अंक - 5
गुलज़ार के गीतों में विरोधाभास
“एक पल रात भर नहीं गुज़रा...”
गुलज़ार एक ऐसे गीतकार हैं जिन्होंने अपने गीतों में हिन्दी व्याकरण के अलंकारों का बहुतायात में प्रयोग किया है। रूपक और उपमा के के प्रयोगों से उन्होंने हमेशा अपने श्रोताओं को चमत्कृत तो किया ही है, कई बार उन्होंने ’विरोधाभास’ का भी प्रयोग अपने गीतों में किया है। आइए आज ’चित्रशाला’ में गुलज़ार के लिखे उन गीतों की चर्चा करें जिनमें विरोधाभास की झलक मिलती है।
जिस तरह से अलंकार नारी की शोभा और गरिमा को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसी
तरह से हिन्दी काव्य और साहित्य में भी कुछ अलंकार चिन्हित हैं जिनसे भाषा और अभिव्यक्ति की शोभा बढ़ती है। अनुप्रास, उपमा, रूपक, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, अन्योक्ति, अतिशयोक्ति, संदेह, उभय और दृष्टान्त हिन्दी व्याकरण के प्रमुख अलंकार हैं। एक और अलंकार है जिसे कई बार अलंकारों की श्रेणी में शामिल किया जाता है और वह है विरोधाभास अलंकार, यानी कि विरोध का आभास कराने वाला। विरोधाभास जिसे अंग्रेज़ी में contradiction या contradictory कह सकते हैं। तो इस विरोधाभास से भी भाषा को अलंकृत किया जा सकता है। जब किसी काव्य या गद्य में कही गई दो बातें आपस में प्रतिवाद करे या एक दूसरे का विरोध करे, एक दूसरे को contradict करे, उसे विरोधाभास अलंकार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, साहित्य में एक विरोधमूलक अर्थालंकार जिसमें वस्तुतः विरोध का वर्णन न होने पर भी विरोध का आभास होता है, उसे विरोधाभास कहते हैं। उदाहरण के रूप में, "या अनुरागी चित्त की गति समझें नहीं कोइ, ज्यों-ज्यों बूडै स्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होइ।", यहाँ स्याम रंग (काले रंग) में डूबने पर भी उज्ज्वल (सफ़ेद) होने की बात कही गई है, इसलिए इसमें विरोधाभास है।
गीतकार गुलज़ार के अनेक गीतों में विरोधाभास के उदाहरण सुने जा सकते हैं। कुछ विरोधाभास तो ऐसे हैं जिनका उन्होंने एकाधिक बार प्रयोग किया है। इनमें से एक है "ख़ामोशियों की गूंज"। ख़ामोशी यानी चुप्पी, यानी जिसकी कोई आवाज़ नहीं, भला ख़ामोशी कैसे पुकार सकती है, ख़ामोशी कैसे गूंज सकती है, ख़ामोशी कैसे गुनगुना सकती है? इस विरोधाभास का प्रयोग गुलज़ार साहब ने पहली बार सम्भवत: 1969 की फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के ही गीत में किया था। "हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू" गीत के अन्तरे में वो लिखते हैं "प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं, एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है"। ख़ामोशी कह रही है, इसमें विरोधाभास है। इसके बाद 1975 की फ़िल्म ’मौसम’ के गीत "दिल ढूंढ़ता है" के अन्तरे में उन्होंने कहा "वादी में गूंजती हुई ख़ामोशियाँ सुने"। यहाँ गूंजती हुई ख़ामोशियाँ में विरोधाभास है। 1978 की फ़िल्म ’घर’ के गीत "आपकी आँखों में कुछ" में एक जगह वो कहते हैं "आपकी ख़ामोशियाँ भी आपकी आवाज़ है"। ख़ामोशियों की आवाज़ में विरोधाभास है। गुलज़ार के इस विरोधाभास का प्रयोग गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने कई साल बाद 2001 में आई फ़िल्म 'वन टू का फ़ोर’ के गीत "ख़ामोशियाँ गुनगुनाने लगी, तन्हाइयाँ मुसुकुराने लगी" के शुरु में किया था। इसमें तो दो दो विरोधाभास हैं - ख़ामोशियाँ के गुनगुनाने में और तन्हाइयों के मुस्कुराने में। तन्हाई दर्द का प्रतीक है, ये मुस्कुरा कैसे सकती है भला!! तन्हाई से संबंधित एक और विरोधाभास गुलज़ार ने दिया 1980 की फ़िल्म ’सितारा’ के गीत "ये साये हैं ये दुनिया है" में जब वो कहते हैं कि "भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की" और फिर "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की"।
गुलज़ार के गीतों में विरोधाभास का बहुत ही सुन्दर प्रयोग देखने/सुनने को मिलता है। एक और विरोधाभास जिसका उन्होंने एकाधिक बार प्रयोग किया है, वह है पल, समय, वक़्त को लेकर। "जाने क्या सोच कर नहीं गुज़रा, एक पल रात भर नहीं गुज़रा" (’किनारा’, 1977- इसमें विरोधाभास को किस ख़ूबसूरती से दर्शाया गया है ज़रा महसूस कीजिए। एक पल जो एक ही पल में गुज़र जाना चाहिए, उसे गुलज़ार साहब रात भर रोके रखते हैं। 1996 की फ़िल्म ’माचिस’ के मशहूर गीत "छोड़ आए हम वो गलियाँ" में गुलज़ार लिखते हैं "इक छोटा सा लम्हा है जो ख़त्म नहीं होता"। ’किनारा’ और ’माचिस’ के इन दो उदाहरणों में समानता स्पष्ट है। ये तो रही पल या लम्हे के ना गुज़रने का विरोधाभास। इसी संदर्भ में रात के ना गुज़रने को भी कई बार दर्शाया है उन्होंने। "दो नैनों में आँसू भरे हैं, निन्दिया कैसे समाये" गीत में एक पंक्ति है "ज़िन्दगी तो काटी ये रात कट जाए"। फ़िल्म ’आंधी’ के मशहूर गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है" में पंक्ति है "दिन डूबा नहीं रात डूबी नहीं जाने कैसा है सफ़र"; इसी फ़िल्म के अन्य गीत "तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई" में पंक्ति है "तुम जो कहदो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं, चाँद को रोक लो"। इन सभी उदाहरणों में विरोधाभास का एक वलय इन्हें घेर रखा है। फ़िल्मा ’लिबास’ के "सिलि हवा छू गई" में "जितने भी तय करते गए, बढ़ते गए ये फ़ासले" में भी कुछ कुछ इसी तरह का विरोध है; तय करने पर फ़ासला कम होना चाहिए, ना कि बढ़ना चाहिए!
गुलज़ार के गीतों में विरोधाभास की फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि सबका ज़िक्र करने लगे तो पूरी की पूरी किताब बन जाएगी। फ़िल्म ’गृहप्रवेश’ के गीत "पहचान तो थी पहचाना नहीं" में तीन विरोधाभास के उदाहरण मिलते हैं। मुखड़ा ही विरोधाभास से भरा हुआ है -"पहचान तो थी पहचाना नहीं, मैं अपने आप को जाना नहीं"। पहचान होते हुए भी ना पहचानना और अपने आप को ही नहीं जानना विरोध का आभास कराता है। पहले अन्तरे की पहली पंक्ति है "जब धूप बरसती है सर पे"। बरसने का अर्थ आम तौर पर बारिश होता है। धूप जो बारिश के बिलकुल विपरीत है, वह भला कैसे बरस सकती है? बारिश से याद आया फ़िल्म ’उसकी कहानी’ के गीत "मेरी जाँ मुझे जाँ ना कहो मेरी जाँ" में एक पंक्ति है "सूखे सावन बरस गए, इतनी बार आँखों से"। यहाँ एक ही उदाहरण में दो दो विरोधाभास है। पहला यह कि सावन सूखा कैसे हो सकता है? और दूसरा यह कि अगर सावन सूखा है तो बरस कैसे सकता है? वापस आते हैं ’गृह प्रवेश’ के गीत पर। इसके दूसरे अन्तरे में कहा गया - "मैं जागी रही कुछ सपनों में, और जागी हुई भी सोई रही"। विरोधाभास से कैसा सुन्दर बन पड़ा है यह अभिव्यक्ति!
1959 की फ़िल्म ’कागज़ के फूल’ में कैफ़ी आज़मी ने लिखा था "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम"। "हसीं सितम" के इस विरोधाभास का गुलज़ार ने भी प्रयोग किया था फ़िल्म ’किनारा’ के ही एक अन्य गीत में। "नाम गुम जाएगा, चेहरा यह बदल जाएगा" में वो कहते हैं कि "वक़्त के सितम कम हसीं नहीं"। सितम के बाद आते हैं बेवफ़ाई पर। 1980 में जब इसमाइल श्रॉफ़ की फ़िल्म ’थोड़ी सी बेवफ़ाई’ में गीत लिखने का मौक़ा गुलज़ार को मिला, तो उन्होंने इस फ़िल्म के शीर्षक गीत के रूप में एक ऐसे गीत की रचना कर डाली जो फ़िल्म की पूरी कहानी का निचोड़ बन कर रह गया। और बोल भी ऐसे चुने कि सुनने वाला वाह किए बिना न रह सके! "हज़ार राहें मुड़ के देखीं कहीं से कोई सदा न आई, बड़ी वफ़ा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई"। बरसों पहले राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था "हमसे आया ना गया, तुमसे बुलाया ना गया, फ़ासला प्यार में दोनों से मिटाया ना गया"। कुछ कुछ इसी तरह का भाव था ’थोड़ी से बेवफ़ाई’ के गीत में भी, पर बोल और भी ज़्यादा असरदार। "वफ़ा" और "बेवफ़ा" एक दूसरे के विपरीत शब्द हैं। तो फिर बड़ी वफ़ा से बेवफ़ाई को निभाना आख़िर विरोधाभास नहीं तो और क्या है!
गुलज़ार के गीतों में पैरों के नीचे कभी ज़मीन बहने लगती है तो कभी सर से आसमान उड़ जाता है। चाहे कितना भी विरोधाभास क्यों न हो, कितनी ही असंगति क्यों न हो, हर बार गुलज़ार अपने श्रोताओं को चमत्कृत कर देते हैं ऐसे ऐसे विरोधाभास देकर कि जिसकी कल्पना इससे पहले किसी ने नहीं की होगी। ’नमकीन’ फ़िल्म के गीत "राह पे रहते हैं, यादों पे बसर करते हैं" में वो लिखते हैं "उड़ते पैरों के तले जब बहती है ज़मीं"। इससे उनका इशारा है कि एक ट्रक ड्राइवर जो अपनी ट्रक दौड़ाए जा रहा है, पाँव उसका ज़मीन पर नहीं है (ट्रक पर है), मतलब वो ज़मीन से उपर है या उड़ रहा है, और चलते हुए ट्रक से नीचे देखा जाए तो प्रतीत होता है कि ज़मीं पीछे सरक रही है। भावार्थ में चाहे विरोधाभास ना हो पर शाब्दिक अर्थ को देखा जाए तो इस पंक्ति में विरोध का आभास ज़रूर है। ’बण्टी और बबली’ का गीत "चुप चुपे के" तो विरोधाभास और रूपक से भरा हुआ है। "देखना मेरे सर से आसमाँ उड़ गया है", "देखना आसमाँ के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से", "देखना क्या हुआ है, ये ज़मीं बह रही है", "पाँव रुकने लगे, राह चलने लगी", "देखना आसमाँ ही बरसने लगे ना ज़मीं पे" - इन सभी में कहीं न कहीं विरोधाभास है।
गुलज़ार के विरोधाभास से सजे कुछ और गीत गिनवाए जाएँ। "तुम पुकार लो, तुम्हारा इन्तज़ार है" में पंक्ति है "रात ये क़रार की बेक़रार है"; ’माचिस’ के गीत "भेजे कहार" में "ठंडी नमी जलती रही"; "दो दीवाने शहर में" के गीत में "जब तारे ज़मीं पर चलते हैं, आकाश ज़मीं हो जाता है"; ’रुदाली’ के गीत "समय ओ धीरे चलो" में साँस जो जीवन का आधार है उसे ही ज़हर करार देते हुए गुलज़ार लिखते हैं "ज़हर ये साँस का पीया ना पीया"। इसी तरह से "यारा सीली सीली" में पंक्ति है "पैरों में ना साया कोई सर पे ना साईं रे, मेरे साथ जाए ना मेरी परछाईं रे"। परछाई का साथ में न जाना एक विरोधाभास है। इस तरह से ध्यानपूर्वक गुलज़ार के गीतों को सुनने पर और भी बहुत से विरोधाभास के उदाहरण मिल जाएँगे इसमें कोई संदेह नहीं है। जिस ख़ूबसूरती से गुलज़ार ने विरोधाभास से अपने गीतों को सजाया है, शायद ही किसी अन्य गीतकार ने ऐसा किया हो। और यही वजह है कि गुलज़ार के गीतों से सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं होता, भाषा और साहित्य का अध्ययन भी होता है।
गीतकार गुलज़ार के अनेक गीतों में विरोधाभास के उदाहरण सुने जा सकते हैं। कुछ विरोधाभास तो ऐसे हैं जिनका उन्होंने एकाधिक बार प्रयोग किया है। इनमें से एक है "ख़ामोशियों की गूंज"। ख़ामोशी यानी चुप्पी, यानी जिसकी कोई आवाज़ नहीं, भला ख़ामोशी कैसे पुकार सकती है, ख़ामोशी कैसे गूंज सकती है, ख़ामोशी कैसे गुनगुना सकती है? इस विरोधाभास का प्रयोग गुलज़ार साहब ने पहली बार सम्भवत: 1969 की फ़िल्म ’ख़ामोशी’ के ही गीत में किया था। "हमने देखी है उन आँखों की महकती ख़ुशबू" गीत के अन्तरे में वो लिखते हैं "प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं, एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है"। ख़ामोशी कह रही है, इसमें विरोधाभास है। इसके बाद 1975 की फ़िल्म ’मौसम’ के गीत "दिल ढूंढ़ता है" के अन्तरे में उन्होंने कहा "वादी में गूंजती हुई ख़ामोशियाँ सुने"। यहाँ गूंजती हुई ख़ामोशियाँ में विरोधाभास है। 1978 की फ़िल्म ’घर’ के गीत "आपकी आँखों में कुछ" में एक जगह वो कहते हैं "आपकी ख़ामोशियाँ भी आपकी आवाज़ है"। ख़ामोशियों की आवाज़ में विरोधाभास है। गुलज़ार के इस विरोधाभास का प्रयोग गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने कई साल बाद 2001 में आई फ़िल्म 'वन टू का फ़ोर’ के गीत "ख़ामोशियाँ गुनगुनाने लगी, तन्हाइयाँ मुसुकुराने लगी" के शुरु में किया था। इसमें तो दो दो विरोधाभास हैं - ख़ामोशियाँ के गुनगुनाने में और तन्हाइयों के मुस्कुराने में। तन्हाई दर्द का प्रतीक है, ये मुस्कुरा कैसे सकती है भला!! तन्हाई से संबंधित एक और विरोधाभास गुलज़ार ने दिया 1980 की फ़िल्म ’सितारा’ के गीत "ये साये हैं ये दुनिया है" में जब वो कहते हैं कि "भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की" और फिर "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की"।
गुलज़ार के गीतों में विरोधाभास का बहुत ही सुन्दर प्रयोग देखने/सुनने को मिलता है। एक और विरोधाभास जिसका उन्होंने एकाधिक बार प्रयोग किया है, वह है पल, समय, वक़्त को लेकर। "जाने क्या सोच कर नहीं गुज़रा, एक पल रात भर नहीं गुज़रा" (’किनारा’, 1977- इसमें विरोधाभास को किस ख़ूबसूरती से दर्शाया गया है ज़रा महसूस कीजिए। एक पल जो एक ही पल में गुज़र जाना चाहिए, उसे गुलज़ार साहब रात भर रोके रखते हैं। 1996 की फ़िल्म ’माचिस’ के मशहूर गीत "छोड़ आए हम वो गलियाँ" में गुलज़ार लिखते हैं "इक छोटा सा लम्हा है जो ख़त्म नहीं होता"। ’किनारा’ और ’माचिस’ के इन दो उदाहरणों में समानता स्पष्ट है। ये तो रही पल या लम्हे के ना गुज़रने का विरोधाभास। इसी संदर्भ में रात के ना गुज़रने को भी कई बार दर्शाया है उन्होंने। "दो नैनों में आँसू भरे हैं, निन्दिया कैसे समाये" गीत में एक पंक्ति है "ज़िन्दगी तो काटी ये रात कट जाए"। फ़िल्म ’आंधी’ के मशहूर गीत "तुम आ गए हो नूर आ गया है" में पंक्ति है "दिन डूबा नहीं रात डूबी नहीं जाने कैसा है सफ़र"; इसी फ़िल्म के अन्य गीत "तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई" में पंक्ति है "तुम जो कहदो तो आज की रात चाँद डूबेगा नहीं, चाँद को रोक लो"। इन सभी उदाहरणों में विरोधाभास का एक वलय इन्हें घेर रखा है। फ़िल्मा ’लिबास’ के "सिलि हवा छू गई" में "जितने भी तय करते गए, बढ़ते गए ये फ़ासले" में भी कुछ कुछ इसी तरह का विरोध है; तय करने पर फ़ासला कम होना चाहिए, ना कि बढ़ना चाहिए!
गुलज़ार के गीतों में विरोधाभास की फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि सबका ज़िक्र करने लगे तो पूरी की पूरी किताब बन जाएगी। फ़िल्म ’गृहप्रवेश’ के गीत "पहचान तो थी पहचाना नहीं" में तीन विरोधाभास के उदाहरण मिलते हैं। मुखड़ा ही विरोधाभास से भरा हुआ है -"पहचान तो थी पहचाना नहीं, मैं अपने आप को जाना नहीं"। पहचान होते हुए भी ना पहचानना और अपने आप को ही नहीं जानना विरोध का आभास कराता है। पहले अन्तरे की पहली पंक्ति है "जब धूप बरसती है सर पे"। बरसने का अर्थ आम तौर पर बारिश होता है। धूप जो बारिश के बिलकुल विपरीत है, वह भला कैसे बरस सकती है? बारिश से याद आया फ़िल्म ’उसकी कहानी’ के गीत "मेरी जाँ मुझे जाँ ना कहो मेरी जाँ" में एक पंक्ति है "सूखे सावन बरस गए, इतनी बार आँखों से"। यहाँ एक ही उदाहरण में दो दो विरोधाभास है। पहला यह कि सावन सूखा कैसे हो सकता है? और दूसरा यह कि अगर सावन सूखा है तो बरस कैसे सकता है? वापस आते हैं ’गृह प्रवेश’ के गीत पर। इसके दूसरे अन्तरे में कहा गया - "मैं जागी रही कुछ सपनों में, और जागी हुई भी सोई रही"। विरोधाभास से कैसा सुन्दर बन पड़ा है यह अभिव्यक्ति!
1959 की फ़िल्म ’कागज़ के फूल’ में कैफ़ी आज़मी ने लिखा था "वक़्त ने किया क्या हसीं सितम"। "हसीं सितम" के इस विरोधाभास का गुलज़ार ने भी प्रयोग किया था फ़िल्म ’किनारा’ के ही एक अन्य गीत में। "नाम गुम जाएगा, चेहरा यह बदल जाएगा" में वो कहते हैं कि "वक़्त के सितम कम हसीं नहीं"। सितम के बाद आते हैं बेवफ़ाई पर। 1980 में जब इसमाइल श्रॉफ़ की फ़िल्म ’थोड़ी सी बेवफ़ाई’ में गीत लिखने का मौक़ा गुलज़ार को मिला, तो उन्होंने इस फ़िल्म के शीर्षक गीत के रूप में एक ऐसे गीत की रचना कर डाली जो फ़िल्म की पूरी कहानी का निचोड़ बन कर रह गया। और बोल भी ऐसे चुने कि सुनने वाला वाह किए बिना न रह सके! "हज़ार राहें मुड़ के देखीं कहीं से कोई सदा न आई, बड़ी वफ़ा से निभाई तुमने हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई"। बरसों पहले राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था "हमसे आया ना गया, तुमसे बुलाया ना गया, फ़ासला प्यार में दोनों से मिटाया ना गया"। कुछ कुछ इसी तरह का भाव था ’थोड़ी से बेवफ़ाई’ के गीत में भी, पर बोल और भी ज़्यादा असरदार। "वफ़ा" और "बेवफ़ा" एक दूसरे के विपरीत शब्द हैं। तो फिर बड़ी वफ़ा से बेवफ़ाई को निभाना आख़िर विरोधाभास नहीं तो और क्या है!
गुलज़ार के गीतों में पैरों के नीचे कभी ज़मीन बहने लगती है तो कभी सर से आसमान उड़ जाता है। चाहे कितना भी विरोधाभास क्यों न हो, कितनी ही असंगति क्यों न हो, हर बार गुलज़ार अपने श्रोताओं को चमत्कृत कर देते हैं ऐसे ऐसे विरोधाभास देकर कि जिसकी कल्पना इससे पहले किसी ने नहीं की होगी। ’नमकीन’ फ़िल्म के गीत "राह पे रहते हैं, यादों पे बसर करते हैं" में वो लिखते हैं "उड़ते पैरों के तले जब बहती है ज़मीं"। इससे उनका इशारा है कि एक ट्रक ड्राइवर जो अपनी ट्रक दौड़ाए जा रहा है, पाँव उसका ज़मीन पर नहीं है (ट्रक पर है), मतलब वो ज़मीन से उपर है या उड़ रहा है, और चलते हुए ट्रक से नीचे देखा जाए तो प्रतीत होता है कि ज़मीं पीछे सरक रही है। भावार्थ में चाहे विरोधाभास ना हो पर शाब्दिक अर्थ को देखा जाए तो इस पंक्ति में विरोध का आभास ज़रूर है। ’बण्टी और बबली’ का गीत "चुप चुपे के" तो विरोधाभास और रूपक से भरा हुआ है। "देखना मेरे सर से आसमाँ उड़ गया है", "देखना आसमाँ के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से", "देखना क्या हुआ है, ये ज़मीं बह रही है", "पाँव रुकने लगे, राह चलने लगी", "देखना आसमाँ ही बरसने लगे ना ज़मीं पे" - इन सभी में कहीं न कहीं विरोधाभास है।
गुलज़ार के विरोधाभास से सजे कुछ और गीत गिनवाए जाएँ। "तुम पुकार लो, तुम्हारा इन्तज़ार है" में पंक्ति है "रात ये क़रार की बेक़रार है"; ’माचिस’ के गीत "भेजे कहार" में "ठंडी नमी जलती रही"; "दो दीवाने शहर में" के गीत में "जब तारे ज़मीं पर चलते हैं, आकाश ज़मीं हो जाता है"; ’रुदाली’ के गीत "समय ओ धीरे चलो" में साँस जो जीवन का आधार है उसे ही ज़हर करार देते हुए गुलज़ार लिखते हैं "ज़हर ये साँस का पीया ना पीया"। इसी तरह से "यारा सीली सीली" में पंक्ति है "पैरों में ना साया कोई सर पे ना साईं रे, मेरे साथ जाए ना मेरी परछाईं रे"। परछाई का साथ में न जाना एक विरोधाभास है। इस तरह से ध्यानपूर्वक गुलज़ार के गीतों को सुनने पर और भी बहुत से विरोधाभास के उदाहरण मिल जाएँगे इसमें कोई संदेह नहीं है। जिस ख़ूबसूरती से गुलज़ार ने विरोधाभास से अपने गीतों को सजाया है, शायद ही किसी अन्य गीतकार ने ऐसा किया हो। और यही वजह है कि गुलज़ार के गीतों से सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं होता, भाषा और साहित्य का अध्ययन भी होता है।
आपकी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध, आलेख, प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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