Skip to main content

चित्रकथा - 16: विनोद खन्ना की पहली फ़िल्म ’मन का मीत’ की बातें


अंक - 16

विनोद खन्ना की पहली फ़िल्म ’मन का मीत’ की बातें

"हीरो नहीं बन सकते, हाँ, विलेन बनने की कोशिश करना..." 



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ में आपका हार्दिक स्वागत है। 


विनोद खन्ना (6 अक्टुबर 1946 - 27 अप्रैल 2017)

27 अप्रैल को फ़िल्म जगत के जानेमाने अभिनेता विनोद खन्ना का 70 वर्ष की आयु में निधन हो गया। चला गया फ़िल्म जगत का एक सदाबहार हीरो और पीछे छोड़ गया न जाने कितनी यादगार फ़िल्में। आज भले हम विनोद खन्ना को नायक के रूप में ही याद करें, पर अपना फ़िल्मी सफ़र उन्होंने बतौर खलनायक शुरु किया था 1969 की फ़िल्म ’मन का मीत’ से। इसके बाद कई फ़िल्मों में वो समय समय पर खलनायक की भूमिका में नज़र आते रहे हैं। आइए आज ’चित्रकथा’ में बात करें उनकी पहली फ़िल्म ’मन का मीत’ की और ग़ौर करें इस फ़िल्म में उनकी बतौर खलनायक अदाकारी की। आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक समर्पित है विनोद खन्ना की पुण्य स्मृति को।




1969 की फ़िल्म ’मन का मीत’ का निर्माण किया था अभिनेता सुनिल दत्त ने अपनी ’अजन्ता आर्ट्स’ के बैनर तले। इस फ़िल्म का निर्माण उन्होंने अपने छोटे भाई सोम दत्त को लौन्च करने के लिए किया था। और इसी फ़िल्म में उन्होंने विनोद खन्ना को भी उनका पहला ब्रेक दिया। नायक की भूमिका में सोम दत्त तो सफल नहीं रहे, पर खलनायक की भूमिका में नज़र आने वाले विनोद खन्ना आगे चल कर एक सफल नायक ज़रूर बन गए। ’मन का मीत’ के निर्देशक थे ए. सुब्बा राव, संगीतकार थे रवि और गीतकार थे राजेन्द्र कृष्ण (राजिन्दर कृषण)। सोम दत्त और विनोद खन्ना के अलावा फ़िल्म के अन्य मुख्य कलाकार थे लीना चन्दावरकर, ओम प्रकाश, राजेन्द्र नाथ और जीवन। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि यह लीना चन्दावरकर की भी पहली फ़िल्म थी बतौर नायिका। इस तरह से तीन तीन मुख्य कलाकारों का फ़िल्मी सफ़र इस फ़िल्म से शुरु हुआ। यह फ़िल्म ज़्यादा नहीं चली और ना ही इस फ़िल्म के नायक सोम दत्त का करीयर चल पाया। पर विनोद खन्ना और लीना चन्दावरकर की गाड़ी चल निकली। फ़िल्म की कहानी टी. एन. बाली ने लिखी। यह एक आकर्षक और मज़ेदार फ़िल्मी कहानी थी जो एक हिट फ़ॉरमुला फ़िल्म की कहानी थी। शूटिंग् भी दार्जिलिंग् की ख़ूबसूरत वादियों में की गई। फ़िल्म के निर्देशक ए. सुब्बा राव पिछले ही साल ’मिलन’ जैसी सफल फ़िल्म सुनिल दत्त को दे चुके थे, इसलिए इस फ़िल्म में भी उनसे उम्मीदें बहुत ज़्यादा थीं। लेकिन ’मन का मीत’ नहीं चली। रवि और राजेन्द्र कृष्ण भी गीत-संगीत में कुछ ख़ास कमाल नहीं दिखा सके जिसके बलबूते फ़िल्म चल पड़ती। आज यह फ़िल्म सिर्फ़ इस बात के लिए याद की जाती है कि यह विनोद खन्ना की पहली अभिनीत फ़िल्म थी।

फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी है कि लाला बलवन्त राय (ओम प्रकाश) कल्कत्ता स्थित एक बहुत बड़े व्यवसायी हैं जिनका दार्जिलिंग् में भी बहुत बड़ा कारोबार है जिसकी देख रेख उनकी भतीजी करती है। लाला जी की लाडली पोती आरती (लीना चन्दावरकर) दार्जिलिंग् की एक कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। आरती के माँ-बाप इस दुनिया में नहीं हैं। इसलिए वो अपने नानाजी के बहुत क़रीब है। एक बार छुट्टियों में दार्जिलिंग् से कलकत्ता जाते समय वो अपनी सहेलियों के साथ रेल के लेडीज़ कम्पार्टमेण्ट में बैठ जाती है। ट्रेन जैसे ही चलने लगती है तभी उस लेडीज़ कम्पार्टमेण्ट में दार्जिलिंग् का एक देहाती किस्म का लड़का सोमू (सोम दत्त) ग़लती से चढ़ जाता है। आरती और उसकी सहेलियाँ सोमू को सीधा-सादा भोला-भाला देख कर उसका मज़ाक उड़ाते हैं। बात आई-गई हो जाती है, आरती कलकत्ता पहुँचती है, अपनी सहेली सुषमा (संध्या रानी) को भी साथ ले आती है। स्टेशन से दोनों को पिक करके ले आते हैं फ़िल्म के खलनायक प्राण (विनोद खन्ना)। प्राण रिश्ते में लालाजी की बेटी का देवर है और इसलिए उनके घर उसका आना-जाना लगा रहता है। लाला जी को भी प्राण पसन्द है लेकिन प्राण के मन में आरती से शादी करके उसकी जायदाद को हड़पने का सपना है, इसलिए वो आरती को हर वक़्त इम्प्रेस करने की कोशिशें करता है, लेकिन आरती को वो बिल्कुल पसन्द नहीं। आरती हँसी मज़ाक में प्राण से दूर बच निकलती है। एक सीन में प्राण सिनेमा की तीन टिकटें ख़रीद लाता है ताकि वो आरती और सुषमा को अपने साथ सिनेमा दिखाने ले जा सके, पर आरती साफ़ मना कर देती है।

उधर लाला जी को आरती की शादी की चिन्ता सताने लगती है। वो उसके लिए दो लड़कों का रिश्ता लेकर आरती को उनमें से एक को चुनने की गुज़ारिश करते हैं। पर आरती बिना जाँच-पड़ताल किए किसी से भी शादी करने से साफ़ इनकार कर देती है। तब आरती अपने चचेरे भाई मुरली (राजेन्द्र नाथ), जो एक वकील है, की मदद से भेस बदलकर उन दो लड़कों की असलीयत का पता लगाती है और यह बात साबित हो जाती है कि वो दोनों लालची एवं चरित्रहीन हैं। जब यह ख़बर सुनाने आरती, सुषमा और मुरली घर वापस आते हैं तो पता चलता है कि लाला जी अपने मैनेजर के साथ दार्जिलिंग् चले गए हैं किसी ज़रूरी काम से। शाम को घर पर पार्टी चल रही है, प्राण आरती के साथ डान्स कर रहा है। नृत्य करते हुए यहाँ एक बड़ा मज़ेदार संवाद है दोनों के बीच में। 

प्राण - "आरती, शायद मैं तुम्हारा पार्टनर बनने के लिए ही पैदा हुआ था।"
आरती - "लेकिन न मुझे तुम्हारे पैदा होने की ख़ुशी है, ना मरने का ग़म होगा।"
प्राण - "बड़ी संगदिल हो, ऐसी भी मुझसे नफ़रत क्या!"
आरती - "लेकिन तुम में ऐसी कौन सी बात है जिससे मोहब्बत की जा सके?"
प्राण - "क्यों, क्या कमी है मुझमें? पढ़ा लिखा हूँ, नौजवान हूँ"
आरती - "जो कहते हो सच कहते हो, लेकिन उँ-हुँ, हीरो नहीं बन सकते। हाँ, विलेन बनने की कोशिश करना।"
प्राण - "वह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा!!"

उस समय भले यह संवाद फ़िल्म की कहानी के हिसाब से लिखी गई हो, पर संयोग की बात देखिए कि यह संवाद विनोद खन्ना के जीवन में किस क़दर सच साबित हुई। विलेन के रूप में इस फ़िल्म में क़दम रखने बाद वो आगे चल कर नायक बने, और एक सफल नायक बने। आने वाले वक़्त ने सचमुच यह बता दिया।

ख़ैर, फ़िल्म की कहानी पर वापस आते हैं। पार्टी चल ही रही थी कि दार्जिलिंग् से ट्रंक-कॉल आती है कि लाला जी को दिल का दौरा पड़ गया। आरती, सुषमा और प्राण अपने फ़ैमिली डॉक्टर को साथ में लेकर दार्जिलिंग् के लिए निकल पड़ते हैं। वहाँ पहुँचने के बाद लाला जी आरती को बताते हैं कि उनके रिश्तेदारों ने उन्हें धोखा दिया और पैसों और ज़मीन-जायदाद की हेरा-फेरी की है, उनकी सगी बेटी और भतीजी भी इसमें शामिल है। इन सब से उन्हें बेहद गहरा सदमा पहुँचा है। लाला जी को अब आरती की शादी की चिन्ता और ज़्यादा सताने लगती है। वो चाहते हैं कि इससे पहले उन्हें कुछ हो जाए, आरती के हाथ पीले हो जाने चाहिए। वो यह भी कहते हैं कि प्राण भी अच्छा लड़का है, वो उससे ही क्यों न शादी कर ले? आरती को प्राण से बचने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता देख वो यह झूठ बोल देती है कि उसे किसी दूसरे लड़के से प्यार है। यह सुन कर लाला जी राहत की साँस लेते हैं और आरती से उस लड़के को तुरन्त मिलवाने को कहते हैं। आरती और सुषमा "उस" लड़के की तलाश में निकल पड़ते हैं। क़िस्मत उनका साथ देती है और सड़क पर उन्हें वही सोमू मिल जाता है जिसकी उन लोगों ने ट्रेन में मज़ाक उड़ाया था। सोनू से मदद माँगने पर इस बार सोमू पहले तो मना कर देता है, लेकिन घर आकर जब अपनी माँ से सुनता है कि किसी झूठ से अगर किसी का भला हो रहा हो तो ऐसी झूठ में कोई ग़लती नहीं है, तब जा कर वो आरती की मदद करने को मान जाता है। आरती सोमू को सूट-बूट पहना कर एक अमीर घर का लड़के के रूप में लाला जी के सामने पेश करती है। उसके आचार-व्यवहार को देख कर लाला जी बहुत ख़ुश होते हैं और उसके साथ आरती की शादी के लिए हाँ कह देते हैं। 

उधर प्राण, जो ख़ुद आरती से शादी करना चाहता है, उसे सोमू पसन्द नहीं आता और एक दिन सोमू को दूर ले जाकर उसकी पिटाई शुरु कर देता है। सोमू भी उससे लड़ पड़ता है। काफ़ी देर तक मारपीट करने के बाद जब वहाँ आरती और सुषमा आ पहूँचते हैं, तब प्राण यह कह कर बच निकलता है कि वो सोमू की परीक्षा ले रहा था कि क्या वो आरती की रक्षा करने की ताक़त रखता भी है। उधर सोमू के इतने दिन अपने घर वापस ना लौटने से उसकी माँ को चिन्ता होती है और वो सोमू के दोस्त को लाला जी के घर भेजती है पता करने के लिए कि सोमू कब वापस आएगा। दरवाज़े पर प्राण उसे मिल जाता है और बातों ही बातों में प्राण को सोमू की असलियत का पता चल जाता है। प्राण उसे वापस भेज देता है यह कह कर कि सोमू अभी घर पर नहीं है। अगले दिन आरती और सोमू की सगाई की रस्म की पार्टी अरेंज होती है। वहाँ पर नाच-गाना चल ही रहा है कि सोमू की माँ उसे ढूंढ़ती हुई वहाँ आ पहुँचती है। आरती सोमू को बात को सम्भालने की गुज़ारिश करती है, और सबके सामने कह देती है कि वह एक पागल बुढ़िया है जो हर किसी को अपना बेटा समझ लेती है। सोमू भी उसे अपनी माँ कहने से इनकार कर देता है। सोमू की माँ को सदमा पहुँचता है और वो वहाँ से चली जाती है। पार्टी के बाद सोमू आरती से साफ़ कह देता है कि अब वो यह नाटक और नहीं क सकता, न जाने उसकी माँ के मन की क्या हालत हुई होगी। उधर प्राण भी सोमू की सारी असलियत लाला जी को बता देते हैं। लाला जी सोमू को बेइज़्ज़त कर घर से निकल जाने को कहते हैं और आरती पर भी गुस्सा करते हैं। सोमू भागता हुआ घर पहुँचता है तो पता चलता है कि उसकी माँ खेत में काम करने गई है। उसकी ग़ैर मौजूदगी में उसकी माँ को खेतों में कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। सोमू खेत में जा कर अपनी माँ को ज़मीन पर पड़ी देखता है। उसकी माँ गुज़र चुकी है।

आरती सोमू के पास जाकर उसकी माँ की मृत्यु पर शोक व्यक्त करती है और उससे माफ़ी माँगती है, पर सोमू उसे उसकी माँ का क़ातिल करार देकर वापस चले जाने को कहता है। घर लौटने पर लाला जी उस पर ग़ुस्सा करते हैं, आरती भी सोमू की माँ के मौत का ज़िम्मेदार ख़ुद को और लाला जी को ठहराती है। वहाँ पर मौजूद प्राण लाला जी की हौसला अफ़ज़ाई करता है। प्राण सोमू के घर जाता है और उसके हाथ में ढेर सारे रुपये देकर कहता है कि ये सब लाला जी ने भेजा है उसके लिए ताकि वो दूर कहीं जा कर एक नई ज़िन्दगी शुरु करे। सोमू वो रुपये प्राण के मुंह पर फेंक देता है। प्राण ग़ुस्सा नहीं होता और एक और चाल चलता है। सोमू को शराब पिला कर लाला जी और आरती के सामने पेश कर देता है। आरती भागती हुई सोमू को पीछे जाती है और एक ऐक्सिडेण्ट का शिकार हो जाती है। सोमू आरती को अस्पताल ले जाता है। लाला जी को ख़बर भेजी जाती है। लाला जी जैसे ही अस्पताल के केबिन में दाख़िल होने ही जाते हैं तो उन्हें सोमू और आरती के बीच हो रही बातचीत सुनाई देती है। लाला जी को पता चल जाता है कि सोमू वाकई एक अच्छा लड़का है। आरती के मन में भी सोमू के लिए प्यार उत्पन्न हो चुका है। लाला जी सोमू को आरती से शादी कर लेने की गुज़ारिश करते हैं। आरती सुन कर ख़ुश हो जाती है। पर सोमू शादी से इनकार कर देता है यह कहते हुए कि दोनों के बीच में अमीरी-ग़रीबी का एक बहुत बड़ा फ़ासला है। तब लाला जी यह ऐलान कर देते हैं कि वो अपनी पूरी जायदाद दान में किसी संस्था को दे देंगे और वो भी सोमू की तरह ग़रीब हो जाएँगे। 

उधर सारी जायदाद अपने हाथों से फ़िसलता देख प्राण सहित सारे रिश्तेदारों में खलबली मच जाती है और सारे मिल कर लाला जी को पागल सिद्ध करने की योजना बनाते हैं। यहाँ तक कि लाला जी के फ़ैमिली डॉक्टर को मार डालने की धमकी देकर उनसे वकील के सामने कहलवा देते हैं कि लाला जी का दिमाग़ी संतुलन ठीक नहीं है। लाला जी अपनी जायदाद का फ़ैसला नहीं ले पाते। वकील के जाने के बाद प्राण लाला जी को एक कमरे में ले जाता है और उन्हें कमरे में बन्द कर देता है। यह सब कुछ आरती और सोमू की ग़ैर-मौजूदगी में होता है। जब आरती और सोमू लौटते हैं, तब लाला जी को अजीब-ओ-ग़रीब हरकतें करते देखते हैं और उन्हें भी ऐसा लगने लगता है कि सच में लाला जी की दिमाग़ी हालत ठीक नहीं है। प्राण भी आरती को लाला जी के बारे में झूठी बातें बताता है जिससे आरती निश्चित हो जाती है कि लाला जी सच में पागल हो गए हैं। उधर प्राण लाला जी को जाकर कहता है कि आरती उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई है और कल ही वो दोनों शादी कर रहे हैं। लाला जी को प्राण के मनसूबों का अहसास होता है और वो प्राण से कहते हैं कि वो अभी जा कर आरती को सब सच्चाई बता देंगे। प्राण अपना रीवॉल्वर निकालता है और लाला जी की तरफ़ निशाना साधता है। पर लाला जी चालाकी से रीवॉल्वर हथिया लेते हैं और प्राण पर गोली चला देते हैं। प्राण ज़मीन पर गिर पड़ता है। लाला जी को अपनी ग़लती का अहसास होता है और "मैं ख़ून कर डाला" चिल्लाते हुए आरती की तरफ़ भागते हैं। पुलिस को फ़ोन कर अपना जुर्म क़बूल कर लेते हैं। घर पर पुलिस आते हैं, लेकिन उन्हें वहाँ ना तो किसी की लाश दिखाई देती और ना ही कोई रीवॉल्वर। सब यही सोचते हैं कि लाला जी पागल हो चुके हैं। तभी प्राण वहाँ हाज़िर होता है तो सब चौंक पड़ते हैं। घरवालों के साथ-साथ पुलिस भी यह यकीन कर लेती है कि लाला जी पागल हो चुके हैं।

सारे रिश्तेदार आरती को समझाते हैं कि अगर वो प्राण से शादी कर ले तो लाला जी का पागलपन दूर हो जाएगा। आरती अपनी दादा जी के लिए यह क़ुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाती है। सुषमा आरती को समझाने की कोशिश करती है पर आरती नहीं मानती। तब सुषमा मुरली के पास जाकर सब बातें बताती है। मुरली को शक़ होता है प्राण पर, और उसे लगता है कि दाल में कुछ काला है। उधर आरती सोमू की माँ की समाधि पर जाकर रोते हुए कहती है, "माँ जी, मैं आपकी गुनेहगार हूँ, आपकी जान मेरे कारन गई, आपके मासूम बेटे के दिल से मैंने खेला, यह तो भगवान ही जानता है कि आपका बेटा मेरे लिए क्या है, वो इस धरती पर मेरा भगवान है, मेरे जीवन का मालिक है, उसके बग़ैर यह दुनिया मेरे लिए नर्क है, लेकिन जीतेजी हम एक दूसरे के नहीं हो सकते क्योंकि मैं दोषी हूँ, उसी की यह सज़ा मुझे मिल रही है"। सोमू आरती को यह सब कहते सुन लेता है और उसे पहचान भी लेता है। वहाँ मुरली और सुषमा भी आ पहुँचते हैं और लाला जी की हालत के बारे में बताते हैं। मुरली आरती को हक़ीक़त समझाने की कोशिश करता है। दूसरी तरफ़ प्राण डॉक्टर को डरा कर कहते हैं कि वो लाला जी का ख़ून कर दे और इसे एक ख़ुद्कुशी का जामा पहना दे। डॉक्टर ऐसा करने से मना कर देते हैं तो प्राण डॉक्टर का ख़ून कर देता है। प्राण उनकी लाश को ठिकाने लगा ही रहा होता है कि वहाँ मुरली आ पहुँचता है और ज़मीन पर स्टेथोस्कोप और चश्मा पड़ा देखता है। लाला जी के बारे में पूछने पर प्राण बताता है कि वो पागलख़ाने में हैं। मुरली चला जाता है। रात को जब वो लोग डॉक्टर की लाश को कब्रिस्तान में ठिकाने लगाने आते हैं तब मुरली, आरती और सुषमा मिल कर उन्हें भूत बन कर डराते हैं। उधर सोमू लाला जी के कमरे में घुस कर उन्हें वहाँ से भगा ले जाने के लिए आता है, पर उसे वहाँ लाला जी नहीं बल्कि प्राण के गुंडे मिलते हैं। ख़ूब मारपीट होती है और जल्दी ही सोमू उन गुंडों को काबू में कर लेता है और लाला जी कहाँ यह यह उनसे बुलवाने पर मजबूर कर देता है। उधर कब्रिस्तान में लाला जी के सारे रिश्तेदार गड्ढ़ा खोद रहे होते हैं कि डॉक्टर की लाश के कॉफ़िन से धुआँ निकलने लगता है। कॉफ़िन का ढक्कन खोलते ही धुएँ के साथ-साथ भूत के भेस में मुरली निकलता है और "लाला जी कहाँ हैं, लाला जी कहाँ हैं" कह कर सबको डराता है और सभी को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। दूसरी तरफ़ प्राण आरती को बन्दी बना कर वहाँ ले आता है जहाँ उसने लाला जी को क़ैद कर के रखा हुआ है। उसने वहाँ आरती से शादी करने की पूरी तैयारी कर रखी है। लाला जी इस शादी से इनकार कर देते हैं तो प्राण उन पर रीवॉल्वर दागता है। गोली चलाने ही वाला है कि सोमू वहाँ पहुँच कर प्राण पर टूट पड़ता है। दोनों में मारपीट होती है। लेकिन प्राण सोमू पर गोली चला देता है। तभी वहाँ पुलिस आती है और प्राण को गिरफ़्तार कर लेती है। आरती और लाला जी सोमू की लाश पर आँसू बहा रहे होते हैं कि तभी सोमू उठ कर खड़ा हो जाता है। मुरली प्राण के हाथ से रीवॉल्वर लेते हुए कहता है कि यह वही नकली रीवॉल्वर है जिससे उसने लाला जी के हाथों अपना क़त्ल करवाया था और दुनिया की आँखों में धूल झोंकी थी कि लाला जी पागल हो गए हैं। पुलिस प्राण और सारे रिश्तेदारों को ले जाती है। सोमू और आरती की शादी सम्पन्न होती है।

यहाँ आकर ’मन का मीत’ फ़िल्म पूरी होती है और फ़िल्म का एक सुखद अन्त होता है। फ़िल्म को देखते हुए यह विचार मन में उत्पन्न होता है कि फ़िल्म की कहानी, पटकथा और निर्देशन में कोई कमी नहीं थी, फिर फ़िल्म के ना चलने का क्या कारण था? सम्भवत: नायक की भूमिका में सोम दत्त उतने आकर्षक नहीं लगे और फ़िल्म का गीत-संगीत भी ठंडा था। अगर फ़िल्म में दो चार सुपरहिट गीत होते तो शायद वो फ़िल्म को डूबने से बचा लेते। ख़ैर, फ़िल्म में ओम प्रकाश, राजेन्द्र नाथ, लीना चन्दावरकर और विनोद खन्ना की अदाकारी ख़ूब रही, और इसमें कोई शक़ नहीं है कि फ़िल्म के नायक से ज़्यादा खलनायक आकर्षक लगे। निस्संदेह जब यह फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी, तभी लोग यह समझ गए होंगे कि विनोद खन्ना एक लम्बी पारी खेलने के लिए ही फ़िल्म जगत में आए हैं। विनोद खन्ना के इतने सारे हिट फ़िल्मों के होने के बावजूद हमने ’मन का मीत’ फ़िल्म की बातें की क्योंकि यही वह फ़िल्म थी जहाँ से विनोद खन्ना की शुरुआत हुई थी। आज विनोद खन्ना हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन यह फ़िल्म ’मन का मीत’ हमेशा उनकी पहली फ़िल्म के रूप में याद रखी जाएगी। उनके साथ-साथ यह फ़िल्म भी यादगार बन चुकी है।



आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट