Skip to main content

जब रफी साहब की आवाज़ ढली शम्मी कपूर के मदमस्त अंदाज़ में...


जब दो कलाकार एक दूसरे के प्रर्याय बन जाते हैं तो कई मायनों में एक दुसरे की परछाई की तरह लगने लगते हैं। जिस तरह दो घनिष्ठ दोस्तों की जोडी में से एक को देखते ही दूसरे की ही याद आ जाये, ठीक उसी तरह जब हम शम्मी कपूर के गानों को सुनते हैं तो मोहम्मद रफी बरबस ही याद आते हैं और जब मोहम्मद रफी के चुलबुलेपन से सनी हुई आवाज को सुनते हैं तो सबसे पहले हमें शम्मी कपूर की अदायें ही याद आती हैं। एक अच्छे दोस्त की यही तो पहचान है कि वह अपने दोस्त के अनुसार खुद को ढाल ले। शम्मी के शोख व्यक्तित्व के अनुसार ही उन्हीं की तरह की शोखी मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज में भरी और उनके गीतों को अलग अंदाज दिया।

एक समय था जब लगातार चौदह फ्लाप फिल्में दे कर शम्मी कपूर की गिनती एक असफल कलाकार के रुप में की जाने लगी थी। उनकें फिल्मी कैरियर में बेहतरीन मोड उस वक्त आया जब नासिर हुसैन की फिल्म "तुमसा नहीं देखा" आई जिसमें उनका चुलबुला अंदाज और उसमें मोहम्मद रफी के गाये हुये गीत बेहद प्रसिद्द हुए जो आज तक भी संगीत प्रेमियों की पसंद बने हुये हैं, उसके बाद तो मोहम्मद रफी शम्मी कपूर की ही आवाज बन गये थे ।

१९६० का वह दौर दिलीप कुमार, राजकपूर जैसे गंभीर नायको का दौर था। तब एक ऐसा उछलता-कूदता, मस्त नायक हिंदी सिनेमा के दर्शकों को देखने को मिला जो हर हाल में मस्त रहने का हुनर जानता था। जीवन की आपाधापी में उसके गीत दूर तक और देर तक सुकून देते थे। मोहम्मद रफी ने शम्मी कपूर पर फिल्माये गये ये कालजयी गीत - "तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे...", "जनम जनम का साथ है...", "एहसान तेरा होगा मुझ पर...", "इस रंग बदलती दुनिया में..." जैसे गंभीर गीत गाये है तो वे गीत भी गाये हैं जो शम्मी कपूर के चुलबुले व्यकितत्व से मेल खाते हुये थे। जरा बानगी देखिये, "लाल छडी मैदान खडी...", "ऐ गुलबदन...", "चाहे कोई मुझे जंगली कहे...","सर पे टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल...", "ये चाँद सा रोशन चेहरा...", "दीवाना हुआ बादल...", या फिर सुरूर से भरा "है दुनिया उसी की ज़माना उसी का, मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का..."

शम्मी कपूर एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे। उनका एक विदोही प्रेमी जैसा साहस और करिश्मा देखते ही बनता था। उनका अंदाज उनके समकालीनों से बिलकुल अलग था। उनका मनमौजी मस्त अंदाज़ युवाओं के अलावा बडों को भी बेहद पसंद आया। वे जीवन से भरे हुये इंसान के रूप में दशकों को बेहद लुभाते थे।शम्मी कपूर ने अपने कैरियर की शुरुआत १९५३ में गंभीर रोल से की पर उनको पहचान मिली १९५७ में तुम सा नहीं देखा के रोमांटिक रोल से। इस फिल्म में ग्यारह गीत हैं और वे सभी गीत मोहम्मद रफी ने गाये हैं। इन्हीं सुमधुर गीतों की बदौलत ही शम्मी लाखों करोडों लोगों के दिलों की धडकन बन गयें। ५० से ६० का दौर शम्मी कपूर का सफल दौर माना जाता है।

उस दौर की फिल्मों में रोमांस को शम्मी कपूर ने नयी परिभाषा दी बिलकुल पश्चिमी अंदाज में, जो हिंदी फिल्मों के लिये बिलकुल नया था। शम्मी कपूर युवा उमंग से भरे हुये एक कलाकार के रूप में उभरे जो फिल्म के निर्जीव परदे को अपनी ऊर्जा से भर देते थे। शम्मी कपूर की जिंदादिली और उन पर मोहम्मद रफी की दिलकश आवाज का जादू दशकों के सिर चढ कर बोला और शम्मी की फिल्में लगातार सफल होती चली गई और इस सफलता का सेहरा उनकें मधुर गीतों के कारण काफी हद तक मोहम्मद रफी के सिर बांधा जा सकता है। मोहम्मद रफी की मदमस्त आवाज और शम्मी का चुलबुलापन दोनों जैसे एक दुसरे के पूरक बन गये थे। शम्मी अपनी अदाओं से जो जादू बिखेर देते थे उसका असर आसानी से छूटने वाला नहीं था। आज भी जब हम परदे पर शम्मी कपूर को परदे पर अभिनय करते हुये देखते हैं और मोहम्मद रफी की मखमली आवाज में अवसाद से भरा हुआ यह गीत सुनते हैं "तुम मुझे यूँ भूला न पाओगे..." तो लगता है कुछ चीजें सचमुच कभी न भूलने के लिये बनी हैं और जब वे ऊछलते कूदते हुये शम्मी के किरदार को आत्मसात करते हुये गाते हैं, "तुमसे अच्छा कौन है..." तो हर सुनने वाले चेहरे पर अनायास ही मुस्कान बिखर जाती है।

शम्मी कपूर अपने गीतों को लेकर बेहद सजग रहते थे, गीत के चुनाव, उसके संगीत से लेकर आखिरी फिल्मांकन तक पूरी तरह उसमें डूबे रहते थे। यहाँ तक कि उनका एक गीत "तारीफ करूँ क्या उसकी..." में उन्होंने रफी साहब की आवाज़ के साथ मिलकर एक अनुठा प्रयोग किया, इस गीत में जितनी बार भी "तारीफ" शब्द का प्रयोग हुआ है उसे उतनी ही बार मोहम्मद रफी ने अपने अलग अंदाज में गाया है और उतनी ही बार शम्मी नें उसमें अपने अभिनय की अलग ही छटा बिखेरी है तभी तो यह गीत इतना लाजवाब बन पडा है।

शम्मी कपूर के कई गीत जैसे, "जवानियाँ ये मस्त मस्त बिन पिये...", "जनम जनम का साथ है निभाने को...", "सवेरे वाली गाडी से...", "बतमीज कहो...", "एन ईवनिगं इन पेरिस...", "दीवाना मुझ सा नहीं...", "खुली पलक में झुठा गुस्सा...", "धड़कने लगता है मेरा दिल...", "दिल देके देखों...", "बार-बार देखों..." जैसे जाने कितने बेमिसाल गीतों को मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज दी है।

शम्मी कपूर की मदमस्त अदाओं के कारण ही उन्हें भारत का ऐलविस प्रेस्ली कहा जाता था तो वही मोहम्मद रफी साहब को हर तरह के गीत गानें में कुशलता के कारण हरफनमौला कलाकार कहा जाता है और इन दोनों महान कलाकारों की उपस्थिति और उनकी जुगलबंदी भारतीय फिल्मी संगीत को और अधिक जिजीवंतता प्रदान करती है।

सुनते हैं कुछ लाजवाब नग्में इसी शानदार जोड़ी के -



देखते हैं ये विडियो भी फ़िल्म "काश्मीर की कली" का जिसका जिक्र उपर किया गया है-



प्रस्तुति - विपिन चौधरी



Comments

बेहतरीन प्रस्तुती लगी |
बधाई |


अवनीश तिवारी
विपिन जी,

छोटे आलेख में शम्मी का संपूर्ण व्यक्तित्व और उनका पर्दे की दुनिया का जीवन आँखों के सामने उभरकर आ गया।
आपके अन्य आलेखों का इंतज़ार रहेगा।
adil farsi said…
याहू...शम्मी कपूर जैसा नायक हिंदी फिल्मों में दुबारा नही आयेगा..कुछ गीत तो आप भूल गये.. बदन पे सितारे लपेटे हुऐ,जान ए बहार हुस्न तेरा बेमिसाल है, अहसान तेरा होगा मुझ पे...मोहम्मद रफी तो मोहम्मद रफी है किसी से काई तुलना नही...
आदिल जी गाने तो बहुत हैं...पर यहाँ सिर्फ़ कुछ मस्ती भरे गीत ही रखे हैं हमने...बदन पे सितारे गीत हैं इस सूची में...सुनियेगा...विपिन जी आलेख के लिए बधाई....शम्मी और रफी की जुगलबंदी जब भी सुनता हूँ तारो ताज़ा हो जाता हूँ...शुक्रिया
Law and Justice said…
मोहम्मद रफी एक आशिर्वाद की तरहं है जो भगवान ने हम हिंदूस्तानियों को दिया था... और मैं शम्मी कपूर को किस्मत वाला मानता हूं की रफी साहब ने उनके लिये गाने गाये... रफी साहब वो सूरज है जिसकी रोशनी ता उम्र हमें रौशन करती रहेगी...
Anonymous said…
SHAMMI JI HINDUSTAN KE MAHAN KALAKAR THE MAIN NE UNKE GANE AUR FILMEIN SHAMAJHNE KE LEYE HINDI SIKHNE KE KOSHISH BHI KEYA

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट