एक बार ’विविध भारती’ के एक साक्षात्कार में गीतकार नक़्श ल्यालपुरी साहब ने फ़रमाया था कि उन्होंने क़रीब 60 मुजरे लिखे हैं जो कि अलग-अलग रंग, अलग-अलग मिज़ाज के हैं। उन्होंने श्रोताओं से इन्हें सुनने का भी सुझाव दिया था। यह बात मेरे अवचेतन मन में बरसों से चली आ रही थी। हाल ही में नक़्श साहब की मृत्यु के बाद यह बात फिर से मुझे याद आ गई और मैंने यह निर्णय लिया कि उनके सुझाये इन 60 मुजरों को खोज निकालना ज़रूरी है। जुट गया शोध पर। और इसी शोध का नतीजा है आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक। पिछले सप्ताह इस लेख का पहला भाग आपने पढ़ा था; आज प्रस्तुत है इस लेख का दूसरा व अन्तिम भाग।
’नूरी’ 1979 की एक उल्लेखनीय फ़िल्म रही। फ़िल्म का शीर्षक गीत और "चोरी चोरी कोई आए" गीत ख़ूब चले। इसी फ़िल्म में नक़्श साहब ने बस एक मुजरा लिखा था "क़दर तूने ना जानी, बीती जाए जवानी"। ख़य्याम साहब के संगीत में सारंगी, घुंघरू और तबले की झंकारों से सुसज्जित आशा भोसली का गाया यह मुजरा सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मी मुजरों में से एक है। पारम्परिक मुजरा शैली में निबद्ध इस मुजरे में नक़्श साहब को उम्दा काम करने का मौक़ा मिला। इस ख़ुशमिज़ाज मुजरे के तीन अन्तरे हैं, सभी में मुखड़े की पुष्टि की गई है। मुजरे वाली नायक को अपनी ओर आकृष्ट कर रही है पर नायक है कि उसे कोई क़द्र ही नहीं। "प्यासे हैं ज़ुल्फ़ों के साये, कब तक दिल में आग छुपायें, जागे रात सुहानी, क़दर तूने ना जानी..."। नायक को पत्थर-दिल कह कर संबोधित करती हुई आगे गाती है, "तोहे मन का मीत बनाया, पत्थर से शीशा टकराया, मैंने की नादानी, क़दर तूने ना जानी..."। और तीसरे अन्तरे में फिर वही घुंघरू टूटने की बात जो नक़्श साहब ने 1972 की ’बाज़ीगर’ फ़िल्म के मुजरे में की थी। "यूं नाची के घुंघरू तोड़े, मेहन्दी वाले हाथ भी जोड़े, तूने एक ना मानी, क़दर तूने ना जानी..."। 1980 में ’पूजा और पायल’ में संगीतकार कमलकान्त के संगीत में नक़्श ल्यालपुरी ने कुछ गीत लिखे थे जिनमें एक मुजरा था आशा भोसले का गाया हुआ। इस मुजरे का स्ट्रक्चर नक़्श साहब ने बिल्कुल अलग रखा है। मुजरा शुरु होता है शुरुआती बोलों से - "रंग हूँ नूर हूँ निखार हूँ मैं, यानी कुदरत का शाहकार हूँ मैं, मेरी चाहत में लुट गई दुनिया, तेरी चाहत में बेक़रार हूँ मैं"। और फिर बदलते रीदम के साथ मुखड़ा शुरु होता है "चमेली बन जाऊँगी गुलाब बन जाऊँगी, बोतला छुपा ले वे शराब बन जाऊँगी"। इसके बाद दो अन्तरे हैं इस मुजरे के। पहला अन्तरा है - "दे दे प्यार निशानी मेरे दिलबरजानी, तेरे पहलू में जागे मेरी चंचल जवानी, ये दिल तेरा ये जाँ तेरी, एक बार सुनूँ जो हाँ तेरी, मैं शोख़ी बन जाऊँगी हिजाब बन जाऊँगी"। और दूसरे अन्तरे में नक़्श साहब लिखते हैं - "मेरा रूप सजा दे मेरे सपने जगा दे, मुझे बाहों में लेके मेरा तन महका दे, ये तन्हाई ये रात कहाँ, फिर होठों पर ये बात कहाँ, ख़याल बन जाऊँगी, मैं ख़्वाब बन जाऊँगी..."। इन बोलों पर ग़ौर करने पर पता चलता है कि नक़्श साहब ने हर मुजरे में कुछ नया लिखने की इमानदार कोशिश की है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि हर मुजरा पिछले मुजरों से अलग सुनाई देती है।
1981 की एक ख़ूबसूरत फ़िल्म थी ’दर्द’। ख़ैय्याम और नक़्श ल्यालपुरी के गीत-संगीत की एक माइलस्टोन फ़िल्म थी यह। "न जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया", "प्यार का दर्द है मीठा मीठा" और "अह्ल-ए-दिल यूं भी निभा लेते हैं" और "ऐसी हसीन चाँदनी पहले देखी नहीं" जैसे गीतों ने रसिकों के दिल को छू लिया। लेकिन इस फ़िल्म में एक मुजरा गीत भी था जिसकी तरफ़ लोगों का ध्यान नहीं गया। आशा भोसले की आवाज़ में इस मुजरे का संगीत संय़ोजन हमें ’उमरावजान’ के मुजरों की याद दिला जाती है। ख़ास तौर से इसके शुरुआती संगीत और अन्तराल संगीत में "दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए" की झलक साफ़ मिलती है। नक़्श साहब ने भी इसे एक ग़ज़ल की शक्ल में पेश किया है। मुखड़े का शेर है "क़ुबूल कीजिए पहले सलाम आँखों का, फिर आप चाहें तो हाज़िर है जाम आँखों का"। ग़ज़ल के बाकी के शेर हैं - "दिलों में शम्मा सी रोशन हुई मोहब्बत की, हुआ है आँखों से जब भी कलाम आँखों का"; "निगाहे नाज़ से बहला के लूट लेती है, ख़बर है आपको ये भी है आँखों का"; "मैं बेक़रार हूँ ले लीजिए मुझको बाहों में, खुली किताब है जाना पयाम आँखों का"। ऐसा प्रतीत होता है कि इस फ़िल्म के निर्माता ने ख़य्याम साहब और नक़्श साहब के सामने शर्त रख दी होगी कि उन्हें ’उमरावजान’ जैसी कोई मुजरा ग़ज़ल चाहिए। तभी इस एक ग़ज़ल में दोनों ने मिल कर "दिल चीज़ क्या है..." के संगीत और "इन आँखों की मस्ती के..." के बोलों को एकाकार कर दिया है। कुल मिला कर एक अच्छी ग़ज़ल है।
शंकर-जयकिशन के स्वरबद्ध गीतों में मुजरा शैली के गीत ज़्यादा सुनने को नहीं मिलते। जयकिशन की मृत्यु के बाद शंकर अकेले ही संगीत देते चले जा रहे थे ’शंकर-जयकिशन’ के ही नाम से। 1982 में उन्होंने ’ईंट का जवाब पत्थर’ फ़िल्म में संगीत दिया जिसके गीत नक़्श ल्यालपुरी ने लिखे। इस फ़िल्म में दो मुजरे थे आशा भोसले की आवाज़ में। पहला मुजरा था "सौ बार कहा दिल ने एक बार इधर देखो, तुम हमको मुहब्बत से बस एक नज़र देखो"। कोठे पर जो लड़कियाँ मुजरा करती हैं, वो भले अपने चेहरे पर ख़ुशी का मुखौटा पहनी रहती हों, पर हक़ीक़त कुछ और ही है। उनके दिल में भी किसी का सच्चा प्यार पाने की प्यास होती है। हर रोज़ उसे न जाने कितने ही नज़रें देखा करती हैं, पर सच्चा प्यार कोई नहीं करता। नक़्श साहब ने एक मुजरे वाली के इसी दर्द, इसी दिली ख़्वाहिश को इस मुजरे में बयाँ की है। "ज़ुल्फ़ों में बसी ख़ुशबू आँखों में हया आई, आईना जहाँ देखा कहने लगी अंगड़ाई, महबूब से मिलना है कुछ और सँवर देखो, सौ बार कहा दिल ने..."। नक़्श साहब के लिखे गीतों का असर महफ़िल को लहराने पर मजबूर करती है, ठीक वैसे ही जैसा कि उन्होंने ने ही इस मुजरे में लिखा है - "जादू सा जगाया है घुंघरू की सदाओं ने, मधोश किया है सब आँचल की हवाओं ने, लहराने लगी महफ़िल नग़मों का असर देखो, सौ बार कहा दिल ने..."। एक सच्चे प्रेमी पर वो अपना सब कुछ निसार कर सकती है, इस भावना को तीसरे अन्तरे में उजागर किया गया है - "इस दिल में तमन्ना है जाँ तुमपे लुटाने की, कीमत है बहुत अपनी नज़रों में ज़माने की, बेमोल ही बिक जायें तुम हँसके अगर देखो, सौ बार कहा दिल ने..."। इस फ़िल्म का दूसरा मुजरा है "हम दर्द-ए-मोहब्बत की दिल को न सज़ा देते, तुम इतनी सितमगर हो पहले ही बता देते"। प्यार में धोखा खाने के बाद टूटा हुआ दिल लेकर नायिका कोठे पर मुजरा करती है और अपने दिल का हाल बयाँ करती है। नक़्श साहब ने इसे ग़ज़ल के रूप में पेश किया है। शंकर-जयकिशन के आकर्षक संगीत में पिरोयी हुई यह ग़ज़ल दिल को छू जाती है। बाक़ी के शेर हैं - "जब जश्न की महफ़िल को रंगीन बनाना था, फूलों की जगह अपनी ज़ख़्मों को सजा देते"; "अच्छा ही किया तुमने ख़ुद तोड़ दिया रिश्ता, तुम हमको सिवा ग़म के देते भी तो क्या देते"; "शामिल न मगर होते हम तेरी गुनाहों में, परदा तेरे चेहरे से महफ़िल में उठा देते"।
1986 की फ़िल्म ’काला सूरज’ में बप्पी लाहिड़ी का संगीत था। अधिकांश गीत शैली शैलेन्द्र ने लिखे, एक गीत कुलवन्त जानी और एक गीत नक्श ल्यालपुरी ने लिखे। नक़्श साहब का लिखा गीत एक क़व्वाली है जिसे नरेन्द्र चंचल और साथियों ने गाया है। एक पुरुष क़व्वाली होते हुए भी इसका मुजरे से संबंध है क्योंकि क़व्वाली के सामने मध्यएशियाई शैली में दो नर्तकी नृत्य करती हुईं दिखाई दे रही हैं जो वहाँ मौजूद दर्शकों व श्रोताओं का मन मोह रही है, ठीक वैसे जैसे एक मुजरेवाली करती है। और क़व्वाली का भाव भी मुजरे वाले अंदाज़ का ही है। शुरुआती पंक्तियाँ हैं "मेरी इल्तेजा है साक़ी तू पिला नज़र मिला के, मेरी प्यास बढ़ गई है तेरी अंजुमन में आके, आँखों की सारी मस्तियाँ मय में मेरी निचोड़ दे", और फिर क़व्वाली का मुखड़ा है "दो घूंट पिला दे साक़िया, बाकी मेरे ते रोड़ दे"। पूरी क़व्वाली में शराब और शबाब की बातें जारी रहती है। 1987 की फ़िल्म ’जागो हुआ सवेरा’ में संगीतकार सोनिक-ओमी के निर्देशन में अनुराधा पौडवाल का गाया एक मुजरा था "देख पतली कमरिया मचल गयो सैंया, मैंने डाली नजरिया फ़िसल गयो सैंया"। 80 के ही दशक में नक़्श ल्यालपुरी ने संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ एक फ़िल्म में काम किया था जिसका शीर्षक था ’माँग सजा दो मेरी’। फ़िल्म रिलीज़ भी हुई थी पर हैरत उर अफ़सोस की बात यह कि आज इस फ़िल्म के डिटेल्स न किसी डेटाबेस में मिलता है और ना ही इसके गानें यू-ट्युब पर उपलब्ध हैं। खोज बीन करने पर फ़िल्म के गीतों के मुखड़े तो पता चले पर कलाकारों के नामों का कुछ पता न चल सका। इसी फ़िल्म में नक़्श साहब ने एक मुजरा लिखा था जिसके बारे में उन्हीं की ज़बानी पढ़िए - "’माँग सजा दो मेरी’ में एक लाइन थी "सर-ए-अंजुमन मेरा हाथ थाम लेना, ज़रा सोच क्या कहेगा ज़माना", लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल ने कहा कि यह जो ’सर-ए-अंजुमन’ लफ़्ज़ है, यह बहुत भारी है और मुझे इसे किसी और लफ़्ज़ से रिप्लेस कर देना चाहिए। इसलिए मैंने दो तीन और शेर लिखे और रेकॉर्डिंग् के स्टुडियो में पहुचा। मैंने अपने लिखे नए शेर उनको सुनाए। तब उन लोगों ने कहा कि गाते गाते इस तरह रवाँ हो गया है कि वो ख़ुद ही इसे रिप्लेस करना नहीं चाहते।"
90 के दशक में नक़्श साहब का लिखा कोई फ़िल्मी मुजरा नहीं आया। पर 1998 में ’Asha & Khayyam' ऐल्बम के लिए उन्होंने एक ख़ूबसूरत मुजरा लिखा। ग़ज़ल का मुखड़ा "लोग मुझे पागल कहते हैं गलियों में बाज़ारों में, मैंने प्यार किया मुझको चुनवा दो दीवारों में"। इस मुजरे में नायिका जैसे निडर हो कर अपने प्यार का इज़हार कर रही है और आगे अपने मशहूर होने की बात करती है, "हर पनघट पर मेरे फ़साने चौबारों में ज़िक्रा मेरा, मेरी ही बातें होती हैं बस्ती में चौबारों में"। दुनिया से कहती है कि न जाने कितने शोलों पर चल कर अपने प्यार की वफ़ा को क़ायम रखा, इसका कुछ तो दाद मिले - "दुनिया वालों कुछ तो मुझको मेरी वफ़ा की दाद मिले, मैंने दिल के फूल खिलाए शोलों में अंगारों में"। आगे नक़्श साहब लिखते हैं - "गीत है या आहों का धुआँ है नग़मा है या दिल की तड़प, इतना दर्द कहाँ से आया साज़ों की झनकारों में"। 2002 में ’शहीद भगत सिंह’ फ़िल्म के लिए जयदेव कुमार के संगीत निर्देशन में उन्होंने फिर एक बार एक मुजरा लिखा। कविता कृष्णमूर्ति की आवाज़ में यह मुजरा है "छुप-छुप के ज़माने से महफ़िल में मेरी आना, ये कैसी मोहब्बत है तू कैसा है दीवाना"। सारंगी, सितारे और तबले से एक सुन्दर समा बांधा है जयदेव कुमार ने। साथ ही नक़्श साहब का ग़ज़लनुमा अंदाज़-ए-बयाँ के क्या कहने। इस ग़ज़ल के तमाम शेर इस प्रकार हैं - "कुछ अपनी सुना मुझको कुछ सुन ले मेरे दिल की, तू इतना क़रीब आके क्यों मुझसे है बेगाना"; "सौ बार क़सम खायी सौ बार क़सम तोड़ी, फिर मुझसे कोई वादा करके ना मू कर जाना"; "दुश्मन है मोहब्बत के अपने भी पराये भी, हर बात इशारों में मुमकिन नहीं समझाना"।
साल 2005 में नौशाद के संगीत और नक़्श ल्यालपुरी और सैयद गुलरेज़ के गीतों से सजी फ़िल्म आई थी ’ताज महल’। इस फ़िल्म के लिए भी नक़्श साहब ने एक मुजरा लिखा "इश्क़ की दास्ताँ सारी महफ़िल सुने, इश्क़ दिल में छुपाना ज़रूरी नहीं"। इश्क़ का गुणगान किया गया है इस मुजरे में। कविता कृष्णमूर्ति और प्रीति उत्तम की गाई यह युगल-गीत बेहद ख़ूबसूरत बन पड़ा है। मुजरा, ग़ज़ल और क़व्वाली, तीनों रंग इस रचना में महसूस किए जा सकते हैं। नौशाद और नक़्श साहब ने बेहद ख़ूबसूरत तरीक़े से पूरे गीत को सजाया-सँवारा है। मुखड़े के शेर से पहले शुरुआती शेर है "दिल के अरमानों की शम्मा जलाए बैठे हैं, उनकी तसवीर को दिल में छुपाए बैठे हैं"। पुरानी मशहूर क़व्वाली "ये इश्क़ इश्क़ है" की तरह इसमें भी इश्क़ की ही बातें हैं। "इश्क़ अहसास है, दिल की आवाज़ है, सुन ले सारा ज़माना ज़रूरी नहीं। इश्क़ दिल में रहेगा तो घुट जाएगा, इश्क़ को यूं मिटाना ज़रूरी नहीं। इश्क़ मिटता नहीं है महकता है ये, इश्क़ शोला है दिल में दहकता है ये, सबका दामन जलाना ज़रूरी नहीं। इश्क़ ऐलान है इश्क़ तूफ़ान है, तौबा तौबा ना समझे वो नादान है, आग दिल में दबाना ज़रूरी नहीं। इश्क़ दिल के धड़कने की पहचान है, इश्क़ बेबाक हो जाए बदनाम है, हाल-ए-दिल यूं सुनाना ज़रूरी नहीं।" आख़िर में क़व्वाली के अन्त में जिस तरह से दो पक्षों में लड़ाई होती है, उसी अंदाज़ में जंग होती है - "इश्क़ कोई राज़ नहीं, इश्क़ आवाज़ नहीं, इश्क़ ख़ामोश ना हो, इश्क़ बदनाम ना हो, इश्क़ गुमनाम ना हो, इश्क़ बदनाम ना हो, इश्क़ दुनिया को दिखा ले, उनकी आँखों में छुपा ले, उनके दिल में भी वजह है, खुल के जीने में मज़ा है, अदा है नशा है..."। नक़्श ल्यालपुरी के लिखे इन तमाम मुजरों पे ग़ौर करने के बाद वाक़ई यह अहसास होता है कि जो बात उन्होंने ’विविध भारती’ के उस साक्षात्कार में कही थी, उसमें कितनी सच्चाई थी। आज नक़्श साहब हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके लिखे ये अलग-अलग रंगों के मुजरे नई पीढ़ी के गीतकारों को प्रोत्साहित करते रहेंगे हमेशा कुछ नया करने के लिए। एक ही विषय पर न जाने कितने अलग तरह के गीत लिखे जा सकते हैं यह नक़्श साहब ने हमें सिखाया है।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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