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चित्रकथा - 7: अभिनेत्री व फ़िल्म निर्मात्री आशालता बिस्वास पर बातचीत


अंक - 7

अभिनेत्री व फ़िल्म निर्मात्री आशालता बिस्वास पर बातचीत

घर यहाँ बसाने आये थे...



'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं है। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमारी दिलचस्पी का आलम ऐसा है कि हम केवल फ़िल्में देख कर या गाने सुनने तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखते, बल्कि फ़िल्म संबंधित हर तरह की जानकारियाँ बटोरने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसी दिशा में आपके हमसफ़र बन कर हम आ रहे हैं हर शनिवार ’चित्रकथा’ लेकर। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ के पहले अंक में आपका हार्दिक स्वागत है। 

आज ’चित्रकथा’ में हम आपको मिलवा रहे हैं एक ऐसी शख़्सियत से जिनकी माँ ना केवल हिंदी सिनेमा की पहली पीढ़ी की एक जानीमानी अदाकारा रहीं, बल्कि अपनी एक निजी बैनर तले कई फ़िल्मों का निर्माण भी किया। इस अदाकारा और फ़िल्म निर्मात्री को हम मेहरुन्निसा और बाद में आशालता बिस्वास के नाम से जानते हैं। आशालता जी सुप्रसिद्ध संगीतकार अनिल बिस्वास जी की पहली पत्नी रहीं। उनके पुत्र उत्पल बिस्वास भी संगीतकार बने जिन्होंने अमर-उत्पल की जोड़ी के रूप में कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया। यह अफ़सोस की बात है कि आशालता जी के बारे में बहुत कम और ग़लत जानकारी दुनिया को मिली है। हक़ीक़त यह है कि आशालता जी का अपना भी एक अलग व्यक्तित्व था, अपनी अलग पहचान थी, अपने उसूल थे। आशालता जी पर विस्तारित बातचीत के लिए हमने आमंत्रित किया है उनकी सुपुत्री शिखा वोहरा जी को। तो आइए आपको मिलवाते हैं आशालता जी और अनिल दा की सुपुत्री शिखा वोहरा जी से। आपसे बातचीत की है सुजॉय चटर्जी ने।




शिखा जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका, और बहुत बहुत धन्यवाद जो आपने हमारे इस निमंत्रण को स्वीकारा, और आशालता जी के बारे में विस्तार से हमारे पाठकों को बताने के लिए राज़ी हुईं।


आपका बहुत धन्यवाद जो आपने अपने फ़ोरम में मुझे बुलाया। सब से पहले मैं यह कहना चाहूँगी कि बच्चे अपने माता-पिता के काम के बारे में बहुत कम ही बातचीत करते हैं और हम भी दूसरे बच्चों से अलग नहीं थे। हमने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा आ जाएगा कि ये सब बातें इतिहास बन जाएँगी या इन सब बातों को जानने में लोगों की दिलचस्पी होगी। माँ-बाप चाहे बाहर कितने भी लोकप्रिय या पब्लिक फ़िगर हों, बच्चों के लिए तो वो केवल माँ-बाप ही होते हैं। सिनेमा के रसिक उनके बारे में ज़्यादा जानकारी रखते हैं, इसलिए आपके इस मुहिम में शायद मैं बहुत ज़्यादा कारगर न साबित हो सकूँ।

शिखा जी, आशालता जी उस पीढ़ी की अभिनेत्री थीं जब बोलती फ़िल्मों की बस शुरुआत हुई ही थी। जब मैंने इंटरनेट पर उपलब्ध आशालता जी की फ़िल्मोग्राफ़ी पर नज़र दौड़ाई, तो पाया कि उनकी पहली फ़िल्में थीं 'सजीव मूर्ति', 'आज़ादी' और 'सती तोरल', और ये फ़िल्में आईं थीं सन्‍ 1935 में। क्या आप बता सकती हैं कि क्या वाक़ई आशालता जी 1935 में लौंच हुईं थीं?

'आज़ादी' का निर्माण 1934 में शुरु होकर फ़िल्म 1935 में रिलीज़ हुई थी, इसलिए यही फ़िल्म शायद उनकी डेब्यु फ़िल्म थी, और इसमें उनके नायक थे विजय कुमार। उस वक़्त आशालता जी की उम थी 18 वर्ष।

क्या आशालता जी ने कभी आपको बताया कि उनका सिनेमा में पदार्पण किस तरह से हुआ था?

न उन्होंने कभी इसके बारे में हमें बताया और न ही हमने कभी उनसे यह पूछा। लेकिन जितना मुझे मालूम है, वो और शोभना समर्थ क्लासमेट्स थीं और बहुत अच्छे दोस्त भी। इसलिए हो सकता है कि वे दोनों एक ही समय पर फ़िल्मी मैदान में उतरी होंगी। शोभना समर्थ जी के अंकल एक फ़ोटो-स्टुडिओ चलाते थे 'देवारे' नाम से।

मैंने सुना है कि आशालता जी का असली नाम था मेहरुन्निसा। जहाँ तक एक फ़िल्मी नायिका के नाम का सवाल है, इस नाम में कोई ख़ामी नहीं थी। फिर उन्होंने अपना नाम क्यों बदला होगा, क्या इसके बारे में आप कुछ बता सकती हैं?

उनका असली नाम था मेहरुन्निसा भगत। शायद उन्होंने या फ़िल्म के निर्माता ने उनका नाम बदल दिया होगा क्योंकि उन दिनों यह एक रवायत थी।

ये जो तीन फ़िल्मों का ज़िक्र हमने अभी किया, वे सभी 'शक्ति मूवीज़' के बैनर तले निर्मित फ़िल्में थीं। उस ज़माने में फ़िल्मी कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हें मासिक तौर पर तंख्वा मिलती थी। तो क्या आशालता जी भी 'शक्ति मूवीज़' में कार्यरत थीं?

मुझे नहीं लगता कि उनका किसी स्टुडिओ विशेष से कोई अनुबंधन था, बल्कि फ़िल्म निर्माण के दौरान उन्हें उस कंपनी से मासिक तंख्वा मिला करती होगी।

शायद आप ठीक कह रही हैं, क्योंकि अगले ही साल, यानी 1936 से वो कई बैनरों की फ़िल्मों में नज़र आयीं, जैसे कि 'गोल्डन ईगल', 'ईस्टर्ण आर्ट्स', 'सागर मूवीटोन', 'दर्यानी प्रोडक्शन्स' आदि। अच्छा, 1936 की बात करें तो इस साल 'शेर का पंजा' और 'पिया की जोगन' जैसी फ़िल्में उनकी आयीं, जिनमें संगीत आपके पिता श्री अनिल बिस्वास जी का था। तो यह बताइए कि आशालता जी अनिल दा से कब मिलीं? क्या इन्ही दो फ़िल्मों के निर्माण के दौरान या उससे पहले?

अनिल बिस्वास जी 'मनमोहन' फ़िल्म के संगीतकार के सहायक थे, जिसका निर्माण 1935 से ही शुरु हो चुका था। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि वे दोनों तभी मिले होंगे और दोनों ने शादी की 1936 में।

अच्छा शिखा जी, वह 30 का दशक कुंदन लाल सहगल साहब का दशक था, और 1940 में एक बहुत ही मशहूर फ़िल्म आयी थी 'ज़िंदगी' जिसमें सहगल साहब मुख्य भूमिका में थे। इस फ़िल्म में आशालता जी ने भी अभिनय किया था। क्या उन्होंने आपको इस फ़िल्म के बारे में या सहगल साहब के बारे में कुछ बताया?

जी नहीं, उन्होंने कभी ऐसा कुछ ज़िक्र नहीं किया कि इस फ़िल्म में उनका सहगल साहब के साथ कोई सीन था।

1937 में आशालता जी की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'प्रेमवीर', जिसका निर्माण हिंदी और मराठी, दोनों में हुआ था। यह बताइए कि क्या आशालता जी ने इस फ़िल्म के लिए मराठी सीखा था? उनकी मातृभाषा क्या थी?

'प्रेमवीर', मास्टर विनायक के साथ। नंदा जी के पिता मास्टर विनायक जी के लिए उनके दिल में बहुत सम्मान था। वो ख़ुद बहुत अच्छा मराठी, गुजराती और सिंधी बोल लेती थीं और शादी के बाद बंगला भी सीख गई थीं। वो मूलत: भुज की थीं और उनकी मातृभाषा थी कच्छी।

फ़िल्मों से संयास लेने के एक अरसे बाद वो फिर से नज़र आयीं गुजराती फ़िल्म 'मारे जावुण पेले पार' फ़िल्म में जो 1968 में बनी थी। इस फ़िल्म के लिए उन्हें न्योता कैसे मिला?


Ashalata with Jeevan & Kishore Kumar
दरसल 1966 में उन्होंने एक फ़िल्म 'श्रीमान फ़ंटूश' का निर्माण किया था अपने भाई के बैनर तले और जिसमें उन्होंने किशोर कुमार के माँ का किरदार भी निभाया था। उसी दौरान मुझे भी एक फ़िल्म 'फिर वही आवाज़' में नायिका बनने का ऑफ़र आया था जिसमें सुजीत कुमार नायक थे, और उस फ़िल्म के निर्देशक थे शांतिलाल सोनी, जो कि एक गुजराती थे। उन्होंने मेरी मम्मी को रेकमेण्ड किया उस रोल के लिए। वह फ़िल्म बहुत बड़ी हिट साबित हुई और उसका हिंदी में री-मेक हुआ 'खिलौना' शीर्षक से, जिसमें अरुणा इरानी वाला किरदार मुमताज़ ने निभाया।

एक फ़िल्म निर्मात्री के रूप में आशालता जी के करीयर को देखें तो उन्होंने कुछ यादगार म्युज़िकल फ़िल्मों का निर्माण किया है जैसे कि 'लाडली', 'बड़ी बहू', 'लाजवाब', 'हमदर्द', 'बाज़ूबंद', जो अपने ज़माने की हिट फ़िल्में हैं। इन सब फ़िल्मों के बारे में आप क्या जानती हैं?


देखिए वो हमेशा से ही एक ऐक्टिव पर्सन रही हैं अपने प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में। वो काम करना चाहती थीं, लेकिन दो बच्चों के जन्म के बाद वो अभिनय से संयास लेना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने अभिनय को छोड़ कर फ़िल्म निर्माण का काम ले लिया और अपने बैनर 'वरायटी पिक्चर्स' की स्थापना की। मैं एक बात ज़रूर कहना चाहूँगी कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण के हर पहलु को वो ख़ुद परखती थीं, रोज़ ऑफ़िस जाना, और पूरे शिड्युल को बकायदा मेण्टेन करना। निम्मी, शेखर, सुलोचना चटर्जी जैसे कलाकारों के साथ उनका रिश्ता बहुत ही अच्छा था। मैं अक्सर उनके साथ आउटडोर जाया करती थी जैसे कि पंचगनी और महाबलेश्वर। एक बार किसी डान्स सिक्वेन्स के शूटिंग्‍ के दौरान मैं ग़लती से कैमरे के फ़्रेम में आ गई और जुनियर आर्टिस्ट्स के साथ डान्स करने लग पड़ी। फ़िल्म के निर्देशक 'कट' बोलने ही वाले थे कि उन्होंने कैमरा चलते रहने का इशारा किया। उनकी ज़्यादातर फ़िल्में 'रणजीत' और दादर के 'श्री साउण्ड स्टुडिओ' में शूट हुआ करती थी। मुझे याद है कि फ़िल्म 'बड़ी बहू' के गीत "मेरे दिल की धड़कन में" और "सपने तुझे बुलाये" का डान्स रिहर्सल हमारे घर के बैठकखाने में हुई थी। और रिहर्सल कर रहे थे गोपी कृषन और स्मृति बिस्वास; और बाद में इनका फ़िल्मांकन 'फ़ेमस स्टुडिओ महालक्ष्मी' में हुआ, जहाँ पर मम्मा ने अपना ऑफ़िस बाद में शिफ़्ट कर लिया था।

बहुत ही हसीन यादें जुड़ी हुई होगी इनके साथ, है न? अच्छा शिखा जी, जैसा कि आपने बताया कि आपके घर पर फ़िल्मों के रिहर्सल हुआ करते थे, तो यह बताइए कि किस तरह का माहौल हुआ करता था?

बहुत ही मज़ेदार होते थे वो दिन कि जब बाबा खाना बनाते थे सभी के लिए और जैसे घर पर एक पिकनिक का माहौल बन जाता था। उस ज़माने में फ़िल्म से जुड़े सभी लोग आपस में एक दूसरे के बहुत नज़दीक हुआ करते थे और एक परिवार की तरह काम किया करते थे। मुझे याद है बाबा ने 'हमदर्द' में एक गेस्ट अपीयरेन्स दिया था, उन्होंने एक नाई की भूमिका निभाई थी। और जितना मुझे याद है 'महमान' में उन्होंने एक पुजारी का रोल निभाया था और उन पर एक गीत भी फ़िल्माया गया था "खोल दे पुजारी द्वार खोल दे"। पता है 'वरायटी पिक्चर्स' का जो लोगो था, उसे भी बाबा ने ही डिज़ाइन किया था, एक ढोलक के उपर विराजमान माँ सरस्वती, जिसके दोनों तरफ़ तानपुरे से सहारा दिया गया है। इस लोगो का एक रेप्लिका हमारे बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता था। 

'लाजवाब' फ़िल्म के बारे में कुछ बताइए।

फ़िल्म 'लाजवाब' का निर्माण रेस-कोर्स में हुई जीत के पैसे से हुआ था। 'लाजवाब' नाम से एक घोड़ा था जिस पर ममा ने बाज़ी रखी थी। यह घोड़ा अभिनेता मोतीलाल जी का था। और इस तरह से फ़िल्म का नाम भी 'लाजवाब' रख लिया गया।

यह तो वाक़ई दिलचस्प बात है। 'हमदर्द' फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म थी अनिल दा के करीयर की। इस फ़िल्म से जुड़ी क्या यादें हैं आपकी?

'हमदर्द' की रचनात्मक रागमाला "ऋतु आये ऋतु जाये", जो बाबा की जीवनी का भी शीर्षक बना, हमारे घर में लगभग तीन हफ़्तों तक इसकी रिहर्सल चलती रही और तब जाकर बाबा आश्वस्त हुए रेकॊर्डिंग के लिए। वो बहुत ज़्यादा एक्साइटेड थे जब रेकॊर्डिंग के बाद गीत को बजाया जा रहा था। मन्ना दा के शब्दों में बाबा नृत्य करने लगे थे। मन्ना दा हम बच्चों को अंग्रेज़ी के शरारत भरे गीत सिखाया करते थे।

फ़िल्म 'बड़ी बहू' के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

'बड़ी बहू' को बहुत सारे पुरस्कार मिले किसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जो शायद शिमला या देहरादून में हुआ था। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए बलराज साहनी जी को। मुझे याद है मैंने एक फ़ोटो देखा था जिसमें पूरी कास्ट अपने अपने पुरस्कारों के साथ खड़े हैं और ये पुरस्कार अशोक स्तंभ के सिंह की आकृति के थे।

शिखा जी, क्या आप हमारे पाठकों को आशालता जी की कुछ तस्वीरें दिखा सकती हैं?

अफ़सोस की बात है कि ममा की ज़्यादातर तस्वीरें उन्होंने किसी को दिया था जो पूना से आया हुआ था और जिसने वादा किया था उन्हें वापस करने का लेकिन नहीं किया। और बाद में वही तस्वीरें FTII में पायी गई जहाँ से मेरी बेटी ने एक "ख़रीदा" है।

ओ हो हो! बहुत ही अफ़सोस की बात है! अच्छा शिखा जी, अभी हमने आशालता जी निर्मित जिन फ़िल्मों की चर्चा की, वो सभी अनिल दा के संगीत से सजे हुए थे। लेकिन 'बाज़ूबंद' फ़िल्म में संगीत मोहम्मद शफ़ी का था। ऐसा क्यों?

1954 में बदक़िस्मती से मेरे ममा और बाबा एक दूसरे से अलग हो गये और अपनी अपनी राह पर चल निकले। और उनके व्यक्तिगत जीवन की यह जुदाई ज़ाहिर है प्रोफ़ेशनल लाइफ़ पर भी अपना असर चला गई। मोहम्मद शफ़ी को, जो पहले नौशाद साहब के सहायक हुआ करते थे, 'बाज़ूबंद' के लिए अनुबंधित कर लिया गया। इस फ़िल्म में उन्होंने कुछ पारम्परिक ठुमरियों को फ़िल्मी रूप में पेश किया, और इनमें इस फ़िल्म का शीर्षक गीत "बाज़ूबंद खुल खुल जाये" भी शामिल था।

और कोई फ़िल्म है जिसे आशालता जी ने प्रोड्युस किया था?

उन्होंने 'महमान' फ़िल्म प्रोड्युस की थी जिसमें उन्होंने रामानंद सागर को बतौर निर्देशक अपना पहला ब्रेक दिया था। 'बाज़ूबंद' के बाद 1955 में उन्होंने 'अंधेर नगरी चौपट राजा' फ़िल्म का भी निर्माण किया जिसमें गोप ने मुख्य भूमिका निभाई और चित्रा नायिका थीं। नायक का नाम याद नहीं आ रहा।

आशालता जी एक अभिनेत्री/निर्मात्री थीं और अनिल दा एक सुप्रसिद्ध संगीतकार। ऐसे वातावरण में क्या आप भाई बहनों में किसी को भी फ़िल्म लाइन में जाने की आकांक्षा नहीं हुई? आपने कभी किसी फ़िल्म में अभिनय या गायन नहीं किया?

मोतीलाल जी के अनुसार 60 के दशक की तीन नई नायिकाएँ होनी थी - अंजु महेन्द्रु, ज़हीदा, और शिखा बिस्वास। मुझे बहुत सारे बड़े प्रोडक्शन हाउसेस से ऒफ़र मिले जिनमें 'पड़ोसन' शामिल थी, और 'कश्मीर की कली' भी। 'मेरे मेहबूब' के लिए मुझे याद है, एच.एस. रवैल मेरे दाँत कैप करवाना चाहते थे, कुछ दिनों के लिये 'ड्रमर' नामक फ़िल्म की शूटिंग भी की, जो 'वेस्ट-साइड स्टोरी' पर आधारित थी और जिसका निर्माण 'फ़िल्मालय' कर रहे थे देब मुखर्जी को लौंच करने के लिए। 'फिर वही आवाज़' की बात मैं कर चुकी हूँ, और मेरे जीवन की सब से बड़ी भूल कि मैंने 'धूप के साये में' नामक एक फ़िल्म के लिए "ना" कह दी जिसमें मेरे नायक होते संजीव कुमार। बाद में इस फ़िल्म के लिए हेमा मालिनी को ले लिया गया, लेकिन यह फ़िल्म नहीं बनीं या रिलीज़ नहीं हुई। फिर शम्मी कपूर जी एक फ़िल्म बनाना चाहते थे मुझे लेकर, जिसमें जय मुख्रजी नायक बनने वाले थे। इस तरह से और भी कई फ़िल्में थीं जो इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहे। लेकिन आख़िर में मैं कुछ व्यक्तिगत कारणों से फ़िल्म लाइन से बाहर निकल आई। वैसे मेरे दो भाई फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े, एक बतौर संगीतकार और दूसरा भाई जिसने पहली बार मुंबई में डिजिटल रेकॊर्डिंग्‍ स्टुडिओ की स्थापना की।

आशालता जी को एक माँ के रूप में आपने कैसा पाया? उनसे जुड़ी कुछ बातें बताइए जिनकी यादें आज भी आपके दिल में ताज़ी हैं। 

मेरी माँ एक सशक्त महिला थीं, एक फ़ेमिनिस्ट जो अपने समय से काफ़ी आगे बढ़ के थीं। और इनके साथ साथ
Shikha Vohra
एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत, न केवल बाहरी रूप से दिखने में, बल्कि मन की भी बहुत सुंदर थीं। उनके जैसा इमानदार इंसान मैंने आज तक नहीं पाया। उनका ऐटिट्युड, सीधी बात कहने की उनकी अदा, बहुत ही डाउन-टू-अर्थ और हिपोक्रिसी से कोसों दूर, ये सब उनकी कुछ विशेषताएँ थीं। मुझे उनकी कपड़ों और गहनों में हमेशा दिलचस्पी रही; वो एक राजकुमारी की तरह दिखतीं थीं और जब किसी कमरे में प्रवेश करतीं तो वहाँ की मध्यमणि बन जातीं। हम सब उनसे बहुत ज़्यादा प्रभावित थे। उनके गुस्से और भड़क उठने की बातें मशहूर थी इंडस्ट्री में, लेकिन किसी भी ग़लती या अन्याय का वो हमेशा पूरा पूरा न्याय करतीं। व्यस्तता की वजह से वो हमें ज़्यादा समय नहीं दे पातीं, लेकिन हमारी ज़रूरतों का पूरा ख़याल रखतीं। उनकी बड़प्पन का एक उदाहरण देना चाहूँगी। एक बार उनका कोई पूर्व ड्राइवर उनके पास गाड़ी ख़रीदने के लिए लोन माँगने आया। लेकिन क्योंकि वह एक शनिवार की शाम थी और अगले दिन भी बैंक बंद होते, इसलिए उन्होंने अपने सोने के कंगन हाथों से निकाल लिए और उस ड्राइवर को दे दिया। लोग शायद उन्हें कुछ भी कहें, लेकिन जिस तरह से बाहर और घर, दोनों को अकेले उन्होंने सम्भाला है, चार चार बच्चों को अकेले बड़ा किया है, उनके लिए हमारा सर इज़्ज़त से झुक जाता है। यही नहीं, 50 वर्ष की उम्र में तैराकी सीखी और लगभग उसी समय खाना बनाने के बहुत से तरीकें खोज निकाली, नये नये रेसिपीज़ इजाद किये, और फिर मेरी बेटियों के लिए भी एक केयरिंग नानी के रूप में अपने आप को साबित किया। बस उनकी जो एक कमज़ोरी थी, वह था जुआ। लेकिन कोई भी इंसान पर्फ़ेक्ट तो नहीं होता न! हर इंसान में बहुत सारी कमज़ोरियाँ और ख़ामियाँ होती हैं, और उनमें बस कुछ ही थे। उनकी एक और कमज़ोरी यह थी कि वो बहुत जल्द किसी की बातों पर यकीन कर लेती थीं, और क्योंकि वो एक दुखभरी कहानी की नरम पात्र थीं, बहुत से लोग इस बात पर उनका फ़ायदा उठाने की कोशिश करते। उनकी जिस याद को मैं सब से ज़्यादा चेरिश करती हूँ, वह यह कि उन्होंने हम सभी बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाई और यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, यहाँ तक कि मेरे पिता के नाम और शोहरत से भी बहुत बहुत ज़्यादा। मुझे बहुत दुख होता था उन्हें अल्ज़ाइमर्स से तड़पते देख कर; उनकी ख़ूबसूरती और वैभव का वक़्त के साथ साथ गिरते जाना भी कम दुखदायी नहीं था। एक बार, जब उनकी आर्थिक अवस्था बहुत ज़्यादा ख़राब हो चुकी थीं, वो अपना सर्वस्व हार चुकी थीं, मैं दिल्ली से उनके यहाँ आई; उन्होने अपने रुमाल की गांठ खोल कर एक जीर्ण 20 रुपये का नोट निकालकर अपनी कामवाली बाई को दिया और उससे मछली ख़रीद लाने को कहा क्योंकि वो जानती थीं कि मुझे 'सी-फ़ूड' बहुत पसंद था। यकीन मानिए, उस वक़्त उनकी जो हालत थी, उसमें पैसा ही एक ऐसी चीज़ थी जो वो सब से कम खर्च कर सकती थी। ये थी "आशालता"।


शिखा जी, जिस तरह से आपने आशालता जी का परिचय आज करवाया है, इन सब बातों को सुन कर मेरी आँखें भी नम हो गईं हैं और मुझे पूरा यकीन है कि जो छवि आज तक लोगों के दिल में आशालता जी की रही हैं, आज ये सब पढ़कर वो दुबारा अपने मन में मंथन करने पर मजबूर हो जाएँगे। और भी कुछ कहना चाहेंगी अपनी माँ के बारे में जो शायद आज तक आप कहना चाह रही होँगी लेकिन कभी मौका नहीं मिला?

मैं जिस बात पर सब से ज़्यादा ज़ोर डालना चाहती हूँ, वह यह है कि मेरी जन्मदात्री माँ आशालता के बारे में लोगों को बहुत कम मालूमात है। और बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि वो अनिल बिस्वास की पत्नी थीं। लोग सोचते हैं कि मीना कपूर उनकी पत्नी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्हीं की वजह से मेरे ममा और बाबा अलग हो गये। ये सब बातें अब पुरानी हो चुकी हैं और इन सब का मुझ पर और कोई प्रभाव नहीं होता। जिस बात को मैं सब से ज़्यादा ज़रूरी मानती हूँ, वह यह कि लोग आशालता के बारे में नहीं जानते, उनके उल्लेखनीय जीवन की कहानी नहीं जानते, उनके बलिदान और शक्ति के बारे में नहीं जानते। मैं एक काल्पनिक उपन्यास लिख रही हूँ उनके जीवन के संघर्ष को आधार बनाकर और आशा करती हूँ कि यह उपन्यास किसी दिन पब्लिश होगी और लोगों को असली कहानी का पता चलेगा।

ज़रूर शिखा जी, हम दिल से यह दुआ करते हैं कि आपको ईश्वर इस राह में आपका हमसफ़र बनें और आपको अपनी मंज़िल जल्द ही दिखाई दे।

शुक्रिया! एक और बात जिस पर ध्यान देना आवश्यक है, वह यह कि मेरे बाबा ने अपना सब से मीठा काम तभी किया है जब वो मेरी ममा के साथ थे। 1954 में मेरी ममा से अलग होने के बाद उनका करीयर ग्राफ़ भी ढलान पर उतरने लगा था।

शिखा जी, वह कौन सा गीत है जिसे सुनते ही आपको एक दम से अपनी माँ और अपने पिता जी की याद आ जाती है?

ममा और बाबा को जोड़ने के लिए जो गीत मेरे दिमाग में आता है, वह है तलत महमूद साहब का गाया फ़िल्म 'दोराहा' का "मोहब्बत तर्क की मैंने"। यह ममा का फ़ेवरीट गीत था बाबा की कम्पोज़िशन में। और मेरी ममा ने ही मुझे पहली बार यही गीत सिखाया था। साथ ही 'गजरे' का "घर यहाँ बसाने आये थे" भी उन्हीं से मैंने सीखा था। इस गीत की धुन "सीने में सुलगते हैं अरमान" गीत की धुन से बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसका पता है।

शिखा जी, किन शब्दों में मैं आपका शुक्रिया अदा करूँ समझ नहीं आ रहा। जिन लोगों को आशालता जी के बारे में मालूमात नहीं थी या ग़लत धारणा थी, मुझे पूरा विश्वास है कि इस साक्षात्कार के माध्यम से उनकी असली छवि को हमने यहाँ आज प्रस्तुत किया है आपके सहयोग से। मैं अपनी तरफ़ से, अपने तमाम पाठकों की तरफ़ से और ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की तरफ़ से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ, और भविष्य में फिर से आप से बातचीत करने की उम्मीद रखता हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद!

बहुत बहुत धन्यवाद! मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई अपनी माँ के बारे में बताते हुए। 





आपकी बात


पिछले अंक में ’आइ लव यू’ वाले गीतों पर शोधालेख पर हमें कई सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिली जिनके लिए हम आपके शुक्रगुज़ार हैं। पूजा अनिल जी ने टिप्पणी में लिखा है - "बहुत बढ़िया आलेख सुजॉय जी। इतने I love songs की हमने कल्पना भी नहीं की थी। :) 70 के पहले वाले गाने सुनवा भी देते, खास कर 30 और 40 के गाने। आलेख की आखिरी लाइन तो समाज की वस्तुस्थिति का आइना है, सच।" पूजा जी, शुक्रिया आपका, दरसल ’चित्रकथा’ में हम गीतों के लिंक नहीं शामिल करते, आप चाहें तो इन्हें यू-ट्युब पर सुन सकते हैं, ये सभी वहाँ उपलब्ध हैं। पंकज मुकेश जी लिखते हैं - "धन्यवाद एक उत्कृष्ट पोस्ट के लिए। वैसे तो मैंने पिछली बार आइ लव यू 2009 में कहा, मगर आज फिर कहता हूँ कि रेडियो प्लेबैक इण्डिया, इ लव यू"। क्या बात है पंकज जी, हम भी आपसे कहते हैं ’आइ लव यू’ :-) और प्रकाश गोविन्द जी ने फ़ेसबूक पर कमेण्ट किया है कि "गज़ब का रिसर्च, बहुत ही मेहनत से आलेख तैयार किया है। संग्रहणीय।" आपका भी बहुत बहुत धन्यवाद, और आगे भी यह साथ बनाये रखिएगा।


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!





शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Unknown said…
Sir haminastu/haminasto me kya antar h aur antar ha to in donoka kya matlab h

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सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट