मे और कलकत्ता में रेडियो स्टेशन पर गाना गाते आर सी बोराल ने उनको न्यू थियेटर्स के लिये चुना । फिल्म 'पूरन भगत' —1932 में दो गानों 'राधे रानी दे डारो ना…' व 'भजुं मैं तो भाव से श्री गिरधारी…' को गाने के लिये उन्हें 25 रुपये मिले पर उसके रेकॉर्डस् हज़ारों में बिके, तब ग्रामोफोन कंपनी को लगा कि सहगल के साथ यह अन्याय हुआ है तब रॉयल्टी के आधार पर उनसे गवाने की दरख़्वास्त रखी गयी । सहगल बहुत भोले थे, बोले –अगर मेरा गाना नहीं चला तो आपके पच्चीस रुपये भी डूब जाएंगे– यहाँ सहगल ने कंपनी से मौखिक करार किया और यहीं से रॉयल्टी की प्रथा भी शुरु हुई । 1940–1941 में न्यू थियेटर्स में आग लगी जिसमें उनकी शुरु की असफल फिल्में –मुहब्बत के आंसू ,ज़िन्दा लाश, सुबह का सितारा, जल गयीं ।

न्यू थियेटर्स की 'चंडीदास' लोकप्रियता की पहली सीढ़ी थी ।बाद में भारी सफल फिल्म 'देवदास' से वे बतौर गायक–एक्टर इतने मशहूर हुए कि लोकचाहना के शिखर तक पहुंच गये ।'बालम आए बसो मोरे मन में…' और 'अब दिन बितत नाहीं, दुख के…' जैसे श्री केदार शर्मा के लिखे गानों ने शरतचंद्र के एक नाकाम, निराश प्रेमी की छवि को अमर बना दिया । देवकी बोस के निर्देशन में इस पहली पूर्ण सामाजिक फिल्म से स्वर्गीय बिमल रॉय भी जुड़े थे । एक निरंतर चली आती असफल, दुखदायी प्यार की दास्तान को जिस तरह पेश किया गया था उससे आहत हुए बिमल रॉय ने बाद में 1955 में अपने निर्देशन में 'देवदास' बनाकर इसी वेदना को दोहराया ।'प्रसीडेंट', 'दुश्मन', 'ज़िंदगी', 'स्ट्रीट सींगर', 'सूरदास', 'मेरी बहन' ऐसी फिल्में हैं जो उन्हों ने अपने फिल्म जीवन के मध्यान्ह के समय कीं, और ज़ाहिर है, इन फिल्मों के गानों की गूंज न सिर्फ उस समय परंतु आज भी और आने वाले सालों तक सुनी जाएगी । बंबई में, उनकी बाद की फिल्में रणजीत की 'तानसेन', और 'भँवरा', कारदार की 'शाहजहाँ' थी ।'तदबीर' और 'परवाना' में उस समय की उभरती गायिका–अदाकारा सुरैया के साथ नायक बने ।'शाहजहाँ' व 'परवाना' उनकी अंतिम फिल्में थीं ।'ऐ दिले बेकरार झूम…', 'जन्नत ये बनायी है मोहब्बत के सहारे…' —शाहजहाँ और 'मोहब्बत में कभी ऐसी भी हालत पाई जाती है…', 'कहीं उलझ न जाना…' —परवाना फिल्मों के यह गाने गा कर उन्हों ने साबित कर दिया कि उनकी न्यू थियेटर्स की शुरु की गायकी —1933–34— और आख़िरी —1947— की गायकी की उत्तमता में कोई फ़र्क नहीं आया था ।

जितनी सहजता से वे अपनी मातृभाषा पंजाबी में गाते थे उतनी ही मीठास से वे बंगला गाने गाते थे ।पंजाबी एक या दो जब कि बंगला के कई गाने उनके उपलब्ध हैं ।हिंदी में उन्हों ने कृष्ण भजन बहुतेरे गाये हैं —भजुं मैं तो भाव से श्री गिरधारी, —राधे रानी दे डारो ना, —सुनो सुनो हे कृष्ण काला, फिल्म 'सूरदास' व 'चंडीदास' आदि के भजन भी कृष्ण भजन में शामिल हैं, पर उनका कोई राम भजन जेहन में नहीं आ रहा है ।

यह सत्य भी सभी जानते हैं कि हमारे सभी नामी गायक जैसे मुकेश, लता मंगेशकर, किशोर कुमार किस तरह अपने शुरूआती दौर में सहगल की नकल किया करते थे, इस बात का ज़िक्र उन्हों ने ख़ुद हमेशा किया है । लताजी ने सहगल के 'सो जा राजकुमारी…' को कॅसेट में भी गाया है । मुकेश का 'दिल जलता है तो जलने दे…' पहली नज़र व किशोर कुमार का 'मरने की दुआएं क्यूँ मांगू…' —ज़िददी— दोनों गीत इस बात की मिसाल हैं कि सहगल की तान उन पर किस कदर हावी थी ।किशोर कुमार इस कदर सहगल के दीवाने थे कि वे अपने घर में निरंतर, लगातार ज़िंदगी के आख़िर दिनों तक उनके गाने सुना करते थे,यह बात उनकी पत्नी लीना चंदावरकार ने बतायी । सुना है कि महान कालाकार प्रेमनाथ भी हर समय, फिल्म शूटिंग के दौरान भी, सहगल के गानों की कसॅट सुन करते थे ।पिछली पीढ़ी के अदाकार जो कि एक गहरी साहित्यिक और भाषाई —हिंदी, उर्दू —की समझ, ज्ञान रखते थे, सहगल की गायकी के कायल रहे हैं जिनमें कला के महान स्तंभ अशोक कुमार, प्राण, राज खोसला जैसे अनगिनत नाम हैं । सहगल के लहज़े की नकल उस दौर के व बाद के हर गायक ने कहीं न कहीं की । सहगल के गैर फिल्मी गीतों–ग़ज़लों की गायकी परंपरा को सी एच आत्मा, तलत मेहमूद, जगमोहन जैसे कलाकारों ने आगे बढ़ाया ।

संगीतकार नौशाद जिन्हों ने उनकी आख़िर की फिल्म 'शाहजहाँ' में संगीत दिया था बताते रहे कि कुंदन लाल सहगल को यह वहम हो गया था कि वे बिना शराब पिये नहीं गा सकते । जब नौशाद साहब ने शराब के साथ और बिना शराब के इस तरह एक ही गाना दो बार रेकॉर्ड करवा कर उन्हें सुनाया तो सहगल को वही गाना अच्छा लगा जो बिना शराब पीये गाया गया था । नौशाद से असलियत सुन कर उन्हें ताज्जुब हुआ । इस पर नौशाद साहब ने कहा कि —जिन लोगों ने आप से कहा कि आप बिना शराब पीये अच्छा नहीं गा सकते वे आपके दुश्मन होंगे, दोस्त नहीं । तब सहगल बोले कि —काश कुछ समय पहले आप यह कह देते तो कुछ दिन और जी लेता पर अब बहुत देर हो चुकी है ।नौशाद ने सहगल की मृत्यु के बाद जालंधर में मनायी गयी उनकी बरसी पर लिखा था —संगीत के माहिर तो बहुत आए हैं लेकिन दुनिया में कोई दूसरा 'सहगल' नहीं आया ।

- श्रीमती वी एन पुरोहित
(सौजन्य - नोसटोलोजिया )

Comments

उस आत्मा को हमारी श्रद्धांजली |

मैंने सहगल के बहुत से गीत सुने हैं | उड़न खटोला से लेकर तानसेन और ना जाने कितने |
उनका अभिनय और उनकी आवाज़ प्रशंसनीय थी | यदि कहा जाए कि उन्होंने हिन्दी फ़िल्म जगत को एक नयी दिशा देने की शुरुवात की तो कोई ग़लत नही होगा |

धन्यवाद |

अवनीश तिवारी
सहगल गायकों के शहंशाह थे, ये खुद सभी संगीतकार और तो और सभी गायक गायिकायें स्वीकार कर चुकें है.

वह समय था जब मानव संवेदनाओं की अभिव्यक्ति गीतों के माध्यम से हुआ करती थी, और सहगल उस स्कूल के हेड्मास्टर थे.

आवाज़ की टीम की मेहनत रंग ला रही है, और दिन ब दिन निखरता जा रहा है इसका नूर!!शुभकामनायें ..
sumit said…
सुमित भारद्वाज
sumit said…
सहगल साहब की आवाज अपने मे ही अलग है
मुकेश जी ने अपना पहला पार्शव गीत भी सहगल साहव की आवाज की तरह गाया था और सहगल साहब उस आवाज को सुनकर सोच मे पड गये थे कि ये गीत मैने कब गाया

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