Skip to main content

बस एक धुन याद आ गई थी....संगीतकार रोशन की याद में

संगीतकार रोशन की ४१ वीं पुण्यतिथी पर हिंद युग्म आवाज़ की श्रद्धांजली

संगीतकार रोशन अक्सर अनिल दा (अनिल बिस्वास) को रिकॉर्डिंग करते हुए देखने जाया करते थे. एक दिन अनिल दा रिकॉर्डिंग कर रहे थे "कहाँ तक हम गम उठाये..." गीत की,कि उन्होंने पीछे से किसी के सुबकने की आवाज़ सुनी.मुड कर देखा तो रोशन आँखों में आंसू लिए खड़े थे. भावुक स्वरों में ये उनके शब्द थे- "दादा, क्या मैं कभी कुछ ऐसा बना पाउँगा..." अनिल दा ने उन्हें डांट कर कहा "ऐसा बात मत कहो...कौन जाने तुम इससे भी बेहतर बेहतर गीत बनाओ किसी दिन..." कितना सच कहा था अनिल दा ने.


बात १९४९ की है. निर्देशक केदार शर्मा फ़िल्म बना रहे थे "नेकी और बदी", जिसके संगीतकार थे स्नेहल भटकर. तभी उन्हें मिला हाल ही में दिल्ली से मुंबई पहुँचा एक युवा संगीतकार रोशन, जिसकी धुनों ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने स्नेहल साहब से बात कर फ़िल्म "नेकी और बदी" का काम रोशन साहब को सौंप दिया. फ़िल्म नही चली पर केदार जी को अपनी "खोज" पर पूरा विशवास था तो उन्होंने अगली फ़िल्म "बावरे नैन" से रोशन साहब को फ़िर से एक नई शुरुआत करने का मौका दिया. इस बार रोशन साहब भी नही चूके. १९५० में आई इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद मकबूल हुए विशेषकर -"ख्यालों में किसी के इस तरह आया नही करते...","तेरी दुनिया में दिल लगता नही..." और "सुन बैरी बालम सच बोल रे इब क्या होगा..." ने तो रातों रात रोशन साहब को इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया.

मुश्किल से मुश्किल रागों पर रोशन साहब ने धुनें बनाईं और इतनी सहजता से उन्हें आम श्रोताओं तक पहुंचाया कि वो आज तक हम सब के मन से उतर नही पाये. फिल्मों में कव्वालियों को उन्होंने नया रंग दिया. सोचिये ज़रा क्या ये गीत कभी पुराने हो सकते हैं - "निगाहें मिलाने को जी चाहता है...", "लागा चुनरी में दाग....", "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा....", "बहारों ने मेरा चमन लूटकर...", "मिले न फूल तो...", "कारवां गुजर गया ....", "रहें न रहें हम...", "ओ रे ताल मिले..." या फ़िर रफी साहब का गाया फ़िल्म चित्रलेखा का वो अमर गीत "मन रे तू काहे न धीर धरे...."

१९६४ में आई चित्रलेखा भी केदार शर्मा की रीमेक थी रंगीन रजत पटल पर. तुलसी दास की दो पंक्तियों से प्रेरित होकर (मन तू कहे न धीर धरे अब, धीरे धीरे सब काज सुधरता...) केदार जी ने ही इस स्थायी का सुझाव दिया था जिसे साहिर साहब ने मुक्कमल रूप दिया और रफी साहब ने आवाज़. इसी फ़िल्म में लता मंगेशकर के गाये इन दो गीतों को भी याद कीजिये -"संसार से भागे फिरते हो..." और "ऐ री जाने न दूँगी...". रागों का इतने शुद्ध रूप में अन्य किसी फ़िल्म संगीतकार ने इस मात्रा में प्रयोग नही किया, जैसा रोशन साहब ने किया.

आगे बढ़ने से पहले क्यों न हम ये अमर गीत एक बार फ़िर सुन लें - "मन रे तू काहे न धीर धरे..."



वापस आते हैं रोशन साहब के संगीत सफर पर. गुजरांवाला से लखनऊ के मौरिस कॉलेज ऑफ़ म्यूजिक में दाखिला लेने आए रोशन साहब से कॉलेज के प्रधानाचार्य ने कॉल बेल बजाकर उस स्वर के नाद को पहचानने को कहा. सही नाद पहचानने के एवज में उन्हें दाखिला मिला. मुंबई कूच करने से पहले उन्होंने दिल्ली के आल इंडिया रेडियो में १० साल जलतरंग वादक के रूप में काम किया. बावरे नैन की सफलता के बाद उन्होंने ५० के दशक में मल्हार, शीशम और ऐ के अब्बास की अनहोनी जैसी फिल्मों में संगीत दिया. अनहोनी में तलत महमूद का गाया "मैं दिल हूँ एक अरमान भरा..." रोशन के १० बहतरीन गीतों में से एक कहा जा सकता है. १९६० में मिली एक और बड़ी सफलता फ़िल्म बरसात की रात के रूप में. "जिंदगी भर नही भूलेगी..." और याद कीजिये वो मशहूर और लाजवाब कव्वाली "न तो कारवां की तलाश है...". सुरों का उतार चढाव, शब्दों की लयकारी, और ताल में संजीदगी भी मस्ती भी, क्या नही है इस कव्वाली में. आगे बढ़ेंगे पर इस कव्वाली को सुने बिना नही, सुनिए -



1963 में आई फ़िल्म ताज महल ने रोशन साहब के संगीत सफर में चार चाँद लगा दिए. "जो वादा किया ...." और पाँव छू लेने दो..." जैसे गीत आज भी अपने नर्मो नाज़ुक मिजाज़ के मामले में नासानी हैं. इसी फ़िल्म के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी मिला. इंडस्ट्री के दांव पेंचों से दूर रोशन उम्र भर बस संगीत की ही साधना करते रहे. वो अपने समकालीन संगीतकारों से बहुत अलग थे. वो मेलोडी को साज़ बाजों से अधिक ताजीह देते थे. शास्त्रीय संगीत पर भी उनकी पकड़ बखूबी झलकती थी, कुछ गीत तो उन्होंने शुद्ध बंदिश के बनाये जैसे - "आली पिया बिन.." (राग यमन). वो फ़िल्म के मूड और फ़िल्म की सिचुएशन को गीत में उभारने के लिए नए प्रयोगों से भी नही चूकते थे. "दुनिया करे सवाल तो हम..." और "तुम एक बार मोहब्बत का..." जैसे गीत आम फिल्मी गीतों से अलग छंद रुपी थे. वाध्यों के लेकर उनकी समझ बेमिसाल थी.

स्वभाव से हंसमुख रोशन साहब संसार से विदा भी हुए तो हँसते हँसते..जी हाँ, एक पार्टी में अदाकार प्राण के किसी चुटकुले पर वो इतनी जोर से हँसे कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा और ५० वर्ष की उम्र में, आज ही के दिन १९६७ में वो हम सब को छोड़ कर चले गए. उनके बेटे और मशहूर निर्देशक राकेश रोशन उन्हें याद करते हुए बताते हैं -"अक्सर वो हमें रात के २ बजे जगे हुए मिल जाते थे पूछने पर कहते थे - बस एक धुन याद आ गई..." ऐसे थे हम सब के प्रिय रोशन साहब. उन्होंने कम काम किया पर जो भी किया लाजवाब किया. फ़िल्म इंडस्ट्री से उन्हें वो सब नही मिला,जिसके कि वो हक़दार थे पर ४१ सालों के बाद आज भी हर संगीत प्रेमी ह्रदय उनके गीतों को सुन धड़कता है, इससे बड़ी कमियाबी एक कलाकार के लिए क्या होगी.शायद ये गीत उनके संगीत की अमरता को सही रूप से वर्णित करता है. लता मंगेशकर, फ़िल्म ममता में - "रहें न रहें हम, महका करेंगे बन के कली बन के सबा बागे वफा में ....", गीतकार हैं मजरूह सुल्तानपुरी. सुनें और याद करें रोशन साहब को -




Comments

badey puraney ,nayab geet yaad dila diye.."रहें न रहें हम, महका करेंगे बन के कली बन के सबा बागे वफा में ..aisi dhuno ke rachayitaa..zamano tak yaad kiye jaayengey
क्या बात है भाई. बहुत बढ़िया. ये क़व्वाली शायद फ़िल्मों के लिए बनी सब से अच्छी क़व्वाली है. बहुत बढ़िया पोस्ट. मज़ा आ गया .. चलो मैं भी देखता हूँ कोई गीत रौशन का ... शायद शाम तक पोस्ट कर ही दूँ ...
adil farsi said…
बहुत अच्छा लगा रोशन जी के बारे में पढकर...रोशन जी के कुछ गीत जो बहुत लोकप्रिय हुए -दिल जो ना कह सा सका (भीगी रात)गायक मोहम्मद रफी,हम इंतेजार करेंगे तेरा कयामत तक (बहु बेगम)गायक मोहम्मद रफी क्या लाजवाब गीत हैं..सच में संगीत रतन थे रोशन..
बहुत ही सुंदर, रोशन जी के बारे विस्तार से आप ने लिखा,
धन्यवाद.
लेकिन मन रे तू काहे न धीर धरे..."चल नही रहा, कही कोड मे तो कोई गलती नही हो गई है
daanish said…
mahaan sangeetkaar Raushan ji ke bare mei vistaar se parhne ko mila, mn ko bahot hi sukoon haasil hua...lekin qawwali "na to kaarvaaN ki" adhoori sunvaaii aapne . aur BahuBeghum ki qawwaali bhi sunvaa deiN to kuchh baat bane...pleeaase ! khair.khwaah.. ---MUFLIS---
अतुल्यकीर्ति व्यास said…
इस पोस्ट की क़व्वाली (रोशन साहब की - ना तो कारवाँ की तलाश है...) नहीं सुन पा रहा हूँ... मदद कीजिये......
आपका
अतुल्यकीर्ति व्यास
atulyakirti@gmail.com

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे...

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु...

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन...